सोमवार, 14 नवंबर 2016

जनपद झूँठ नही बोलता पर वरिष्ठ आलोचक रमाकांत शर्मा

कृतिओर पत्रिका के पूर्व संपादक एवं वरिष्ठ आलोचक रमाकान्त शर्मा  तमाम व्यस्तताओं के बाद भी आज भी रचनात्मक रूप से निरन्तर सक्रिय हैं ।"लोक" की सांस्कृतिक अवधारणाओं व हिन्दी कविता की लोकधर्मी परम्परा पर उनका बडा काम है । लोकधर्मी चेतना को उन्होने रौमैन्टिक भाववाद के नजरिए या रूपवादी मिथकीय साझेदारी के स्वरूप मे  कभी नही देखा या यह कहा जा सकता है कि उनकी आलोचना दृष्टि वर्गीय दृष्टि रही जिसके तहत उन्होने लोक में परिव्याप्त खरतरों और सामयिक मूल्यहीनता के आलोक में कृतियों को परखा है । यही कारण हैं कि आज लोकधर्मी आन्दोलन के बडे झंडबदार जहां  वर्तमान पूँजीकृत सामाजिक संरचनाओं व वैयक्तिक यन्त्रणाओं को नही समझ पा रहे  हैं वहीं शर्मा जी आज  भी सामयिक हैं और भविष्य में भी सामयिक रहेगें मेरे अनुरोध पर उन्होने बडे भाई  सुशील कुमार के प्रथम कविता संग्रह "जनपद झूँठ नही बोलता" की समीक्षा लिखी थी । यह समीक्षा लोकविमर्श (,आलोचना त्रैमासिक ) में प्रकाशित हो चुकी है। सुशील की कविताओं की पडताल करते समय वो तमाम जमीनी सवालों और सन्दर्भों से मुठभेड करते हुए वो कविता की अन्तर्कथा को उदघाटित कर देते हैं । सुशील युवा कवि हैं वैश्विक पूँजी द्वारा नवगठित लोकतन्त्र व व्यवस्था जात नव बुर्जुवा के खिलाफ उनकी कविताओं मे गहरा आक्रोश है जो परिवेश के प्रतिपक्ष अनास्था , बेचैनी के साथ साथ नवनिर्मित बुर्जुवा मूल्यों के ध्वन्स का संकल्प भी देती हैं । चरित्रों के माध्यम से जीवन की मनोभूमि मे उतरना व उस जमीन की प्रतिगामी शक्तिओँ से लोहा लेना और आने वाले समय की पीडाओं , द्वन्दों , भटकावों , हिंसा को चिन्हित कर आप पाठक को सचेत करना  सुशील की कविताओं का रचनात्मक पक्ष है जो आज के इस गलित और रुग्ण समय मे भी आशावादी पाठ का प्रबोध देता है आईए आज हम सुशील कुमार की कविताओं पर लोकविमर्श पत्रिका मे प्रकाशित वरिष्ठ आलोचक रमाकान्त शर्मा जी का आलेख पढें




     
     


                           सुशील कुमार

     कवि परिचय
  • जन्म-13/09/1964. पटना सिटी (बिहार) में।
  • सम्प्रति मानव संसाधन विकास विभाग,रांची (झारखंड) में कार्यरत
  • संपर्क -  सहायक निदेशक/प्राथमिक शिक्षा निदेशालय/ स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग/एम डी आई भवन(प्रथम तल)/ पोस्ट-धुर्वा /रांची (झारखंड) – 834004
      ईमेल –   sk.dumka@gmail.com
      मोबाईल न. 0 9431310216 / 0 9006740311
§  प्रकाशित कृतियां – कविता-संग्रह  कितनी रात उन घावों को सहा है (2004), तुम्हारे शब्दों से अलग (2011), जनपद झूठ नहीं बोलता (2012)
  • कविताएं और आलेख साहित्य की मानक पत्रिकाओं व अंतर्जाल-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित।  


   लोकचेतना और लोकसौंदर्य के कवि : सुशील कुमार
                                                          डॉ० रमाकांत शर्मा

हिंदी के लोकधर्मी कवियों में सुशील कुमार एक जाना-पहचाना नाम है। इनकी कविताओं में लोक संस्कृति के रंग और लोक संघर्ष की आँच बहुत ही प्रभावी ढंग से व्यक्त हुई है। पहाड़ और पहाड़ियों के दुःख-दर्द और प्रकृति के प्रति अनुराग की अनेक जीवंत छवियाँ इनकी कविताओं में देखने को मिलती हैं।
सुशील कुमार शब्द से खेलने की बजाय शब्द की साधना करने में विश्वास रखते हैं। भावबोध और कलाबोध के साथ विचारबोध इनकी कविताओं में घुला-मिला है। इसी कारण सुशील की कविताएँ सजग-सचेत कविताकर्म की साक्षी बनती हैं। प्रकृति और मनुष्य इनकी कविताओं के केन्द्र में है। पहाड़ों और नदियों, जंगल और जीव-जगत, लोक का हर्ष और संघर्ष सुशील कुमार की अधिसंख्य कविताओं में बहुत ही खूबसूरत ढंग से व्यक्त हुआ है।
कितनी रात उन घावों को सहा हैऔर तुम्हारे शब्दों से अलगके बाद उनका महत्वपूर्ण कविता-संग्रह जनपद झूठ नहीं बोलताप्रकाशित हुआ है। मैंने अपनी आलोचना-पुस्तक कविता की लोकधर्मितामें सुशील कुमार के काव्य-वैशिष्ट्य को उद्घाटित करते हुए लिखा है - ‘‘सुशील कुमार की कविताओं से रूबरू होन पर मुझे लगा कि यह कवि लोकचेतना और लोकसौंदर्य का कवि है। अपनी सहज काव्यभाषा में जीवन के क्रियाशील बिम्बों को रचने में समर्थ है। प्रकृति, लोक और जीवन-जगत से इस कवि का गहरा आत्मीय रिश्ता है। श्रमशील लोक की अनेक भावदशाएँ यहाँ काव्यानुशासन के साथ बिम्बित-चित्रित होती हैं। समाज और प्रकृति की गतिकी और द्वंद्व मौजूद है। इस कवि का भावबोध इन्द्रियबोध की राह से गुज़रता है।’’
जनपद झूठ नहीं बोलताकी कविताओं से गुज़र कर आप भी ऐसा ही अनुभव करेंगे। सुशील कुमार की संवेदनाओं का पाट चौड़ा है और उनके चित्त का आयतन बड़ा है। जनचरित्री हैं इनकी कविताएँ। अपनी एक बूँद भरकविता में वे शब्द के महत्व को प्रकट करते हुए कहते हैं-
शब्द फिर भी दुनिया में
कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी की जुबान बनकर
बचे रहेंगे जिंदा
जैसे बीच बचे रहते हैं साबूत
धरती पर कहीं-न-कहीं
समस्त आपदाओं के बावजूद
शब्दके प्रति उनकी यह अटूट आस्था ही कविताओं को लोक की बोली-बानी से जोड़ती है। कवि सुशील के शब्द शब्दकोशसे नहीं, आंचलिक जीवन की जीवंत बोलचाल की भाषा से ऊर्जा ग्रहण करते हैं। जनपदीय चेतना का स्पर्श वहाँ हमेशा बना रहता है। गुम्मा पहाड़, बंदगाँव की घाटियाँ, दुमका शहर, बाँसलोय नदी, मयूराक्षी नदी, कोसी का प्रवाह, जैसे हमसे बोलता-बतियाता है। जन-जनावर, सनेस-पाती, महुआ-बरबट्टी, जड़ी-बूटी, कंद-मूल, बाहा-परब, बेच-बिकन, घर-ओसारा, खमार-गोहाल, हाट-बाट, जैसे लोक प्रचलित शब्द-युग्म कवि सुशील की कविताओं को आँचलिक रंग में रंगते हैं। तराई के गाँव का पूरा जीवन जीवंत हो उठता है। गाँव के अनेक टोले आँखों के सामने खड़े हो जाते हैं।
            मैं पहाड़ की बेटीशीर्षक, कविता में कवि की पहाड़ी बेटी नदी माँसे कहती है-
रेत के घूँघट में
मुह ढाँप तू मत रोना।
वह पहाड़ जोगते वनदेवता से प्रार्थना करती है कि -
बापू की तरह
बूढ़ा पहाड़
बहुत बीमार है
बड़े-बड़े घाव हैं
बड़े-बड़े खोह हैं
उसकी देह में
उसे ढाँढस देना
मेघ देना
पानी देना
खेत में अन्न उगाना
जंगल बचाना
सुशील कुमार को पहाड़ी लोगों का दर्द बेचैन करता है। जंगल-जल-जमीन को बचाए रखने की चिंता सताती है। महाजन से पहाड़िन की देह बचाने की व्याकुलता है। पहाड़ियों के पहाड़ जैसे दुःख और पहाड़ जैसी दूभर जिंदगी से गहरा सरोकार है कवि का।
     सुशील की लम्बी कविताओं में आये पात्र-सुगनी, फूलमनी, सुकुल, प्लेटफॉर्म पर कठिन कार्यों में जुटे बच्चे और दुखियारी माँ की टीस के ज़रिए हम दीयरा क्षेत्र में रेत होती जिंदगी का साक्षात्कार करते हैं । पहाड़ियों की बेबसी और पहाड़िन की प्रतिरोधात्मकता को पहाड़ियाकविता में देखा जा सकता है। महाजन की हमबिस्तर होने से इन्कार करती पहाड़िन के तेवर देखिए-
पहाड़न गुस्से से लाल हो बिफरती है
गरियाती है निगोड़े महाजन को
करमजले अपने मरद को भी
            माँझीथानमें देवी-देवताओं से की हुई प्रार्थनाएँ कुछ काम नहीं आती। रातभर दुःख में कसमसाती अपने भीतर सपने टूटते देखते रह जाती है पहाड़न। बाँसलोय नदी की व्यथा-कथा भी पहाड़िन की पीड़ा-कथा से कम नहीं । कवि सुशील कुमार कहते हैं-
देखता हूँ तिल-तिल जलती हो
दिन-दिन सूखती हो
क्षण-क्षण कुढ़ती हो
मन-ही-मन कोसती हो जंगल के सौदागरों को
रेत के घूँघट में मुँह ढाँप
रात-रात भर रोती हो।
     बाँसलोय नदी की पीड़ा को सघनता प्रदान करते हैं । यहाँ कवि के शब्द-दोहराव- तिल-तिल, दिन-दिन, क्षण-क्षण, मन-ही-मन, रात-रात।
     कवि सुशील कविता में शब्द के प्रयोग को लेकर बहुत सचेत हैं। वे ऐसे शब्दों का विधान करते हैं जो एन्द्रिक बिम्ब-रचाव से सहायक हों। जो भावबोध को जिंदा कर दे। जो हमारी स्मृति के द्वार खटखटाए। पहाड़ी-जीवन की मुश्किलों का एक शब्द-चित्र देखिए-
कोसों साइकिलों के आगे-पीछे
काले पत्थरों के मन-मन भारी बोझे बाँधे
हाँफते-धकेलते पैदल चल रहे पहाड़ियों
की फटी बिवाइयों के घाव
से बहता मवाद देखा तो
कलेजा मुँह को आ गया और फिर
गुस्सा भी कि-
पूरे पहाड़ को जब बिला ही जाना है तो
पलाश की चटक और महुवे के खुमार
का मतलब क्या है ?
मैं सुशील कुमार की कविताओं को श्रव्यदृश्य कविताएँ कहना पसंद करूँगा। इनकी कविताओं की अनुरंजनात्मकता, ध्वन्यात्मकता और बिम्बाकता ही इन्हें श्रव्यदृश्य बनाती हैं।इसके साक्ष्य रूप में गुम्मा पहाड़ पर बसंतकविता के ये दो अंश पर्याप्त होंगे -
पूरा पहाड़ जाग रहा धीरे-धीरे
नए रंग और उंमग में
फागुन की आहट सुन
बसंतोत्सव की तैयारी में।
जंगल में पंछी गा रहे
ढेचुआ कर रहा ढेचुँ-चुँ, ढेचुँ-चु
फिकरो फिक-क फिक-क
पेड़ूकी करे घु-घु-चु, घु-घु-चु
तीतर सुना रहा खु-टी-च-र, खु-टी-च-र
पियु बुला रहा पि-उ, पि-उ
     कवि ने यहाँ पहाड़ के जागने का दृश्य और कानों को सुनाई पड़ रही विभिन्न पक्षियों की आवाज़ों को चित्रित कर दिया है। यहाँ मुझे सुमित्रानंदन पत की काव्यपंक्ति याद हो आती है-
            चहक रही चिड़िया/टी-वी-टी-टुट-टुट
     सुशील कुमार की कविताओं की यह बड़ी खूबी है। जनपद झूठ नहीं बोलताकविता-संग्रह में कवि के सामाजिक सरोकार और उसकी प्रतिबद्धता स्पष्ट है। कवि की आधुनिकता औपनिवैशिक आधुनिकता की बजाय देसज आधुनिकता है। कटते जंगल, अंधविश्वास, जीने की जद्दोजहद, गाँव से शहर की ओर पलायन, बढ़ता बाजारवाद, महाजन की मनमानी और गाँवों के शहरीकरण के साथ पारिवारिक टूटते-बिखरते रिश्तों पर भी सुशील ने अनेक कविताएँ लिखी हैं। असम के दंगे, नक्सलियों और पुलिस की मुठभेड़ आदि घटनाओं पर भी कवि ने सघन संवेदयुक्त कविताएँ लिखी हैं। आये ख़ून-खराबे से व्यथित कवि कहता है-
पहाड़ तो पहले ही बहुत दुःख है
इसकी छाती में उत्पीड़न की न जाने
कितनी ही कथाएँ दफन हैं!
     इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे लगा कि कवि पर सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और धूमिल का प्रभाव कहीं-कहीं स्पष्ट है। कविताओं में कहीं-कहीं आई सपाटबयानी और कल सुनना मुझेकी तर्ज पर कवि सुशील कुमार का यह बयान कि -
कल सुनना भाई
अभी तो शब्दों को सहेजने में लगा हूँ
बचाने में पायमाल हूँ उसे बाजीगरों के करतब से।
- धूमिल के प्रभाव को दर्शाता है। इसी प्रकार कवि ने अपनी तिनकाकविता को सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता से प्रेरित होना स्वीकार किया है। मैं सच हूँ तुम्हारीकविता भी सर्वेश्वर की एक रचना से अनुप्रेरित है। मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि ये कविताएँ सुशील की काव्यबनक से मेल नहीं खाती। चूमा-चाटा इस कवि की फितरत नहीं हैं।
     एक बात और, जिसकी तरफ ध्यान दिया जाना मुझे ज़रूरी लगता है, वह बात यह कि कवि सुशील ने लोक के अनुरंजन-पक्ष को अपनी कविताओं में लोकजीवन के संघर्ष की तुलना में अधिक दर्शाया है। बाँसुरी, ढोल, नगाड़े, माँदल, नृत्य, गीत की बहुतायत है। दुःखदर्द, संघर्ष, प्रतिरोध, तड़प-बेचैनी, भय-भूख पर लिखा तो है, पर अपेक्षाकृत कम लिखा है। पटियाला शहर की सच्ची घटना पर’, ’कल सुनना बाबू’, ’सुनना केवल तुमजैसी कविताएँ सपाट बयानी की शिकार हैं। लेकिन पंछी श्रृंखला’, ‘बीज श्रृंखला’, ‘दियारा श्रृंखलाकी कविताएँ अत्यंत महत्पूर्ण हैं। इसी प्रकार माँ’, ‘फूलमनी’, ‘ कब लौटेंगे सुकुल परदेस से’ , ‘ बंद गाँव गी घाटियाँ’, ‘ पहाड़ का दुःख’, ‘यहाँ कभी बसंत नहीं आताऔर कोसी-शोक में डूबी एक नदी का नाम हैसुशील कुमार की जनचरित्री श्रेष्ठ कविताएँ हैं। इस पकार कुल मिलाकर कवि सुशील कुमार का नया कविता-संग्रह जनपद झूठ नहीं बोलतासमकालीन कविता में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान सुनिश्चित करता है। इन कविताओं की सहजता, स्वाभाविकता, संप्रेषणीयता और सघन संवेदनशीलता इन्हें महत्वपूर्ण बनाती हैं।
     मैं लोकचेतना और लोकसौंदर्य के कवि सुशील कुमार से बड़ी उम्मीदें रखते हुए भविष्य में और भी अधिक श्रेष्ठ रचनाकर्म की अपेक्षा करता हूँ।

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             डॉ. रमाकांत शर्मा
-            पूर्व संपादक : कृति ओरएवं प्रतिश्रुति
      संकेत-विला’, ब्रह्यपुरी-प्रतापमंडल, जोधपुर (राज.) 342 001

       मोबाईलः 094144-10367, E-mail: rkramakant.sharma@gmail.com

शनिवार, 10 सितंबर 2016

सुशील कुमार की कविताएँ

             सुशील कुमार की कविताएँ
सुशील कुमार हमारे समय के जरूरी कवि हैं राजधानी और वहाँ की आबोहवा , राजनीति व साहित्य के टूटते जुडते गठबन्धनों से बहुत दूर झारखंड के बीहड और सुविधा विहीन गाँवों के भूगोल और इतिहास में  गहरी पैठ   ने उनकी कविता का समाजशास्त्र और काव्यभाषा की सारणी तय की है । कविता का आचरण किसी भी मानक में अनगढ नही हैं ।न ही लोक का कोई खास बिम्ब है जो कविता में टाँक दिया गया हो उनका  लोक परिवर्तनों के दौर का सुगढ़ कोलाज है । लोक की मृदुता और कठिनता , विद्रूपता और भव्यता , सपनों का सुख और यथार्थ की कचोट सब कुछ कवि के लोक जीवनानुभव का प्रतिफल है अब तक उनके दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं उनका कविता संग्रह जनपद झूठ नही बोलता लोक की समकालीन बनावट , अदृष्य हो रहे लोकतान्त्रिक मूल्यों  की सामाजिक राजनैतिक प्रस्तावना व समकालीनता की आहट है तो उनका दूसरा कविता संग्रह तुहारे शब्दों से अलग लोकधर्मी जनपदीय कविता में प्रतिरोध की परम्परा का खूबसूरत निर्वहन है | यथार्थ और अनुभूति के सवालों कविता को जटिल बनाया है यह वो मापदंड है जिसमे खरा उतरते ही कवि होने के लिए किसी अन्य प्रमाण की जरूरत नहीं रह जाती है । कवि की अनुभूतियां समय समाज और कवि के चतुर्दिक व्याप्त परिवेश से जन्म लेती हैं ।भाषा  की बुनावट और भंगिमाएं भी परिवेश की जटिलता और सामाजिक अन्तर्विरोधों की उपज हैं । जब भाषा और संवेदना दोनो यथार्थ जन्य हो जाती हैं तो कविता में मौलिकता का प्रादुर्भाव होता है  । ऐसी कविताएं दुहराई नहीं जा सकती हैं । सुशील कुमार की कविता का यथार्थ बाहर से थोपा नहीं गया है न किसी अनुकरण और एतिहासिक भाव भूमि को रोपा गया है यही कारण है आज जब बडे बडे कवियों की रचनाएं दुहराई सी प्रतीत हो रही हैं तो सुशील की कविता इस परिदृष्य को तोडती हुई दिखाई देती हैं । वह किसी भी स्तर से दोहराई नहीं जा सकती हैं ।उनकी  अपने लोक के प्रति आत्मीयता और आनुभविक प्रमाणिकता ने  परम्परागत , सामन्ती , रीतिशास्त्रीय लोक की संकल्पना को ध्वस्त किया है और अनुभवों को निजी व्यक्तित्व व निजी समाज के संकुचित वृत्त से हटाकर बृहत्तर सामाजिक सन्दर्भों से जोडने की कोशिश की है । अपने जमीनी चरित्रों के द्वारा वो छोटे छोटे चाक्षुज बिम्ब सृजित करके समय और समाज की गम्भीर सच्चाई प्रकट करने की पुरजोर कोशिश करते हैं इसके कारण उनकी कविता एक तरफ तो आम जन के प्रति संवेदनशील दिखती है तो दूसरी तरफ आम जन को जकडने वाले सामन्ती मूल्यों के प्रति निर्मम दिखती है ।आज जब कविता में भाषा गत अराजकता व रेडीमेड कविता का प्रभाव बढता जा रहा है , युवा कविता अपनी मूल जमीन से भटकर मध्यममवर्गीय फ्रस्टेसन की ओर बढ रही है , भाषा भी नितान्त व्यक्तित्व विहीन , एलीट , रंगविरंगी चकाचौंध से पटकर चौंकानेवाले फिकरों मे सिमटती जा रही है , ऐसे में जीवन को स्वर देने शब्दों , मुहावरों, लहजों , का भाषा मे समावेश संवेदनों को सामाजिक द्वन्दों पीडाओं की गहराई तक ले जाकर नया युग का जरूरी तेवर और नया विजन तय करती है । सुशील कई वर्षों से कविता लिख रहे हैं पर अब तक उन पर मुकम्मल बात नही हो सकी है यह बात इसलिए नही हुई या तो उन्हे पढा नही गया या फिर उन्हे समझा नही गया है । सुशील का लोक उस लोक से भिन्न है जिसमे “अहा ग्राम्य जीवन” की सुखद , समतल , जीवन रेखाएं लहराती हैं उनका लोक पूँजीकृत समाजिक सरंचनाओं को समय के बरक्स परिभाषित और विवेचित करता हुआ समय के साथ कदम दर कदम चल रहा है । दिव्य लोकधर्मी समीक्षकों और कलावादी समीक्षकों के लिए यह लोक नितान्त हेय और अज्ञेय है । अस्तु उन्होने न तो पढने की जहमत उठाई और न समझने की कोशिश की यही कारण है वो आलोचना की तमाम छोटी बडी युवा वृद्ध , स्थापनाओं से खुद को विस्थापित पातें हैं । उनकी कविता महज  विषय की झलक दिखाकर कलात्मक अवसरवाद का सहारा नहीं लेती न ही यथार्थ के प्रति नैतिक आदर्शों और ढोंगों का नकली आवरण ओढती है बल्कि जिस जमीन से अनुभूतियाँ निचोडते हैं तो उस जमीन के थोथे आदर्शों और नकारा मूल्यों को विकट चुनौती देते हैं युग की पाशविकता और यन्त्रणा से परिचित होते हुए भी वह कविता में कहीं भी पलायन वाद का शिकार नही होते है अपितु पूँजीवादी सामन्तवाद द्वारा उत्पन्न जटिल सवालों का अपनी वैचारिकता की धार से समुचित उत्तर भी देते हैं ।
          


1.   चुप रहते हो तो अच्छे नहीं लगते
      चुप रहते हो तुम तो अच्छे नहीं लगते
      बोलते हो तो अच्छे लगते हो
      तनी हुई मुट्ठियाँ
      भींचे हुएदाँत
      खड़ी नसें
      पसीने से तर ललाट
      कानूनदारों से बहस
      उलझे हुए केश और बड़े-बड़े डेग तुम्हारे
      बहुत फबते हैं तुममें इन दिनों
      इन दिनों पुरोहितों के प्रवचन
      काफिलों के सायरन
      देशभक्तों की घोषणाएँ
      उनके कनफोड़ भाषण
      माथे में माइग्रेन की मानिंद ठनकते हैं
      जलसे के विरुद्ध जुलूस की शक्ल लेती भीड़
      कुर्सियाँ तोड़ने वालों के विरुद्ध
      तुम्हारेलहराते हुए हाथ और अनैतिक बयान ही
      आजकल अच्छे लगते हैं मुझे

2.  शब्द चुक जाते हैं जब प्रेम में
      
       शब्द चुक जाते हैं जब प्रेम में
       आँखें रचती हैं एक कविता
       नि:शब्द
       मन के कैनवास पर
       आँखें चुक जाती हैं जब प्रेम में
       मन की गिरहें सब खुल जाती हैं  
       फिर अक्षर-अक्षर पढ़ लेती है
       प्रेम की गूढ़ ज्यामितियाँ
       और एक-प्रेम-कविता रचती है


3.  किसी नीली आँखों में गहरा संताप देखकर
      
       नीलोफर नाम नहीं था उसका
पर गहरी नीली उसकी आँखों में सैलाब था
अव्यक्त सा अकिंचन एक दर्द का
किसी दुस्सह-दुःस्वप्न को दुहराता हुआ 
जिसे कभी पलकों की कोर से ढरकते नहीं देखा
पर जब भी देखा.. .
पाया बेतरह उमड़तासमुद्र सा
जिसकी लहरें किनारों से
पछाड़ें खाकर बारम्बार लौट जाती हो
विलीन हो जाती हो
अपनी ही पीड़ा की
अथाह जल-राशि के निर्व्यक्त मौन में

हर बार लौट आया
अपने सपने की नाव
उस दु:ख के सागर-तट पर छोड़ वापस
हाँ,नहीं मैं नहीं पार पा सका
उस नीलोफर की आँखों के रहस्य का


4.  बारिश में भीगता पहाड़

पहाड़ों को छूती है 
पंचम रागिनी 
- कोकिलों के सुर से 
- मेघ के गर्जन से
- पागल बयार के झोंकों से 
- बिजली की कौंध से
- पत्तों की सरसराहट से 
बसंत की भरी संझा में 
दुपहरी के उसनते जल को
उसकी तपती देह पर लहराती हुई


5.   लौटूँ फिर

शाख से गिरा हुआ एक सूखा पत्ता हूँ

जब तक जुड़ा था,
धरती ने सींचा 
सूर्य ने हरा रखा 
ऋतु ने प्यार किया 
पंछी ने घोंसले बनाए 
पथिक ने छाँव ली 
हवा ने अठखेलियाँ की 
मेघ ने नहलाया मुझे

यौवन था मस्ती थी भरपूर 
यूँ समझो..
सरसराहट-सा बजता था
जीवन-संगीत मेरी नस-नस में
अपने प्रारब्ध पर किंचित दुःख नहीं मुझे
बस, एक ही इच्छा से भरा हूँ
कि मिट्टी में गर्त हो
लौटूँ फिर टहनी पर वापस


6.   कहाँ पाऊँ आदमी का असली चेहरा

असंख्य चेहरों में                 
आँखें टटोलतीं है 
एक अप्रतिम चित्ताकर्षक चेहरा
-
जो प्रसन्न-वदन हो 
-
जो ओस की नमी और गुलाब की ताजगी से भरी हो 
-
जो ओज, विश्वास और आत्मीयता से परिपूर्ण
-
बचपन सा निष्पाप 
-
योगी-पीर सा कान्तिमय और 
-
धरती-सी करुणामयी हो
कहाँ मिलेगा पूरे ब्रह्मांड में ऐसा चेहरा -
मैं खोजता हूँ 
बारंबार खोजता हूँ
देखता हूँ -
एक चेहरा - झुर्रियों से पटा हुआ 
एक चेहरा - कलियों सी शोख पर तमतमाया और जर्द
एक दु:ख और रूआँसा का चेहरा है 
एक चेहरे पर नकाब लगा है
एक का चेहरा अहंकार से सना है 
एक का तृषाग्नि में झुलसा है
कहीं चेहरे से प्रतिशोध और प्रतिरोध की ज्वालाएँ उठ रही हैं 
तो कहीं हिंसा-प्रतिहिंसा की मुद्राएँ तमक रही हैं
इन असंख्य चेहरों के बीच 
कहाँ पाऊँ
आदमी का असली चेहरा ?
7.   इस यात्रा में

हमारे गाँव-घर, नदी, जल, जनपद और रास्ते
कितने बदल गए देखते-देखते इस यात्रा में
कपड़े, फैशन और लोगों से मिलने-जुलने की रिवाज़ की तरह

कितनी ही अनमोल चीजें रोज़ छूटती गईं हमसे
और यादों के भँवर में समाती गईं  -
किसी का बचपन
किसी का प्यार
किसी की देह-गंध
किसी के चेहरे का आब
बाबा की ऐनक और गीता
और किताब के पन्ने में साल-दर-साल सँजोकर रखा-
पीपल का एक पत्ता

कोई अपना सबसे अजीज़ दोस्त
तो कोई अपना सबसे अच्छा समय
खो चुका चलते-चलते इस यात्रा में

अपनों का दिया दर्द कोई साल रहा बरसों से अब तक अपने सीने में
कोई बीत चुके रंगों की उछरी लकीरें गिन रहा अपने ललाट पर अब भी

इस यात्रा में कई वक्ता अपनी आवाज़ें खो बैठे और हकलाने लगे
धरती को सोहर की तरह गाने वाले कई कोकिल-कंठ गूंगे हो गए
कई कवि-लेखक अपनी मूर्धन्य रचना की पंक्तियाँ तक भूल गए
पर सबसे बड़ा दु;ख यह है कि बुढ़िया की लाठी खो गई इस यात्रा में

गोधूलि की बेला आने को है और 
दिन इस कदर डूबने को है इस यात्रा में कि
साँझ जैसे-जैसे गिर रही धरती पर,
धरती अपना सबसे प्यारा राग भूलती जा रही

न जाने किस दे, किस महासागर से उठी यह आग है कि
( कि कौन सी समय की मार है कि )
उसकी लपटों में भूसी की आग की तरह जल रहे
गाँव-घर, पगडंडियाँ, नदी, जल और जनपद सब-ओर
और धुआँ के गुबार-सा फैल रहा पूरब में

सुबह जहाँ से सूरज पृथ्वी के लिए अपने शौर्य की लालिमा,
आशा, ओस, नमी और दूब की ताजगी लेकर उठा था,
वहाँ साँझ ढलते ही उसकी शलजमी आँखें डबडबा गईं
इस यात्रा में
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सुशील कुमार 
रांची jharkhand

 mob 90067 40311 और 0 94313 10216)