शनिवार, 29 नवंबर 2014

अवधी लोकगीतों में स्त्री -प्रतिरोध के पद-चिन्ह



अभिजात्य वर्ग को छोड़कर शेष आम जनता “लोक” कहलाती है |सर्वहारा लोक का वह हिस्सा है जिसके जीवन का आधार श्रम होता है | पूंजीवादी विचारकों द्वारा अक्सर लोक-धर्मी साहित्य के विरुद्ध “लोक साहित्य” की नकारात्मक आदतों व लोक के नाम से कुप्रचारित अभिजात्य साहित्य को ही एक मात्र लोकधर्मी साहित्य कहकर आक्षेप लगाए जाते रहें हैं | जबकि लोक साहित्य   व लोकधर्मी साहित्य में अंतर होता है |लोकसाहित्य का वह हिस्सा जो प्रगतिशील था अभिजात्य ने कभी स्वीकार नहीं किया है और अधिकांश वर्गचेतन लोकसाहित्य नष्ट कर दिया गया है | और अपने द्वारा लिखित क्रांतिविरोधी ,जनविरोधी अंध विश्वासपूर्ण साहित्य का  कुप्रचार करके लोक के साथ जोड़ दिया |यदि लोक साहित्य का अवलोकन किया जाय तो अभिजात्य की इस साजिस का पर्दाफास स्वत: हो जाता है |स्त्री , दलित, मजदूर, किसान, इन सबके द्वारा विभिन्न समयों में गाये जाने वाले गीत आज भी परम्परा से हमारे गावों में जीवित है इन गीतों को हम मूल का परिस्कृत और परिवर्तित रूप देख सकते हैं |समय समय पर विभिन्न साहित्यकारों द्वारा भी लोक की इस जनपक्षीय परम्परा का मूल्यांकन किया गया है |हमने अपने साथी और युवा आलोचक अजीत प्रियदर्शी से अवधी लोकगीतों में नारी चित्रण पर एक आलेख तैयार करने को कहा,वो इस समय लोकधर्मी परंपरा पर गंभीर कार्य कर रहे हैं|  उन्होंने हमारा आग्रह स्वीकार किया और  अपनी आलोचकीय प्रतिभा का पूर्ण परिचय देते हुए  अवधी लोक गीतों में नारी चिंतन पर पर बड़ा ही तथ्य-परक, आलेख  तैयार किया |जिसे हम आज लोकविमर्श में प्रकाशित कर रहें हैं आइये आप भी पढ़िए ----   



  अवधी लोकगीतों में स्त्री-प्रतिरोध के पद-चिह्न
                                                                             डा.  अजीत प्रियदर्शी

        हज़ारों वर्षों तक एक समाज के लोग जिस तरह के खान-पान रहन-सहन आचार-विचार विश्वास मान्यताएँ परम्पराएँ और धर्म-कर्म सम्पादित करते हैं उन सभी से उनकी संस्कृति बनती है। संस्कृति हमारे समूचे जीवन को व्यापे हुए है। हमारी लोक परम्पराएँ मान्यताएँ, विचार विश्वास धर्म-दर्शन आचार-व्यवहार पर्व व्रत और लोक साहित्य आदि में संस्कृति के रंग-रेशे मौजूद होते हैं।
        अवधी लोकगीतों में अवध क्षेत्र के लोक विश्वासों परम्पराओं प्रथाओं रीति-रिवाजों सामाजिक विधि-निषेध खान-पान रहन-सहन आदि का स्वाभाविक अंकन हुआ है। अवधीभाषी समाज की सांस्कृतिक चेतना का अविरल प्रवाह अवधी लोकगीतों के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को जाता रहा है। अवधी लोकगीतों में रामकथा की प्रधानता है और यहाँ वर को राम बहू को सीता के रूप में प्रायः चित्रित किया गया है। अवधी लोकगीतों में अवध क्षेत्र की जनता की सामाजिक धार्मिक आर्थिक सांस्कृतिक स्थितियों की झलक मिलती है। पौराणिक आख्यानों के साथ-साथ कुछ ऐतिहासिक घटनाओं के नायकों-खलनायकों के संदर्भ-संकेत भी अवधी लोकगीतों में देखने को मिलते हैं।
        अवध क्षेत्र में पुत्र-जन्म के अवसर पर गाये जाने वाले गीतों को सोहर कहते हैं। पुत्र जन्मोत्सव के मंगल अवसर पर स्त्रियाँ सोहर गीत गाते समय गर्भ से लेकर बच्चे के जन्म तक की सभी स्थितियों का चित्रण करती हैं। बन्ध्या एवं पुत्रहीन स्त्रियों की मनोव्यथा का चित्रण सोहर गीतों में मिलता है-
(क)    सासु मोरि कहै बझिनियाँ ननद ब्रजवासिनी
        जेकर बारी बियहिया वै घरा से निकारै।1
(ख)   सास ससुर निसदिन बोलिया बोलय ननद ताना मारइ हो।
        रामा कौने करमवाँ से चूकेन बलकवा न पायेव हो।2

        समाज में प्रचलित दारुण दहेज-प्रथा के कारण पुत्री के जन्म पर अप्रसन्नता और पुत्र के जन्म पर हर्ष-उल्लास का चित्र अवधी लोकगीतों में भी देखने को मिलता है। यथा- एक सोहर में पुत्र को जन्म देने वाली माता प्रसन्नता और गर्व के साथ कहती है: अब मैंने धिय नहिं जनमी जनमे हैं हीरा लाल। अवधी समाज में पुत्र-जन्म के छठे दिन उल्लास-उमंग के साथ छट्ठी उत्सव और बारहवें दिन बरही उत्सव मनाया जाता है। एक लोकप्रिय अवधी सोहर गीत में राम के छट्ठी-उत्सव में अपने हरिने को खो देने वाली हरिनी का शोक-संताप यों दर्ज है-
        छापक पेड़ छिउलिया तौ पतवन गहबर।
        अरे रामा तिहि तर ठाढ़ी हरिनियाँ त मन अति अनमनि हो।।
        चरतइ चरत हरिनवाँ तौ हरिनी से पूँछइ हो।
        हरिनी को तोर चरहा झुरान कि पानी बिन मुरझिउँ हो।।2।।
        नाहीं मोर चरहा झुरान न पानी बिन मुरझिउ होे।
        हरिना आजु राजाजी के छट्ठी तुम्हहिं मारि डरिहईं हो।।3।।
        मचियै बैठी कोसिल्ला रानी हरिनी अरज करइ हो।
        रानी मसुवा तौ सिझहीं रसोइयाँ खलरिया हमैं देतिउ।।4।।
        पेड़वा से टँगबइ खलरिया त मन समुझाउब हो।
        रानी हेरि फेरि देखबइ खलरिया जनुक हरिना जीतइ हो।।5।।
        जाहु हरिनी घर अपने खलरिया नाहीं देबइ हो।
        हरिनी! खलरी क खँजड़ी मिढ़उबइ राम मोर खेलिहईं हो।।6।।
        जब जब बाजइ खँजड़िया सबद सुनि अनकइ हो।
        हरिनी ठाढ़ि ढकुलिया के नीचे हरिन क बिसुरइ हो।।7।।3

        भारतीय समाज में विवाह अत्यन्त महत्वपूर्ण संस्कार होता है। अवध क्षेत्र में प्रचलित विवाह गीतों में सयानी होती पुत्री के लिए सुयोग्य वर खोजने तथा उसके विवाह में पिता को जितनी कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं, उनका संदर्भ-संकेत होता है। एक गीत में पिता के वचन हैं- उत्तर हेरयों दक्खिन ढूँढ़यो ढूँढ़यों मैं कोसवा पचास से।/बेटी के बर नहिं पायों मालिनी मरि गयों भुखिया पियास।।’’4 एक अवधी गीत में बेटी के विवाह में दहेज लोभी परिवार की नित नयी माँगों से आजिज होकर बेटी की माँ विक्षुब्ध होकर कहती है कि शत्रु को भी कन्या न हो- होइगा वियाह परा सिर सेंदुर नौ लाख दाइज थोर/भितराँ कइ माँगु बाहर दइ मारीं सतरू के धिया जिनि होइ।’’5
        अवधी लोकजीवन में प्रचलित बेमेल विवाह (बालिका व वृद्ध का विवाह, बालक व युवती का विवाह आदि) बाल-विवाह, बहु-विवाह प्रथा का मार्मिक अंकन अवधी लोकगीतों में देखने को मिलता है। यथा- इस विवाह गीत में वृद्ध-विवाह का मज़ाक उड़ाया गया है-
        बरहै बरिसवा कै मोरि  रँगरैली असिया बरसि क दमाद।
        निकरि न आवै तू मोरि रँगरैली अजगर ठाढ़ दुवार।।1।।
        बाहर किचकिच आँगन किचकिच बुढ़ऊ गिरै मुँह बाय।
        सात सखी मिलि बुढ़ऊ उठावैं बुढ़ऊ क सरग दिखाय।।2।।6
        अवध क्षेत्र में प्रचलित एक विवाह गीत में युवती अपने बाबा को कोसती है- नाहक गौन दिहे मोर बाबा बालक कंत हमार रे।/चीलर अस दुइ देवर हमरे बलमा मुसे अनुहार रे।।’’7 अवध क्षेत्र के विदाई व गौना के गीतों में पारस्परिक प्रेम और विछोह का मर्मस्पर्शी दृश्य उपस्थित होता है। विवाह के उत्साह-उल्लास भरे वातावरण में विदाई के वक्त घर-परिवार को छोड़कर जाती नवविवाहिता के वियोग-विछोह से अश्रुपूरित वातावरण बरबस ही सभी को अत्यन्त भावुक बना देता है। विदा होती बिटिया का यह अश्रुपूरित कंठस्वर किसको भावुक नहीं बना देता-
        अरे सुन बाबुल मोरे काहे क दीन्हयो बिदेस।
                ग्           ग्           ग्
        भइया क दीन्हौ बाबुल ऊँची अटरिया हमका दिह्यो विदेस।।
                                                                सुन बाबुल मोरे...
        बगिया के तरे मोरी पहुँची है डोलि कोयल सबद सुनाय
        अरे अबका बोलौ कारी कोयरिया छूटा बाबुल तोरा देस।।
                                                                सुन बाबुल मोरे...
        अरे मइया के रोवत छतिया फटत है बाबुल खड़े पछिताय।
        भइया के दौर पकरी है डोलिया हमरी बहिनी कहाँ जाय।।
                                                                सुन बाबुल मोरे...
        छोड़ो रे भइया मोरे हमरी पलकिया हम तौ चले परदेस।
        बाबुल मैं तो मोरे आँगन की चिरैया चार दिनां ह्या चार दिन उहाँ।
        अरे सुन बाबुल मोहे काहे क दीहयों विदेस।8
  अवधी समाज में विवाह के बाद विदा होती युवती को उसकी माता, भाभी आदि सहनशीलता धैर्य स्त्री-धर्म तथा पति व सास-ससुर आदि की सेवा के सुन्दर उपदेश दिया करती हैं। एक अवधी गीत में माँ कहती है- सिखि लेउ बेटी गुन अवगुनवाँ सिखि लेउ राम रसोइँ।/सासु ननद तोरी मैया गरियावैं लै लिहौं अँचरा पसारि।।’’9 अवधीभाषी समाज में प्रचलित एक विवाह गीत में स्त्री-कंठ में रची-बसी पीड़ा की अभिव्यक्ति इस प्रकार होती है-
        एक रे सेनुरवा के कारन बाबा, छोड़ेऊँ मैं देस तोहार।
                        ग्           ग्           ग्
        अम्मा कहे बेटी निति उठि आवऽ, बाबा कहे छठि मास।
        भइया कहे बहिनि काज परोजन भउजी कहै कस बात।।10
  फगुवा, चैता, कजरी जैसे ऋतु-गीतों में अवधी संस्कृति के मेल-जोल, राग-रंग, उछाड़ और प्रेम की मस्ती की बहुरंगी झाँकी देखने को मिलती है। फाल्गुन मास में गाए जाने वाले होली गीतों या फाग में आत्मीयता और अपनापा से भरे मेल-मिलाप के रस-रंग, मस्ती और उल्लास से सराबोर सरस वर्णन एवं मनमोहक चित्र उपस्थित होते हैं। यथा-
        रसिया को नारी बनाऊँगी रसिया को।
        माँग में बेंदी माथन टिकुली सेनुरा भल पहिनाऊँगी।।रसिया॰।।
        कान में बाली गले में हरवा लाकिट मैं पहिनाऊँगी।।रसिया॰।।
        कंगन चुनरी अंग में चोलिया, लहँगा भल पहिनाऊँगी।।रसिया॰।।11
  अवध क्षेत्र में सावन के मनभावन महीने में गाये जाने वाले कजली व हिंडोले के गीतों में प्रेम वियोग-संयोग आदि के मार्मिक वर्णन मिलते हैं। सावन की रिमझिम ओर मनभावन मौसम में पति परदेस जाने की बात कहता है तो पत्नी बड़े मनोविनोद और हाज़िरजवाबी के साथ मना करना चाहती है। पति-पत्नी का सरस परिहास कजरी-गीत में कुछ यों अभिव्यक्त होता है-
        रुनझुन खोलिदा केवड़िया हम विदेसवाँ जाबै ना।
        जऊँ तुहुँ पिया विदेसवाँ जाबा ना,
        हमरे बाबा के बोलाइदा हम नइहरवा जाबै ना।
        जऊँ तुहुँ धन नइहरवाँ जाबू ना,
        जेता लागल बा रूपइया उता देके जाया ना।
        जउँ तू पिया रुपइया मगब ना।,
        जइसन बाबा के घर रहलीं ओइसन कइके जइहा ना।
        बाबा घरवाँ रहलू धन बारी रे कुँवारी,
        ओइसन नाही होइबू ना, बाटे गोदिया में होरिलवा।।टेक।।12
  अवध क्षेत्र में प्रचलित एक हिंडोले के गीत में कोई कन्या कहती है- बाबा, निमिया क पेड़ जिनि काटेउनिमिया चिरइया बसेर बलैया लेऊँ बीरन।।/...बाबा, बिटियई जिनि कोई दुःख देईबिटिया चिरइया की नाईं बलैया लेऊँ बीरन।।’’13
  अवध क्षेत्र के श्रमगीतों (जाँत के गीत, रोपनी के गीत, निरवाही के गीत आदि) में स्त्री के विविध कष्टों व एकनिष्ठ प्रेम की झांकी मिलती है। अवध क्षेत्र में प्रचलित रहे जाँत के गीत की इन पंक्तियों में पति-परित्यक्ता गर्भवती सीता के दुःख की मार्मिक अभिव्यक्ति मिलती है- सोनवाँ की नइयाँ राम तायनि लाइ भँजि काढ़ेनि हो राम।/गुरु अस कै रामा मोहिं डाहेनि सपने ना चित्त मिलै हो राम।।’’14 धान रोपते समय अवध की श्रमिक महिलाएँ अपनी गरीबी और कष्टमय जीवन का वर्णन इस प्रकार करती हैं-
        जहिया से आयों पिया तोहरी महलिया,
        रतिया दिनवा करौ टहलिया रे पियवा।
        देहिया झुरानी मोरी करति टहलिया,
        सपना में सुख कै सपनवाँ रे पियवा।
        बखरी कै हरा तुहै जोत्या राति दिनवा,
        तबहूं न भरपेट भोजनिया हे पियवा।
        चिपरी पाथत मोरी अंगुरी खियानी,
        तबहूँ न तन पै कपड़वा रे पियवा।15
  अवध क्षेत्र की एक नवविवाहिता से जब उसका भाई मिलने आता है, तो वह स्त्री उसे अपनी दुःखमय गृहस्थी का वर्णन निरवाही के गीत में इस प्रकार करती है-
        कै मन कूटौ भैया कै मन पीसौ रे ना।
                ग्           ग्           ग्
        भैया कै मन सिझवऊँ रसोइया रे ना।।
        सबका खिआवौं भैया सबका पिआवौं रे ना।
        भैया बचि जाथै पिछली टिकरिया रे ना।।
        सासू खाँची भरि बसना मँजावै रे ना।
                ग्           ग्           ग्
        सासू पनियाँ पताल से भरावै रे ना।।
        कपड़ा तौ देखौ भइया मोर पहिरनवाँ रे ना।
        भइया जैसे सवनवाँ कै बदरी रे ना।।
  अपनी दुःखमय गृहस्थी का अपने भाई से मार्मिक बयान करने के बाद वह उसे किसी से न कहने की हिदायत भी देती है- सब दुख बाँधउ भैया अपनी मोटरिया रे ना।/भैया जहवाँ खोलेउ तहवाँ रोयेउ रे ना।।’’16
  अवध क्षेत्र में पुराने समय से प्रचलित रहे कुछ लोकगीतों में मुग़लों का वर्णन मिलता है। उदाहरण के लिए एक लोकगीत की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
        ठाढ़े एक ओर मुगुल पचास त यहि रन बन में।
        दुलहा एक ओर ठाढ़े अकेल त यहि रन बन में।।
        रामा जूझे हैं मुगुल पचास त यहि रन बन में।
        राजा जीति के ठाढ़ अकेल त यहि रन बन में।।17
  अवधीभाषी क्षेत्र में प्रचलित रहे कुसुमा देवी और चन्दा देवी की लोकप्रिय लोककथाओं में मुगलों के अत्याचारों का संदर्भ मिलता है। कुसुमा और चन्दा- दोनों ने कामुक मुगलों के कैद में पड़कर अपने सतीत्व की रक्षा जान देकर किया। अवध क्षेत्र में कहारों के लोकगीत कहरवा और अहीरों के लोकगीत बिरहा में प्रेम और श्रृंगार के चित्रों के अलावा समय के पद-चिह्न व ऐतिहासिक संदर्भ भी मिलते हैं। अंग्रेजों ने भारत में अपने लाभ के लिए रेलगाड़ी चलाई। अवध क्षेत्र में प्रचलित रहे एक कहरवा-गीत में एक स्त्री रेल को सौत बताती हुई कहती है-
        रेलिया न बैरी जहजिया न बैरी उहै पइसवइ बैरी हो।
        देसवा देसवा भरमावइ उहै पइसवइ बैरी हो।।
                ग्           ग्           ग्
        सेर भर गोहूँवा बरिस दिन खइबै पिय के जाइ न देबै हो।
        रखबे अँखिया हजुरवाँ पिय के जाइ न देबै हो।।18
  अवध क्षेत्र में कभी लोकप्रिय रहे एक बिरहा गीत की इन पंक्तियों में रेल की मार्मिक आलोचना यों मिलती है-
        जब से छुटि रेल कै गाड़ी कटिगा जंगल पहाड़।
        पैसा रहा सो गोड़ेक सौंपेऊँ पेटवा पीठि कै हाड़।।19
  1857 की क्रान्ति के अनेक संदर्भ अवधी लोकगीतों व लोकगाथाओं में मिलते हैं। 1857 के बलवे में शंकरपुर (जिला रायबरेली) के राजा बेनीमाधव, चलहारी (जिला बाराबंकी) के युवा राजा बलभद्र सिंह रैकवार, गोंडा के राजा देवीबख्श सिंह आदि अवध के नायकों की प्रशंसा में अनेक लोकगीत व लोकगाथाएँ अवध क्षेत्र में प्रचलित रहे हैं। एक अवधी लोकगीत में 1857 के बलवे में लखनऊ में फिरंगियों द्वारा कब्ज़ा व लूट का जिक्र यों मिलता है- गलियन गलियन रैयत रोवै, हाट बनिया बजाज रे।/महल में बैठी बेग़म रोवे, डेहरी पर रोवे खवास रे।।’’20 किसी समय प्रचलित रहे अवध क्षेत्र के कई लोकगीतों में चरखे का वर्णन मिलता है। एक लोकगीत में परदेसी पति की स्त्री इस तरह अपना दिन काटने के बारे में सोचती है- ‘‘धरि गइलें चनन चरखवा सिरिजि गज ओबरि हो राम।/दिन भरि कतबइ चरखवा ओहरियाँ ओठँघाइ देबइ हो राम।।’’21 जब महात्मा गाँधी ने चरखा, खादी और ग्रामोद्योग के कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया तब गाँव-गाँव में चरखा-गीत गाये जाने लगे। अवध क्षेत्र की महिलाओं में यह गीत लोकप्रिय हुआ:
        मोरे चरखा का टूटे न तार।/चरखवा चालू रहे।
        गांधी महात्मा दूल्हा बने हैं।/दुल्हन बनी सरकार। चरखवा...।
        सब रे वलंटियर बने बाराती।/ नउधा बना थानेदार। चरखवा...।
        सब पटवारी गारी गावैं।/पूड़ी बेलैं तहसिलदार। चरखवा...।
        गांधी महात्मा नेग माँगेेे।/दहेज में माँगे सुराज। चरखवा...।
        गवरमेंट ठाढ़ी बिनती करै।/जीजा गवने में देबो सुराज। चरखवा...।22
  इस तरह हम देखते हैं कि अधिकांशतः स्त्री कंठ में रचे बसे अवधी लोकगीतों में स्त्री-प्रतिरोध के पद-चिह्नों के साथ-साथ अवध की संस्कृति तथा इतिहास के रंग-रेशे व संदर्भ मौजूद हैं, जिनके माध्यम से हमें अवध की संस्कृति व इतिहास की सजीव झाँकी प्रस्तुत करने में सहायता मिल सकती है।
संदर्भ:
1.      श्री रामनरेश त्रिपाठी, कविता-कौमुदी (तीसरा भाग - ग्रामगीत) संस्करण 1990, पृष्ठ-136
2.      मीमांसा जून 2011, संपादकः डाॅ॰ मनीराम वर्मा पृष्ठ-8
3.      श्री रामनरेश त्रिपाठी वही पृष्ठ-163
4.      सम्मेलन पत्रिका भाग 39: संख्या 2-3 लोक-संस्कृति विशेषांक, संपादक: श्री रामनाथ सुमन,पृष्ठ-278
5.      श्री रामनरेश त्रिपाठी वही पृष्ठ-273
6.      वही पृष्ठ-326
7.      वही पृष्ठ-325
8.      मीमांसा वही पृष्ठ- 21
9.      श्री रामनरेश त्रिपाठी वही पृष्ठ-299
10.     वही पृष्ठ-296
11.     डाॅ॰ कमला सिंह अवधी-लोकरंग संस्करण 2000, पृष्ठ-77
12.     वही पृष्ठ-70
13.     श्री रामनरेश त्रिपाठी वही पृष्ठ-455
14.     वही पृष्ठ-341
15.     विश्वमित्र उपाध्याय लोकगीतों में क्रन्तिकारी चेतना प्रकाशन विभाग नई दिल्ली संस्करण-1999, पृष्ठ-68
16.     श्री रामनरेश त्रिपाठी वही पृष्ठ-416-17
17.     वही पृष्ठ-274
18.     वही पृष्ठ-26
19.     वही पृष्ठ-41
20.     प्रस्थान अर्द्धवार्षिक वर्ष: 3, अंक 5-6 (संयुक्तांक) संपादक: डाॅ॰ दीपक प्रकाश त्यागी पृष्ठ-6
21.     श्री रामनरेश त्रिपाठी, वही पृष्ठ-126
22.             विश्वमित्र उपाध्याय वही पृष्ठ-66

असिस्टेंट प्रोफेसर हिन्दी विभाग
डी॰ए॰वी॰ (पी॰जी॰)कालेज   लखनऊ
मोबाइल नं॰ 8687916800





मंगलवार, 25 नवंबर 2014

  जीवन-पथ  आलोकित करने वाली कंदील
                                                                  -अमीरचन्दवैश्य

साहित्य की सृष्टि संघर्षशील लोक के परिश्रम  उसके सुखात्मक-दुखात्मक जीवन प्रसंगों और मांगलिक भविष्य की आकांक्षाओं के लिए की जाती है अर्थात् भविष्य वर्तमान से बेहतर होना चाहिए।आज जो असमानता चारों ओर पसरी हुई है, वह कल सुखद समानताका रूप धारण करे।चारों ओर सुषमा का सौन्दर्य दिखाई दे।कथा साहित्य की प्राणवत्ता इन्हीं भावनाओं की अभिव्यक्ति से प्रबल होती हैं।हमारा हिन्दीभाषी समाज बहुत व्यापक है।उसमें जीवन के रूपों की इतनी अधिक विविधता ह कि  उन सबका समावेश अभी तक हमारे कथासाहित्य में नहीं हो पाया है। शायद यही कारण है कि अब स्थानीय कथाकार स्थानीय जीवन के आश्चर्यजनक प्रसंग वर्णित करके कथा साहित्य समृद्ध कर रहे हैं।राजकुमार राकेश द्वारा लिखा जा रहा उपन्यास कंदील पहाड़ी किसान के जीवन व  परिवार के प्रसंग से प्रारम्भ हुआ है।लेखक ने बड़ी निपुणता से किसान-परिवार के रहन-सहन और रीति-रिवाज का वास्तविक वर्णन किया है।वस्तुतः आजकल उदारीकरण के दौर में भारतीय किसान जिन  मुश्किलों और आफतों का सामना कर रहा है, वह अभूतपूर्व है।उसकी जमीन मिट्टी के मोल खरीदी जा रही है और सोने के भाव बेची जा रही है।विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का लाभ पहुंॅचाने के लिए। ऐसी विषम परिस्थति में असंख्य किसान बैंक के कर्जदार हो गए।कर्जा न चुका पाने के कारण उन्हें आत्म-हत्या करनी पड़ी।अब समय आ गया है कि किसान संगठित होकर अपने हक की लड़ाई  लड़ें।राजकुमार राकेश ने कंदील शीर्षक के माध्यम से इस आशय की अभिव्यक्ति की है जो आगे चलकर और अधिक स्पष्ट होगी।लेखक ने स्थानीय जीवन की अभिव्यक्ति के लिए स्थानीय पहाड़ी बोली के शब्दोंका यथोचित प्रयोग किया  है इन शब्दों के उपयोग से उपन्यास में जमीनी टकरावों को दिखाने में सुविधा रहेगी | एक जरूरी उपन्यास का हमें इंतज़ार रहेगा
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अमीरचन्दवैश्य, द्वारा ,कम्प्यूटरक्लीनिक, चूनामण्डी, बदायूं 243601, मोबा0-09897482597





          उपन्यास अंश                             
                  कंदील
                                                  राजकुमार राकेश


You don't know anything ecstasy, if you don't know the ecstasy of betrayal.
                                                                                                                   ...Jean Jenet
 (हर्षोन्माद के बारे में आप कुछ नहीं जानते, अगर आप दगाबाज़ी का हर्षोन्माद नहीं जानते...ज्यां जेने)

मैं जब रात के अंधेरे में/ आग की खबरें शहर की दीवारों पर लिखता था/                                                         तो उसकी कविताएं कंदीलों की तरह/अंधेरे रास्ते में जलती थीं
                                                                                                    ......कुमार विकल

1.  
दे तेहड़ा! दे तेहड़ा!अपनी इस कुहकती आवाज में गर्मियां आने की इतलाह देने वाला ये पंछी मानो आज कुछ ज्यादा ही जल्दी जाग गया था। पता नहीं वह अपनी खुशी में ये सब गाता है या अपने अंदर की उदासियों, गमी और खौफ को बाहर निकाल रहा होता है। पर इसके आगे आने वाले पूरे दिन वह यही गाता रहेगाः दे तेहड़ा! दे तेहड़ा!एक मुनासिब आवाज में जो न कभी उंचा होती है और न नीचे गिरती है। जैसे किसी को पुकार रहा हो या किसी के साथ कोई अनजानी गुहार लगा रहा हो। पर आज मानो जान गया था कि बैसाखी का त्योहार है। जैसे इस पूरे उदास गांव को जल्दी जगा देने में जुटा हो कि उठो और अपनी खुशियों के इजहार में जा जुटो। उसे नहीं मालूम कि पिछली रात सारे लोग काफी देर से सोए थे। पर उसकी यही खासियत है जो बीत चुके के बारे में वह मालूम करना भी नहीं चाहता। बस अपनी ही रौमें गाता रहता है।
       पारवती बिस्तर में पड़े पड़े कसमसाई और उठ जाने के तईं खुद को तैयार करने लगी। पर वह तो पूरी रत इन चार बच्चों के दवाब के बीच बुरी तरह घिरी-दबी पड़ी रही थी। अब भी वे सब उससे छिपते पड़े थे। जरा सा हिली नहीं कि ये चारों खलबली मचा देंगे। उधर पंछी जगा डालने को इस कदर कुहक रहा था कि जरा सा वक़्त देने या बाज आने से रहा। एकदम कहीं पास किसी बांस के झुरमुट में बोलता चला जा रहा थाः दे तेहड़ा।फिर अचानक जैसे उसको चिढ़ाने के वास्ते पास ही कहीं कोयल अनायास गाने लगीः कुहू! कुहू!इससे विचलित हुए बगैर वह अपनी सामान्य आवाज में गाता चला गया, ‘दे तेहड़़ाऔर उसके इस सहजगान से कोयल चिढ़ने लगी। अपनी आवाज को हर कूक के साथ ज्यादा उंचा कर लेती। अब जैसे एक प्रतियोगिता चल रही हो। और इसी बीच बाहर बांस झुरमुटों में छोटी छोटी फाणसों-चिड़ियों की भारी चहचहाहट और सफेदे के पेड़ों में कौवों की कां कां की खलबली मच गई थी। पारवती ने करवट बदलनी चाही पर छाती पर डेढ़ साल का दोहता खर्राटे मार रहा था और दोनों करवटों में बाकी के तीनों लिपटे पड़े थे। सातेक साल की दोहती चिया तो अभी तक उसके साथ चिपकी हुई थी। बिल्कुल उसी अंदाज में जिसमें वह रात को जिद्दकर उसकी दाईं बगल में सोई थी। दूसरी बगल में पांच पांच साल के दूसरे वे दोनों थे। एक दूसरे पर टांगे रखे और पारवती के बदन से सटे पड़े। एक का नाम था चुन्नू और दूसरे का मुन्नू। तीनों बेटियों ने जैसे आपस में सोच विचार कर अपने बच्चों के नाम तय किए हों। पंछियों के उस अलार्म से पारवती चौकन्नी हो गई थी मगर कुछ देर मन ही मन अनेक तरकीबें भिड़ाती रही थी कि अब उठा जाए तो कैसे ताकि ये सब सोए पड़े रहें। बिस्तर से निकलते ही, उसे कितने कामों से जूझ पड़ना था। अगर ये सब साथ के साथ जग लिए तो फिर काम शुरू करने में ही बिघ्न-बाधा आ जाएगी।
        पारवती के हर दिन की शुरूआत और अंजाम तकरीबन एक जैसा होता था। घर-परिवार के काम से। कभी नाम भर को भी बदलाव नहीं आता था। ज्यों जिन्दगी की एक लड़ाई थी जो लगातार चलती रहती थी। हालांकि ये उसके दिमाग में तब भी चले चलती थी जब वह सो जाती थी। कई बार नींद न आने पर एकदम चेतन हालत में, और नींद आ जाने पर सपनों में ये चलती ही रहती थी। आज की तकरीबन पूरी रात पहली वाली हालत रही थी। उसे रात भर नींद नहीं आई थी। तीनों बेटियों के ये चारों बच्चे सोने से पहले इस बात पर झगड़ते रहे थे कि नानीअम्मा के साथ ज्यादा सट-चिपककर कौन सोएगा। किसी तरह उसने उनकी मानमनौवल करके चारों को ही पास सुला लिया था। पर आगे झगड़ा और बढ़ा कि कौन कहां सोएगा। तो किसी तरह तीन तो सो लिए, मगर जो चौथा महज डेढ़ साल का था उसे पारवती को अपनी छाती पर सुलाना पड़ा। पूरी रात उसको संभालते बीती थी। चिया दाईं बगल में अभी तक ऐसे चिपकी पड़ी थी ज्यों बाकी किसी का नानीअम्मा के पास आना ही उसे नामंजूर हो। उसका वश चलता तो बाकी सब को वहां से भगा देती। सबसे बड़ा होने के नाते उसकी दादागिरी तो चलनी ही चाहिए थी, पर वे सब भी कहां मानने वाले थे। उनमें से हर कोई यही दिखाना चाहता था कि नानीअम्मा सबसे ज्यादा उसी की है। किसी दूसरे के साथ उसे बांटना उनमें से किसी को मंजूर नहीं था। अपनी मांओं के पास तो वे रोज न सोते हैं। नानी के पास कल आना हुआ था और एकाध दिन टिककर सब अपने घरों को लौटा लिए जाएंगे। तो सारे के सारे अपनी अपनी जिद्द पर अड़े रहे थे। ऐसे में पूरी रात पारवती करवट तक नहीं बदल पाई थी। और जब ये पंछी अपनी अपनी शैली में एक दूसरे से झगड़ते से, अपने अपने इकतारे बजाने लगे तब उसने महसूस किया कि उसकी पीठ एकदम सुन्न हो गई है। उधर गोहड में भैंस रम्भा दी थी। पारवती जान गई वो पुकार रही है, कि अब दूहने का वक्त आ गया है। तो दौड़ी चली आओ। उसने किसी तरीके से बच्चों को एक एक कर खिसकाया और इस तरह जो थोड़ी सी जगह बनी वहां पर उठ बैठी। अब तक पंछियों की चहचहाहट इस कदर हिलमिल गई थी ज्यों किसी ब्याह-शादी में बैंड बज रहा हो। उसमें अलग अलग किस्म के बाजों के बीच एक दो मोटे बाजे अपनी अलग ही आवाज और पहचान में बजते चलते हैं। ये दे तेहड़ाऔर कुहू कुहूका आपसी राग वैसा ही था। जबकि कौवों का शोर चिड़ियों के चहचहाने में जा मिल रहा था। पारवती ने बिस्तर में बैठकर बाहों को उपर उठाया और बदन को जरा सहज करने के वास्ते अंगड़ाई ली। कहीं बगल से रणसिंह की थकी हुई सी आवाज सुनाई दी, ‘पारवतिए, आज तो सुभौ घणे तड़के हो लई भई। 
        पारवती कुछ देर तक खामोश बनी रही। फिर हौली सी आवाज में जवाब दिया, ‘सुभौ तो अपने ई टैम की हुईये है पर रात को सोने में ई घणी देर हुई गईये थी। 
        यूं भी रातें काफी छोटी हो गई थीं। रब्बी की फसल आने की शुरूआत का त्योहार बैसाखी पिछली शाम से ही चल निकला था। ऐसी हर खुशी के मौके पर हमेशा की तरह पारवती ने तीनों बेटियों और दामादों को बुला रखा था। वे पिछली शाम आ गए थे। और तो और उसने अपनी दोनों नवेली बहुओं को भी मायके इसी वास्ते नहीं भेजा था, ताकि सारे के सारे बच्चे और उनके परिवार आज बैसाखी के इस मौके पर उसके पास रहें। बहुओं का ससुराल में ये पहला त्योहार था। आधी रात के पार तक बेटियों के इन चारों बच्चों ने धमाल मचाके रखा था। मानो उन्हें वो आजादी मिल गई हो जिसे पाने से वे अपने घरों में वंचित रहते थे। पारवती पूरी शाम काम में और इन बच्चों के खिलंदड़ेपन में मशगूल रही थी। अब की बार कणक की अच्छी फसल आने की उम्मीद से पूरा परिवार खुश था। इसी सब के बीच जमाने जहान की ढेर सारी बातें चलती रही थीं। जीवन के बहुत सारे सुख दुख इन बातों में सिमट आए थे। हाल ही में गुजरी सर्दियां भी अच्छा बीती थीं। हर जरूरत के वक्त पर आसमान बरसता रहा था और गंदम अपनी जरूरी औसत चाल से उगी-बढी थी। अब फसल पक आई थी और आज बैसाखी के इस त्योहार को खुशी खुशी मनाकर फारिग हुए नहीं कि आने वाले कल से कटाई-थ्रैशिग का काम शुरू। कणक के दाने और भूसा उधर खेतों से घर तक धोने का मजा ही अलग था। साल की कमाई का फल इतना सुख देता था कि उसपर कुछ कहा जाना मुमकिन ही न रहता था। और जब तक ये सारा काम निपट निपटा न लेगा तब तक न खाने का होश और न आराम का कोई मतलब। पिछली शाम से ही इन बच्चों की मस्ती देखकर तो पारवती का कलेजा चार गुणा बड़ा हो लेता था।
         इनके स्कूलों के सालाना इम्तिहान गुजर चुके थे। सब लोग अपने आरपार के गावो-मंदिरों में चलने वाले मेलों ठेलों का मजा भी लूट आए थे, जिनका उन सब के वास्ते सिर्फ एक ही मतलब था, मने जलेबी का रस लेना। मीठी। रसीली। कड़कड़ करने वाली जलेबी। वे सब आपस में उन अनुभवों को यूँ सांझा करते रहते थे मानों ये कभी न भुलाया जा सकने वाले अनुभव हों। बीच में कभी चार छः पल को रणसिंह भी रसोई में चला आकर शामिल हो लेता था, हालांकि उसकी रम-पीने वाली महफिल घर के बरांडे में देर गए तक जमी रही थी। वे चार यार थे। उसका साला करमसिंह, घर के पास वाला सीताराम भंगड़, और उधर नदी पार कर्मसिंह के घर के ठीक पास खेतों में जा बसा टेकू फौजी। बाद में सब के सब पारवती के हाथ के बने पकवान खाकर गए थे। उधर तीनों जवाईं लोग अपने तीनों सालों त्रडू, जडू और रिंकू के साथ भीतर के किसी कमरे में अलग से पीने पिलवाने में मशगूल रहे थे। लड़कियां और बहुएं इधर चूल्हे के पास पारवती के साथ पकवान पकाने, खाने और खिलवाने में जुटी रही थी।
बीच बीच में सब के सब आपसी बातचीत में बसंत की उदासियों को नकारने की बातें करते हुए इंदर देवता का शुक्रिया करना नहीं भूल रहे थे, जिसने अब के बरस खेतों में पानी की कमी न होने दी थी। मतलब ये कि आने वाले साल में उनकी कुल आमदनी का जादे हिस्सा अनाज की खरीद पर खर्च होने वाला नहीं था। नई फसल की इस खुशी में बैसाखी दो गुणे उत्साह से मनाई जा रही थी। अपने भरे पूरे परिवार के इस माहौल में पारवती की खुशी का ठौर नहें था। आज उसका पूरा परिवार अगल बगल था और इस सुबह के आते ही वह वापस एक से एक पकवान बनाने में जुट जाने को उतावली थी। दिल में अरमान भरा था कि इन सबको देने वाली खुशियों में कहीं कोई कमी न रह जाए। इसमें शामिल होना उसको इतना सुकूनदेह लग रहा था जो हर किस्म के बयानात से अलग जिंदगी का सवब बनाता था।
यूं तो रोजमर्रा में भी वह मुंहन्हेरे जाग ही जाती थी। बिला नागा। चाहे बरसात पड़ रही हो, ठंड में सोए पड़े रहने का मन हो या मारे गर्मी के बदन हलकान हुआ पड़ा हो, उसको तो जाग जाना ही होता था। और बस फिर जागते ही जिंदगी की दौड़ शुरू। सबसे पहले गोहड में जाकर मैहस को दूह लाना। फिर उसको और बलदों को चारा पानी देना और तब अपने चाहपाणी से आगे रोटी पकाने खाने का इंतजाम। और तब खेत-खलिहान, घास-घासणी, अड-पडौस की सौ फिकर बगैरा की कभी न खत्म होने वाली दौड़ चल निकलती थी। पैतींस साल में एक बार को भी उसे याद नहीं कि उसने अपने तईं कभी इस नियम को तोड़ा हो। त्योहार उत्सव में तो ये व्यस्तता जादे बढ़ जाती थी। हर कोई मौजमस्ती में होता और पारवती उनकी खुशियों के मूल में होती थी। अगर उसने जरा सी कोताही बरती तो उसके इस परिवार की इन खुशियों में खलल पड़ सकता था। यही वह होने नहीं दे सकती थी। उसका अपना आनंद इसी में था कि वह अपने परिवार को असीम खुशियां देती रह सके।
रणसिंह की भी आदत थी कि वह पारवती से भी पहले जाग-उठ खड़ा होता था। और आंगन में बने चूल्हे में लकडू-छिडू इकट्ठा कर आग जला देता और उसपर पानी गर्म करने को तरमैड़ा रख हाथ में घड़ा लिए पणिहांद की तरफ हुज्जत-हाजत और जंगलपाणी को निकल लेता। अभी जब पारवती बिस्तर में कसमसाई तो रणसिंह ने भी करवट बदली और उठ बैठा। ओ पारवतिए, इन छोरूओं ने तो आज पूरी रात सोने ई नईं दिया भई,’ उसने जैसे खुद ही से शिकायत की। हुजखली रे छोरु हे, ऐसी मौज मस्ती में थे जो अपने गलों में खुंड से बंधा रस्सा तोड़ के आए हों।
पारवती ने हंसते हुए उसकी बात का प्रतिवाद किया, ‘रहने दे बांगडुआ! ईब ई फाहड़ें मारना तो बंद कर। तू तो बलद बेचके सो रया था। ऐसी खर्रखर्र कि कोई तेरे अगलबगल नींद ले ले, ई हो नई सकता। ईब सुभौ हो गई तो फाणसें मारना सुरू।जरा रूक कर उसने कहा, ‘तेरे को मैं न जानती हुई जईसे। चला है ईब बनाने को।
रणसिंह उठ बैठा और अपनी घणी ऊंची आवाज में हंस पड़ा। बोला, ‘ओ पारवतिए, गरचे घर के बलद बिक लिए तो फिर तो तू खेती-बड़ी का सत्यानास हुआ ई जान। अपने बलदों के बगैर करसाण की बुक्कत स्वाह। बड़ी आई तू बोलने वाली जे बल्द बेच के सो रया था। बल्ड बेच के। कबीले को भूखा मारेगी तू।अपनी बात पूरी करके उसने बिस्तर छोड़ा और कमरे से बाहर को चल निकला। जब वह द्धार के पास पंहुचा तो पारवती ने कहा, ‘दरवाजे की जादे छेड़छुनक मत करना। बच्चे सोए पड़े हैं। गरचे कच्ची नींद में उठ ल्ये तो फिर रत्तीराई काम न करने देंगे।वह बिना कुछ कहे बाहर निकल गया। अब पारवती ने भी उठने की कोशिश की तो चिया कुनमुनाई। उसने हलके हाथों से उन सब के सोने को तरतीब दी और सरकती हुई बिस्तर से बाहर निकल आई। द्वार के पास आकर उसने हलकी सी टार बनाई और बाहर निकल जाने के बाद, हौले हाथों से किवाड़ भेड़ दिए, ताकि कमरे के अंदर अंधेरा बना रहे और ये बच्चे सोने में आराम पाते रहें। वह रसोई में आई और दूध दूह लाने के लिए बाल्टू उठाए गोहड की तरफ निकल ली। रणसिंह आंगन के एक किनारे बने चूल्हे में आग जला रहा था। पारवती ने गोहद में जाकर मैहस को दूहा और वापस आकर दूध का बाल्टू लाकर रसोई में रखा। और फिर वापस गई। सारे मवेशियों को उसने बारी बारी से खोलकर गोहड के औसारे में बने खुंडों से बांधा और उन्हें सानी पानी दे चुकने के बाद जब वापस लौटी तो देखा बड़की बहू रसोई के चूल्हे में आग जला रही थी। उसने कहा, ‘ओ लाड़िए, साम को काले माह भिगोने को उधर पतीले में डाले थे। इनका पानी नितार दे। फिर सिल बट्टा लेके जरा पीसना शुरू कर दे। घौं मैं खुद मार लूंगीं। भल्ले बनाने को घौं चढ़ाना जरा जोर का काम है। तेरे से नईं होगा।फिर जैसे उसने खुद से कहा, ‘तुम नौएं ज़माने वालियों को ताकत जरा कम है न! देसी घियो का इक चमचा तो तुमको पचता नहीं।’
बहू ने आग जलाई और माह का पतीला लेकर रसोई के एक तरफ बने भांडे मांजने वाले चल्ले के पास चली आकर उसे नितारने लगी। तब तक छुटकी बहू भी आ गई थी। पारवती ने कहा, ‘ओ छोटी लाड़िए, चाह बनाने को वो पीतल वाली पतीली पानी से भरके ले आ।चूल्हे पर धरी पतीली में अभी पानी ने उबाल भी नहीं खाया था कि सामने आंख मलती चिया आ खड़ी हुई। वह सीधे पारवती की पीठ से आ चिपकी और शिकायती लहजे में बोली, ‘अम्मा, तूने मेरे साथ झूठ क्यों बोला था?’ पारवती ने खौल चले पानी में चाय की पत्ती डालते हुए कहा, ‘क्यों बच्चा, ऐसा क्या हो गया।
अम्मा,’ लड़की ने जवाब दिया। तू झूठी है। तूने उन सब को बी अपने पास सुला लिया था।
ओ अच्छा!पारवती ने कहा। पर मैंने तो सिर्फ तुझे ई अपने साथ चिपका के रखा था।पर लड़की उसके तर्क से सहमत नहीं हुई । मचलने लगी। बोली, ‘अम्मा, कुछ खाने को दे।पारवती ने कहा, ‘पहले मुई चाह तो पी ले। उसके बाद खाना।पर लड़की ज्यादा मचल गई, ‘मेरे को भूख लगी है।बाहर से किसी ने हांक लगाई। बड़की बहू ने दरवाजे से बाहर देखा और सिर वापस अंदर लाकर बोली, ‘ये पास वाली जीइ है।
कौन?’ पारवती ने पूछा। राजो? बुला ले इसको इधर ई। हियां बैठ के बात कर लेगी।जब तक राजो आती पारवती ने छुटकी बहू को कुछ और हिदायतें दे दी थीं। मसलन, बाल्टू से दूध कढ़ाई में उंडेल दे। फिर पीपे में से चावल का आटा निकालकर अल्यूमिनियम के बाल्टू में डालकर घोल ले। ज्यादा घना मत रखना पर ज्यादा पतला कर देगी तो फिर चिलडू तवे पर गाढ़ नहीं लेंगे। अच्छा तू सिर्फ आटा डाल, पानी मैं अपने अंदाजे से खुद डाल लूंगी। तुझे बी सिखा दूंगी किस तरह से चिलडूओं के आटे को घोला जाता है। और देख, उर्द की दाल उबलने को डाल दे। बड़की बहू, पानी नितार दिया हो तो दाल तू डाल दे। मैं चाय परोसती हॅूं। ई चिया मचल रई है। देख बिचारी कल्ही जान को सुबौ सवेरे भूख लग आई है। शाम के भल्ले बचे होंगे तो एकाध दे दे इसको। ला मेरे पास दे। तवे पर गर्म कर देती हॅूं। चिया ज्यादा मचलने लगी, ‘अम्मा, मैं भल्ले नईं खाउंगी।उसने कहा। मैं बासी चीज नईं खाती।तब तक राजो सामने आ खड़ी हुई थी। पारवती ने उसे देखते ही कहा, ‘आई जा राजो। हियाँ पटड़े पर बैठ।
बोबो,’ राजो ने खड़े खड़े ही कहा। मैं थोड़ा सा चावल का आटा लेने आई हॅूं। इस बार पिसवाया नईं था। ईब बगू कह रहा है कि चिलडू खाने का बड़ा मन है। बैसाखी पर नई खाउंगा तो लोहड़ी दीवाली तो अबी बहुत दूर न है। साम को तो तले हुए सुहालू-रोट दोनों बाप-बेटे ने चाव से खा ल्ये थे। इसके बापू को तो चाहे कुछ बी खिला दो। कोई नानुक्कर नईं। साम को तो इधर से रम डकार के गया था। अबी भांग मलने को बासी की तरफ निकल ल्या है। बस आता ई होगा। सोचा चिलडू पका देती हॅूं। फिर जाने कब बारी आए।
हियां बैठ।पारवती ने पटड़े की तरफ इशारा किया और हंस पड़ी, फिर बोली, ‘लाड़िए बच्चा दे राजो को बैठ जाने को ऊ पटड़ा।चाय का एक गिलास राजो की तरफ बढ़ाकर उसने कहा, ‘राजो, तू काहे दिक होती है। तुम सिरफ तीन जने तो हो। इधर ई खा लेना। मैं बना तो रई हॅूं। तुमारे वास्ते कौन अलग तवा धरना पड़ेगा। ले अबी तो चाह पी।चिया रोने लगी, ‘अम्मा, तू मेरा ख्याल नई रखती।पारवती एक हाथ से गिलासों में चाय उंडेलती रही और दूसरे से चिया को पकड़कर अपने पास खींचा और छाती से चिपटाकर बोली, ‘तू मेरा बच्चा, तेरा तो सबसे जादे ख्याल रखती हूँ।
छुटकी बहू पीतल के थाल में धरे चाय के गिलास उठाके चली गई और बड़की ने डबारू में दाल डाल कर चूल्हे पर उबलने को रख दी। पारवती ने कहा, ‘ऊ राजो, मेरा बड़का भाऊ करमसिंह बता रया था कि बस थोड़ा ये कणक के कट-कटान और थ्रैसिंग का काम निपट निपटा ले तो फिर वो एरिए की तरफ मजूरी बजाने को निकल लेगा। जादे छुट्टी नहीं है। येई कोई चार पांच दिन की। तब तो तेरे घरूये सीताराम ने बी जाना होगा?’
राजो ने जवाब दिया, ‘बोबो, असल में मैं तो ई चाहती हॅूं कि ईब ये घर पर ई रहे तो जादे ठीक। पता नई वहां बी इस भांग-भंगई के मलने से फुर्सत पाता है कि नईं। कौन इसका ख्याल करेगा। बदन में जान तो बची है नईं। हुआं जाके बी क्या खेप खोद के रख देगा। पर ई मानने वाला नईं। कहता है घर पर खाली बैठके ई क्या खेप खुनता रहूंगा। एरिए में काम करूंगा तो चार पैसे की आमदनी होगी। बग्गू आगे पढ़-पढ़ा लेगा तो अच्छी नौकरी करेगा। फिर ईब इसका ब्याह बत्तर बी करना है। तो पैसे धेले की जरूरत तो रहेगी कि नईं। ऐसे में ई तो न मानने वाला हुआ, बोबो।
राजो, कोई बात नईं,’ पारवती ने कहा। जाने दे। ई कौन अकेला है। तीन चार जने तो हैं। साथ साथ तो जाते हैं। मेरा भाऊ करमसिंह है। साथ में डूमणू होगा। इधर से ई संतूभाऊ बी है। जाने दे। घर बैठ के बी ईब क्या फैदा है। फसलबाड़ी के निपटारे के वक्त तो सारे जने आ ई जाते हैं।
पता नई बोबो ईब तो इस आदमी के जाने से कालजे में डर उगके आ जाता है,’ राजो ने कहा। पता नई क्यों। अंदर हवा आए कि नईं आए। सिरफ चार साह बचे हैं। डर मचा रहता है ईब निकले कि तब निकले।
तू मुई मूरख ऐसा काहे सोचती है,’ पारवती ने कहा। अब तक छुटकी बहू सारे पछे-परौणों, ननदों-ननदोईओं और अपने घर के तीनों छोहरों छंदों बगैरा सभी को चाय के गिलास पंहुचा के लौट आई थी। पारवती ने उससे कहा, ‘लाड़िए, बैठ जा। आराम से बैठ के दोनों जनियां पहले चाह सुड़क लो। फिर अगला काम चलेगा। देख तो बाहर बांगडू आ गया है ईब पाणी पणिहांद से कि नईं।दोनों बहुएं इस बांगडू शब्द को सुनते ही खूब हंसती थीं, बल्कि हैरान भी होती थीं कि इन बुड्ढों ने अपने उन वक्तों में इस उदास गांव के घुटे हुए माहौल में प्यार किया भी होगा तो कैसे और तब यहां क्या क्या हुआ होगा। पर देखो तो सही इधर कोई औरत अपने पति को आज भी उसका नाम या संबोधन लेकर नहीं पुकारती तो भी उनकी ये सास अपने इस पति को सरेआम बांगडू पुकारती है, जबकि बाकी के लोग इसे व्यंग्य में ‘आकल’ कहते हैं। दोनों बहुओं के लिए ये एकदम मजाक का मसाला बन गया था। आपस में कभी एक दूसरे को बांगडू संबोधित करतीं और दिल खोलकर हंसती चलती थीं। ओ बांगडुआ, जादे फाणसां न मार!और रणसिंह की नकल करते हुए वे आपस में दूसरे तरीके से हंस देतीं, ‘ओ पारवतिए, किधर है तू। जल्दी आ। इधर आग लग गई है। आके बुझा इसको। मेरी तो बत्ती गुल है भई। हा हा हा...एक बार बड़की बहू ने तो पूछ ही लिया था, ‘जीइ, तुमने जीईइ को ई बांगडू कहना कब से शुरू कर दिया था?’ पारवती खुद दिल खोल के हंस दी थी। फिर जवाब में बताया था कि अपने ब्याह से पहले बी मैं इसको बांगडू ही कहती थी। ऐसा मुंह पर चढ़ा कि फिर कभी को न छूटा। अब गरचे हररोज दो चार बार इस नाम से न पुकार दूं तो इसको ही लगता है कि मैं इससे नाराज हो गई हॅूं। इस नाम को सुनते ही अकेले में मस्त हंसने वाली दोनों जनियां पारवती के सामने मंद मंद मुस्कुराने लगती थीं। पारवती के सवाल पर ऐसी ही मुस्कुराहट की मुद्रा में छुटकी बहू ने जवाब दिया, ‘हां जीइ, आ गए हैं। बाहर चूल्हे के पास बैठे कली भरके तमाखू पी रये हैं। मैंने चाह का ई गिलास दिया तो बोले, ओ ज्वांडी लाड़िए, अपनी सास को बोल वो खुद लेके आएगी।पारवती ने हंसते हुए कहा, ‘तेरे को नईं पता न। इस बांगडू को तो पीतल का पैड़े वाला गिलास चाहिए। लबालब भरा हुआ। गरमागरम। सुबौ की चाह उसके तनबदन को प्राण देती है। तू बैठ। मैं दे के आती हूँ।उसने गिलास भरा और बाहर निकलते हुए बोली, ‘राजो, तू आराम से बैठके पी ले। मैं आई।
        रणसिंह आँगन में चूल्हे के सामने पंजों के बल बैठा कली में गुड़गुड़ मचाए हुए था। ओ पारवतिए,’ उसे सामने आते देख उसने शिकायती लहजे में कहा, ‘पारवतिए, इधर कोई पीढ़ी-पटड़ा होना चाहिए कि नहीं। देख तो मैं कैसे बैठा हूँ। चार छः पल में टांगें सो न लेंगी।वह जरा रूका और आगे दूसरी शिकायत, ‘तमाखू का ई दम कंडे पर आ नईं रया। पर ल्या तू पहले चाह दे दे। उसके बाद इसको फिर भरता हूँ।पारवती ने गिलास उसे पकड़ाते हुए बगल में पड़ी पीढ़ी को पैर से आगे खिसकाते हुए कहा, ‘ई इतनी बड़ी पीढ़ी तेरे को नजर नईं आती। रह गया तू बांगडू का बांगडू ई। तेरी आंखें किसी भलेचंगे डागधर को दिखानी पड़ेंगी।रणसिंह पीढ़ी पर टिककर बैठता हुआ बोला, ‘डागधर के हियां जाएं रे पारवतिए मेरे दुसमन सारे। मैं भला काहे जाऊं। मेरा हुआं क्या काम। इस आंख से तू तो मेरे को एकदम टांटिटोर दिखती है। देख तो कैसे पौबारा बनके खिड़ रई है। मेरे को तूने पूरी जिनगी बेकूफ ई तो समझा है। पर हां, ईक मुसीबत तो है, तेरे बगैर दूसरा कुछ ठीक से सूझता नईं। आंख में रड़क पड़ती है। ई डागधर को जरूर दिखानी पड़ेगी।
पारवती ने जवाब दिया, ‘ईब रहने दे। सारा कबीला कट्ठा हुआ पड़ा है और तेरे को इन सब की सरम बी नईं आती। जो मुंह में आया ठा से बोल दिया। ई गोली ठा, ऊ गोली ठा। चाहे कोई जो मर्जी सोचे। जवान सधान बाल बच्चे हैं इनकी सरम का ख्याल रखना न पड़ता है। ईब तन बूढा हो ल्या पर तेरा मन आगे चलने से इनकार करता है। बेसरम घोडे के जिहां अड़के बैठ लेता है। जरा चित टिकाके बैठना तो सीख ले ईब इस बुढ़ापे में।वह जरा सा खामोश हो गई। और फिर वापस लौटते हुए बोली, ‘सारे बाल बच्चे इधर आसपास हैं। कोई ऐसी वैसी छुछली तो बात मत करना।रणसिंह ने छेड़ते हुए कहा, ‘मसलन कैसी?’ पर पारवती वापस चलते हुए बोली, ‘बांगडुआ, तेरा डमाक हिला हुआ है।वह चली गई तो रणसिंह इत्मीनान से चाय सुड़कने लगा। सड़ाक् सड़ाक्...सड़ाक्...कुछ देर के बाद खुद से ही बोल पड़ा, ‘ईब आया ओए मजा चाह का। दे गरमागरम। अंदरू फूख-जल न ल्ये तो स्वाह चाह का मजा ल्या।
सारे छोटे बच्चे जग आए थे और आंगन में धमाचौकड़ी मचाने लगे थे। चिया उनके बीच में थी। वह दोनों लड़कों चून्नू और मुन्नू से कह रही थी, ‘आओ अब हम मिलके रम-रम खेलते हैं।सबसे छोटा डेढ साल का गोलू उनके बीच हिलने मिलने की कोशिश कर रहा था पर उसको वे नजरअंदाज करते चल रहे थे। चिया उन सबको खेल का निर्देश देने लगी थी, ‘मैं हॅूं आकलनानू। ठीक है न। और चुन्नू बनेगा मामा करमसिंह। और मुन्नू बनेगा टेकूफ़ौजी।फिर जैसे वह भारी असमंजस में आ फंसी। किसी बड़ी बूढ़ी की तरह बोली, ‘बोबा, ई भंगड़ कौन बनेगा। गोलू तो बहुत छोटा है। ई तो न बन पाएगा।समस्या विकट थी। तभी उसे औसारे के पार की तरफ जाती हुई छुटकी बहू दिखी। वह दौड़कर उसके पास पंहुची और उसकी बांह पकड़कर बोली, ‘मामी, हम रम-रम खेलेंगें। तू बी आ म्हारे साथ। तू भंगड़ बन जा।फिर उसने अपना विचार बदल दिया, ‘अच्छा मामी, तू टेकू फौजी बन जा। और मुन्नू बन लेगा भंगड़।कहकर वह आश्वस्त हो गई। पात्रों का परिचय एक बार फिर सुनिश्चित किया जाने लगा। मैं आकलनानू, चुन्नू हो गया करमसिंह, मुन्नू बन ल्या भंगड़ और मामी बनी टेकू फौजी।बीच में आकर गोलू मचलने लगा तो चिया ले कहा, ‘गोलू तू बहुत छोटा है। अच्छा तू नानी बन जाना। नानीअम्मा। बस बीच में डांटने को आ जाया करना। ईब बस करो, जादे मत पिओ। उठो पकवान त्यार हैं। चल के खाओ। बस तेरा रहा येई काम। बाकी हम देख लेंगे। तो मामी तू टेकू फ़ौजी। पर पहले अंदर जाके शीशे के चार गिलास और पानी का जग ला। रम की बोतल मैं लाती हॅूं। उधर पड़ी है। गिलास शीशे के लाना। रम पीतल के गिलासों में नईं पीते। समझ गई न।
छुटकी बहू ने अशंका जाहिर की, ‘चिया, गर मैं उधर गिलास लेने गई तो अम्मा मुझे काम में लगा देगी। तब तुमारा खेल कैसे चलेगा।
चिया ने अपनी तर्जनी गाल पर रखकर कहा, ‘मामी, ई बात तो है। चल तू रम की बोतल ला भरके। उधर किनारे पड़ी है। मैं जाके गिलास लाती हूँ।
चिया रसोई में गई और बड़की बहू से बोली, ‘बडी मामी, शीशे के चार गिलास दे। और पानी का जग भी दे दे।
पारवती ने टोक दिया, ‘सीसे के गिलास कहीं टूट फूट गए तो जख्म आ जाएगा। दूसरे ले जा बच्चा।
नईं अम्मा,’ चिया ने जवाब दिया। हम रम-रम खेलेंगे। शीशे के ई गिलास चाहिए।पारवती, राजो और बड़की बहू सभी हंस पड़े। बहू ने चार गिलास सामने धारी पर से उतार कर दे दिए। चिया जाते हुए दरवाजे के पास रूककर बोली, ‘अम्मा, तू छोटी मामी को मत बुलाना। वो म्हारे साथ खेलेगी। वो टेकू फौजी बनेगी।वह फुदकती हुई निकल ली।
चिया ने बरांडे में आकर महफिल सजाने के जरूरी निर्देश दिए। मामी को पीढ़ी देकर मुंडेर पर बिठा दिया। चुन्नू को बाण के मंजे पर और मुन्नू को पटड़े पर। खुद चुन्नू के साथ आकर बैठ गई। मैं आकलनानू हूँ,’ उसने रणसिंह की नकल करते हुए कहा। फिर सामने रखी काल्पनिक कली से सूट्टा खींचते हुए बोली, ‘सुन ओए भंगड़ा, मैं आज अपने पल्ले से पीउंगा। टेकू फौजी हमको कोई रोज रोज फ़ौजी कंटीन का मुफत माल थोड़े न पिलाएगा।उसने चुन्नू की तरफ इशारा किया ईब तू जोर से हंस दे।वह हौले से हंसा तो चिया ने कहा, ‘जोर से हंस, हाहाहा...ऐसे। और चिलम से सूट्टा मार।वह उसकी नकलकर हंस दिया तो चिया बोली, ‘ईब मैं आकलनानू बोल रया है। ओए भंगड़ा मैं कोई खनाबदोस हूं जो रोज रोज टेकू फौजी के पल्ले की पीउंगा। मेरे हियां भतेरी रम है। ठेके से खरीद के लाउंगा। चूल्हे में अपना पैसा फूंक के खाउंगा।
वह मुन्नू की तरफ मुड़ी, ‘मुन्नू, तू सीताराम भंगड़ बना हुआ है न। तो बोल, ओ रणुआं, टेकू म्हारा मितर-सज्जन न है जो हम उसकी न पिएं।मुन्नू ने इस संवाद को पकड़ने की कोशिश की पर ज्यादा कामयाबी उसे मिली नहीं। मुआ तू डौका, चालू मच्छी की तरह बोलना चाहिए। देखी नई मच्छी कैसे पानी के अंदर दौड़ती है। चलना सरोवर में देखने को। अम्मा के साथ मैंने देखी है। अम्मा उनको आटा डाल रई थी। तू तो ऐसे बैठा है जो तेरे होश ठिकाने पर न हों,’ वह मामी की तरफ मुड़ी और उसको निर्देश दिया, ‘मामी, तू टेकू फौजी है। बोतल की डाट खोलके गिलासों में रम डाल दे। फिर सबमें जग में से पानी डालना। देख रम थोड़ी रहे और पानी जादे।वह रणसिंह की नकल करने लगी, ‘ओए टेकुआ, गरचे पानी कम रहा तो इकदम सिर पर जा चढ़ बैठेगी। फिर समझ ले आई पारवती म्हारी खबर लेने। बकसती न है। दे दे सबको गिलास। एक एक कर सब को दे।छुटकी बहू ने गिलास भर दिए और सबको एक एक कर पकड़ाए। अब चिया ने निर्देश दिया, ‘आगे करो अपने अपने गिलास। जब ये टकरा जाएंगे तो सबने बोलना चीअर। सुन लिया, बोलना चीअर। ओ चुन्नू तेरा ध्यान किधर है। उठा गिलास। टकराओ सारे के सारे। सबने इकट्ठा बोलना चीअर।सबने गिलास उठाए और अलग अलग आवाज में चीअर बोले। इकट्ठा बोलो न,’ चिया ने कहा। चीअर!एकलख्त आवाज उभरी, ‘चीअर।
चिया ने कहा, ‘ईब ठीक है। चीअर। पीओ। पहला पैग घणा लेना।
सबने घूंट भरे। चिया ने रणसिंह की नकल उतारते हुए कहा, ‘ओए टेकुआ, तू म्हारा मितर सज्जन जरूर है पर है तो ओछी जात का। म्हारे साथ बैठ के खा नईं सकता। तेरे से छूत लग जाती है।फिर उसने छुटकी बहू को निर्देश दिया, ‘मामी ईब तू बोल। बोल न, ओ आकला, मेरे साथ रम डकार सकता है पर रोटी खाने में तेरे को क्या छूत मारती है। बोल मामी, ओ आकला ढोंगी है तू।छुटकी बहू ने इस संवाद को पकड़कर बोलने की कोशिश की। मामी तू बी इस चन्नू मुन्नू की तरह से डौकी बनके बोल रई है,’ चिया ने कहा। ठीक से बोल। मछे के तरह से बोल। और देख मुई मामी हंस मत। आकलनानू हंसता थोड़े ई है। वो तो दूसरों को हंसाता है। चल ईब बोल।छुटकी बहू ने संवाद को साफ बोलने की कोशिश की और इस बार कुछ कामयाब भी हुई। चिया ने ताली बजाई, ‘देख लो ओ चुन्नू मुन्नू ऐसे बोलना है तुम को बी।बीच में गोलू आ गया। और तुतलाती आवाज में बोलने लगा, ‘मैं बी खेलूंगा। मैं बी...पर चिया ने कहा, ‘गोलू तू अबी छोटा है। तू शराबी नईं हो सकता।पर गोलू मचलने लगा। चिया उसे समझाती रही पर वह नहीं माना। आगे बढ़ा और एक गिलास उठाकर उसने बाहर आंगन की तरफ फैंक दिया। वह आंगन के स्लेटों पर जाकर छन्न से टूट गया। फिर दूसरा उठाने को था कि छुटकी बहू ने उसे रोक लिया। और उसे उठा लिए गई। खेल खत्म। चिया का मूड खराब हो गया। वह रसोई में आकर पारवती की पीठ से लिपटकर बोली, ‘अम्मा, इस गोलू ने गिलास तोड़ दिया।फिर आगे, ‘और तो और ई छुटकी मामी बी ठीक से टेकू फौजी नईं बन पा रई थी।
पारवती ने हाथ में पकड़े मिट्टी के ओलटू से तवे पर चिलडू बनाने को पानी में घुला चावल का आटा खलारते हुए कहा, ‘कुछ और खेल खेल ले। गोलू बहुत छोटा है न। उसको नईं पता क्या करना है।चिया ने कहा, ‘मैं हियां तेरे पास ई खेलूंगी।और ठुमके मारती हुई गाने लगी, ‘ओ राधा तेरी चुनरी, ओ राधा तेरा ठुमका, ओ राधा...अचानक वह इस गीत के बोल भूल गई। बोली, ‘अम्मा, तू बता इसके आगे क्या है। मतलब आगे राधा क्या गाएगी।
मुई तू छोहरी,’ पारवती ने जवाब दिया। राधा तो तब न गाएगी गरचे उसको बोल याद आएंगे।राजो उठकर चल दी तो पारवती ने उसे याद दिलवाया कि चिलडू खाने को तीनों जने इधर ई आ जाना। बस ईक पहर में दाल बन लेती है। चिलडू पक लें फिर भल्ले बना लेती हूँ। लाड़िए, माह की इस पिसी दाल में जरा घौं मारने की कोसिस कर तो ले।
राजो बाहर निकली तो रणसिंह चाय खत्म कर चुका था। उसे आते देख बोला, ‘ऊ राजो, घर जाके भंगड़ को भेज दे। आज बरस का तौहार है। बसाखी रोज तो न आएगी। मिल बैठ के जरा चिलम तो पी लें। कल से तो खेत-ख्वाड़े में जाके जान खपाने को सुबौ तड़के निकल लेना पड़ेगा। फिर ई मजा तो हुआं काम पर आने से रहा।
जीईइ,’ राजो ने जाते हुए जवाब दिया। बोलती हूँ।उधर से चिया आकर उसके कंधे पर आ चढ़ बैठी। रणसिंह ने कहा, ‘ओ मुईए छोहरिए, जरा कटोरी में दम तो भरने दे।सामने से बड़की बहू गुजर रही थी। उसे देखकर वह बोला, ‘ओ लाड़िए, ई छोहरी मेरे द्वाले किस ने फेर दी। इसको ले जा। और क्या अबी तक वो पढ़े लिखे जवान लोग क्या सो रये हैं? और वो बाकी सारे पछे-परौणे। बोल न सबको आके जरा अपने बजुर्ग के पास बैठ के गपसप करें। काहे अंदर घुसे पड़े है भाई? सूरज सिर पर चढ़ आने को हुआ। बाहर निकल के न्हाओ धोआ। तरमैड़े में पानी उबल रया है।चिया उसकी नकल करने लगी, ‘ओ लाड़िए, उस भंगड़ को बी बुला। जरा चिलम में सूट्टा मार लेते हैं भई।रणसिंह हंस पड़ा, ‘ओ तू मुई ओ छोहरी। नकालू स्वांगी बांदर। जिसको देखो उसकी नकल मारती रहती है।बड़की बहू ने कोई जवाब नहीं दिया। बल्कि हंसती हुई चल निकली।
बरांडे से निकलकर रिंकू चला आया था। उसे देखते ही रणसिंह ने कहा, ‘ओ रिंकुआ, कर ल्यो मजे आज का रोज। कल से तो भाऊआ मुंहन्हेरे न उठना पड़ेगा। इस बार तो कणक की डाढी फसल खेत में खड़ी है। पर जब तक घर के अंदर न आ जाए तो क्या समझना वो करसाण की अपनी है। पता थोड़े न चलता है कब बारस पाणी बरस ले। जट्ट मरा तब जाणिओ जब तेरबीं हो ले।उसने आरपार देखा और बोला, ‘वो सब जने किधर हैं भाउआ? तेरे दोनों बडके और दोनों जीजे सारे के सारे कहीं दिख न रहे हैं।
वे उधर निकले लिए हैं, पाणी पणिहांद को,’ रिंकू ने उसके पास आकर बैठते हुए कहा। बापू फसल के काम में तो खैर जुटना ई पड़ेगा पर ईब सबसे बडी मुसकल आती है सारी फसल सिर पर ढो के पहले किसी बगाने थ्रैशर तक पंहुचाओ फिर लैण लगाके आठों पहर इंतजार करते रहो। रात दिन हुआं इंतजार में बैठे रहना कितना मुसकल काम है।
हां भई,’ रणसिंह ने कहा। ऊ तो है जरूर, पर गरचे अपने बलदों से ई फेरा घुमाना हुआ तब तो पंद्रह दिन से बी जादे लग लेंगे। ऐसे में बारस पाणी का खतरा जादे डराने लगता है।
रिंकू, ‘बापू, गर मेरा फौज में भरती वाला काम हो गया तो फिर समझ ले मैं पहली तनखाह से ट्रैक्टर ई खरीद लेने वाला हुआ। चाहे फिर दुनिया इधर से उधर काहे न हो ले। अपने घर में ट्रैक्टर आ लेगा तो फिर चार पैसे की आमदन भी हो लगी बाकी के लोगों का काम धाम निपटाके।
रणसिंह जोर से हंस दिया, ‘ओ रिंकुआ, तू तो ऐसे बोल रया है जो क्या ई पारवती कहती है, ‘कुड़ी पेट में कणक खेत में, और न्योंदा जवांई बाबू को कि आ बच्चा मंडे खा।रिंकू को जैसे समझ नहीं आया तो रणसिंह समझाने लगा, ‘मतलब ई भाउआ, आस ई है कि घरवाली के पेट में बच्चा है। शायद लड़की हो जाए। जब लड़की हुई तो जवाई बी आएगा। पर कणक तो अबी तक खेत में उग रई है। मंडे पहले ई बनाके रखदिए जवाईं बाबू के वास्ते। हा हा हा...
रिंकू भी हंस दिया। फिर जैसे खुद को आश्वाशन देते हुए बोला, ‘बापू, फौज में तो मुझे जाना ई जाना है।
जा भई मितरा,’ रणसिंह ने कहा। गरचे चला गया तो ई जो मेरे खोपड़े पर बंक के कर्जे सवार चढ़े हैं उनको पहले निपटा लेना भाउआ। ट्रैक्टर तो अपने टैम का आता रहेगा। आज तक की पूरी जिनगी बगैर ट्रैक्टर के न गुजारी है। बंक का जंट इधर चौथे दिन आके जान परतेचणे को आ बैठता है।उसने कटोरी में अंगारे भरकर कली के मीरू पर धरी और तमाखू को भखाने के वास्ते जोर जोर से दो चार इकठे दम खींचे। फिर बाहर धुआं उगलता हुआ जरा सा खांस दिया और अपनी सांस को संभालता हुआ बोला, ‘तू खुद देख। दोनों छोहरों के ब्याह किए तो घणा पैसा लगा। ईब मेरी गांठ में तो था नईं। बंक के जंट की चिरौरी विनती की तब जाके एक और करज खोपड़े पर धर ल्या। खेत-ख्ववड़े के इलावा घर में आमदन दूसरी तो है नई। गरचे कहीं खुदानाखासता फसल टूट फूट ले तो ईब समझो रोटी के लाले आ जाने वाले हुए। मैं तो कहता हॅूं इन दोनों छोहरों से कि साल में कुछ महीने उधर इंडस्टल एरिए की तरफ मिहनत मजूरी के वास्ते निकल ल्या करो। तू देख, तेरा मामा करमसिंह, इधर ई संतू, उधर डूमणू सारे जणे जाके कमाते ई हैं। और देख तू, और तो और जहाँ तक कि ई भाँगड़ भी जाता है। छः छः महीने घर को नईं आते। जब आते हैं तो जेब में घणा पैसा लेके आने वाले हुए। टब्बर पालना कोई इतना आसान काम होता तो हर कोई घर बैठ के न पाल लेता। जबकि इसके जाहण बाहण कांपते हैं बगैर भंग के। पर म्हारे ई तीन तीन जवान सधान पूत है। कोई घर से निकलने को त्यार ई नईं। ईब मेरे तन में तो भाउआ पराण हैं नई। कमाना तो इन सबको ई पड़ेगा। नई ऐसा न हो मेरे को बी बाकी के कई करसाणों की नाईं गले में फंदा लटका लेना पड़ेगा। कितने तो जा ल्ये और पता नई कितनो की बारी लैण में लगी है। वो जंट बड़ा निरदयी है। उसको तो अपने बंक का पैसा वापस चाहिए। जिसको फंदा लगाना हो लगा ले। अपना पैसा पाने को ऊ मरने वाले की जमीन नीलाम करवा देगा। उसका क्या जाने वाला हुआ। फिर टब्बर भूखा मरेगा मेरा। उसका क्या। बाकीमान तू बोल जो मै कुछ गलत कह रया हॅूं।
रिंकू फिक्रमंद सा दिखा। बापू, मरने मराने की बातें तो तू किया मत कर,’ उसने कहा। तेरे हियां तीन तीन जवान पुतर हैं। क्या कोई कुछ करेगा ई नईं।
देख भाऊआ,’ रणसिंह ने कहा। टब्बर तो हो गया इतना बड़ा। और मुसकल ई कि जमीन की फसलबाड़ी ठहरी भगवान भरोसे। बारिस हुई तो आई और न हुई तो आई न आई। ईब मिहनत मजूरी के बगैर काम चलने वाला है नईं।
रिंकू फिक्रमंद सा दीखता उठकर चल दिया। और रणसिंह जोर जोर से गहरे सूट्टे मारने लगा। सामने आ खड़ी हुई चिया उसकी नकल करती हुई खांसने लगी थी। उधर से हाथ में चिलम पकड़े सीताराम चला आया। चिया ने उसे आते देख अपना मुंह रणसिंह के कान के एकदम पास ले जाकर कहा, ‘नानू बोल न, आई जा भई भंगड़ा। आ बैठ। ल्या बो लाड़िए कोई बिन्ना पटड़ू। आई जा। हियां बैठ।रणसिंह को हंसी आ गई। बोला, ‘चल बो छोहरिए। बांदरी किसी पासे की। चल जा। आई जा भई भंगड़ा। तेरी राह ई देख रया था। भर चिलम। तामखू का कुछ मजा नईं आया आज सुभौ सवेरे। बरस का तौहार है। आज मजे नई मारे तो फिर कब मारेंगे। आई जा हियां बैठ।उसने सामने से पटड़ा खींचते हुए अपनी बात पूरी की। सीताराम बैठ गया। बोला, ‘आकला, राजो इस बार मुझे एरिए में मजूरी के काम पर जाने से रोक रई है। तू बोल मैं हियां घर में पड़े भला क्या खेप खोद लूंगा। भांग ई मलनी है उधर एरिए में बूटी की कौन कमी है। जंगल के जंगल उगे खड़े हैं। फिर हुआं अपने चार मितर सज्जन साथ होते हैं कि नईं। ऐसे में मन की मौज रहती है। हियां बी मैं कौन दंड पेल लूंगा। राजो को इतनी सी बात तो समझ में न आती है। कहती है नजर के सामने रहेगा तो तसल्ली बनी रहती है। हा हा हा...
हा हा हा...,’ रणसिंह ने भी उसका साथ दिया। तू ठीक बोलता है भंगड़ा। इन औरतों की आकल तो पता नईं कब घास ढोने को निकल ले और जाने कब लौटे। हा हा हा...
सीताराम चिलम को एक छोटी सी लकड़ी की नोक के साथ उसकी गहराई में खुरचने लगा। इनके हंसते चलने की आवाजें रिंकू को रसोई में पहुँच  जाने के बाद तक आती रही थीं। वे हर चार छः पल के बाद हॅंस देते थे। इधर चूल्हे की दाईं बगल में पारवती चिलड़ू पकाने में जुटी थी और बड़की बहू भीगे माह के मिक्स में अपने दांएं हाथ से घौं चढ़ा रही थी। रिंकू ने उसे छेड़ दिया, ‘भाभी, ताकत तो तेरे अंदर बची है नईं। चली है घौं चढ़ाने। तुम जवान सधानों से तो ई बूढी अम्मा जादे जोर वाली है।
बड़की बहू की सांस उखड़ रही थी। उसने तनिक हाथ रोका और बोली, ‘ओ देवरजी, तुमारी बहू जब आएगी तो देखेंगे कितने जोर वाली होगी।
रिंकू हंस पड़ा, ‘भाभी, क्या पता ऐसी कोई आ जाए जिसको तुम सब मिलके रसोई के अंदर मानने से ई इन्कार कर दो।
पारवती ने उसकी तरफ किसी अज्ञात किस्म की जासूसी की सी नजर से परखा, ‘ओए, क्या बकता है तू छोहरू।
वह भी हंस दिया। बोला, ‘अम्मा क्या पता मैं बी तेरे और बापू के जमाने वालीकोई लव-मैरज कर लूं। उसमें भला क्या बुरा होगा।
पारवती को गुस्सा आ गया, ‘म्हारे जमाने का क्या मतलब ओए?’
बड़की बहू ने कहा, ‘जीइ, देवरजी का मतलब ई न कि ज्यों तुमने और जीईइ ने ब्याह कर ल्या था।पारवती ने उन दोनों को वापस एक पारखी नजर से देखा, ‘अरे, तुम सब क्या जानते हो?’
रिंकू ने जवाब दिया, ‘अम्मा, कबूतर के सामने बिल्ली आ जाए तो वो आंख बंद करके येई सोचता है कि बिल्ली तो है ई नईं। जबकि सबको तुम दोनों की कहाणी का ईक ईक हरफ पता है।पारवती हैरान रह गई। बीते युग की जिस प्रेमकथा को वह सिर्फ अपने और बांगडू के बीच का मामला मानती थी वह तो उनके इन बच्चों तक को पता है। वह चुप रही। बड़की बहू ने रिंकू को छेड़ दिया, ‘देवरजी, क्या कोई निचली जात लाने का इरादा बना हुआ है?’
रिंकू ने पहले पारवती के चेहरे का जायजा लिया फिर बड़की बहू की ओर देखकर बोला, ‘भाभी, इरादा तो ऐसा ई कुछ नेक है।
पारवती ने उसे डांट देने की सी गरज से कहा, ‘क्या बकता है बे छोहरू। चुपकर। सामने से थाली उठा। कुछ भकोसना है तो भकोस ले। उसके बाद बाहर अपने बापू के पास बैठकर ई फाहड़ें मार जाके। दोनों जनों की भली निभ जाएगी।उसने बहू की तरफ देखा, ‘लाड़िए, तू घौं मार। इसको छोड़। इसको दो भाभियां जो मिल गई खेलने को। बस बकबक करता चलता है।
बारी बारी से तीनों जवाईं भी इधर आ बैठे थे। और अब वे सब आपस में इधर उधर की हांकते हुए त्योहार के मजे ले रहे थे। बाहर से रणसिंह की आवाज आई, ‘ओ पारवतिए, मुईए देख तो ई भंगड़ कब से हियां आ बैठा है। पतराणे मुंह इसको बिठाना कोई भला हुआ। थोड़ी सी गरमागरम चाह तो बनाके पिला दे। ई तेरा जस गाएगा।




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