शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

चिंतामणि जोशी की कवितायें
पानी
गजब ताकत है
पानी में

बूदों से नाला
नाले से दरिया
दरिया से सागर
सागर से बादल
बादल से बूदों मे
बदलता है
बीजों को पौधों
पौधों को वृक्षों
कलियों को पुष्पों
पुष्पों को फल-फसल
फसलों को सरस व्यंजन में
बदलता है

पानी से
जीवन चलता है


धुंध है
व्यवस्था विद्रूप है
आँखें फटीं हैं
पानी भर चुका है
अब रहने भी दे
तू नहीं दिखा पाएगा राह
ए खैरख्वाह
तेरी आँखों का
पानी मर चुका है।


 
चिड़िया
चिड़िया बोल नहीं सकती
सिर्फ चीं-चीं करती है
बोल पाती
तो वह भी लगाती
इन्कलाब के नारे
जब चिड़िया का साथी
तुम्हारे पिंजरे में बंद होता
या उसकी विरादरी में कोई
तुम्हारी गुलेल का शिकार होता।
लेकिन चिड़िया बोल नहीं पाती
इन्कलाब-जिन्दाबाद
सिर्फ चीं-चीं करती है
जबकि हर रोज
तुम्हारी गुलेल से
एक नई चिड़िया मरती है


 
योजना
वातानुकूलित कक्ष से
उन्होंने भेजी
मेरे कस्बे की सड़क की
योजना बनाकर
दस-बीस पेड़ काट
चंद पत्थर लगाकर
ठेकेदार ने पोत दी कुछ रेत
मिट्टी मिलाकर
सुविधा शुल्क किया अर्पण
सड़क का हुआ अधिग्रहण
और फिर लोकार्पण
तुमने साफ की अपनी नाली
गंदगी सब सड़क पर डाली
मैंने अपनी पाइप लाइन सुधारी
छोड़ दी सड़क पर 
गड्ढेनुमा धारी
इसने घर का गंदा पानी छोड़ा
उसने फेंका अहाते का कूड़ा-रोड़ा
बोझ से दबे फँसे
मेहनतकश
मजदूर को सहारा देने
झिझकता-ठिठकता
एक कदम बढा
विकास की सड़क पर
वह भी फिसल पड़ा।

लालसिंह पहाड़ है
आपदा पर
चल रही है राजनीति
लग रहे हैं
आरोप-प्रत्यारोप
बन रही है
योजना-परियोजना
गढ़ी जा रहीं हैं
कविताएं-कहानियाँ
छप रहे हैं
समाचार-विचार
लेकिन उसे
इन सबसे
अब नहीं है सरोकार
लालसिंह जानता है
उलझता नहीं कालचक्र कभी
निरर्थक बहस-मुबाहिसे में
फिर आयेगा आषाड़
फटेंगे बादल
भरभरायेंगे पहाड़
उफान पर होगी नदी
तूफान पर छोटी गाड़
उसे पता है
हकीकत योजनाओं की
जो ठीक समय पर
सिद्ध होतीं हैं भोंथरी
और उसे चाहिये होती है
सिर छुपाने के लिए
एक अदद कोठरी
इसीलिए
पत्थर तोड़ रहा है
रोड़ी फोड़ रहा है
तख्ता-बल्ली जोड़ रहा है
कर रहा है
नमक-तेल का भी जुगाड़
दरक चुके घर के बाजू में
तराश रहा है सुरक्षित जमीन
तटबंध बाँध रहा है
तपा रहा है हाड़
जानता है-
व्यवस्था का भरोसा
बस झाड़ है
आपदा चुनौती है
दरकता है बार-बार
फिर भी खड़ा है

लालसिंह पहाड़ है।




-              शैक्षिक दखल की समीक्षा
माध्यम-भाषा विमर्श पर केन्द्रित “शैक्षिक दखल’’ का ताजा अंक वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत सीखने-सिखाने की प्रक्रिया की दुखती रग पर हाथ रखने में सफल हुआ है। परिचर्चा, आलेखों, शैक्षिक जीवन के अनुभवों एवं अन्य स्थायी स्तम्भों से होकर चिन्तन-मंथन के साथ चलते हुए सीखने की प्रक्रिया में परिवेशीय भाषा का महत्व शुद्ध, धवल एवं उपयोगी नवनीत की तरह उभर आता है।
        प्रारम्भ में जहाँ महेश पुनेठा ने विविध तथ्यों एवं अनुभवजनित सत्य के आलोक में इस बात का प्रभावशाली रेखांकन किया है कि बच्चे की सीखने की गति अपने परिवेश की भाषा में ही सबसे अधिक होती है और इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि परिवेश से दूर की भाषा शिक्षण का माध्यम होने पर उसका प्रभाव बच्चे के बौद्धिक विकास पर पड़ता है-एतदर्थ कम से कम प्रारम्भिक शिक्षा तो उसके परिवेश की भाषा में ही होनी चाहिए वहीं अंत में दिनेश कर्नाटक ने दूसरी भाषा को शिक्षण माध्यम बनाने के विचार की विवेचना आसान लगने वाले ऐसे रास्ते के रूप में की है जिसमें भटकाव ही भटकाव है। वास्तव में भाषा सीखना और भाषा का सीखने का माध्यम होना दो अलग-अलग बातें हैं जिन पर वर्तमान में गहन विमर्श की आवश्यकता महसूस होती है।
        हमारी अपनी भाषा हमारे स्वाभिमान एवं आत्मसम्मान, हमारी संस्कृति के पोषण का एक सशक्त अभिकरण होती है। उसके प्रति हीन ग्रंथि का विकास हमें पतनोन्मुख करता है। जीवन सिंह ने अपने आलेख अंगे्रजी का राज एवं भारतीय भाषाएं’’ में उपरोक्त तथ्य को पूर्ण व्यापकता के साथ उद्घाटित किया है।
        परिचर्चा स्तम्भ शैक्षिक दखल रूपी साझा मंच के अन्दर अपने आप में एक ऐसा महत्वपूर्ण मंच है जो देश भर से छात्रों, शिक्षकों, अभिभावकों, कवियों, लेखकों, विचारकों, पत्रकारों, कलाकारों के इतने बड़े जमावड़े को मुद्दा विशेष पर विचार-विमर्श एवं बहस के माध्यम से एक दूसरे को जानने समझने का सुअवसर प्रदान करता है। एक शिक्षक की दृष्टि से देखा जाय तो कक्षा शिक्षण में संबोध विशेष को प्रारम्भ करने से पूर्व ब्रेन स्टार्मिंग के लिए एक रोचक-महत्वपूर्ण गतिविधि।
        अनुभव अपने-अपने एक और उपयोगी स्तम्भ है अनुभवों एवं सरोकारों को साझा करने के लिए। अस्मुरारीनन्दन मिश्र, चिन्तामणि जोशी, दिनेश भट्ट, उमेश चमोला, हेमलता तिवारी के रोचक अनुभव परिवेशीय भाषा के महत्व को स्वीकारते ही नहीं साबित भी करते हैं यह बताते हुए कि भाषा सीखना तभी हो सकता है जब शब्दों को अर्थ मिले, जब शब्द अंतस को छू सकें। डा इसपाक अली का आलेख दक्षिण भारत में हिन्दी की विकास यात्रा” हिन्दी की राष्ट्रीय स्थिति को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण आलेख है।
        वरिष्ठ साहित्यकार बटरोही के उपन्यास गर्भगृह में नैनीताल से चयनित अंश भी प्रस्तुत अंक के उद्देश्यों को समझने में सटीक सहयोग प्रदान करता है। अपनी भाषा तथा संस्कृति के प्रति आत्महीनता से भरे और अंगे्रजी को सभी विषयों का निचोड़ मानने वाले ठुलदा अन्ततोगत्वा जब दर्द से कराहते हैं तो उनके गाँव की जीती-जागती परिवेशीय भाषा अनायास ही उनके अन्दर प्रवाहित होकर इस तथ्य को सिद्ध कर देती है कि बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल।
        यात्रा, नजरिया, मिसाल, किताब के बहाने भी बेशक शिक्षा के क्षेत्र में गहरी दखल देने में समर्थ हुये हैं। दिनेश जोशी ने एक बार पुनः सन्दर्भ के अनुकूल अखबारों से ऐसी कतरनें एकत्र कीं हैं जिन पर चिन्तन एवं चिन्ता करना समय की मांग है। भाषा पर भगवत रावत, नरेश सक्सेना एवं राजेश जोशी की कविताओं का चयन सम्यक है। पत्रिका के कलेवर को सौन्दर्य प्रदान करने के साथ ही ये कविताएं फ्रांस के उपन्यासकार अलफांस डाडेट द्वारा लिखित द लास्ट लेशन   के  कथ्य की यादें ताजा करतीं हैं।  फैंरच शिक्षक हमेल के पास  अलसास प्रांत पर जर्मनों के अधिकार एवं जर्मन भाषा थोपने के बाद अपने अंतिम पाठ में अपने प्रांतवासियों के लिए ऐसा शब्द नहीं है जो उन्हें दे सके कि संकट के समय काम आयेगा फिर भी वह कहता है- फैंरच विश्व की सुन्दरतम भाषा है। उसे हमें अपने बीच संरक्षित रखना चाहिए क्योंकि जब देश गुलाम हो जाता है, जब तक उसके वासी अपनी भाषा से जुड़े रहते हैं उनके पास हर प्रकार के जेल की चाबी होती है। वाइव ला फ्रांस (फ्रांस जिन्दाबाद)।
        कुल मिलाकर वर्तमान अंक उपयोगी, पठनीय एवं अनुकरणीय है। लोकमंगल की कामना के साथ संकलित शैक्षिक साहित्य के रूप में संग्रहणीय है। श्रमसाध्य सामग्री संकलन, सम्यक् चयन एवं प्रकाशन हेतु सम्पादक द्वय एवं शैक्षिक दखल टीम को साधुवाद।
                                          

चिन्तामणि जोशी
जन्म           : 3 जुलाई 1967  ग्राम बड़ालू  पिथौरागढ (उत्तराखण्ड)
शिक्षा           : एम. ए. (अंग्रेजी) , बी. एड.
प्रकाशन         : हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ  लेख प्रकाशित
प्रकाशित पुस्तक  : क्षितिज की ओर (कविता-संग्रह)
सम्प्रति          : अध्यापन
अन्य            : विद्यार्थी जीवन से ही छात्र-राजनीति जन चेतना कार्यक्रमों
                  में सक्रिय भागीदारी एवं पत्रकारिता।
                  कुछ समय तक साप्ताहिक समाचार पत्र कुमाँऊ सूर्योदय में
                  सम्पादन सहयोग।
                   शिक्षा संबंधी अनेक कार्यशालाओं में प्रतिभाग एवं शैक्षिक
                   प्रशिक्षणों में सहजकर्ता प्रशिक्षक की भूमिका।
सम्पर्क          : देवगंगा  जगदम्बा कालोनी  पिथौरागढ - 262501



                                             

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

        गायत्री प्रियदर्शिनी की कवितायें

गायत्री प्रियदर्शिनी फेसबुक में नहीं हैं |हाँ पत्रिकाओं और गोष्ठिओं में दिख जातीं हैं उनकी अपनी पहचान उनकी कविताओं से ही है  उनकी चर्चा भी होती(फेसबुक को छोड़कर)है | गायत्री प्रियदर्शिनी अपनी पीढ़ी की कवियित्रियों की अपेक्षा कई मायनो में संतुलित और स्पष्ट हैं अमूर्तन और बे वज़ह की दैहिकता को अस्वीकार करते हुए  उनकी कविता भाषा और अनुभूति का अलहदा मानक प्रस्तुत करती हैं|  भाषा किसी कवि का निजी उत्पाद नहीं हैं बल्कि सम्पूर्ण जनसमुदाय का सामूहिक उत्पादन है| वर्ग  विभाजित समाज में विभिन्न वर्गों की भाषा अलग अलग ही होती है, स्त्री समुदाय भी अपनी वर्ग स्थिति के कारण एक वर्ग है,  अस्तु वह अपनी भाषा उन्ही समुदायों के मध्य खोजेगी जिनका पीडाबोध एक जैसा है पूँजीवाद द्वारा प्रदत्त यंत्रणा समूचे समुदाय के लिए एक जैसी ही है| अस्तु अनुभूति और स्व संवेदन भी एक जैसा ही होगा| इसलिए भाषा और अन्य कलात्मक उपागम भी समूची स्त्री समुदाय के लिए एक ही होंगे| अभिव्यक्ति का तीखापन और पीडाबोध का स्तर ही भाषा का तीखापन और बोधगम्यता का निर्धारक होता है| गायत्री की कवितायेँ कहीं भी “अभिजात्य” भाषा बोध से अनुलग्न नहीं हैं| भाषा की प्रमाणिकता यही है की आम नारी की जिंदगी में रोजमर्रा प्रयुक्त होने वाले शब्द समूहों का यहाँ जोरदार अवगुंठन है  एक ऐसी भाषा जिसमे संघर्ष की छवि समाहित है जो सामुदायिक उपांगों में  में ही प्रचलित है, जिससे व्यक्ति  का हर रोज़ साक्षात्कार होता है, जिन शब्दों से से गायत्री  अपनी पीडाओं को स्वर देती है, उन शब्दों का  अर्थ केवल सामुदायिक  की पीडाओं में ही खोजा जा सकता है, ऐसे शब्दों का कविता में प्रयोग भाषा गत प्रयोगधर्मिता के साथ साथ भाषा को एक नयी शक्ति से भी लैस कर देता है| गायत्री की कविता इस मायने में किसी विमर्श की मुहताज नहीं है |यहाँ कविता विमर्शों की संकुचित परिधि से आगे निकल कर संवाद करती है|यही कारण है गायत्री प्रियदर्शिनी की कवितायें समूची मानवता की परिधि में फिट बैठती हैं |उन्होंने  लोकविमर्श के लिए अपनी कवितायें भेजीं है |अस्तु आज हम गायत्री की कवितायें प्रकाशित कर रहें हैं आइये पढतें है गायत्री प्रियदर्शिनी की कवितायें विजेंद्र जी की पेंटिंग के साथ 





   गायत्री प्रियदर्शनी की कविताएँ

१-   वे दौड़ रही हैं
वे दौड़ रही हैं
हवाओं को थाम
वे दौड़ रही हैं
मुट्ठियों में सूरज को बाँध
अपने पैरों के पंखों पर सवार
मन से भी तेज
दौड़ती ही जा रही हैं
 शालू जेनिस शिवानी
   ऋचा रीता

बाँधाओं को हँसते हँसते लाघ
वे हँस रही हैं
खिलखिला रही हैं
सागर की लहरों सी
विजय भाव से इठला रही हैं

ऐसे ही हँसती रही
समय की बाँधाओं को लाघ
मुस्कराती रहें यूँ ही
हमेशा हमेशा हाथों में खुशियाँ थाम

  डर है कहीं
कैद ना हो जाएँ
चंचल हवाएँ
उफनती सरिताएँ
किरणों की चमकीली आभाएँ।-

                        




२ जीने के लिए    
हम सब हैं विवश
अपने हिस्से का दर्द पीते हुए
जीने के लिए

समय का रफूगर भी
रफू नहीं कर पाता है
जिन्दगीं के तार तार हुए खालीपन
और धारदार पीढ़ाओं से फट चुके
दिल को

दुख की अँधेरी रातों में
सुख का जुगनू
अचानक चमकता है
और फिर गुम हो जाता है
                        छलावे सा
                        स्याह बियावानों में

सरावोर कर दिए जाते हैं
                        खून से
                        प्यार के ताज़महल
                        हिंसा घृणा धर्म जातीय विद्वेष की
बीभत्स तलवारों से

और आदमी शामिल हो जाता है
                        खुद अपनी ही हत्या में
हथियार बनकर
अपनों के ही सीनों में
उतरता हुआ
इंसानियत के खिलाफ।







३ खचाखच भरी बस में

एक दूसरे को धकियाती
झुँझलाती दाँत किटकिटाती
  भीड़ से खचाखच भरी बस में
तब बहुत बहुत तेजी से
अचानक लगे ब्रैक के धक्के से
सँभालने के लिए
पवित्र कुरान से निकला एक अद्द हाथ
थाम लेता है मेरी कमर
पूरे बहिनापे से

और बुर्केवाली औरत के हाथ
    बढ़ जाते हैं
बिंदीवाली औरत की गोद से
नन्हीं सी बच्ची को थामने के लिए

तब
मन्दिर-मस्जिद की निरर्थक लड़ाई के लिए
 धार्मिक उन्माद भड़काती
बीभत्स साम्प्रदायिक हिंसा  के लिए
  भीड़ को उकसाती
पंड़े-पुजारियों के
मुल्ले-मौलवियों के
पांखण्डी चेहरों को
बेनकाब कर देती है
सहायता के लिए बढ़े हुए हाथ की
इंसानियत

शायद बुर्केवाली की गोद में
गहरी नीद में डूबी
नन्हीं बच्ची के होठों पर
खिल रही है
सारी धरती के फूलों से सुन्दर
सुबह से भी पवित्र
 प्यारी मोहक मुस्कान

और अचानक भीड़ भरी बस की
सारी बदसूरती पर छाँ गई है
मोहक चटकीले वसंत की आभा।
 






४ उजास मे
जागते दिन की
 फूटती उजास में
सुबह की
मीठी नींद में सो रही
अधखिली कलियाँ
गुलाबी पंखुरियों को समेटे
सोती कलियों पर
ओस की लड़ियाँ
झाड़ियों की टहनियों पर
सो रही है तितलियाँ

मटमैले गोल चितकबरे
 अण्ड़ों में
चिड़ियांे के बच्चों की
अठखेलियाँ
गुलमोहर, कनेर, अमलतास
पीपल पाकड़ की शाखों पर
मखमली पत्तियाँ
हिल रही हैं धीरे धीरे



और सो रही है घुटनों में
मुँह छिपाए
जागी हुई
मनुष्यों की
  त्रासद पीड़ाएँ

इतने में ही आ धमका है
पूरब में
सूरज का लाल लाल घेरा
और क्षण भर में ही जाग गई है
  भीगी बिछली घास
सरसराने लगी है
हवाओं से

पत्तियों में हवाओं की साँस चलने लगी है
और जाग गई है फिर से
सीपी में दर्द की
मोती सी पलती हुई
न टूटने वाली भविष्य की सुन्दर आस।     



खड़े है गुलमोहर
 धरती की दहक को
हथेलियों  थामे
  खड़े है गुलमोहर

पीले गुच्छों के मौर बाँधे
झूम रहे है अमलतास

इसी तरह रचती रहती है प्रकृति
सौन्दर्य के अनेक रूप
नित्य नए छन्दों में
लेकिन
जब गुजरात के
गोधरा अहमदाबाद में
जलती है कोई बस्ती
उजाड़ दी जाती है भरी माँगे
हिंसक त्रिशूलधारी भेड़ियों से
माँगती है दया की भीख
कोई नसीमा कोई नसरीन
किन्तु पेट चीरकर
कर दी जाती है
आने वाले उजले भविष्य की हत्या

तब एक आँसू भी नहीं गिराती
निर्मम आँखें मनु पुत्र की

हिंसा दंगा लूटमार आगजनी बलात्कार
आदि की बुरी खबरें
दर्दनाक चीख
अगले ही पल
 डूब जाती है
  फूहड विज्ञापनी शोर में

 क्या ये इंसान से
पत्थर और पत्थर से
 भावहीन लोहे की
 धारदार ठण्डी जड़ता में
बदलते जाने की शुरूआत है   -
  
साथ साथ चलती है
मैं जहाँ जहाँ चलती हूँ
याद किसी की परछाहीं सी साथ साथ चलती है
बोलती आँखों से
हौले से छू कर
मुस्कराकर गुदगुदाती है

तारों भरे झिलमिलाते आकाश में
में खिलते हुए चाँद से
 आँख मिचैली खेलती
चाँदनी में घुलकर
दिल में समा जाती है



                                    
दुख के साए
जब दुख के साए हो चारों ओर
कोहरा हो घना सा
ऐसे में एक कंधा
सिर टिकाने को जरूरी है
और एक जिन्दगी
बिताने को।

    




                           
५ बादलों की छाँह
लहरों से करती अठखेलियाँ
नदी को ढाँप रही है
बादलों की छाँह

और बादलों की
परछाइयांे को
मस्त लहरों से
अस्त व्यस्त करके
खिलखिला कर हँस रही है नदी

दूऽऽऽर निगाहों के छोर तक
लहर-दर-लहर
तेज बहाव से
बहती नदी
अपनी भीतरी सतह में
न जाने कितने दुख दर्द
पीड़ाओं की किरचें
अकेलेपन की चुभन
समेटते हुए
कितनी सदियों से बहती जा रही है
ऊपरी सतह पर हँसती
खिलखिलाती मुस्कराती हुई
किसी अनाम नारी की तरह।




                                 
६ मैंने हाथ उठाया
मैंने हाथ उठाया
और आसमान के टुकड़े पर
लिख दिया एक नाम

वह नाम बढ़ने लगा धीरे धीरे
और फैल गया पूरे आसमान पर
एक भव्य चेहरा बनकर

और निहार रहा है मुझे
ईश्वर की तरह
अपनी हजार हजार आँखों से
 भीग रही हूँ मैं
उन आँखों से बरसती
आलोक की तरल स्निगधता में
मौन भाव से।





                      
७ औरत
पिछले बरस और
उससे भी पिछले बरस
दंगों में जो लुट गई 
पिट गई कुचली गई
वह थी सिर्फ
एक औरत

वह नहीं थी माँ
बहन बेटी पत्नी बच्ची
वह थी केवल जिन्दा गोश्त का एक टुकड़ा
एक शरीर
जिसे खाने के लिए
हैवानियत फैलते ही
न जाने कितने ही भेड़िये
अपने खूनी पंजे और दाँत
तेज करने लगते है
तब वह होती है
 भेड़िया न० 1 के लिए
सिर्फ हिन्दू
भेड़िया न० 2 के लिए
सिर्फ मुसलमान

युद्धों की आग में जलते
आतंक के साए में पलते
देशों में औरत नाम के गोश्त की
एक ही है नियति

औरत चाहे वह बोस्निया में हो
पंजाब में हो अथवा कश्मीर में
सीमा के इस पार हो
या उस पार
विजेता देश के जवानों
आतंक के सौदागरों द्वारा
कुचला लुटना रौंदा जाना ही नियति है उसकी

कल मेरे सपने में भी आई थी ऐसी एक औरत
मैंने पूछा कड़वाहट से 
क्यों नहीं भुला पाती औरत अपना ममत्व
अपना वात्सल्य
अपना औरतपन

क्यों बरसाती है वह
उन नर पशुओं पर करूणा की धारा
जिनकी नजरों में उसका नहीं है कोई मोल

बोली औरत दर्द से मुस्कराकर
कैसे भुला दे वह
कठोर वेदना के बाद
जब चूमती है वह अपनी
 सृष्टि की सीप को  होठों से
तब उसी क्षण वह सिर्फ
बन जाती है स्नेहमयी माँ
एक औरत से
उसके आँचल में छलकता है अमृत
और उस भोली मुस्कान में
 भूल जाती है वह सब कुछ

इस मासूम जबाव के बाद
निरूत्तर हो चुकी थी मैं।







८ मुस्काया चाँद
फिर से खिला आसमान में चाँद
महका महका
निखरा निखरा चाँद
बोलती गहरी खामोशी में
साथ हमारे घुलता चाँद
कल हमारे आँगन में भी
तारों के संग जागा चाँद
रात ने बदली करवट जब
 आँख खुली तो पाया
बाँहों  में मुस्काया चाँद


९ खरगोश हुए दिन
  खरगोश हुए दिन
  ठहर गईं रातें
गहरी गहरी खामोशी में
अपनों से अपनों की
अपनी सी बातें


हथेलियों  की महक
होठों की छुअन में
घुलने घुलने लगती रातें

मद्धम मद्धम चाँदनियों में
सूरज जैसी
पिघलने लगती  रातें।

                        
१० गाँधी जी के बन्दर
गाँधी जी के बन्दर तीन
कहते हैं हमसे लोकत्रंत में
बुरा मत देखों
बुरा मत सुनो
बुरा मत कहो
 धूँ धूँ करके जलती है बस्तियाँ सैकड़ों
मासूम बच्चों लाचार औरतों को कुचल कर
गर्भवतियों के पेट फाड़-फाड़ कर
अट्टहास करता है रावण
 त्रिशूलधारी राक्षस
यह सब देखकर
बन्द कर लेता  है आँखें
हमारा यह महान लोकत्रंत

बलात्कृत औरत की दबी ढ़की
सिसकियाँ
लुटे पिटे जिन्दा श्मशान बने घरों में
आर्तनाद करते बच्चों की बूढों की
बहरा करने वाली चीखें
गूँज रही है करूणा भरे स्वर में
सुनकर भी
बन्द कर लेता है कान
हमारा यह महान लोकत्रंत

और न्याय के लिए
 टकटकी लगाए
हजारों  हजारों
सूनी रेगिस्तानी आँखों में
चमकने लगते है
सैकड़ों जलते हुए अनुत्तरित प्रश्न
चुभते है बर्छियाँ बनकर
देख देख यह सब
मुँह बन्द कर लेता है
हमारा यह महान लोकत्रंत
सचमुच हम है सच्चे अर्थो में
गाँधी के अनुगामी।
                       
             
       


गायत्री प्रियदर्शिनी , चूना मंडी , बदायूं