बुधवार, 28 जून 2017

लोकसप्तक – घोषणा-पत्र

                  लोकसप्तक – घोषणा-पत्र


यह समय संघर्षों का समय है- एक संघर्ष जो अनवरत प्रतिक्रियावादी और प्रगतिशील शक्तियों के बीच चल रहा है। इस संघर्ष में प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ विजय की ओर अग्रसर हैं। विजयोन्माद में ये शक्तियाँ भूल चुकी हैं कि मूल्य क्या होते हैं। जिस लोकतन्त्र को भारतीय आदत व सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था का स्रोत माना गया, आज उन्माद के समक्ष वह संकट के दौर से गुजर रहा है। समाज की अल्पसंख्यक समतावादी शक्तियाँ लोकतन्त्र के इस विघटन को मूक दर्शक बनकर देख रही हैं। आजादी के बाद जिन संवैधानिक और लोकतान्त्रिक मूल्यों को हमने पक्षधरता के रूप में स्वीकृत किया, जिन मूल्यों को अटूट समझा गया, वही मूल्य टूट रहे हैं। पूँजीवादी फासिस्ट शक्तियों का प्रभाव मानव जीवन, संस्कृति और सृजन पर साफ़ दिखाई दे रहा है। साहित्य जीवन का हिस्सा है, जीवन की अभिव्यक्ति है। जीवन में जब अन्धकार उत्पन्न होता है तब साहित्य जीवन की उज्ज्वल किरण बनकर मार्ग प्रशस्त करता है। यह मार्ग समाज निर्माण व आपसी भाईचारे का मार्ग है, अपने हकों और अधिकारों की प्राप्ति का मार्ग है। साहित्य अधिकारों की पहचान करता है और अधिकारों के लिए संघर्ष की प्रेरणा भी देता है। आज साहित्य पर भी सेंसरशिप है। सत्ता भयभीत है। वह अपनी उपस्थिति और वर्चस्व को कायम रखने के लिए किसी भी स्तर तक पतित होने के लिए तैयार है। प्रतिक्रियावाद केवल सत्ता और शक्ति की प्राप्ति से सन्तुष्ट नहीं होता है, वह प्रगतिशील शक्तियों के विनाश के लिए सत्ता और शक्ति का दुरूपयोग करता है। लेखक मारे जा रहे हैं। धर्म विशेष के विरुद्ध नए-नए मुद्दे खोजे जा रहे हैं। अल्पसंख्यकों को विश्वास दिलाया जा रहा है कि यह देश आपका नहीं है, आपको हिन्दुस्तान में रहना है तो जैसा हम चाहें वैसा बनकर रहना होगा। आज प्रगतिशील शक्तियाँ, जनवादी शक्तियाँ, समतावादी शक्तियाँ भी अन्दर से खोखली हो चुकी हैं। विचारधारा के स्तर पर तमाम ऐतिहासिक भूलें और कारनामों की स्मृति इनके शरीर को दीमक की तरह खा रही है। प्रतिरोध कागजी बहसों में सिमटकर रह गया है। जमीनी जनान्दोलन की निकट भविष्य में कोई आशा नहीं है, न ही कोई संभावना है। राजनैतिक रूप से पंगु हो चुकी इन शक्तियों ने खुद अपने आपको नष्ट किया है और प्रकारान्तर से प्रतिक्रियावाद को फलने-फूलने में सहायता की है। सत्ता और शक्ति का व्यापक प्रभाव हिन्दी साहित्य के इतिहास और वर्तमान में देखा जा सकता है। छायावाद तक का इतिहास लगभग सर्वमान्य सा है लेकिन आजादी के बाद जिस तरह के साहित्य की अपेक्षा थी, वह नहीं लिखा जा सका। अपेक्षा थी कि लोकतान्त्रिक मूल्यों के भविष्य पर बहस हो, जनता को प्रशिक्षित किया जाय, क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद कर पाठक वर्ग तैयार किया जाय। आम जनता की जागरुकता व परिस्थिति के लिए हित चिन्ता जाग्रत करने में साहित्य की भूमिका तय की जाय। सत्ता और शक्ति ने सबसे पहले रणनीति के तहत साहित्य को भ्रष्ट किया। इसके लिए तमाम किस्म के हथकण्डे अपनाए गए। तमाम किस्म के विमर्श उत्पन्न किए गए। विचारधारा को कमजोर करने के लिए किसिम-किसिम के एजेन्ट तैयार किए गए जिन्होंने संगठन का नाम देकर गुट तैयार किया और सत्ता द्वारा आर्थिक सहायता लेकर साहित्य के जनवाद को भीतर से कमजोर किया। आजादी के बाद सत्ता और पूँजी ने साहित्य के लिए निम्न एजेंडे पर काम किया-
क- बुद्धिजीवियों को पुरस्कृत किया। इसके लिए पीठ, अकादमी, राज्य अकादमी जैसी संस्थाओं की स्थापना की गयी।
ख- जो लेखन में जनवादी और प्रगतिशील रहे मगर सत्ता के नजदीक रहे, ऐसे लेखकों को बढ़ावा दिया गया।
ग- विश्वविद्यालयों में ऐसे लोगों की नियुक्ति की गयी जिन्हें जनता की वास्तविकता का तो आभास नहीं था लेकिन वे पूर्णरूप से सत्ता के एजेन्ट थे। विश्वविद्यालयों के माध्यम से करोड़ों रुपए खर्च करके आयोजन कराए जाते रहे। इसका प्रतिफल यह हुआ कि अब तक साहित्य का केन्द्र माने जाने वाली छोटी-छोटी गोष्ठियाँ व छोटे शहर गाँव के आमजन, लेखक दोयम दर्जे के साबित हो गए और साहित्य का केन्द्र कुछ अभिजात्यवर्गीय लेखक और विश्वविद्यालय बन गए।
घ- सत्ता ने अपने मातहत आईएएस, पीसीएस, आईपीएस, बड़े उद्योगपतियों, व्यापारियों, अभिजात्य सेठों को साहित्य में धन निवेश की सीख दी। जिसके कारण बहुत से संस्थान, खोले गए, भवनों की स्थापनाएँ हुईं, प्रकाशन खोले गए, पुरस्कार स्थापित हुए और पत्रिकाएँ प्रकाशित की गयीं। इन संस्थानों, परिषदों, भवनों का एकमात्र लक्ष्य था धन का निवेश करके अभिजात्यवर्गीय साहित्य के लेखन को बढ़ावा देना और जनविरोधी साहित्य को प्रकाशित करना। इन निजी संस्थानों और इनकी पत्रिकाओं का कार्यभार ऐसे लोगों को दिया गया जो सत्ता के द्वारा उपकृत थे, सत्ता द्वारा व उसकी स्थापित पीठों और अकादमी द्वारा पुरस्कृत थे।
ड़- इन संस्थानों, परिषदों, पत्रिकाओं ने गाँव और सर्वहारा के लेखन को खत्म कर दिया। इन्होंने बड़ी सत्ता के द्वारा बड़े अखबारों से गठबन्धन किया, मीडिया में धन निवेश किया और अभिजात्य, अश्लील, जनविरोधी साहित्य का प्रचार किया। ऐसे लेखकों को पुरस्कृत किया।
च- विश्वविद्यालय पठन-पाठन के केन्द्र थे, शोध केन्द्र थे। अस्तु इन लेखकों ने पिछले पचास सालों में अपने पीछे बड़ी भीड़ तैयार कर ली है। अपने चेलों को ही लेखक बनाया, उनको नियुक्ति दी गयी। रिश्तेदारी-नातेदारी का निर्वहन हुआ ताकि आगे आने वाले वर्षों में सरकारी पैसे के बल पर आयोजन व परिचर्चा द्वारा अपनी अभिजात्य परम्परा को कायम रखा जा सके।
छ- जनता को धोखा देने के लिए ये अभिजात्य छद्म लेखक वर्ग ने लेखक संगठनों की स्थापना की, लेखक संगठनों का प्रयोग अपने कैरियर के लिए किया और दूर दराज के उन्हीं लेखकों को जोड़ा जो आयोजन करा सकें इनके द्वारा स्थापित देवमूर्तियों की पूजा कर सके। इन संगठनों का स्वरूप इतना विकृत हो गया कि जातीय बाहुल्य के प्रतीक बन गए हैं।
ज- इस लेखक समूह ने जमीनी और वास्तविक लेखन की हत्या की लेकिन जब लेखक इनके दाँव से बच जाता तो अपने प्रकाशकों, मीडिया, संस्थानों, पुरस्कारों के द्वारा उसे अपने पाले में करने की कोशिश में लग जाते लेकिन बहुत से लेखक ऐसे रहे जो सत्ता की इन कुचालों से वाकिफ़ रहे। उन्होंने इनके लालच के समक्ष जीते जी घुटने नहीं टेके। ऐसे लोगों को यह लोग मरणोपरान्त महान घोषित करके उनके नाम से सरकारी पैसा व कारपोरेट पैसे को उड़ाते रहे, आयोजन करते रहे, चर्चा-परिचर्चा करते रहे, यह बताने की कोशिश करते रहे कि हम ही उनके उत्तराधिकारी हैं।

सत्ता की इन साजिशों को देखकर कहा जा सकता है कि आजादी के बाद का हिन्दी साहित्य वह नहीं है जैसा बताया जा रहा है, वह नहीं है जिसे प्रकाशकों व सत्ता के एजेन्ट लेखकों ने लिखा है। आजादी के बाद का इतिहास वह है जो वास्तव में जनता द्वारा जनता के बीच लिखा गया है, लेखक संगठनों की रणनीति और संस्थानों की ग्रान्ट से परे रहकर लिखा गया है। हम इतिहास के ऐसे बिन्दुओं को चिन्हित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। अज्ञेय ने तारसप्तक द्वारा अपने अनुरूप साहित्य को बढ़ावा दिया, प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी दोनों को बढ़ावा दिया लेकिन तारसप्तक में प्रगतिशीलता की उपस्थिति महज स्वीकृति के लिए थी। वह परम्परा का निर्माण करने में अक्षम थी। स्वीकृति अज्ञेय के लिए बाध्यता थी लेकिन इस आंशिक स्वीकृति के द्वारा भी वह इतिहास का निष्पक्ष रेखांकन नहीं कर सके। जिसका प्रतिफल यह रहा कि तारसप्तक महज एक दशक का लेखन बनकर रह गया। जितनी उसकी चर्चा हुई उतना ही उसके अन्तर्विरोधों की आलोचना भी हुई।
लोकविमर्श आन्दोलन ने वर्ष 2014 में ‘लोकसप्तक’ के प्रकाशन की योजना बनाई थी। यह काम अचानक नहीं हो सकता था। इसके लिए समय, धैर्य और पूँजी तीनों की आवश्यकता थी। लिहाजा, यह निश्चित किया गया कि तीन वर्षों तक हमें पूँजी द्वारा निर्मित मूर्ति स्वरूप लेखकों का पुनर्मूल्यांकन करना है और जमीनी, जेन्युइन, संघर्षी, पक्षधर लेखकों को एकजुट कर उनके लेखन का मूल्यांकन करना है, उनको पहचान देनी है, इन्हें एक अनिवार्य विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना है। इस आन्दोलन की मूलभूत बातें इस प्रकार की हैं-

क-लोकविमर्श आन्दोलन साहित्य के केन्द्रीकरण का विरोध करता है, विकेन्द्रीकरण का समर्थन करता है इसलिए गाँवों और छोटे नगरों व कस्बों के लेखक इस आन्दोलन से जुड़ें, ऐसा प्रयास किया जाता है।
ख- लोकविमर्श छोटी-छोटी व आपसी सहयोग से होने वाली गोष्ठियों का समर्थक है। इसके तहत कई शहरों में साथियों ने गोष्ठियों का विशाल आन्दोलन खड़ा कर दिया है।
ग- जब स्थानीय स्तर पर आर्थिक स्वावलम्बन आ जाए तब पत्रिका व आयोजनों पर कदम बढ़ाया जाय।
घ- इसके लिए किसी भी लेखक संगठन या राजनैतिक दल की सदस्यता अनिवार्य नहीं है। यदि सदस्यता है तो वह आन्दोलन के लिए कोई समस्या नहीं है। हमारे लक्ष्य और लेखक संगठनों के घोषणा पत्र लिखित रूप में एक हैं। अन्तर यह है कि लेखक संगठन उसे आदर्श के रूप में ग्रहण करते हैं, लोकविमर्श कार्ययोजना के रूप में ग्रहण करता है।
ड़- इस आन्दोलन में कोई भी व्यक्ति शामिल हो सकता है। शर्त है कि वह लिखनेपढ़ने वाला हो, लोकतान्त्रिक मूल्यों और संविधान की भावना का सम्मान करता हो, पूँजी और सत्ता के आकर्षण से मुक्त हो।
च- हम साहित्य में रूपवाद, कलावाद, कल्पनावाद, थोथी भावुकता, उत्तरआधुनिकता, अश्लीलता, भौंडापन, अवास्तविक, आभासी यथार्थ के विरोधी हैं।
छ- विमर्शों के क्लासिकल पक्ष को अस्वीकार करते हुए उसमें विचारधारा व यथार्थ के आधार पर निरन्तर संशोधन के समर्थक हैं।
ज- विचारधारा व दर्शन में जड़ता के घोर विरोधी हैं। देशकाल और वस्तुस्थिति के अनुसार विचारों पर पुनर्विचार करना चाहिए व विचारधारा का विकास करना चाहिए, संवर्धित व परिवर्धित करना चाहिए।
झ- लोकविमर्श वैज्ञानिक सोच, तर्क व यथार्थ के अतिरिक्त किसी भी अवास्तविक, पौराणिक, अदृश्य, इन्द्रियातीत विचार व सत्ता को महत्व नहीं देता, न उसकी सत्ता स्वीकार करता है।
ञ- जिस लेखन में यथार्थ बिम्ब, दृश्य व भाषा हो, जिसमें लेखक अपने परिवेश के प्रति सजग हो, परिवेश व युग का दबाव लेखक की रचना में परिलक्षित हो, उस लेखन को हम स्वीकार करते हैं। जब लेखन अतीतधर्मी, अयथार्थ, अवास्तविक या सामन्ती अवधारणाओं की अभिव्यक्ति करता है तब हम उसे अस्वीकार करते हैं।
आलोचना के सन्दर्भ में यही कहा जा सकता है कि सत्ता द्वारा पोषित साहित्य के झंडाबरदारों ने आलोचना को नातेदारी-रिश्तेदारी, दुनियादारी व आपसी समझदारी का साधन बना दिया था। थोथी प्रशंसा कुतर्कों के द्वारा अतिवादी ढंग से वाह-वाह कहना व क्लास नोट्स टाइप बेतुके उद्धरणों से पोषित करके चढ़ाया जाना इनका शगल रहा है। प्रतिबद्धता, ईमानदारी, प्रामाणिकता जैसे आलोचकीय शब्दावलियों से इन्हें अब भी चिढ़ है क्योंकि ये वही शब्दावलियाँ हैं जिससे इनका राजपाट छिन सकता है। ये तीनों शब्दावलियाँ रूपवादी, कलावादी, रौमैन्टिक भाववादी काव्य के विरोध में काम करती हैं। मुक्तिबोध ने कामायनी में इन अस्त्रों का प्रयोग किया है। मगर ये परम्परावादी इन शब्दों को निजता पर आक्रमण की संज्ञा देते हैं जबकि सच्चा लोकधर्मी आलोचक निजता पर आक्रमण नहीं करता है। निजी आचरण गुण-अवगुण व्यक्ति का अपना है। वह सार्वजनिक आचरण नहीं है। निजी आचरण, सार्वजनिक आचरण और साहित्यिक आचरण में अन्तर होता है। हम साहित्यिक आचरण को आलोचना से पृथक नहीं मानते हैं। किस कवि ने कब विचारधारा की सौदबाजी की? कब सत्ता से पींगें बढ़ाई? कब किस संस्था से पुरस्कार झटका? रिश्तेदारी का लाभ कब लिया? किस रिश्तेदार को पुरस्कार दिलाया, कब किस अनुयायी को गलत ढंग से पुरस्कार और पद अर्पित किया, इसकी आलोचना होनी चाहिए। यह साहित्यिक राजनीति और तिकड़म है। राजनीति निजी आचरण नहीं है, ईमानदारी और प्रतिबद्धता का मामला है। हम ईमानदारी और प्रतिबद्धता, प्रामाणिक अनुभूति को लेकर आलोचना के लिए कटिबद्ध हैं। ये ऐसे औजार हैं जिससे कवियों और लेखकों का सच्चापन और कच्चापन सब उजागर हो जाता है।
किसी भी भाषा का साहित्य हो उसकी सार्थकता ‘लोकधर्मिता’ में सन्निहित है। कुछ महानगरीय मनोवृत्ति के लेखक लोकधर्मिता का आशय फोक से लेते हैं। फोक और लोक परस्पर भिन्न अवधारणाएँ हैं। फोक शब्द की उत्पत्ति बहुत बाद में हुई जबकि लोक भारतीय अवधारणा है। लोक जनसामान्य को कहते हैं जिसमें शिक्षित, अशिक्षित, ग्रामीण, कस्बाई, शहरी सभी समाहित हैं। लोक का विलोम प्रभू वर्ग है अर्थात् जो सम्पत्ति और शक्ति का स्वामित्व रखता है, वह प्रभू वर्ग में आता है। सत्ता से जुड़े वर्ग भी प्रभु वर्ग हैं। हम उस साहित्य का समर्थन करते हैं जो प्रभु वर्ग की सामन्ती और उत्पीड़नकारी आदतों का विरोध करते हुए लोक की सांस्कृतिक विरासत व सांस्कृतिक उपस्थिति को व्यक्त करता है। समस्त भाषाएँ और संस्कृतियाँ लोक से उत्पन्न होती हैं, मगर कालान्तर में वह प्रभू वर्ग द्वारा अपहृत कर ली जाती हैं। जब संस्कृति का स्वरूप वर्गीय होने लगता है तब लोक पुनः नयी सांस्कृतिक अवधारणा की प्रस्तावना करता है। हमारी मान्यता है कि जिस साहित्य से लोक की मूलभूत आदतों, चरित्र व संस्कृति को प्रकट किया जा सकता है, जिसमें लोक की आपसी एकता, भाईचारा, समझदारी व मुल्क के प्रति प्रेम बढ़ाने वाली चेतना निहित हो, उस साहित्य का हम समर्थन करते हैं। जिस साहित्य से अश्लीलता, कुंठा, धार्मिक एवं जातीय हिंसा, साम्प्रदायिकता, धार्मिकता, अन्धविश्वास, भाईचारा एवं रिश्तों के आपसी टूटन को बढ़ावा मिले, हम उस साहित्य एवं संस्कृति को खारिज करते हैं। ऐसे भटकावपूर्ण साहित्य का हम सब विरोध करते हैं। इन मूल्यों को लेकर लोकविमर्श आन्दोलन स्वतः स्फूर्त रूप में आगे बढ़ा। पिथौरागढ़, बाँदा में बड़े सम्मेलन हुए जिसका शीर्षक लोकविमर्श था। लोकविमर्श में हिन्दुस्तान के हर राज्य व बहुत से शहरों-गाँवों से लेखक जुड़ रहे हैं। सबने अपनी आस्था आन्दोलन के मूल्यों के प्रति अभिव्यक्त की है।
हम सत्तापोषित इतिहास व संस्थाओं और कारपोरेट संस्थाओं द्वारा पोषित, बढ़ाए गए, चर्चित किए गए लेखन का विरोध करते हैं और सत्ता व उसके आकर्षण से रहित कैरियर निर्माण से परे साहित्य का समर्थन करते हैं। साहित्य जनता के हित के लिए है, वह जनता का वैचारिक गुरु और शिक्षक है। जनता के जीवन से जुड़ा साहित्य ही जनता को शिक्षित कर सकता है, अपने युग की पहचान करा सकता है। मगर साहित्य की यह समझ फैशन के रूप में रही। यथार्थ में जनता साहित्य और साहित्यकारों से कट गयी। यही पूँजीवादी शक्तियों की मंशा थी। भारत की विशाल गरीब जनता को साहित्य व कलाओं से पृथक करने की साजिश की गयी। जनता के बीच लिखा गया साहित्य उपेक्षित हुआ, वह छपकर सामने नहीं आ पाया, नष्ट हो गया और सरकार के एजेन्टों व अधिकारियों, उनके रिश्तेदारों ने साहित्य पर कब्जा कर लिया, अपना पूरा साम्राज्य खड़ा कर दिया। इस भ्रमपूर्ण पूँजीवादी अभिजात्य साम्राज्य के बरक्स एक धारा ऐसी भी थी जो इन संस्थाओं और संगठनों से दूर, मठों और पीठों से बहुत दूर रहकर लिखते रहे। जीवन भर लिखा सैकड़ों लोग तो बगैर प्रकाशित हुए खत्म हो गए। कुछ लोगों को जीवन के अन्त में पहचान मिली, वह भी तब मिली जब सरकारी संस्थाओं और पुरस्कारों पर काबिज सरकारी ऐजेन्टों की साख पर धब्बा लगने लगा। लोकविमर्श ने ऐसे जनवादी लेखकों, आलोचकों व साहित्यकारों को खोजने का काम किया है।
हम अपने मूल्यों और सिद्धांतों के तहत आजादी के बाद से अब तक के साहित्य पर काम करेगें। जिसके तहत 1960 तक की कविता से लेकर आगामी हर दशक के सात कवियों पर चर्चा होगी। यह चर्चा-परिचर्चा ‘लोकसप्तक’ के प्रकाशन द्वारा होगी। लोकसप्तक हर एक दशक के सात कवियों पर सुचिन्तित, सुविचारित, प्रतिनिधि, वैचारिक आलेखों का संग्रह होगा। इसका सम्पादन वरिष्ठ आलोचक नीलकान्त और युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार करेगें। लोकसप्तक के हर अंक में तीस पन्ने की भूमिका होगी जिसमें दशक का युगबोध, प्रवृत्ति, राजनैतिक-साहित्यिक घटनाक्रम व उस युग के अन्य कवियों से साम्यता, विषमता, श्रेष्ठता आदि के साथ संकलित कविताओं व कवियों को अपने दौर के प्रतिनिधि रचनाकार कहे जाने के तर्क होंगे।आइये हम सब इस मुहिम को कामयाब बनाएं |
                                                           नीलकांत
                                                   उमाशंकर सिंह परमार
                                                             
२५ जून २०१७
                                                            
बाँदा