सोमवार, 31 अगस्त 2015



          कुंवर रविन्द्र के चित्रों का संसार



कुँवर रवीन्द्र के चित्र मानवीय यथार्थ की जनपक्षीय एवं  व्यवहारिक अभिव्यन्जना करते हैं । चित्र केवल अनुभूति के दायरे में सिमट कर नही रह जाते बल्कि संकटापन्न मनुष्यता की शाश्वत सत्ता की याद दिला देते हैं । उनकी कला कलागत मानकों के अनुरूप यथातथ्यवाद से पृथक परिप्रेक्ष्य ग्रहण करते हुए  द्वन्दों से प्रभावित मनुष्य की कल्पनाओं , भंगिमाओं , जिजीविषा को वर्गीय खांचे मे फिट कर देती है रवीन्द्र के वैचारिक सरोकार उनके द्वारा सृजित बिम्बों मे सुस्पष्ट देखे जा सकते हैं । उनके चित्रों में समाहित अकेलापन पूँजीवादी अलगाव और पीडाओं  का भीषण युग बोध है इस परिवेश की त्रासद निर्थकता व व्याप्त विघटनों को चित्रों मे केन्द्रित कर देने वाला चित्रकार रवीन्द्र ही हो सकता है ।रवीन्द्र के चित्रों का सौन्दर्य जीवन बोध है हर एक चित्र का सन्दर्भ सामाजिक द्वन्द से जुडा है व्यक्ति और चिडिया का संवाद द्वन्दों के बीच त्रासद पराजयों का आत्ममूल्यांकन है रंगों का सप्रयोज्य संयोजन तमाम सन्दर्भों को बहुआयामी विस्तार देतें हैं रंग निरर्थक नहीं हैं सुन्दर पुनर्रचना का प्रक्षेपण हैं । रवीन्द्र के चित्रों पर जो बहस 'लोकविमर्श' में चल रही है उस पर  आज युवा कवि प्रेमन्दन की प्रतिक्रिया मुझे प्राप्त हुई है प्रेमनन्दन लोकधर्मी कवि हैं उनकी कविताओं का ताना बाना प्रतिरोध की तीखी भंगिमाओं के इर्द गिर्द बुना रहता है पत्र पत्रिकाओं में उनकी कविताएं छपती रहीं हैं पर अपनी चर्चा से वो हमेशा दूर रहे है़ लोकविमर्श २०१५ का एक वाकया  मुझे याद आ रहा है जब प्रेम जी ने मुझसे कहा "कि हमारी कविताओं पर बात न हो वरिष्ठ लोगों पर चर्चा होना चाहिए हम और आप तो फोन पर चर्चा कर सकतें हैं" आत्ममुग्धताओं का यह दौर जब कि कवि खुद की सकारात्मक चर्चा न होने पर मित्रता को भी शत्रुता में तब्दील करते घूम रहें हों वहां प्रेमनन्दन जैसे निस्पृह एवं प्रतिबद्ध कवि का होना सुकून देता है प्रस्तुत है रवीन्द्र के चित्रों पर प्रेमनन्दन जी का हस्तक्षेप  




रंगों और शब्दों का अद्भुत कोलाज हैं कुंवर रवीन्द्र के चित्र 


समय की विद्रूपताओं और त्रासद यथार्थ को   अपनी तुलिका से चित्रित करने वाले, कुंवर रवीन्द्र अपने समय के विलक्षण कलाकार हैं | वे रंग और रेखाओं के सयोंजन से जीवन की संभावनाओं को जिंदा रखने और उन्हें संबल प्रदान करने वाले चित्रकार हैं  | उनके चित्रों में सर्वत्र दिखाई देने वाली एक  चिड़िया  उनकी इन्ही  प्रतिबद्धताओं का प्रतीक है | उन्होंने अब तक १७००० से ज्यादा चित्र बनाये हैं और वर्तमान की लगभग सभी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के आवरण में उनके बनाये चित्र दिखाई देते हैं | लगभग सभी प्रकाशन समूहों से हर साल प्रकशित सैकड़ों किताबों के कवर उनकी तूलिका से बने होते  हैं | शायद ही कोई ऐसा रचनाकार होगा जिसकी कविताओं पर उन्होंने चित्र न बनायें हों | उनके द्वारा बनाये गए विभिन्न कविता पोस्टरों में जब रंगों के साथ शब्दों की जुगलबंदी होती है तो कविता और चित्र दोनों का प्रभाव बहुगुणित हो जाता है | शब्दों में निहित ताप जब कैनवास पर रंगों को तपाता है तो मानो कविता में बिम्ब खिल-खिल उठते हैं और उनकी तपिश को बाखूबी महसूस किया जा सकता है |
 रवींन्द्र जी इतने सहज और सरल हैं कि बड़े और अपने समकालीन रचनाकारों के साथ-साथ वे नवोदित रचनाकारों की कविताओं पर भी चित्र बनाते हैं | हाँ , एक बात जरूर है कि ऐसा वे अपनी शर्तों पर ही करते हैं |  उनकी अब तक दर्जनों एकल एवं सामूहिक चित्र प्रदर्शनी देश के विभिन्न शहरों में लग  चुकी हैं वे कैनवास पर रंगों के माध्यम से कविता जैसे सहज और ग्राह्य चित्र बनाने वाले चित्रकार हैं | वैसे तो उनकी पहचान एक चित्रकार के रूप में ज्यादा है लेकिन वे जितने अच्छे चित्रकार हैं उतने ही बड़े कवि भी हैं | ये अलग बात है कि उनकी प्रसिद्धि एक चित्रकार के रूप में ज्यादा है |



एक चित्रकार और कवि के रूप में मैं उनके नाम से तो काफी पहले से परिचित था लेकिन उनसे साक्षात मिलने का अवसर मिला लोक विमर्श -२०१५ के पिथौरागढ़ के लोक विमर्श शिविर में | लोक विमर्श -२०१५ के सात दिवसीय लोक विमर्श शिविर की शुरुआत ही कुंवर रवीन्द्र की एकल चित्र प्रदर्शनी से हुई | ०८ जून २०१५ को पिथौरागढ़ में पहाड़ी स्थापत्य कला में निर्मित एक होटल “बाखली “ के एक विस्तृत हाल में रवीन्द्र जी की तूलिका से  सजे चित्र एवं कविता पोस्टर प्रदर्शनी को देखना –समझना मेरे लिए एक रोमांचकारी अनुभव था| इस प्रदर्शनी में उनके ६० कविता पोस्टर लगाए गए थे जिनमे धूमिल , मुक्तिबोध , नागार्जुन , रघुवीर सहाय , शील , मानबहादुर सिंह , केशव तिवारी ,नवनीत पाण्डेय , महेश पुनेठा , सहित हिंदी के तमाम कवियों की कविताएँ रवींद्र जी के कविता पोस्टरों में जीवन के विविध रंग बिखेर रहीं थीं उनके चित्रों में चित्रित विभिन्न कवियों की कवितायें जीवन के कुछ अलग ही तेवर दिखा रहीं थीं |


इस प्रदर्शनी के बाद अगले पूरे सप्ताह भर हम लोगों को उनके साथ रहने – बतियाने का मौका मिला | जैसे ही समय मिलता हम लोग उनको घेर लेते और उनके चित्रों के बारे में उनसे बात करते | वे मुस्कुराते हुए बड़े धैर्य से हम लोगों की बातें सुनते और हमारी शंका का समाधान करते | इस दौरान हमें कभी ऐसा नहीं लगा कि की हम इतने बड़े चित्रकार से बातें कर रहे हैं |  हम बच्चों के साथ उनका मित्रवत व्यवहार उनके बड़प्पन को और गरिमा प्रदान करता रहा और हम लोगों की नजरों में वे और सम्मानीय हो गए |  रवींद्र जी  रिस्तो में नजदीकी के साथ-साथ एक सम्मानित दूरी बनाए रखने वाले एक बेहद ही सहज और सरल इंसान हैं |  इस मामले में उनकी कविताओं, चित्रों और व्यक्तित्व में रत्ती भर का भी अंतर नहीं हैं | जैसा सहज , सरल उनका व्यक्तित्व है वैसी ही उनकी कविताएँ और उनके चित्र | वे अपने चित्रों में रंगों से कवितायें लिखते हैं और अपनी कविताओं में शब्दों से चित्र उकेरते हैं | वैसे तो उनकी पहचान एक चित्रकार के रूप में ज्यादा है लेकिन रवीन्द्र जी एक बेहतरीन कवि भी हैं | उनको कविता की पहचान है जब  कवितायें उनके बनाए पोस्टरों में चित्रित होती हैं तो यह सामंजस्य का एक ऐसा अद्भुत कोलाज बनता हैं कि कविता चित्र बन जाती हैं और चित्र कविता | आइए उनके इस अद्भुत कोलाज को हम भी महसूस करें 







प्रेम नंदन - युवा कवि एवं कहानीकार 
फतेहपुर 

रविवार, 23 अगस्त 2015

सज़ग शिल्पी - कुंवर रवीन्द्र




 रंग और रेखाओं के हल्के और गहरे अंकन से जीवन की उम्मीदों का मूर्तन करने मे सिद्धहस्त कुंवर रवीन्द्र का व्यक्तित्व भी उनके चित्रों मे समाया हुआ है । जब कविता अपनी जमीन के असाधारण एवं कटु सच को कहने मे चूक सकती है ऐसे में अक्सर कवि समाधान के अन्यान्य साधनों की खोज करने लगता है यहीं से तमाम कलाएं कविता को संक्रमित करने लगती हैं ।कला केवल एक माध्यम है कविता नहीं है भाव , निहितार्थ , संवेदन , पीडाबोध , युग-बोध , जैसे कविता मे अंकित होतें हैं हो सकता है 'कला' उन्हे बेहतर अंकित करे  | कला और जीवन का सम्बन्ध निरपेक्ष नहीं होता सापेक्ष होता है |रवीन्द्र की कलात्मक प्रेरणा जीवन और जगत की सापेक्षिक अनुभूतियों में अन्तर्निहित है । उनकी कला बुर्जुवा पलायनवाद का सर्वसुलभ मार्ग नहीं है बल्कि जीवन के कटे , पिटे विद्रूप सन्दर्भों पर मनुष्यता के विजय की कहानी है । पलायन का मार्ग यथार्थ से कटकर बनता है जो आदर्शवादी गन्तव्य को भौतिक समाधान मानकर चलता है लेकिन विजय तो हथियारों के बल पर ही सम्भव है मनुष्यता की  विजय तभी सम्भव है जब चित्र चरित्रों को जन्म दें । रवीन्द्र के रंग और रेखाओं द्वारा सृजित 'करेक्टर' बिखरे एवं त्रासद यथार्थ से जीवन्त मुठभेड करतें हैं वहीं विजय प्राप्त करते हैं वहीं टूटते हैं वहीं जीवन अर्जित करतें हैं वो नये जीवन का निर्माण नहीं करते इस दुनियां से अलग दुनियां नही बनाते  बल्कि जीवन की पुनर्रचना करते हैं इसी दुनियां को बदलने की कोशिश करते हैं । लोकविमर्श में कुंवर रवींद्र जी के चित्रों पर बहस चल रही है आज इस बहस में राजीव रंजन जी का आलेख मुझको प्राप्त हुआ जिसे आज लोकविमर्श में प्रकाशित कर रहा हूँ ..................



समकालीनता के प्रतिनिधि हैं रवीन्द्र कुँअर के चित्र [आलेख] – राजीव रंजन प्रसाद
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मेरे निवास पर एक कप चाय के लिये आपको निमंत्रण हैकुँअर रवीन्द्र का यह मैसेज मुझे फेसबुक के माध्यम से प्राप्त हुआ था। मैं अपने गृहनगर बचेली जा रहा था; रायपुर पहुँचने के पश्चात ‘नेकी और पूछ पूछ’ वाली कहावत मैने तुरंत ही चरितार्थ कर दी और उनके निवास पर पहुँच गया। एक कलाकार की जिन्दगी उसके घर में प्रवेश करते ही झांकने लगती है। बाहर का कक्ष जिसमें एक डेस्क्टॉप और उसके समानांतर अलमारियाँ जिसमें अनगिनत पत्र-पत्रिकायें और पुस्तकें। दीवारों पर लगे चित्रों से बात हो पाती इससे पहले मेरा हाथ पकडे वे मुझे साथ ही लगे बैठक कक्ष में ले गये। एक दीवार जिस पर बडी सी बंदूख शान से टंगी हुई थी जो रवीन्द्र जी के मूछों वाले व्यक्तित्व के साथ बहुत जँचती होगी। दीवार का हर कोना तस्वीरों से भरा-भरा था। सामने दीवान पर भी बडे बडे पोट्रेड रखे हुए थे। कुछ ताजा बनी चित्रकृतियाँ भी जो सूख रही थीं। अगले ही दिन रायपुर में उनके चित्रों की प्रदर्शनी लगने वाली थी और यह सारी अस्तव्यस्तता इसीलिये थी। चित्रों पर चर्चा बाद में हुई पहले गर्मागर्म चाय के साथ रवीन्द्र जी ने अपना वायदा निभाया।




यह अवसर था जब चित्रकार और उसके चित्र दोनो ही मेरे सामने थे और मैं दोनो से ही बातें करना चाहता था। अपने सम्मुख उपस्थित जिस कृति को देखता वह किसी कविता सी प्रतीत होती थी; जिसमें कहीं चिडिया बोलती जान पडती तो कहीं परछाई किसी छिपे को उभार देती। गाढे गाढे रंग और गूढ गूढ बातें जो बिना शब्द ही समझने की कोशिश करने वाले को नि:शब्द कर दें। एसा कम ही होता है जब किसी चित्र को सामने रख कर कविता लिख दी जाये और फिर चित्रकार और कवि दोनो ही सहमत हों कि कूची के हर घुमाव की शब्द-दर-शब्द व्याख्या हो गयी है किंतु किसी भी कविता या कहानी से आप पूछ लीजिये वह हर रंग और रेखा से सहमत जान पडेगा यदि उसका चित्रण कुँअर रवीन्द्र ने किया है। भावों-शब्दों या कहें कि साहित्य पर गहरी पकड़ का ही प्रतिफल है कि उनके रेखाचित अथा चित्रकृतियाँ धर्मयुग, नवभारतटाईम्स, पहल, परिकथा, हंस, समावर्तन, वागर्थ, कथादेश, वसुधा, कलासमय, सर्वनाम आदि आदि अनेकानेक पत्र-पत्रिकाओं में किसी कविता का मर्म दर्शाती मिली, तो कभी किसी कहानी का कथानक कहती दिखाई पडी, तो किसी विमर्श की सहयोगी बन कर दृढता से खडी मिली, तो कभी मुखपृष्ट की भाषा बनी। एक कलाकार की उर्जा और सोचने की क्षमता का क्या इससे भी बड़ा कोई उदाहरण हो सकता है कि अब तक उनके सत्रह हजार से भी अधिक रेखांकन  चित्र प्रकाशित हुए हैं तथा साधना अब भी अनवरत जारी है।



शायद ही कोई एसा रचनाकार होगा जिसके मन में यह इच्छा न जागती हो कि उसकी किताब का मुखपृष्ठ रवीन्द्र कुँअर की कूची से निकले। यद्यपि इतने सुलभ भी नहीं हैं वे, चूंकि बातो बातों में ही उन्होंने कविता पोस्टर पर अपना दृष्टिकोण बताते हुए कहा कि मुझे किस कविता को अपने चित्र देने हैं यह मैं स्वयं तय करता हूँ यद्यपि मुझपर कवि मण्डली से दबाव बहुत रहता है। कलाकार वही तो है तो अपनी शर्तो पर काम करे और उसे स्वयं स्पष्ट हो कि वह क्या कर रहा है तथा वही कार्य कर रहा है जो करना चाहता है।



रवीन्द्र कुँअर से मुलाकात के बहुत पहले से ही मैं उनकी रेखाओं और चित्रों से परिचित था लेकिन जब वे स्वयं अपने चित्रों के मायने समझा रहे थे तो रह रह कर अभिभूत हो जाता कि इस समय एक अद्भुत और असाधारण व्यक्ति के साथ मैं खडा हूँ। कितने ही चित्र जो अलग अलग रखे थे और संभवत: अलग अलग भावार्थों के लिये बनाये गये थे किंतु एक नन्ही सी चिडिया ही उन्हें आपस में जोड देती थी। एक प्रेक्षक की तरह मैने उनके निजी संग्रह में जितने भी चित्र उस दिन देखे वे सभी मुझे आपस में किसी उपन्यास की तरह बहुत बडे कलेवर की बात कहते मिले और किसी क्षणिका की तरह एकाकी भी जान पडे। 



ये चित्र किसी समकालीन कविता की तरह अपने समाज के लिये लडते खडे होते हैं तो कभी बहती नदी बन जाते हैं और फिर उन्हे मंत्रमुग्ध हो कर निहारते रहा जा सकता है। स्त्री उनके चित्रों में हर बार विमर्श की तरह ही आती है। न केवल उनके रंग ही प्रकृति के नजदीक उन्हें खड़ा करते हैं बल्कि उनके चित्र भी धरती को, पेड पौधों को, नदी को, आकाश को, बादलों को और हर बार किसी न किसी रूप में चिडिया को समाहित किये रहते हैं।


हर वह चित्र जिसके सामने मैं खडा था जैसे ही उसे समझता तो लगता कि इस कृति में मैं भी कहीं हूँ। क्या अंतर्मन के इतना गहरे भी कोई उतर सकता है? क्या अपने बिम्बों के साथ इतना प्रयोगधर्मी भी कोई हो सकता है कि कुछ रेखायें ही इतना कुछ कह दे जो महाकाव्यों के लिये भी असम्भव हो? सबसे असाधारण बात यह कि रवीन्द्र कुँअर के चित्र चीखते-चिल्लाते हुए नहीं है, ये आपको बडे बडे विचारों की आग्नि में नहीं झोंकते, ये चित्र आपको किसी भूलभुलैया में घुसा कर फारिग नहीं होते और न ही ये चित्र आपको इंकलाब और जिन्दाबाद का सूत्र थमा देते हैं। ये चित्र तो आईने की तरह है और आप इसमे अपनी ही भावनाओं का अक्स देख सकते है, अपने ही समय को हू-बहू महसूस कर सकते हैं, आप मुस्कुरा सकते हैं, आपकी आँखे भर सकती हैं, आप उस शून्य में आ खडे हो सकते हैं जिसके पश्चात आपकी विचार श्रंखलायें खुद को तरोताजा महसूस करेंगी किसी भी विमर्श के लिये।


 रवीन्द्र कुँअर मुझे बेहद भावुक इंसान प्रतीत हुए क्योंकि जो कुछ भी उन्होंने रचा है उसमे से प्रत्येक उनके मन के किसी संवेदनशील कोने की ही अभिव्यक्ति हैं। प्रयोग धर्मिता के लिये भी मैं उनकी कृतियों को महत्वपूर्ण मानता हूँ चूंकि उनके अनेकानेक बार प्रयोग में आने वाले वही वही बिम्ब किस तरह कई कई अर्थों में कोई दृश्य उपस्थित कर सकते हैं यह देखते ही बनता है। 



इस दौर के जितने भी चित्रकारों से मैं प्रभावित हूँ अथवा जिनके भी रेखाचित्रों नें मुझे ठहर कर सोचने के लिये बाध्य किया है उन नामों में मैं रवीन्द्र कुँअर को सर्वोपरि रखना चाहूँगा। चित्रकला में जिस क्लिष्टता को इन दिनो आवश्यक तत्व मान लिया गया है और जटिलतम बिम्ब आरूढ हो चले हैं वहीं रवीन्द्र कुँअर के चित्रों में हर देखने वाले के लिये एक अर्थ उपस्थित मिलता है।


रवीन्द्र कुँअर और उनके चित्रों के साथ मेरी यह शाम अविस्मरणीय थी। इन चित्रों ने मुझे तराशा। उनके चित्रों से निकल कर चिडिया मेरे कंधे पर आ बैठी थी और मेरे सोच में एक पूरा आकाश समा गया था। अगर किसी समय का सच्चा प्रतिनिधि उसका साहित्य है तो आज के साहित्य का सर्वश्रेष्ठ परिचय रविन्द्र कुँअर के चित्र ही हैं।

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मंगलवार, 18 अगस्त 2015

बेटियों को मुखाग्नि का अधिकार क्यूँ नहीं

सम्पूर्ण भारत को यदि एक वाक्य में समेटा जाये तो उसे परम्पराओं का सम्राट कहना अनुचित नहीं होगा । विभिन्न धर्मों, मौसमो ,संस्कृतियों और परम्पराओं से सुसज्जित भारतीय जीवन शैली अपने आप में अनोखी और वंदनीय है । प्रातः काल से शुरू होने वाला स्नान ध्यान रात्रि तक भारत को पुष्पों की महक, दीपको  की जगमगाहट और घण्टियों की गूंज से सुशोभित करता रहता है । भारत की यही संस्कृति, ईश्वर में आस्था और प्रेम की पराकाष्ठा संसार से विभिन्न जातियों के लोगों को भारतीय संस्कृति में रम जाने को प्रेरित करती है ।
                              परन्तु क्या भारतीय परम्पराएँ उतनी ही खूबसूरत और सम्पूर्ण हैं ?, जितना की हम व्याख्यान करते हैं । यदि धर्म , जात - पात की बात छोड़ भी दें तो क्या ये परम्पराएँ स्त्री और पुरुष को समान अधिकार और सम्मान प्रदान करती हैं ? और क्या ये परम्पराएँ अपनी छाती पर रूढ़ियों और एकाधिकार के वृक्षों को हरा भरा नहीं कर रही हैं ? सदियों से नारी को भोग और मनोरंजन की सामाग्री मानने वाले पुरुष आज भी स्त्री को प्रत्येक क्षेत्र में समान अधिकार देने को तैयार नही है । हद तो इस दर्जे तक भी है की धन , जमीन , और जायदाद की बात तो छोड़िए स्त्री के पास जन्म का अधिकार भी नहीं है । भारतीय समाज में आज भी आए दिन कन्या भ्रूण हत्या या नन्ही नन्ही मासूम बच्चियों की हत्या के मामले सामने आ रहे हैं । चाँद और मंगल पर जाने वाला भारतीय समाज आज भी लिंग भेद के गुण गाता नज़र आता है । बेटियों को कच्ची उम्र से ही कमतर होने का पाठ पढ़ाया जाता है । अबोध बालिकाओं के अविकसित देह को दुपट्टे और पर्दे में जकड़ लिया जाता है । स्त्री कहाँ जाएगी , क्या पहनेगी , क्या पढ़ेगी , किसके साथ जीवन यापन करेगी इन सब प्रश्नों का उत्तर केवल पुरुष सत्ता तय करेगी । भारतीय सामज में लड़कियां प्राचीन काल से ही समाज द्वारा थोपी गयी रूढ़ियों में जल रही हैं । केवल नाम और रिश्ते बादल जाते हैं , व्यवहार वही रहता है अभद्र और अमानुष ।
                              आखिर क्यों स्त्री को इस व्यवहार और अपमान के लायक समझा गया है ? यदि आंकलन करें तो भारतीय समाज का बहुत ही वीभत्स रूप नग्न हो जाता है । प्रकृति की बनावट के नाम पर स्त्री को केवल माँस के लोथड़े में आँकने वाला भयानक और क्रूर समाज , जिसने इहलोक तो क्या परलोक तक के लिए केवल पुत्र को ही श्रेष्ठ माना है । अपने गर्भ में नौ महीने सींचने वाली स्त्री जो यदि न हो तो संसार समाप्त हो जाए , अपने ही अस्तित्व के लिए छटपटाती रहती है । आइये दृष्टिपात करते है भारतीय समाज की एक अतिमहत्वपूर्ण मान्यता बेटियों को मुखाग्नि के अधिकार से वंचित रखने पर ।
                              भारतीय समाज ने पुत्रेष्टि यज्ञ के अलावा और भी कई कर्मकांडों में पुत्र की उपस्थिति को अनिवार्य माना है । पुत्र के वर्चस्व को अनेक अनुष्ठानों और धार्मिक कर्मों द्वारा सर्वोपरि माना गया है । पुत्र नहीं होगा तो माता-पिता का जीवन अधूरा कहा जाएगा , वह परिवार का कर्ता-धर्ता और वंश पालक होगा । व्यक्तिगत सम्पत्ति का स्वामी होने से लेकर मुखाग्नि तथा पिंडदान का अधिकारी भी वही होगा अर्थात मरने के बाद माता-पिता के मोक्ष की गारंटी भी केवल पुत्र ही होगा ।
आखिर क्यों ? क्या बेटियों के मुखाग्नि देने पर मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी ? जीवन को ही सम्पूर्ण रूप से ना जान पाने वाले व्यक्ति आखिर मृत्यु के पश्चात प्राप्त होने वाले मोक्ष का परिचय किस आधार पर देते है ? यदि बड़े बड़े विद्वान पंडितों की दी हुई दलीलों पर ध्यान केन्द्रित करें तो निम्न तथ्य सामने आते है जिनके आधार पर वे बेटियों को मुखाग्नि के अधिकार के लिए अयोग्य ठहराते है
पहला कारण भारतीय संस्कृति ने बेटियों को पराया धन मानते हुए न घर का छोड़ा है न घाट का । जिस माँ की कोख से कन्या जन्म लेती है और जिस पिता की मजबूत बाहों को वह अपना सुरक्षा कवच समझती है , वही माँ पिता उसे कुछ वर्षों पश्चात पराया धन की संज्ञा देकर घर आँगन से वंचित कर देते है और सौंप देते है दूसरे परिवार को । जिस कन्या को वह परिवार का अंग ही नहीं मानते उसको मुखाग्नि का अधिकार देना तो दूर की बात है ।
दूसरा कारण जीती जागती बेटियों को भारतीय समाज ना केवल वस्तु बल्कि दान की वस्तु समझता है । बेटियों को भेड़ बकरी समझ कर विवाह अनुष्ठान करके दूसरे परिवार को दान कर दिया जाता है अर्थात स्वामी बदल जाते है परन्तु बेटी वहीं की वहीं रह जाती है "वस्तु " और जिसके पास अपने ही अस्तित्व का अधिकार नहीं वह मुखाग्नि के अधिकार के लिए कैसे योग्य समझी जाएगी ।
तीसरा कारण यदि पुत्र मुखाग्नि न दे तो माता पिता को प्रेत योनि की प्राप्ति होती है । इस बहुत ही बचकाना दलील पर यह प्रश्न उठता है की आखिर किसने देखा है पुत्र द्वारा मुखाग्नि प्राप्त करके माता पिता को देव योनि में जाते हुए । क्या पंडितों के पास स्वर्ग के अस्तित्व का कोई प्रमाण है या पुत्र द्वारा मोक्ष प्राप्त होने का कोई प्रमाण पत्र ?
चौथा कारण पुत्र वंश चलाता है , ये दलील सबसे अधिक हास्य जनक है । गर्भ सींचने वाली , आकार देने वाली , भरण पोषण करने वाली तो नारी है पर वंश चलाने वाला पुरुष । जनन प्रक्रिया द्वारा संसार को जीवन देने वाली स्त्री स्वयम प्रमाण है वंश संचालिका होने का । किस वंश की बात करता है भारतीय समाज ? जबकि विज्ञान यह साबित कर चुका है की प्रत्येक भ्रूण को जीवन देने में स्त्री पुरुष बराबर के सहभागी है , फिर कर्मकांडों में क्यों नहीं ?
पांचवा कारण मान्यता है की पुत्र माता पिता की सेवा करके अपना कर्ज उतारता है । उनके बुढ़ापे की लाठी होता है और वृद्धावस्था में उनका भरण पोषण कर अपना फर्ज निभाता है परन्तु आज तो बेटियाँ प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी है । शिक्षा हो या रोजगार , बेटियाँ अपना सम्पूर्ण दायित्व निभा रही है । जब बेटियाँ अपने माता पिता की देखरेख कर रही है तो उनको मुखाग्नि के अधिकार से क्यों वंचित रखा जाए । इसी प्रकार की कई दक़ियानूसी मान्यताएँ पुत्र एकाधिकार को सुरक्षा कवच प्रदान करती है परन्तु अब समय बदल रहा है । बेटियाँ ना केवल अपने अधिकारों के प्रति सजग हो रही है बल्कि भारतीय रूढ़ियों को धत्ता बताकर अपना स्थान व सम्मान छीन रही है । बेटियों ने सामाजिक दायरों के बाढ़े को तोड़कर स्वावलंबी बगिया में पुष्पों की भांति महकना शुरू कर दिया है । कुछ बेटियों ने समाज और हिन्दू धर्म के ठेकेदारों को अंगूठा दिखाकर अपने माता पिता को मुखाग्नि दी है । इन प्रतिकूल परिस्थितियों में मध्यप्रदेश के देवास शहर की सोनाली , मोनाली और नैनो ने परम्पराओं को चुनौती देते हुए अपने पिता का दाह संस्कार किया । उसी प्रकार देवास की ही अंकिता , ऋचा , आकांक्षा ने अपने पिता को और सुधा , शारदा ,तारा ,प्रेमकुंवर ने अपनी 97 वर्षीय माँ को मुखाग्नि दी । नागपुर की ममता ने अपनी माँ को और लखनऊ उन्नाव की रूबी ने अपने पिता के होते हुए भी अपनी माँ को मुखाग्नि दी । रूबी के पिता उसकी माँ को 18 वर्ष पहले ही छोड़ चुके थे इसलिए उनके होते हुए भी रुबी ने कठोरता से उन्हे माँ का संस्कार करने से रोक दिया और स्वयं मुखाग्नि की प्रत्येक प्रक्रिया को सम्पूर्ण किया । इसी प्रकार की और भी कई  घटनाए प्रकाश में आ रही है ,जिनमे बेटियों ने बेटो से बढ़कर माँ बाप के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाया है और उन्हे मुखाग्नि भी दी है । आज की बेटियों के संघर्ष को देखते हुए वो दिन दूर नहीं जब भारत की नई परम्पराओं और मान्यताओ का इतिहास लिखा जाएगा , जिसमे पुत्र और पुत्री को प्रत्येक क्षेत्र में समान स्थान और सम्मान दिया जाएगा ।


                                          संजना अभिषेक तिवारी
                                          आंध्र प्रदेश
                                   
                 


रविवार, 9 अगस्त 2015

 कुंवर रवींद्र के चित्रों का संसार ---युवा कवियित्री मनीषा जैन की दृष्टि



15 जून 1957 को जन्में कवि  चित्रकार के. रविन्द्र जी के चित्रों का संसार बेहद अद्भुत है। के. रविन्द्र जी के चित्रों को मैंने फेसबुक की दुनिया के जरिए से जाना। इनके चित्रों में आर्कषण का आलम यह है कि लगता है कि बस देखते ही रहो ये चित्र। इन चित्रों में जीवन है , मनुष्यता है तथा जीवन के पांच तत्वों    (पृथ्वी, जल,  अग्नि, आकाश, वायु) का समावेश है। और प्रकृति की अद्भुत छटा तथा केन्द्र में रंगबिरंगें रंगो से रंगी चिड़िया व मानव है। मानव व प्रकृति का गहरा रिश्ता होता है ऐसा ही इनके चित्रों में भी दिखाई देता है। कई चित्रों में तो चिड़िया मानो कुछ कहती हुई प्रतीत होती है। रविन्द्र जी की कविताएं भी कई रंगों की हैं। वे रंगों में कविता का समावेश करते हैं या कविता में रंगो का कहना मुश्किल है।


वे रंग व शब्दों के ताने बाने से अपनी कला की दुनिया सजाते हैं। यदि कहें कि रविन्द्र जी की कला रूपी नदी में जीवन व प्रकृति से ओतप्रोत लहरों का प्रवाह बहता है तो यह अतिश्योक्ति न होगी। इनके चित्रो की अनेक प्रर्दशनियां लग चुकी हैं तथा लग रही हैं। अब तक पत्रिकाओं तथा पुस्तकों के सत्रह हजार मुखपृष्ठों में इनके चित्र स्थान पा चुके हैं। रविन्द्र जी के पास चित्रो का ख़जाना है और हरेक चित्र एक दूसरे से भिन्न है  कहीं कोई दोहराव नहीं। चित्रों में कहीं घर रूपी झोंपड़ी की छत पर चिड़िया बैठी है जो जीवन का संदेश देती है कि इस घर में जीवन है। एक चित्र है नीले सफेद रंग का,  जिसमें कई छोटे बड़े घर हैं और आकाश में आधा चांद है जैसे कि बोलता सा प्रतीत होता है मानो मकान के भीतर से अभी कोई आदमी बाहर निकलेगा। इनके चित्रों में प्रतीकों व बिबों का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है। किसी चित्र में दो उदास चेहरे दिखलाई देते हैं , तो उसी चित्र में चिड़िया खुशी,  आशा, उल्लास का प्रतीक है। जिसे देखकर उम्मीद बंधती है। जिस तरह जे. स्वामीनाथन के चित्रों में पहाड़ पर चिड़िया जीवन की प्रतीक है। उसी तरह इनके चित्रों में चिड़िया विशेष रूपक बांधती है।



एक चित्र जिसकी पृष्ठभूमि पीली है, उसमें घास के गलीचे पर एक लाल रंग का व्यक्ति अपने पैरो पर हाथ रखकर बैठा है, उसके कंधे पर एक नीली चिड़िया बैठी है ऐसा प्रतीत होता है कि मानो चिड़िया व मानव का संवाद चल रहा है। आज की पत्थर होती दुनिया में ऐसे चित्र व्यक्ति में हर्ष व उल्लास का संचार तो करते ही हैं।


के. रविन्द्र ने अब तक अनेक कविता पोस्टर भी बनाए हैं , उनमें अद्वितीय सौन्दर्य झलकता है। अद्भुत रंग संयोजन। एक चित्र जिसमें सफेद वस्त्र पहने एक स्त्री मुंह नीचा किए बैठी है और उसके घुटने पर एक छोटी सी चिड़िया चोंच खोले कुछ कह रही है,  अब यह चित्र देख कर सोचा जा सकता है कि चिड़िया क्या कह रही होगी ? जरूर ही उस स्त्री में प्रसन्नता का भाव भर रही होगी या पूछ रही होगी कि तुम उदास क्यों हो?


आज के समय का यथार्थ इनके चित्रों व कविता का विषय है। चित्रों में कहीं कहीं एक चेहरे में दो चेहरे दिखाई देते हैं, क्या ये आज के मनुष्य के चेहरे पर चेहरे जैसे मुखौटे नहीं प्रतीत होते , किसी चित्र में एकतारा बजाता गांव का युवक है, 

 कहीं अकेली स्त्री व उसकी परछाई है ,  कहीं घर की खिड़की के बाहर दो स्त्रियां खड़ी हैं,  कहीं मां व उसके बच्चे हैं,  मतलब इन चित्रों के विषय अनगिनत, रूप अनुपम व रंग अद्भुत हैं। इनके चित्र जीवन , घर,  आशा निराशा,  इंतजार,  अकेलापन के भावों से ओतप्रोत हैं। इनके चित्र आज की विसंगतियों से भरे जीवन में मनुष्यता का संचार करते हैं। 


समकालीन यथार्थ से निकले ये चित्र अद्भुत संवाद स्थापित करते हैं तथा कल्पना के द्वारा दर्शक इनमें अपना संसार खोजता है। तथा लोक की संवेदना से संपृक्त ये आकृतियां बिना कुछ कहे बहुत कुछ कहती हैं चित्रो में भावों का एक अनवरत् प्रवाह बहता प्रतीत होता है।

मनीषा जैन
दिल्ली




मैला सिर्फ वह ही नहीं होता
जिस पर कीचड उछाल कर
मैला किया जा रहा हो
उससे ज़्यादा मैला
सोच और समझ से भी
वह होता है
जो कीचड में खड़े होकर
अंजुरी भर -भर कीचड उछाल रहा होता है





औरतें !
बहुत भली होती हैं
जब तक वे आपकी हाँ में हाँ मिलाती हैं
औरते ! 
बहुत बुरी होती हैं 
जब वे सोचने - समझने 
और
खड़ी होकर बोलने लगती हैं

3
झील का विस्तार देख कर
नहीं लगा पाया अनुमान
उसके उथलेपन का
कूद पड़ा 
और तुड़वा बैठा हाथ पैर
झीलें इतनी उथली भी होती हैं
पता नहीं था
एक दिन उसका उथलापन
झील को ख़त्म कर देगा
यह उसे पता नहीं


4
ये खुदा 
बच्चों को लम्बी उम्र आता फरमा
मेरे बच्चों ,बस मैं इतनी ही दुआ कर सकता हूँ
मज़हबों के नाम पर
तुम्हारा क़त्ल होना
अब मेरी बर्दास्त से बाहर हो गया है
लोगों ! 
यदि बच्चे ज़िंदा रहेंगे 
तो तुम्हारा मज़हब भी रहेगा 
बच्चों के बिना ये दुनिया ,
न मज़हब न खुदा रहेगा

5
संबंधों के परिपेक्ष में
गाँठ बांधते समय जितना एहतिया बरता जाता है
खोलते समय
उससे कहीं ज़्यादा बरता जाना चाहिए
सम्बन्ध, सम्बन्ध होता है
गाँठ , गाँठ होती है



डरे हुए लोग 
इस बात से नहीं डरते
कि कोई उन्हें डरा हुआ जान जाए
डरे हुए लोग
इस बात से भी नहीं डरते 
कि कोई उनकी कमज़ोरी न जान ले 
डरे हुए लोग
इसलिए डरते हैं
कि कहीं साथ चलने वाला
या पीछे चलने वाला
आगे न निकल जाए
दरअसल उसका नियंत्रण
न अपने डर पर होता है 
न ही अपने आप पर

मेरी एक प्यारी सी बहन है
वह इस बात से उदास है कि
वह यात्रा में थी और मैच नहीं देख पाई
और मेरा देश
क्रिकेट के मैच में हार गया
मैं उसे याद दिलाना चाहता हूँ कि
मेरी बहन उदास मत हो
शोक मनाना है तो
उस हार का मनाओ 
जनमत के जिस फाइनल मैच में 
हम देश ही हार चुके हैं


मैं सपने नहीं देखता 
सपनों से मुझे डर लगता है 
देखा था बहुत पहले एक सपना
" अपने देश " के लिए 
जिसे अब भुगत रहा हूँ