हरीश भादानी के जनगीत
हरीश भादानी जनवादी लेखक संघ के संस्थापक सदस्य थे |
राज़स्थान में उन्हें “जनकवि” कहा जाता है
यह नाम उनके गीतों ,और कविताओं की लोकप्रियता के आधार दिया गया है | प्रतिबद्धता
और लोकप्रियता दोनों अलग अलग चीजें है दोनों का सामूहन किसी एक व्यक्ति पर होना
दुर्लभ होता है | बाबा नागार्जुन में दोनों पक्ष उपस्थित थे हिंदी के दूसरे
नागार्जुन हरीश भादानी थे | उनके लिखे गीत आज भी गुन गुनाए जातें है | आम जनता के
बीच उनकी जैसी उपस्थिति रही शायद उनके किसी समकालीन कवि की नहीं रही | राजस्थानी
मिश्रित हिंदी या राज़स्थानी में लिखे उनके गीत रेतीली जमीन की तपती आवाज़ है | लोकजीवन
की मार्मिकता , सहजता , द्वन्द , पीड़ा , बोध , जीवन के समस्त पक्षों का जनपक्षीय
रेखांकन है | पिथौरागढ़ सम्मलेन में साथी नवनीत पाण्डेय एवं संदीप मील ने ११ जून की
रात को भादानी जी की स्मृति में उनके गीतों को गाकर सुनाया था तब मैंने नवनीत जी
से उनके गीतों को भेजने का आग्रह किया था | हरीश भादानी हिंदी के उन कवियों में से
है जो हिंदी की अंदरूनी राजनीति के शिकार होकर उपेक्षित रहे और अभी तक उपेक्षित
हैं | मानबहादुर सिंह , कुमारेन्द्र पारस , शील , की तरह वो जनता के बीद्च जनता की
भाषा में ही जनता द्वन्द रचते रहे जनता से दूर जाकर महानगरों में बैठे अकादमी
अध्यक्षों और आलोचकों की अभिजात्य काव्य रीतियों के फेर में कभी नही पड़े शायद यही
कारण है हिंदी के अभिजात्य कर्णधारों ने उनको उपेक्षित किया | हरीश भादानी ने
मिथकों , परम्पराओं , जन संवेदनाओं को
अपनी कविता में प्रयोग किया है उन्होंने इन उपागमो का सामाजिक ढाँचे की
यथार्थ संरचना का सही दस्तावेज बना दिया है | ये कवितायें व्यवस्था विरोधी हैं और
काव्य के अभिजात्य मानको का खंडन भी करती हैं | उनमें उत्तेजना की वह मात्रा नही
है जो अक्सर ढूंस दी जाती है उतनी ही मात्रा है जो जन को आकर्षित करके समय के
बदलते तेवरों को व्यंजित कर सके | आज हम लोकविमर्श में जनकवि हरीश भादानी के कुछ
जनगीत | इन गीतों के साथ भादानी जी का रचना संसार और परिचय युवा कवि नवनीत पाण्डेय
ने भेजा है | उनके प्रति आभार प्रकट करते
हुए प्रस्तुत है जनगीत
हरीश भादानी के जन-गीत
१-सड़कवासी राम
सड़कवासी राम !
न तेरा था कभी
न तेरा है कहीं
रास्तों.दर.रास्तों पर
पाँव के छापे
लगाते ओ अहेरी !
खोल कर मन के किवाड़े सुनए
सुन कि सपने की
सपने की किसी
सम्भावना तक में नहीं
तेरा अयोध्या धाम
सड़कवासी राम !
सोच के सिर मौर
ये दसियों दसानन
और लोहे की ये लंकाएँ
कहाँ है क़ैद
तेरी भूमिजा
खोजता थक देखता ही जा भले तू
कौन देखेगा
सुनेगा कौन
तुझको
थूक फिर तू क्यों बिलोये राम
सड़कवासी राम !
इस सदी के ये
स्वयम्भू
एक रंग.कूंची
छुआकर
आल्मारी में रखें दिन
और चिमनी से
निकाले शाम
सड़कवासी राम !
पोर घिस.घिस
क्या गिने
चौदह बरस तू
गिन सके तो
कल्प साँसों के गिने जा
गिन कि
कितने
काट कर
फैंके गए हैं
एषणाओं के जटायु ही जटायु
और कोई भी नहीं
संकल्प का
सौमित्र
अपनी धड़कनों
के साथ
देखए वामन सी
बड़ी यह जिन्दगी
!
करदी गई है इस शहर के
जंगलों के नाम
सड़कवासी राम !
2.रोटी नाम सत है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
ऐरावत पर इंदर बैठे
बांट रहे टोपियां
झोलिया फैलाये लोग
भूग रहे सोटियां
वायदों की चूसणी से
छाले पड़े जीभ पर
रसोई में लाव.लाव भैरवी बजत है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बोले खाली पेट की
करोड़ क्रोड़ कूडियां
खाकी वरदी वाले भोपे
भरे हैं बंदूकियां
पाखंड के राज को
स्वाहा.स्वाहा होमदे
राज के बिधाता सुण तेरे ही निमत्त है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बाजरी के पिंड और
दाल की बैतरणी
थाली में परोसले
हथाली में परोसले
दाता जी के हाथ
मरोड़ कर परोसले
भूख के धरम राज यही तेरा ब्रत है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
3.जो पहले अपना घर फूंके
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जो पहले अपना घर फूंके
फिर धर.मजलां चलना चाहे
उसको जनपथ की
मनुहारें !
जनपथ ऐसा
ऊबड़.खाबड़
बँधे न फुटपाथों
की हद में
छाया भी लेवे तो
केवल
इस नागी नीली
छतरी की
इसकी सीध न कटे
कभी भी
दोराहे.चौराह
तिराहे
दूरी तो बस इतनी
भर ही
उतर मिले आकाश
धरा से
साखी सूरज
टिमटिम रातें
घट.बढ़.घटते
चंदरमाजी
पग.पग पर
बांवळिये.बूझे
फिर भी तन सेए
मन से चाले
उन पाँवों सूखी
माटी पर
रच जाती गीली
पगडण्डी
देखनहारे उसे
निहारें
जो पहले अपना घर फूंकेए
फिर धर.मजलां चलना चाहे
उसको जनपथ
की मनुहारें !
इस चौगान चलावो
रतना
मंडती गई राम की
गाथा
एक गवाले के
कंठो से
इस पथ ही गूँजी
थी गीता
जराए मरण के
दुःख देखे तो
साँस.साँस से
करुणा बाँटी
हिंसा की सुरसा
के आगे
खड़ा हो गया एक
दिगम्बर
पाथर पूजे हरी
मिले तो
पर्वत पूजूँ
कहदे कोई
धर्मग्रन्थ
फैंको समन्दर में
पहले मनु में
मनु को देखो
जे केऊ डाक
सुनेना तेरी
कवि गुरु बोले
चलो एकला
यूँ चल देने
वाले ही तो
पड़ती छाई
झाड़.झूड़ते
एक रंग की
राह उघाड़ें
जो पहले अपना घर फूंके
फिर धर.मजलां चलना चाहे
उसको जनपथ
की मनुहारें ! रूरू
4.रेत में नहाया है मन
.............................
रेत में नहाया है मन !
आग ऊपर से आँच
नीचे से
वो धुँआ कभी
झलमलाती जगे
वो पिघलती रहे
बुदबुदाती बहे
इन तटों पर
कभी धार के बीच में
डूब.डूब तिर आया है मन
रेत में नहाया है मन !
घास सपनों सीए
बेल अपनों सी
साँस के सूत में
सात सुर गूँथ कर
भैरवी में कभी
साध केदारा
गूंगी घाटी
मेंए सूने धारों पर
एक आसन बिछाया है मन
रेत में नहाया है मन !
आँधियाँ काँख
मेंए आसमाँ आँख में
धूप की पगरखीए ताँबई
अंगरखी
होठ आखर
रचेए शोर जैसे मचे
देख हिरनी
लजी साथ चलने सजी
इस दूर तक निभाया है मन
रेत में नहाया है मन ! रूरू
5.मैंने नहीं कल ने बुलाया है !
........................................
मैंने नहीं कल
ने बुलाया है !
ख़ामोशियों की छतें
आबनूसी किवाड़े
घरों परए
आदमी.आदमी में
दीवार है
तुम्हें छैनियाँ लेकर बुलाया है !
मैंने नहीं कल ने बुलाया है !
सीटियों से
साँस भर कर
भागते
बाजार.मीलों
दफ़्तरों को
रात के मुर्देए
देखती ठण्डी
पुतलियाँ.
आदमी अजनबी
आदमी के लिए
तुम्हें मन खोल कर मिलने बुलाया है !
मैंने नहीं कल ने बुलाया है !
बल्ब की रोषनी
शेड में बंद हैए
सिर्फ़ परछाई
उतरती है
बड़े फुटपाथ परए
ज़िन्दगी की
ज़िल्द के
ऐसे सफ़े तो पढ़
लिए
तुम्हें अगला सफ़ा पढ़ने बुलाया है !
मैंने नहीं कल ने बुलाया है ! रू
6.क्षण.क्षण की छैनी से
................................
क्षण.क्षण की छैनी से
काटो तो
जानूँ!
पसर गया है घेर
शहर को
भरमों का
संगमूसा
तीखे.तीखे शब्द
सम्हाले
जड़ें सुराखो तो
जानूँ !
क्षण.क्षण की छैनी से
फेंक गया है बरफ
छतों से
कोई मूरख मौसम
पहले अपने ही
आँगन से
आग उठाओ तो
जानूँ!
क्षण.क्षण की छैनी से
चौराहे पर प्रश्न चिह्नसी
खड़ी भीड़ को
अर्थ भरी आवाज
लगाकर
दिशा दिखाओ तो
जानूँ !
क्षण.क्षण की छैनी से
काटो तो जानूँ
7.कोलाहल के आंगन
.............................
दिन ढलते.ढलते
कोलाहल के आंगन
सन्नाटा
रख गई हवा
दिन
ढलते.ढलते
दो छते कंगूरे पर
दूध का कटोरा था
धुंधवाती चिमनी में
उलटा गई हवा
दिन
ढलते.ढलते
घर लौटे
लोहे से बतियाते
प्रश्नों के कारीगर
आतुरती ड्योढ़ी पर
सांकल जड़ गई हवा
दिन
ढलते.ढलते
कुंदनिया दुनिया से
झीलती हक़ीक़त की
बड़ी.बड़ी आंखों को
अंसुवा गई हवा
दिन
ढलते.ढलते
हरफ़ सब रसोई में
भीड़ किए ताप रहे
क्षण के क्षण चूल्हे में
अगिया गई हवा
दिन
ढलते.ढलते
8.सुई
.......
सुबह उधेड़े शाम उधेड़े
बजती हुई सुई
सीलन और
धुएं के खेतों
दिन भर
रूई चुनें
सूजी हुई
आंख के सपने
रातों सूत
बुनें
आंगन के उठने से पहले
रचदे एक कमीज रसोई
एक तलाश
पहन कर भागे
किरणें
छुई.मुई
बजती हुई
सुई
धरती भर कर चढ़े तगारी
बांस.बांस आकाश
फरनस को अगियाया रखती
सांसें दे दे घास
सूरज की साखी में बंटते
अंगुली जितने आज और कल
बोले कोई
उम्र अगर तो
तीबे नई
सुई
बजती हुई
सुई
9.सड़क बीच चलने वालों से
.......................................
सड़क बीच चलने वालों से
क्या
पूछूँण्ण्ण्ण्ण्क्या पूछूँ घ्
किस तरह उठा
करती है
सुबह चिमनियों
से
ड्योढ़ी.ड्योढ़ी
किस तरह दस्तकें
देते हैं
सायरन सीटियां क्या
पूछूँ
सड़क बीच चलनेवालों से
क्या पूछूँ क्या
पूछूँ
कब कोलतार को
आँच लगी
किस.किसने जी
किस.किस तरह
सियाही
पाँवों की
तस्वीर बनी
कितनी दूरी के
बड़े कैनवास पर क्या
पूछूँ
सड़क बीच चलने वालों से
क्या पूछूँ क्या
पूछूँ
कैसे गुजरे हैं
दिन
टीनशेड की
दुनिया के
किस तरह भागती
भीड़
हाँफती फाटक से
किस तरह जला
चूल्हा
क्या खाया.पिया
किस तरह उतारी
रात
घास.फूस की छत पर
क्या पूछूँ
सड़क बीच चलने
वालों से
क्या पूछूँ क्या
पूछूँ
पूछूँ उनसे
चलते.चलते जो
ठहर गए दोराहों पर
पूछूँ उनसे
किस लिए चले वे
बीच छोड़ए
फुटपाथों पर
उस.उस दूरी के
आस.पास ही
अगुवाने को
खड़े हुए थे गलियारे
उनकी वामनिया
मनुहारों पर
किस तरह
कतारें टूट गई क्या
पूछूँ
सड़क बीच चलने वालों से
क्या पूछूँ क्या
पूछूँ
10.इसे मत छेड़ पसर जाएगी
......................................
इसे मत छेड़ पसर जाएगी
रेत है रेत बिफर जाएगी
कुछ नहीं प्यास का समंदर हैए
जिन्दगी पाँव.पाँव जाएगी
धूप उफने है इस कलेजे पर
हाथ मत डाल ये जलाएगी
इसने निगले हैं कई लस्कर
ये कई और निगल जाएगी
न छलावे दिखा तू पानी के
जमीं.आकाश तोड़ लाएगीए
उठी गाँवों से ये ख़म खाकर
एक आँधी सी शहर जाएगी
आँख की किरकिरी नहीं है ये
झाँकलो झील नजर आएगी
सुबह बीजी है लड़के मौसम से
सींच कर साँस दिन उगाएगी
काँच अब क्या हरीश मांजे है
रोशनी रेत में नहाएगी
इसे मत छेड़ पसर जाएगी
रेत है रेत बिफर जाएगी
हरीश भादानी
जन्म: 11 जून 1933
निधन: 2 अक्तूबर 2009
जन्म स्थान: बीकानेर, राजस्थान
कुछ प्रमुख कृतियाँ: अधूरे गीत (1959),सपन की गली (1961), हँसिनी याद की (1963), एक उजली नज़र की सुई (1966),सुलगते पिण्ड (1966), नष्टो मोह (1981), सन्नाटे के शिलाखंड पर (1982), एक अकेला सूरज खेले (1983), रोटी नाम सत है (1982), सड़कवासी राम (1985), आज की आंख का सिलसिला (1985), पितृकल्प (1991), साथ चलें हम (1992), मैं मेरा अष्टावक्र (1999), क्यों करें प्रार्थना (2006), आड़ी तानें-सीधी तानें (2006)
विविध: विस्मय के अंशी है (1988) और सयुजा सखाया (1998) के नाम से दो पुस्तकों में
ईशोपनिषद व संस्कृत कविताओं तथा असवामीय सूत्र, अथर्वद, वनदेवी खंड की कविताओं का
गीत रूपान्तर प्रकाशित