शनिवार, 26 सितंबर 2015

       ब्रिजेश नीरज की कवितायें


ब्रिजेश नीरज युवा पीढी के बेहतरीन कवि हैं उनकी आरम्भिक कविताओं और नई कविताओं के बीच उनकी रचनात्मक परिपक्वता का अन्तर स्पष्ट देखा जा सकता है । भूमंडलीकरण की औपनिवेशिक परिस्थितियों से उपजे सामाजिक , राजनैतिक , सांस्कृतिक सवालों को उनकी कविता  में बडी शिद्दत से उठाया गया है। ब्रिजेश की कविताओं का विषय मनुष्यता है । मानव जीवन की चिन्ताएं और रोजमर्रा की छोटे बडे टकराव जिनसे आदमी त्रसित होता है उनकी कविताओं की अन्तर्वस्तु है । आदमी और आदमियत के अलगाव पर तमाम अवस्थितियों की गहरी पडताल करते हुए उनकी कविता सामयिक बेचैनी का रूप अख्तियार कर लेती है । यह बेचैनी पूंजीद्वारा तेजी से बदली जा रही लोकतान्त्रिक संस्थाओं और मूल्यों के संरक्षण के प्रति है । वर्तमान विकास के आवरण मे लिपटे व्यापारवाद , धार्मिक कट्टरतावाद के प्रति वैचारिक आक्रोश को उनकी भाषा और बुनावट के सन्दर्भ में भी परखा जा सकता है इस सन्दर्भ में मै यही कहूंगा कि उनकी भाषा प्रतिरोध की भाषा है । व्यवस्था द्वारा कुचले गये आदमी की युद्धरत भाषा है । यहां  पर ब्रिजेश नीरज अनावश्यक प्रयोगों से बचते हुए लोकभाषा को तरजीह देते हैं उनकी गांव और घरेलू सन्दर्भ की कविताओं में इस भाषाई विशिष्टता को देखा जा सकता है । भाषागत प्रयोगों से बचकर लोकभाषा का आश्रय लेना यथार्थ को और अधिक पुष्ट कर देता है आज महानगरीय नवयुवा पीढी वगैर समझे बूझे बौद्धिक समुदाय में प्रचलित कुछ शब्दावलियों के द्वारा कविता का वितान खडा कर रहे हैं यह प्रवृत्ति घातक है ऐसे में कविता 'उबाऊ' या 'बासी' प्रतीत होती है । जब हमारे पास लोकभाषा का अथाह भंडार है तो उन्हे नये सन्दर्भ देकर क्यों न प्रयोग करें ब्रिजेश नीरज यही कर रहे हैं जैसे उनकी कविता मे आया शब्द 'फदकती दाल की तरह' फदकती शब्द ठेठ देहाती है तो उबलने या पकने के अर्थ मे प्रयुक्त होता है ब्रिजेश जी ने इसे 'जीवन' चेतना की अर्थवत्ता दी है यदि इस पंक्ति में उबलती  या पकती शब्द रख दिया जाय पूरी कविता का सौन्दर्य भहराकर बैठ जाएगा समूचे कवितांश में फदकती शब्द की उपस्थिति ही महत्वपूर्ण है ऐसे बहुत से प्रयोग इनकी कविताओं में हैं जो मानव जीवन की एकांगी अर्थच्छवियों से आगे बढकर  जिन्दगी झेलने की पीडा और अस्तित्व को समझाने में कारगर हैं । ब्रिजेश नीरज जी ने मुझे पढने के लिए अपनी नयी कविताएं भेजी थी अत: उनमे से कुछ कविताएं मैं आप सब के लिए लोकविमर्श में प्रकाशित कर रहा हूं । कविताओं के साथ चित्र वरिष्ठ चित्रकार कुवंर रवीन्द्र जी  के हैं ।तो आईए पढते हैं ब्रिजेश नीरज की कविताएं


1-प्रेम की कुछ बातें

क्या मित्र तुम भी कैसी बातें लेकर बैठ गए
मैं नहीं रच पाता प्रेम गीत
रूमानी बातों से बासी समोसे की बास आती है मुझे
माशूक की जुल्फों की जगह उभर आती हैं
आस-पास की बजबजाती नालियाँ
प्रेमिका के आलिंगन के एहसास की जगह
जकड़ लेती है पसीने से तर-ब-तर शरीर की गंध

तुम हँस रहे हो
नहीं, नहीं, मेरा भेजा बिलकुल दुरुस्त है

देखो मित्र,
भूखा पेट रूमानियत का बोझ नहीं उठा पाता
किसी पथरीली जमीन पर चलते
नहीं उभरती देवदार के वृक्षों की कल्पना
सूखते एहसासों पर चिनार के वृक्ष नहीं उगते
बारूद की गंध से भरे नथुने 
नहीं महसूस कर पाते बेला की महक   

जब प्रेम
युवती की नंगी देह में डूब जाना भर हो 
तब कविता भी
पायजामे में बंधे नाड़े से अधिक तो नहीं

ऐसे समय
जब बिवाइयों से रिसते खून के कतरों से
बदल रहा है मखमली घास का रंग
लिजलिजे शब्दों का बोझ उठाए
कितनी दूर चला जा सकता है 

शक्ति द्वारा कमजोर के अस्तित्व को
नकार दिए जाने के इस दौर में 
जब पूँजी आदमी को निगल रही हो
मैं मौन खड़ा 
बौद्धिक जुगाली करती
नपुंसक कौम का हिस्सा नहीं बनना चाहता


2-प्रतिरोध

बुझा दिए जाने के बाद भी
बची रह जाती है आग
कहीं न कहीं

जुबान काट दिए जाने
कलम तोड़ दिए जाने
किताबें नष्ट कर देने के बाद भी 
शेष रह जाते हैं शब्द
हवा में तैरते

हवा तो बहेगी ही 
नहीं रोक सकते हवा का बहना 

बहेगी हवा
दूर तक फैलेंगी शब्दों की चिंगारियाँ


3-मरा हुआ आदमी

इस तंत्र की सारी मक्कारियाँ
समझता है आदमी
आदमी देख और समझ रहा है  
जिस तरह होती है सौदेबाज़ी
भूख और रोटी की
जैसे रचे जाते हैं
धर्म और जाति के प्रपंच
गढ़े जाते हैं  
शब्दों के फरेब

लेकिन व्यवस्था के सारे छल-प्रपंचों के बीच 
रोटी की जद्दोजहद में 
आदमी को मौका ही नहीं मिलता
कुछ सोचने और बोलने का 
और इसी रस्साकसी में
एक दिन मर जाता है आदमी

साहेब!
असल में आदमी मरता नहीं है
मार दिया जाता है
वादों और नारों के बोझ तले

लोकतांत्रिक शांतिकाल में
यह एक साजिश है
तंत्र की अपने लोक के खिलाफ 
उसे खामोश रखने के लिए

कब कौन आदमी जिन्दा रह पाया है
किसी युद्धग्रस्त शांत देश में
जहाँ रोज गढ़े जाते हैं
हथियारों की तरह नारे
आदमी के लिए
आदमी के विरुद्ध

लेकिन हर मरे हुए आदमी के भीतर
सुलग रही है एक चिता
जो धीरे-धीरे आँच पकड़ेगी

धीरे-धीरे हवा तेज़ हो रही है  

4-सफ़दर हाशमी
(सफ़दर हाशमी की २५वीं पुण्य तिथि पर)

तुम समझते हो
मैं मर गया
लेकिन मैं जिन्दा हूँ

मैं जिन्दा हूँ
घास पर ओस की तरह
फूलों में पैठी खुशबू सा

मैं जिन्दा हूँ
रसोई में फदकती दाल की तरह
चूल्हे पर सिंकती रोटी की तरह

मैं जिन्दा हूँ
बच्चे की आँखों में तैरती भूख में
औरत के जिस्म में पलती साँस में

मैं जिन्दा हूँ
मंदिर की घण्टियों में
सुबहो-शाम की अजानों में
गिरजाघरों की प्रार्थनाओं में

जिन्दा हूँ
और देख रहा हूँ
तुम्हारे रंग बदलते तेवर
सुन रहा हूँ तुम्हारी व्याख्याएँ
समझ रहा हूँ तुम्हारी परिभाषाएँ

मैं जिन्दा हूँ
सारी संकीर्णताओं से परे 
दिमाग में उपजते नए विचारों में

जिन्दा हूँ
संघर्ष के नारों में
हवा में लहराती मुठ्ठियों में

जिन्दा हूँ
शिराओं में बहते खून के कतरों में
मजदूर के पसीने की बूँदों में

एक दिन तुम्हें एहसास होगा
मेरे जिन्दा होने का 
जब पसीना उठेगा ज्वार-भाटे सा,
इन अट्टालिकाओं के बीच
नारे गुजरेंगे अंधड़ से, 
फट पड़ेगी भूख बादल सी 

उस दिन तुम्हारी सारी परिभाषाएँ
ढह जाएँगी
ताश के पत्तों सी
और व्याख्याएँ विलीन हो जाएँगी 
समुद्र की अतल गहराइयों में 


5-अँधेरे से लड़ने के लिए

अँधेरे से लड़ने के लिए
धूप जरूरी नहीं होती
जरूरी नहीं होते चाँद और सूरज

जरूरी नहीं दीपक  
तेल से भीगी बाती 
माचिस की तीली

जरूरी है आग 
मन के किसी कोने में सुलगती आग


6-सोचता हूँ द्वार पर दीपक जला लूँ 

अब तिमिर की शक्ति को कुछ आज़मा लूँ
सोचता हूँ द्वार पर दीपक जला लूँ

सर्द सी प्रतिकूल बहती ये हवाएँ
अक्षरों से एक चिंगारी बना लूँ

मन में अंकित चित्र धुँधले हो चले हैं
गीत यादों के ज़रा फिर गुनगुना लूँ

हो सके कम रीतने का भाव शायद
यदि कहीं से बस नयन भर स्वप्न पा लूँ

अग्नि में प्रतिरोध की समिधा बनेगी
वेदना को और थोड़ा सा जगा लूँ



ब्रिजेश नीरज युवा कवि है लखनऊ में रहतें है जनवादी लेखक संघ के सक्रिय सदस्य हैं 


गुरुवार, 24 सितंबर 2015






वरिष्ठ चित्रकार कुँवर रवीन्द्र से  महेश चंद्र पुनेठा की बातचीत-




वरिष्ठ चित्रकार कुँवर रवीन्द्र का स्नेह प्राप्त करना मेरे लिए फेसबुक की महत्वपूर्ण उपलब्धि रही है।फेसबुक पर उनसे मेरा पहला परिचय उनके चित्ताकर्षक कविता पोस्टरों के माध्यम से ही हुआ। धीरे-धीरे यह परिचय उनके चित्रों-कविता पोस्टरों-कविताओं और चैटिंग से प्रगाढ़ता में बदल गया। उनके साथ होने वाले संवाद में मैंने पाया कि उनके भीतर एक बड़ा चित्रकार ही नहीं एक बड़ा इंसान भी है।यह संयोग आज के समय में दुर्लभ से दुर्लभतर होता जा रहा है। एक अच्छा चित्रकार और उस पर भी उच्च अधिकारी होना उनके भीतर कभी कोई अहंकार पैदा नहीं कर पाया। उनके इस व्यक्तित्व ने मुझे हमेशा बहुत अधिक प्रभावित किया इसी के बल पर मैं कभी भी उनके मैसेज बाक्स में धड़ल्ले से धमक पड़ता ,मुझे याद नहीं पड़ता कि उन्होंने कभी बातचीत में अनिच्छा व्यक्त की हो। इस बातचीत की शुरूआत भी उनके साथ होने वाली चैटिंग से ही हुई जिसके माध्यम से मुझे उन्हें और गहराई से जानने का अवसर मिला। उनके मन की सरलता के दर्शन हमें इस बातचीत में भी होते हैं। एक चित्रकार के रूप में वह किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। आज प्रकाशित हो रही हिंदी की तमाम लघु पत्रिकाओं में से हर दूसरी या तीसरी पत्रिका के आवरण पृष्ठ उनकी पेंटिंग से सजे होते हैं। उनके अब तक लगभग सत्रह हजार से अधिक चित्र प्रकाशित हो चुके हैं। हिंदी के अनेक कविताओं और लघुकथाओं पर  पोस्टर बना चुके हैं जिनकी भोपाल,रायपुर,जगदलपुर,बस्तर,बिलासपुर, भिलाई, धमतरी,लखनऊ,वर्धा, रानीखेत सहित देश के अनेक छोटे-बड़े शहरों में प्रदर्शनी लग चुकी है। प्रस्तुत है चैटिंग और ई-मेल से समय-समय पर हुई बातचीत-
1- आप स्वयं को एक कवि कहलाना चाहेंगे या चित्रकार और क्यों?
कुँवर रवीन्द्र-चित्रकार। वैसे भी एक चित्रकार बेहतर कवि होता है और एक बेहतर कवि एक बेहतर चित्रकार ही होता है।
 2-आप अपने को चित्रकला की किस परम्परा से जोड़ते हैं ?
कुँवर रवीन्द्र-छोटी बुद्धि का व्यक्ति हूँ,परम्परा वगैरह मेरी समझ से बाहर की चीज है।
3-एक अच्छी पेंटिंग में किन-किन तत्वों का ध्यान रखा जाना चाहिए?
 कुँवर रवीन्द्र- विषय का चयन ,संयोजन,स्पेस,रूप,सौन्दर्य  और संप्रेषणीयता।
4-आप चित्रकला की किस विधा में अपने आप को सबसे अधिक सहज और संतुष्ट पाते हैं?
  कुँवर रवीन्द्र-अमूर्त चित्रण में।

5-आप कविता और चित्रकला दोनों में बराबर सक्रिय हैं। आप इन दोनों के बीच कैसे संतुलन बना लेते हैं, जबकि चित्रकला बहुत अधिक समय की माँग करती है?
कुँवर रवीन्द्र -समय की मांग तो दोनों ही करती हैं। दरअसल मैं कवि नहीं हूँ मूलतः चित्रकार हूँ। हाँ, मेरे लिए एक चित्र एक कविता है जिसके माध्यम से अपनी सोच समझ या संवेदना व्यक्त करता हूँ।फिर जब अपनी बात चित्र में व्यक्त नहीं कर पाता तो लिख लेता हूँ। मेरी दृष्टि में एक अच्छी कविता एक अच्छा चित्र होती है और एक अच्छा चित्र एक अच्छी कविता , इस आधार पर संतुलन बना रहता है।
6-आप रोज पेंटिंग को कितना समय देते हैं?नौकरी के साथ यह कैसे संभव हो पाता है?
कुँवर रवीन्द्र-नौकरी के बाद बचे समय का अधिकाँश भाग,लगभग पूरी रात,३०-३५ वर्षों से करते हुए अब आदत में शुमार हो चुका है।




7-आजकल कंप्यूटर से भी पेंटिंग होने लगी है। इस नई तकनीक ने कला को किस तरह प्रभावित किया है? क्या इससे रचनात्मकता में कुछ कमी आई है?
कुँवर रवीन्द्र-नहीं,रचनात्मकता में कोइ कमी नहीं आई है और न ही इसने किसी तरह प्रभावित किया है।तकनीक का इस्तेमाल पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों के आवरण आदि बनाने,साज-सज्जा के लिए तो बेहतर है | मगर कला प्रेमी या कला की समझ रखने वाले हाथ से बने चित्रों को ही महत्त्व देते है । तकनीक का इस्तेमाल करके बनाये गए चित्रों को न तो मौलिक माना जाता है, न ही उनका कोइ मूल्य है अब तक।


    8-कविता पोस्टर बनाते हुए आप अनेक युवा कवियों की कविताओं से गुजरते रहे हैं,युवा कवियों को लेकर आपकी क्या राय है?
कुँवर रवीन्द्र-युवा कवियों में कविता के भविष्य के लिए काफी संभावनाएं है। वे उम्मीद जगाते हैं।हम कविता के बेहतर भविष्य की कल्पना कर सकते हैं।
9-आपके अनुसार कविता पोस्टर में चित्रकार की मौलिकता के लिए कितनी जगह होती है?
कुँवर रवीन्द्र-पूरी की पूरी, क्योंकि पोस्टर में कविता की अपनी अलग मौलिकता होती है और चित्र की अलग क्योंकि वहां हम कविता को अपनी दृष्टि से रचते हैं , कविता का विजुअलाईजेसन अपनी कल्पना से करते हैं ।
10-सुना है ,हर चित्रकार के अपने कुछ पसंदीदा रंग होते हैं।आपका पसंदीदा रंग कौनसा है?
कुँवर रवीन्द्र -जी , मेरा पसंदीदा रंग है धूसर या मिट्टी का रंग।




11-हर चित्रकार की कुछ यादगार पेंटिंग्स होती हैं। अपनी यादगार पेंटिंग्स के बारे में कुछ बताइए।
कुँवर रवीन्द्र-ऐसा कुछ विशेष तो नहीं है। हाँ, एक रेखाचित्र जरूर बहुत पसंद किया गया और उसे  नवनीत पत्रिका ने लगभग तीन-चार वर्षों तक कई अंकों में छापा बाद में उसी रेखांकन पर जलरंग से पेंटिंग बनाई उसे भी पसंद किया गया और कई पत्रिकाओं में छपा और एक पुस्तक का आवरण भी बना।

12-समकालीन भारतीय कला परिदृश्य के बारे में आपकी क्या राय है?

कुँवर रवीन्द्र-यह बाजार का युग है,हमारी संस्कृति,खान-पान,रहन-सहन, सोच समझ सब पर बाजार हावी है। स्वाभाविक है समकालीन भारतीय कला भी उससे प्रभावित होगी। उसका निगेटिव परिणाम यह रहा कि वह लोक से,सरोकारों से कट गयी है , फिर जो कला लोक से दूर होगी उसका भविष्य बाजार की दृष्टि से तो बेहतर होगा परन्तु कला की दृष्टि से बेहतर नहीं ही होगा। वह कला नहीं स्नो-पाउडर की तरह बाजार का एक प्रोडक्ट बन कर रह जायेगी। हालांकि समकालीन कलाकारों में काफी लोग हैं, जो बाजार के प्रभाव से बचे रह कर अपनी कला में नए विचारों के साथ, नए प्रयोगों के साथ गंभीरता से काम कर रहे हैं और निःसंदेह वे या उनकी कला समय और समाज में अपना स्थान बनायेगी।

13-आज चित्रकारी एक व्यवसाय हो गया है। चित्रकार हजारों-लाखों में पेंटिंग्स बेचकर खूब पैसा कमा रहे हैं और सरोकारों से दूर होते जा रहे हैं। इस संबंध में आप क्या कहना चाहेंगे?
कुँवर रवीन्द्र -आपने कहा सरोकारों से दूर होते जा रहे हैं। कोई भी कलाकार अपने समय,समाज से अलग नहीं होता।कलाकार अपने समय व समाज को ही अभिव्यक्त करता है।सरोकारों से दूर कला को मैं कला की श्रेणी में नहीं रखना चाहूँगा।कला और व्यवसाय दो अलग अलग  धुरियाँ हैं। अलग-अलग विषय। निःसंदेह जहां कला होगी, वहां व्यवसाय नहीं होगा और जहां व्यवसाय होगा वहां कला नहीं ही होगी।
14-एक जनवादी कलाकार को अपनी कला में किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ?
कुँवर रवीन्द्र-जन की अभिव्यक्ति को जन की भाषा में जन के लिए अभिव्यक्त करना।वैसे मैं किसी भी कला को प्रेम का ही एक रूप मानता हूँ चाहे वह किसी भी विधा में अभिव्यक्त हो।

15-जीवन और कला के बीच आप क्या संबंध देखते हैं?

कुँवर रवीन्द्र -कला का मूल आधार प्रेम है और मनुष्य के जीवन का आधार भी प्रेम ही है ,जितना मनुष्य का जीवन प्रेम बिना निरर्थक व नीरस है उतना ही कला के बिना।




16-आपने बहुत अधिक कविता पोस्टर बनाए हैं, कोई ऐसा अनुभव बताइए जब किसी कविता को रंगों में उतारने में आपको बहुत मेहनत करनी पड़ी हो।
कुँवर रवीन्द्र-ऐसा कुछ विशेष तो नहीं है मगर हाँ पुनेठा जी, पता नहीं क्यों आपकी कविताओं का पोस्टर बनाते समय रंग  फीके हो जाते हैं , चाहता हूँ कि अन्य पोस्टरों की तरह ही खूब चटकीला ,गाढ़े रंग वाला बने मगर मैं हर स्ट्रोक के साथ कविता पढ़ते हुए बनाता हूँ, रंग हलके हो जाते हैं और मेहनत करनी पड़ती है ।  
  17 -कहीं  यह फीकापन मेरी कविताओं में तो नहीं है ?
     कुँवर रवीन्द्र-नहीं कविताओं में फीकापन मुझे तो नहीं लगता। हाँ, रंग का हल्कापन का अर्थ मेरे लिए प्राकृतिक है,गाढ़ा रंग ओढ़ा हुआ होता है , कविता के सन्दर्भ में जो मेरी समझ में आ रहा है या फिर कविता के  प्रतीकों,बिम्बों से बनाने वाले चित्रों का उजलापन, साफसुथरापन भी हो सकता है , ज्यादा ओढ़ी हुई बौद्धिकता का भी न होना हो सकता है। मैं आपकी कविता की  तारीफ नहीं कर रहा हूँ, जो मेरी समझ में आ रहा है।
18-शुक्रिया, रवीन्द्र जी।  मैं अभी सीख रहा हूँ जहाँ पर भी कमजोरी लगे जरूर बताइयेगा मुझे अच्छा ही लगेगा।मेरी हमेशा कोशिश रहती है कि कविता में ओढ़ी हुयी बौद्धिकता से बचा जाय। बस जो महसूस होता है कह देता हूँ इस प्रक्रिया में कभी कुछ कविता जैसा भी बन जाता है आप लोग सराहते हैं तो हिम्मत बढ़ जाती है।
कुँवर रवीन्द्र-बिलकुल , शायद इसी सहजता की वजह से मेरे रंग भी सहज हो जाते है ,आप खुद देखें मैंने कल आपकी प्रेम पगीकविता को खूब गाढे रंग से बनाने का सोच कर शुरू किया था, साथ ही साथ एकाध और भी पोस्टर बनाए मगर प्रेम पगीमें मुझे अपने आप लगा कि गाढे रंग की वजह से काफी भारीपन , उदासी और दुःख दिखने लगा था जबकि प्रेम का रंग ही दूसरा होता है, फूल पत्ते , चिड़िया खुला आकाश तो फिर जैसा बन रहा था वैसा ही बनाया भले वह ज्यादा आकर्षक न हो, मगर रंगों के बीच कविता तो नहीं दबती जैसा कि अन्य पोस्टरों में चित्र हावी हो जाते हैं कई बार। हाँ, अभी लिखते-लिखते समझ आया कि आपकी कविताएं मेरे रंगों पर भारी हैं।
19-मुझे तो आपका चित्र बहुत सुन्दर लगा बिलकुल बसंत की तरह। वैसे आप चित्र बनाने के साथ ही कविता भी लिखते हैं। आप किस विधा में खुद को अधिक अभिव्यक्त कर पाते हैं ?किसमें अधिक संतुष्टि पाते हैं ?
कुँवर रवीन्द्र-सम्प्रेषण की दृष्टि  से निःसंदेह चित्रों में ही, कविता मुझसे नहीं सधती।
20-जब आपके कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी लगती है तो कभी-कभी ऐसा भी होता होगा जब लोग चित्रों की अपेक्षा कविताओं पर अधिक बात करते होंगे ,तब आपको कैसा लगता है ?
कुँवर रवीन्द्र-बहुधा कम,आपने देखा होगा हर पोस्टर मेरे अलग अलग ही होते है चित्रों को मैं रिपीट नहीं करता।इसलिए दर्शकों की प्रतिक्रिया यही मिलती है कि वे कविता को पढ़ने के साथ देख भी रहे हैं। दरअसल कविता पोस्टर के नाम पर सिर्फ कुछ लाईने खींच देना , एकाध  पत्ता , चिड़िया या कोई और आकार बना देने मात्र से पोस्टर नहीं बनता। कविता की प्रकृति, व्यक्त विचार,भावना और कविता किस परिप्रेक्ष्य में रची गयी है पर ध्यान देता हूँ और पूरी तरह चित्र की सम्प्रेषणीयता पर भी ध्यान देता हूँ।




21-आप कविता पोस्टर बनाने के लिए कविताओं का चयन किस आधार पर करते हैं ?
कुँवर रवीन्द्र-अक्सर अपनी पसंद से। कुछ अपवाद छोड़ कर मैंने किसी भी कवि से रचनाएं नहीं माँगी।कभी पत्र-पत्रिकाओं से कभी कविताकोश से पढ़ते हुए जो मुझे प्रभावित कर देती है उसे ही लेता हूँ। कुछ पोस्टर जरूर समकालीन कवि मित्रों के अनुरोध पर बनाए हैं और सच कहूं तब मुझे गर्व होता है कि  मित्रगणमेरे काम को पसंद कर रहे हैं। उत्साहित भी होता हूँ।
22-कभी ऐसा भी होता होगा जब किसी कवि द्वारा अपनी कविता पर पोस्टर बनाने के लिए अतरिक्त आग्रह किया जाता होगा और आपको कविता पसंद नहीं आती होगी फिर भी चित्र बनाना होता होगा, तब आप कैसा महसूस करते हैं ?
कुँवर रवीन्द्र-जी हाँ एकाध बार ऐसा हुआ है। संकोची प्रकृति की वजह से मना नहीं कर पता मगर अब ऐसे आग्रहों पर ध्यान नहीं देता।
23-आपको सबसे अधिक आनंद किस कवि की कविता का पोस्टर बनाने में आया ?जब आपको लगा कि आप वह सारी बात अपने चित्र के माध्यम से कह पाए जो कविता में कही गयी हैं ?
कुँवर रवीन्द्र-हा.. हा... हा... । कुछ एक को छोड़ कर सभी में। वह इसलिए कि कवितायें मेरी पसंद की ही होती है ।हाँ,कभी कभी लगता है, मैं पूरी बात नहीं कह पा रहा हूँ या कविता को अभिव्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ, तब कविता की अपनी कम समझ को ही दोष देता हूँ।
24-आपकी दृष्टि में कला का क्या प्रयोजन क्या है ?
कुँवर रवीन्द्र-वही जो अवाम के लिए कविता का।
25-समकालीन कला का भारतीय परम्परा से आप कैसा समबन्ध देखते हैं ?
कुँवर रवीन्द्र-कला अपने आस पास के वातावरण ,सामजिक संस्कारों, रीति रिवाजों , परम्परा से दूर रह कर कभी भी पल्लवित नहीं हो सकती। हाँ, समकालीन कला में भारतीय परम्परा का थोड़ा लोप तो हुआ है और उसी वजह से शायद जन में उसकी लोकप्रियता भी कम हुई है।
26-कला में आलोचना की क्या स्थित है? क्या आप उससे संतुष्ट हैं ?
कुँवर रवीन्द्र-बहुत ज्यादा अच्छी नहीं है। दरअसल यह असहमतियों का दौर है, जब तक स्वस्थ व सकारात्मक असहमतियों को हम उसकी सार्थकता की दृष्टि से नहीं देखेंगें ,वहां आलोचना का कोई अर्थ नहीं।

   



27-आप अपने चित्रों में सबसे अधिक बल किस बात पर देते हैं ? क्या आप अपने चित्रों में जो बात कहते हैं, वह ठीक-ठीक कला प्रेमियों तक पहुँच पाती है ?
कुँवर रवीन्द्र- सम्प्रेषणीयता पर तो मैं ध्यान देता हूँ और उसकी वजह से कई बार चित्र स्थूल हो जाते हैं। हालांकि मैं चित्रों में अपनी बात कहने के लिए बिम्बों , प्रतीकों का ही  प्रयोग करता हूँ ,मगर इस बात का ध्यान रखता हूँ कि जन की रूचि के साथ खिलवाड़ न हो। फिर यदि कहीं मेरी बात संप्रेषित नहीं हो पा रही है तो उसे अपनी असफलता या कमजोरी मानता हूँ। आपने अभी थोड़ी देर पहले कहा न कि ओढी हुई बौद्धिकता तो उसी तरह चित्रों में भी बात आती है जिससे मैं बच कर ही रचता हूँ।
28 -इधर फेसबुक के प्रचलन के बाद कविता पोस्टरों की बाढ़ से आ गयी है। इस दिशा में आज कौन-कौन चित्रकार महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं?
कुँवर रवीन्द्र-हाँ ,यह सही है मगर कविता की समझ, बिम्बों-प्रतीकों की समझ की दृष्टि से देखें या कविता को रंगों-रेखाओं  के माध्यम से आकार दे पाने की क्षमता, मौलिकता  की दृष्टि से देखें तो गिने चुने नाम हैं पंकज दीक्षित और रवि कुमार , जो फेस बुक पर दिखाई देते हैं उनमें महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं। वैसे सबकी अपनी पसंद होती है ,शायद मेरे भी चित्र किसी को दुरूह लगते हों , पसंद न आते हों।



    29- हमारे स्कूलों में कला को एक अतिरिक्त विषय के रूप में पढ़ाया जाता है। उसको बहुत अधिक महत्व नहीं दिया जाता है ,और कला के नाम पर चित्रों को कापी करना ही सिखाया जाता है। स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर कोई बल नहीं दिया जाता है। इस स्थिति पर आप क्या कहेंगे ?
कुँवर रवीन्द्र-आपको याद हो शायद जब हम स्कूल में पढ़ते थे तो चित्र बनाना , मूर्ति बनाना , बागवानी जैसे विषय भी पढाये जाते थे और मौलिकता पर जोर दिया जाता था ,आज ऐसा नहीं है। आज पढाई के नाम पर खाना पूर्ति भर रह गई है। अपवादों को छोड़ दें तो कोई शिक्षक इन विषयों को गंभीरता से नहीं लेता  है। एक दृष्टि से देखें तो शिक्षक भी दोषी नहीं है। बाजार इतना हावी हो चुका  है कि हर अभिभावक अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा दिलवाना चाहता है कि व बड़ा होकर रुपये उगलने की मशीन बन सके। यह दुःख की बात है , कला साहित्य मनुष्य को एक संवेदनशील मनुष्य बनाता है। आप देख ही रहे है आज मनुष्य में मनुष्यता नहीं है, संवेदनाएं मर चुकी हैं , मानुष अमानुष हो गया है।
   30-आप कला का शिक्षा से क्या सम्बन्ध देखते हैं ?आपकी नजर में इसे बच्चों को पढाया जाना क्यों जरूरी लगता है ?
   कुँवर रवीन्द्र-कोइ भी कला मनुष्य को प्रकृति,पर्यावरण,समाज,समाजिक रिश्तों जिसका कि लगातार ह्रास हो रहा है, के प्रति संवेदनाएं जगाती है,इसलिए मैं इसे पढ़ाया जाना जरूरी मानता हूँ।
     31-एक शिक्षक को कला की समझ उसके शिक्षण में मदद कर सकती है ? कैसे
     कुँवर रवीन्द्र-निःसंदेह बहुत जादा , उसे अपनी बात कहने , समझने , समझाने के लिए एक अलग या अतिरिक्त दृष्टि मिलेगी, बने बनाए प्रोफार्मा से बाहर निकाल कर अभिव्यक्त करने की क्षमता का विकास  होगा।
32-एक शिक्षक अपने विद्यार्थियों के भीतर चित्रकला के प्रति प्रेम कैसे पैदा कर सकता है?
    कुँवर रवीन्द्र-विद्यार्थियों के अंतर्निहित भावों और विचारों के प्रकटीकरण करने की क्रिया का प्रोत्साहन करके ,प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक भावों का, विचारों का संसार होता है वह दुनिया को वैसा देखना चाहता वैसा ही रचना चाहता है , माध्यम या शैली कुछ भी हो सकती है , विद्यार्थियों में प्रयोगात्मकता पर विशेष जोर देकर भी हम उनकी रचनात्मकता को उभार सकते हैं। उनकी अभिव्यक्ति को अनुभूति को सराहा जा कर भी कला के प्रति प्रेम पैदा किया जा सकता है।
33- चित्रकला में कल्पनाशीलता की क्या भूमिका होती है? एक अच्छे चित्र में कल्पना और यथार्थ का क्या अनुपात होना चाहिए?
    कुँवर रवीन्द्र-चित्र कला में कलाकार रूप और सौन्दर्य अपने ढंग से अभिव्यक्त,चित्रित करता है जब उसे वह रूप-सौन्दर्य यथार्थ में दिखाई नहीं पड़ते तब वह अपने उस रूप-सौन्दर्य की कल्पना करता है और यथार्थ के बिना या सिर्फ कल्पना के आधार पर तो कोइ भी कला आम से जुड़ नहीं सकती। सीधे सीधे कहें तो यथार्थ का प्रतिशत ज्यादा ही होना चाहिए।
34- क्या आपने कला की कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त की और कहाँ से ?
कुँवर रवीन्द्र-जी नहीं , मुझे रंगों , रेखाओं के शास्त्र का ज्ञान नहीं है बस अपने कला गुरू स्व. प्रताप के सानिध्य में बैठ कर बातचीत के माध्यम से सिर्फ साक्षर हो सका हूँ।
   


35-कविता और कला के अंतर्संबंधों पर आपका क्या कहना है ?
कुँवर रवीन्द्र-मेरी दृष्टि में तो दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं चाहे पेंटिंग हो , नृत्य हो या संगीत हो।
 36-आप कला को कला के लिए मानते हैं या कला को जनता के लिए ?
कुँवर रवीन्द्र-देखिये, कलाकार मूलतः उसी जनता के बीच से आता है वह भी जन है तो फिर कला जन के लिए ही होगी न , जन से कट कर कला का कोइ अस्तित्व नहीं और फिर जहां कला  कला के  लिए रची जाए वह कला नहीं होगी।





संपर्क- महेश चंद्र पुनेठा शिव काॅलोनी ,न्यू पियाना पो0डिग्री काॅलेज जि0 पिथौरागढ़ 262501 उत्तराखंड मो0 9411707470