गुरुवार, 25 जून 2015

सुशील कुमार शैली की कविताएँ

सुशील कुमार शैली की  कविता सक्षम एवं सकारात्मक दृष्टि से संपन्न कविता हॆ जिसने  अपनी तल्खी को सामयिक यथार्थ से जोड़ा है तो दूसरी ओर अपनी भूमि को सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़ा है  स्थानीयता देसीपन ऒर लोकधर्मिता स्थितियों की गहरी पहचान भी स्थापित करतें है | युवा होने के कारण स्थितियों में आक्रोश तो दिखता है पर इस आक्रोश को वो किसी मुकम्मल विचार के खंचें में फिट नहीं कर पाते अपनी कविताओं में वो विचारों के प्रति कहीं भी आग्रही नही हैं | यही कारण है की वो कविता को निपट बयान से अलग करके विषयनिष्ठ शिल्प के साथ प्रस्तुत करते है कहीं फंतासी हैं , तो कहीं कल्पना,  कहीं अप्रस्तुत विधान, तो कहीं कटु यथार्थ को तोरोहित करता नैतिक मूल्यों का  सजग आवेग है | यदि आम जनमानस की वस्तुस्थिति को ध्यान में रखा जाय तो  ये कविताएं  नारेबाजी से बहुत  दूर हॆं अपना एक अलग मुहावरा गढ़ती हैं | गहरी संवेदनाओं से युक्त कलात्मक क्षमताओं से भरपूर एवं संयमित हॆं । यहां काव्य.मुद्राओं एवं चमत्कारों के लिए कोई स्थान नहीं हॆ । इन कविताओं  ने सहजता का अंगीकार  किया हॆ। किसी भी विषय की कविता हो खालिस और अनगढ़ है किसी भी प्रकार का रंग रोगन लगाकर उपरले तौर पर चमकाया नही गया है | विषय और समस्या को  रोमांटिक भावुकता की जगह आत्म अनुभूतियों से प्रमाणित करने की कोशिश की गयी है | इनकी कविता अतिरिक्त बनावट के वगैर दूर तक प्रभावित करती है | आज हम लोकविमर्श में सुशील कुमार शैली की तीन कविताओं का प्रकाशन कर रहें है आइये आप भी पढ़िए (चित्र के रविन्द्र के हैं)

मैं और मेरा साथी

मैं और मेरा साथी
हम दोनों गए थे
उस प्राचीन भवन में
गीरवी रखे गए, अपने पूर्वजों के
अवशेष ढूँढ़ने
जिन्हें गाड़ दिया था उसने
भूमि के गहरे बहुत गहरे
अंत: स्थल में
समझौते से पहले
जिनके मोह में बांधकर
कुशल सांस्कृतक शिल्पकारों ने सदियों-सदियों हमें ठगा,

पुरानी लकडी के बने
गगन को छूते प्रवेश द्वार पर
बडी-बडी जंगाल लगी कीलों
के किऩारे पर रक़्त के काले धब्बों ने बताया
आदमी की हत्या के लिए
प्रयोग में लाया जाता था इन्हें
डाल दिया जाता था
भव्य साम्राज्य के लिए बलिदानों की
वीर कथाओं में,

आगे शुरू होते
ठहरे पुरुषों की मनोदशाओं
के सुदृढ  तिलिस्म
प्रत्येक कदम पर थी दलदल
अँधेरे में तैरती बेजान किवदंतियाँ
सूख कर चूरा हुए पत्तों की राख़
ऐसे में किसी भी शब्द पर
किसी भी कथा पर
ठहरना उचित न था हमारे लिए
सामने था तो सिर्फ़
सघन अँधेरे का खला
दीवार पर उभरती
रक़्त सन्नित शस्त्रों की आकृति
प्रत्येक कदम पर फिसलन थी
ज़रा सा भी झुक जाना
फिसल जाना
हत्या

अदृश्य छेद्र से
गिरते काला जल
में मरे हुए प्रेत कुत्तों की भयावह आवाजें
चमगादडों का सतर्कता से
निश्चित दिशा में पहरा
प्रत्येक कोने में पत्थरों की जड़ता
सामने के खुले मैदान में
जड़ता से बच के पहुँचे,
जले हुये रहे घास पर
सूर्य की कोई भी किरण न थी
आधी खाई हुई खोपडी के साथ
हड्डियों के ढाचे में
इतिहास के भव्य मक्कोडों ने
स्थान बना लिया था
अव्यवस्थित दीवारों
और जले हुये चेहरों के बीच,मुझे
व्यवस्था का कोई चिह्न ऩहीं मिला
जिसका बाहर की सभाओं में
बखान हो रहा था
तक कहीं हमने पूरे साहस के साथ
नागरिकों को उनकी
सौम्यता से बाहर खिचने का
प्रयत्न किया
और हम सभ्यता से बाहर
उस हाशिये पर धकेल दिए गये
जहाँ हम दुश्मन हैं
सभ्यता, सौम्यता के|


  षडयन्त्र
उसे मालूम है
आदमी से पहले, उसकी
भाषा को खत्म कर देना चाहिए
और मृत प्रतीकों को इस तरह
मस्तिष्क की जर-जर दीवारों पर
चिपका देना चाहिए
कि जहाँ से उसे केवल
रामराज्य ही दिखाई दे,

भाषा की तसकरी से पहले
शब्दों को परिभाषिक करने के बाद
अश्वमेघ की तरह
छोड़ देना चाहिए
और सारे देश की आँख
एक स्वयंवर जितने के लिए
फोड़ देनी चाहिए|







   कविता वहां नहीं है
अब वो तुम्हें वहां न मिलेगी
जहाँ उसने पहली बार दम घुटने गहरी सांस ली थी,
झुग्गी-झोपडियों में
उधडे हुये चेहरों के बीच
कसलाई हुई ज़ुबानों में
लाल आँखों में, तनी मुट्ठियों में,

वो अब वहाँ है
सभा,सम्मेलनों में
मंचों पर, कवि की
तालू को लगी जभी पर
कोट की आसतीन में
छोटी सी डायरी पर
सभ्यों के बीच
,

अब उसे ढूँढना व्यर्थ होगा
खोद खोदकर मिट्टी
या
कोने में लगे गंदगी के ढेर
की लीजलीजी गंद में
अब उसमें ढूँढना व्यर्थ होगा
भाषा में बहिष्कृत शब्द को
क्योंकि अब नाक भौं सिक्कोड
अनदेखा कर देना
आम बात है|








सुशील कुमार शैली
जन्म तिथि-02-02-1986
शिक्षा-एम्.ए(हिंदी साहित्य),एम्.फिल्,नेट|
रचनात्मक कार्य-तल्खियाँ(पंजाबी कविता संग्रह),
सारांश समय का,कविता अनवरत-1(सांझा संकलन)|
कुम्भ,कलाकार,पंजाब सौरभ,शब्द सरोकार,परिकथा पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
सम्प्रति-सहायक प्राध्यापक,हिन्दी विभाग,एस.डी.कॅालेज,बरनाला
पता-एफ.सी.आई.कॅालोनी,नया बस स्टैंड,करियाना भवन,नाभा,जिला-पटियाला(पंजाब)147201
मो.-9914418289

सोमवार, 1 जून 2015


  जब उठ जाता हूँ सतह से –पर- रविंदर सचदेव नवल

 युवा कवि रविन्द्र के दास के कविता संग्रह “जब उठ जाता हूँ सतह से” पर युवा कवियित्री रविंदर सचदेव नवल की समीक्षा प्राप्त हुई | आज हम लोकविमर्श में इसी समीक्षा को पढेंगे | रवींद्र के. दास की कविताओं के संदर्भ रविंदर सचदेव की समीक्षा एक उम्दा पाठकीय वक्तव्य है क्योंकि पाठक किसी भी वाद से बंधकर कृति को नही पढता  न ही वह किसी क्लासिकल रचना प्रक्रिया से जोड़कर शिल्प के साथ कोई अन्याय करता है | पाठक पढ़ते समय कृति में डूबता है डूबने के बाद अपने आप को खोजता है जब वह अपने आप को खोज लेता है तो वह रचना को अपना लेता है | रविंदर सचदेव  की यह समीक्षा कृति की अंदरूनी पड़ताल करने के साथ पूर्ण पाठकीय न्याय कर रही है  



संयत ढंग से संवाद करती हुई कविताएं
[रवींद्र के. दास का संग्रह 'जब उठ जाता हूँ सतह से' पर]

रवींद्र के. दास को सबसे पहले फेसबुक पर पढा| बहुत ख़रा खरा लिखते हैं| उनकी पोस्ट पर बहुत सोच-समझ कर कमेंट करिए वरना आपके बौद्धिक स्तर का पिटारा खुलते देर नही लगेगी| हर आम बात का खास पक्ष पेश करते हैं| वो पक्ष जिस पर आम तौर पर किसी का ध्यान न जाए| इतनी सटीक और ख़री बातें की मुझ जैसी इंसान अगर बोलना चाहे तो भय बाँध ले, हड़बड़ा ही जाए|
पर उनकी किताब पढते हुए आप उनके भीतर के आम इंसान से मिलते हैं जो मेरे, इसके,उसके और आपके जैसा ही है| 'जब उठ जाता हूँ सतह से' में उनकी कविताएं पढते हुए मैं उनके व्यक्तित्व में रचे-बसे उसी आम इंसान से मिली|
पहली चीज़ जो महसूस की वो ये कि जितना ख़रा- खरा फेसबुक पर लिखते हैं उससे भी ज़्यादा संवेदनशील कवि है उनके भीतर| साफ,सीधी,सच्ची और जीवन के दु:ख, दर्द , टीस को कहती हुई कविताएं हैं| एक साधारण आदमी अपने रिश्तों में जीता हुआ जो महसूस करता है, अपने आस-पास की बातों पर जो राय रखता वो सब बातें ही हैं इनकी कविताओं में| इनकी कविताएं बातें करती है | खूब सारी बातें |पढते हुए यूँ लगता है जैसे आप ही से बात कर रही हों|सहज-सहज सब कहती हैं| जैसे पुराने लोग किसी कहावत में कोई पूरी बात कह जाते थे| कहीँ- कहीं कविता पढते हुए ऐसे लगता है जैसे रेल में बैठे हुए कोई व्यक्ति बात कर रहा हो और
कोई नई बात निकल आए जो अच्छी लगे| रोजमर्रा की कोई ऐसी बात जिस पर हमारा ध्यान न गया हो या पुरानी बात को नए ढंग से कहा जा रहा हो जैसे| संयत ढंग से संवाद करती हुई कविताएं हैं| इनकी कविता आपके पास बैठतर इत्मीनान से बात करती है| कही उड़ा कर या बहाकर नहीं ले जाती किसी दूसरी दुनिया में| छोटी- बड़ी कठिनाइयों से उपजे दु:ख की बात करती हैं पर बेहद भावुक नहीँ करती, मार्मिकता की और नहीँ खींचती, बस बातें करती हैं ...रोज़-रोज़ की बातें, हमारे आस-पास की दुनिया की बातें| किसी काल्पनिक दुनिया में नहीं लेकर जाती... इसी दुनिया के विरोधाभासों की को उजागर करती हैं|
'माँ को कभी सीरियसली नहीँ लिया' में शब्दों की जादूगरी के बिना कैसे कवि ने कह डाला है-
"माँ, माँ है और क्या !
कभी ध्यान गया ही नहीं कि माँ की भी एक अदद शख्सियत है"
इस बात को कहने में न किसी काव्य शिल्प की ज़रुरत है और न समझने के लिए किसी पाठकीय समझ की|
"बाबू से हमने यही तो सीखा था
कि माँ को डांटने से पहले सोचना नहीं पड़ता|"

हमारी रगों मे गहरे तक रची- बसी पितृ-सत्ता को कितने सीधे ढंग से स्वीकार कर गया है कवि|
'पत्नी' कविता पूरी की पूरी सुंदर है पर सुंदरतम पक्तियाँ लगी-
"जो मेरी जीत का स्वीकार है
और मेरी हार का नकार
मेरी पत्नी है कोई डायरी का पन्ना नहीं"
सहजीवन की सुंदर स्वीकार्यता है इसी कविता की इन पक्तियों में –
"चूंकि नहीं थे बहुत अमीर हम
शायद इसी लिए पाने लगे राहत एक दूसरे की गंध में
देखने लगे सपने एक दूसरे की आँखोँ से
जानने लगे सच एक दूसरे के अहसास में"
स्त्री पर कई सारी कविताएं हैं संग्रह में| पर कविताएं स्त्री के दुःख- दर्द , पीडा़ओं को भाव- विगलित शब्दों में नहीं कहती बल्कि उसकी स्थिति को पुख्ता ढंग से कहती है| हमारे सामाजिक परिवेश उसकी स्थिति और सोच को दिखाती हैं|
"स्त्री संतति" को पढते हुए आपके सामने अपने आस- पास के कई चित्र घूम जाएंगे और आप शुरु से लेकर एक शब्द भी पढे बिना नहीं छोड़ पाएंगे| "हक था तुम्हारा" में कितनी सहजता से एक पुरुष समाज में घुले हुए पुरुषवाद को खुद में महसूस कर रहा है-
"हक था तुम्हारा
जिसे तुम माँगते रहे थे दयनीय बनकर
कि कर दे कोई कृपा
और मैं
अपने कमीनेपन का सबूत देता रहा बार-बार
कारण और कोई नहीं था
बस इतना की मैं पुरुष था
और तुम थे औरत
जिसे सिखाया गया था
जाने- अनजाने
ऐसे ही जीना, और हम जीते जा रहे थे लगातार
और बेहिचक
नहीं दुखता था मेरा मन तुम्हे रौंद कर
ऐसी बात नहीं थी
लेकिन सदियों- सहस्त्राब्दियों के संस्कारों से लिथड़ा मैं
अपने बदबूदार परिवेश में घुटकर भी
न जाने क्यों
कभी कोशिश नहीं की जागने की
नहीं दे पाया आवाज़ अपनी ही ज़मीर को"

एक पुरुष की ये स्वीकारोक्ति स्त्री-पुरुष संबंधों को सहज बना रही है| परिवार के सबसे मजबूत सदस्य माने जाने वाले पिता की बेबसी को उतने ही बढिया ढंग से उकेरा है जितनी शिद्दत से माँ की स्थिति को लिखा है| स्त्री-पुरुष संबंधों के कई आयाम नज़र आ रहे हैं –
"कुछ स्त्रियाँ मर्द से डरती हैं
क्योंकि मर्द को नहीं जानती
कुछ और स्त्रियाँ मर्द से डरती हैं
क्योंकि मर्द को जानती हैं
लेकिन नहीं खुली है कोई खिड़की
औरत और मर्द के बीच"

हर कर कविता विसंगतियों पर प्रहार कर रही है | कई कविताएं हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था की सड़ाध की बात करती हैं| जीवन के कई सारे पहलूओं को छूती हुई कविताएं हमसे हमारी ही बातें करती हैं| जिंदगी सबको अजीब लगती है, समझ नहीं आती, हैरान करती है और हर आम आदमी की तरह इस कवि को भी-
"क्या क्या जतन न किए
फिर भी, फिसल ही तो गई ज़िंदगी
बंद मुठ्ठी की रेत की मानिंद
और हम देखते रहे - अवाक, अवसन्न"





इन्होने अपनी कविताओं में भी कवि का चोला नहीं पहना और न ही काव्य शिल्प से पाठक को हैरान करने की कोशिश की है, बल्कि पाठक से अपनी बात कही है| ये बात करना ही कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता है| आम आदमी के साथ रोजाना घटित होने वाली बातों को रेखांकित करती हुई कविताएं हैं|
कुछ कविताओं में तो आप विशेष पंक्तियां ढूँढ ही नहीं पाएंगे| क्योंकि शुरू से लेकर अंत तक पूरी कविता की सभी पंक्तियां ही विशेष हैं| शुरू से लगकर अंत तक पढकर ही दम ले सकेंगे|
बदलते परिवेश और मिटते मूल्यों की बात कवि कुछ यूँ कर रहा है-
"खेल
बहुत पहले था बच्चों के जिम्मे
खेल तब खेल जैसा था"

आम आदमी के छोटे- छोटे सपनों को जीता हुआ कवि खुद अपनी कविताओं में मौजूद रहता है, कविता से बाहर रहकर बात नहीं करता|
"छोटी- छोटी आँखों में
छोटे-छोटे सपने
जैसे, माँ का संतोष
जैसे, पिता की बेबसी का अंत
जैसे, बहन की शिक्षा का समुचित वातावरण
इन सपनों में घुली- मिली अपनी भी जिंदगी"
'आत्मकथा का बाजार' पढकर बहुत सारे महान लोगों के चेहरे उभर आतें हैं जेहन में जिनकी गलतियों को हम जैसे लोग आकर्षित होकर पढते और सुनते हैं| कवि अपना पक्ष कुछ यूँ रखता है-
"सचमुच लोग
महान लोगों के गुनाह को भी
बड़ी हसरत की नज़र से देखते हैं
कि हाय! मैनें तो ऐसे कुकर्म किए नहीं
इसलिए मैं हो नहीं पाया महान"

'दुःख दूर न हुए' पढते हुए लगेगा मानो कोई आपके पास बैठकर, एक नज़र आपको देखकर, अपने दुःख में खोया, अपने मन की बात कह रहा हो आपसे|
शहरी जीवन की कृत्रिमता एक बच्चे की स्वाभाविकता को कैसे छीन लेती है –
"शहर का बच्चा
कायदे से पैदा होता है
कायदे में रहकर
कायदे की जिंदगी जीता है"
और-
"कई बार जब
नहीं रुचता है माँ- बाप का कायदा
अपना फायदा सोचकर
आँखें बंद कर लेता है
शहर का बच्चा"

कितनी साफ,सटीक और खरी बात है जो रोजाना घटित होते हुए देखते हैं-
"रोते बिलखते शरीफ़ और सच्चे आदमी की
तारीफ का मज़ा ही कुछ और है
ईमान से"
जितनी भी प्रेम कविताएं हैं बहुत स्वाभाविक हैं| बस सबसे बढिया बात ये लगी की कविताएं आपको कहीं बहाकर ले जाने की बजाए आपके सामने बैठकर आपसे नज़र मिला कर बात करती हैं| और भी कई महत्वपूर्ण व पठनीय कविताएं हैं..कई बातें जो मेरी समझदानी का आकार छोटा होने के कारण शायद छूट गई हैं पर एक सजग पाठक उन्हे भी पकड़ लेगा |
--------- रविंदर सचदेव नवल





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