शनिवार, 10 सितंबर 2016

सुशील कुमार की कविताएँ

             सुशील कुमार की कविताएँ
सुशील कुमार हमारे समय के जरूरी कवि हैं राजधानी और वहाँ की आबोहवा , राजनीति व साहित्य के टूटते जुडते गठबन्धनों से बहुत दूर झारखंड के बीहड और सुविधा विहीन गाँवों के भूगोल और इतिहास में  गहरी पैठ   ने उनकी कविता का समाजशास्त्र और काव्यभाषा की सारणी तय की है । कविता का आचरण किसी भी मानक में अनगढ नही हैं ।न ही लोक का कोई खास बिम्ब है जो कविता में टाँक दिया गया हो उनका  लोक परिवर्तनों के दौर का सुगढ़ कोलाज है । लोक की मृदुता और कठिनता , विद्रूपता और भव्यता , सपनों का सुख और यथार्थ की कचोट सब कुछ कवि के लोक जीवनानुभव का प्रतिफल है अब तक उनके दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं उनका कविता संग्रह जनपद झूठ नही बोलता लोक की समकालीन बनावट , अदृष्य हो रहे लोकतान्त्रिक मूल्यों  की सामाजिक राजनैतिक प्रस्तावना व समकालीनता की आहट है तो उनका दूसरा कविता संग्रह तुहारे शब्दों से अलग लोकधर्मी जनपदीय कविता में प्रतिरोध की परम्परा का खूबसूरत निर्वहन है | यथार्थ और अनुभूति के सवालों कविता को जटिल बनाया है यह वो मापदंड है जिसमे खरा उतरते ही कवि होने के लिए किसी अन्य प्रमाण की जरूरत नहीं रह जाती है । कवि की अनुभूतियां समय समाज और कवि के चतुर्दिक व्याप्त परिवेश से जन्म लेती हैं ।भाषा  की बुनावट और भंगिमाएं भी परिवेश की जटिलता और सामाजिक अन्तर्विरोधों की उपज हैं । जब भाषा और संवेदना दोनो यथार्थ जन्य हो जाती हैं तो कविता में मौलिकता का प्रादुर्भाव होता है  । ऐसी कविताएं दुहराई नहीं जा सकती हैं । सुशील कुमार की कविता का यथार्थ बाहर से थोपा नहीं गया है न किसी अनुकरण और एतिहासिक भाव भूमि को रोपा गया है यही कारण है आज जब बडे बडे कवियों की रचनाएं दुहराई सी प्रतीत हो रही हैं तो सुशील की कविता इस परिदृष्य को तोडती हुई दिखाई देती हैं । वह किसी भी स्तर से दोहराई नहीं जा सकती हैं ।उनकी  अपने लोक के प्रति आत्मीयता और आनुभविक प्रमाणिकता ने  परम्परागत , सामन्ती , रीतिशास्त्रीय लोक की संकल्पना को ध्वस्त किया है और अनुभवों को निजी व्यक्तित्व व निजी समाज के संकुचित वृत्त से हटाकर बृहत्तर सामाजिक सन्दर्भों से जोडने की कोशिश की है । अपने जमीनी चरित्रों के द्वारा वो छोटे छोटे चाक्षुज बिम्ब सृजित करके समय और समाज की गम्भीर सच्चाई प्रकट करने की पुरजोर कोशिश करते हैं इसके कारण उनकी कविता एक तरफ तो आम जन के प्रति संवेदनशील दिखती है तो दूसरी तरफ आम जन को जकडने वाले सामन्ती मूल्यों के प्रति निर्मम दिखती है ।आज जब कविता में भाषा गत अराजकता व रेडीमेड कविता का प्रभाव बढता जा रहा है , युवा कविता अपनी मूल जमीन से भटकर मध्यममवर्गीय फ्रस्टेसन की ओर बढ रही है , भाषा भी नितान्त व्यक्तित्व विहीन , एलीट , रंगविरंगी चकाचौंध से पटकर चौंकानेवाले फिकरों मे सिमटती जा रही है , ऐसे में जीवन को स्वर देने शब्दों , मुहावरों, लहजों , का भाषा मे समावेश संवेदनों को सामाजिक द्वन्दों पीडाओं की गहराई तक ले जाकर नया युग का जरूरी तेवर और नया विजन तय करती है । सुशील कई वर्षों से कविता लिख रहे हैं पर अब तक उन पर मुकम्मल बात नही हो सकी है यह बात इसलिए नही हुई या तो उन्हे पढा नही गया या फिर उन्हे समझा नही गया है । सुशील का लोक उस लोक से भिन्न है जिसमे “अहा ग्राम्य जीवन” की सुखद , समतल , जीवन रेखाएं लहराती हैं उनका लोक पूँजीकृत समाजिक सरंचनाओं को समय के बरक्स परिभाषित और विवेचित करता हुआ समय के साथ कदम दर कदम चल रहा है । दिव्य लोकधर्मी समीक्षकों और कलावादी समीक्षकों के लिए यह लोक नितान्त हेय और अज्ञेय है । अस्तु उन्होने न तो पढने की जहमत उठाई और न समझने की कोशिश की यही कारण है वो आलोचना की तमाम छोटी बडी युवा वृद्ध , स्थापनाओं से खुद को विस्थापित पातें हैं । उनकी कविता महज  विषय की झलक दिखाकर कलात्मक अवसरवाद का सहारा नहीं लेती न ही यथार्थ के प्रति नैतिक आदर्शों और ढोंगों का नकली आवरण ओढती है बल्कि जिस जमीन से अनुभूतियाँ निचोडते हैं तो उस जमीन के थोथे आदर्शों और नकारा मूल्यों को विकट चुनौती देते हैं युग की पाशविकता और यन्त्रणा से परिचित होते हुए भी वह कविता में कहीं भी पलायन वाद का शिकार नही होते है अपितु पूँजीवादी सामन्तवाद द्वारा उत्पन्न जटिल सवालों का अपनी वैचारिकता की धार से समुचित उत्तर भी देते हैं ।
          


1.   चुप रहते हो तो अच्छे नहीं लगते
      चुप रहते हो तुम तो अच्छे नहीं लगते
      बोलते हो तो अच्छे लगते हो
      तनी हुई मुट्ठियाँ
      भींचे हुएदाँत
      खड़ी नसें
      पसीने से तर ललाट
      कानूनदारों से बहस
      उलझे हुए केश और बड़े-बड़े डेग तुम्हारे
      बहुत फबते हैं तुममें इन दिनों
      इन दिनों पुरोहितों के प्रवचन
      काफिलों के सायरन
      देशभक्तों की घोषणाएँ
      उनके कनफोड़ भाषण
      माथे में माइग्रेन की मानिंद ठनकते हैं
      जलसे के विरुद्ध जुलूस की शक्ल लेती भीड़
      कुर्सियाँ तोड़ने वालों के विरुद्ध
      तुम्हारेलहराते हुए हाथ और अनैतिक बयान ही
      आजकल अच्छे लगते हैं मुझे

2.  शब्द चुक जाते हैं जब प्रेम में
      
       शब्द चुक जाते हैं जब प्रेम में
       आँखें रचती हैं एक कविता
       नि:शब्द
       मन के कैनवास पर
       आँखें चुक जाती हैं जब प्रेम में
       मन की गिरहें सब खुल जाती हैं  
       फिर अक्षर-अक्षर पढ़ लेती है
       प्रेम की गूढ़ ज्यामितियाँ
       और एक-प्रेम-कविता रचती है


3.  किसी नीली आँखों में गहरा संताप देखकर
      
       नीलोफर नाम नहीं था उसका
पर गहरी नीली उसकी आँखों में सैलाब था
अव्यक्त सा अकिंचन एक दर्द का
किसी दुस्सह-दुःस्वप्न को दुहराता हुआ 
जिसे कभी पलकों की कोर से ढरकते नहीं देखा
पर जब भी देखा.. .
पाया बेतरह उमड़तासमुद्र सा
जिसकी लहरें किनारों से
पछाड़ें खाकर बारम्बार लौट जाती हो
विलीन हो जाती हो
अपनी ही पीड़ा की
अथाह जल-राशि के निर्व्यक्त मौन में

हर बार लौट आया
अपने सपने की नाव
उस दु:ख के सागर-तट पर छोड़ वापस
हाँ,नहीं मैं नहीं पार पा सका
उस नीलोफर की आँखों के रहस्य का


4.  बारिश में भीगता पहाड़

पहाड़ों को छूती है 
पंचम रागिनी 
- कोकिलों के सुर से 
- मेघ के गर्जन से
- पागल बयार के झोंकों से 
- बिजली की कौंध से
- पत्तों की सरसराहट से 
बसंत की भरी संझा में 
दुपहरी के उसनते जल को
उसकी तपती देह पर लहराती हुई


5.   लौटूँ फिर

शाख से गिरा हुआ एक सूखा पत्ता हूँ

जब तक जुड़ा था,
धरती ने सींचा 
सूर्य ने हरा रखा 
ऋतु ने प्यार किया 
पंछी ने घोंसले बनाए 
पथिक ने छाँव ली 
हवा ने अठखेलियाँ की 
मेघ ने नहलाया मुझे

यौवन था मस्ती थी भरपूर 
यूँ समझो..
सरसराहट-सा बजता था
जीवन-संगीत मेरी नस-नस में
अपने प्रारब्ध पर किंचित दुःख नहीं मुझे
बस, एक ही इच्छा से भरा हूँ
कि मिट्टी में गर्त हो
लौटूँ फिर टहनी पर वापस


6.   कहाँ पाऊँ आदमी का असली चेहरा

असंख्य चेहरों में                 
आँखें टटोलतीं है 
एक अप्रतिम चित्ताकर्षक चेहरा
-
जो प्रसन्न-वदन हो 
-
जो ओस की नमी और गुलाब की ताजगी से भरी हो 
-
जो ओज, विश्वास और आत्मीयता से परिपूर्ण
-
बचपन सा निष्पाप 
-
योगी-पीर सा कान्तिमय और 
-
धरती-सी करुणामयी हो
कहाँ मिलेगा पूरे ब्रह्मांड में ऐसा चेहरा -
मैं खोजता हूँ 
बारंबार खोजता हूँ
देखता हूँ -
एक चेहरा - झुर्रियों से पटा हुआ 
एक चेहरा - कलियों सी शोख पर तमतमाया और जर्द
एक दु:ख और रूआँसा का चेहरा है 
एक चेहरे पर नकाब लगा है
एक का चेहरा अहंकार से सना है 
एक का तृषाग्नि में झुलसा है
कहीं चेहरे से प्रतिशोध और प्रतिरोध की ज्वालाएँ उठ रही हैं 
तो कहीं हिंसा-प्रतिहिंसा की मुद्राएँ तमक रही हैं
इन असंख्य चेहरों के बीच 
कहाँ पाऊँ
आदमी का असली चेहरा ?
7.   इस यात्रा में

हमारे गाँव-घर, नदी, जल, जनपद और रास्ते
कितने बदल गए देखते-देखते इस यात्रा में
कपड़े, फैशन और लोगों से मिलने-जुलने की रिवाज़ की तरह

कितनी ही अनमोल चीजें रोज़ छूटती गईं हमसे
और यादों के भँवर में समाती गईं  -
किसी का बचपन
किसी का प्यार
किसी की देह-गंध
किसी के चेहरे का आब
बाबा की ऐनक और गीता
और किताब के पन्ने में साल-दर-साल सँजोकर रखा-
पीपल का एक पत्ता

कोई अपना सबसे अजीज़ दोस्त
तो कोई अपना सबसे अच्छा समय
खो चुका चलते-चलते इस यात्रा में

अपनों का दिया दर्द कोई साल रहा बरसों से अब तक अपने सीने में
कोई बीत चुके रंगों की उछरी लकीरें गिन रहा अपने ललाट पर अब भी

इस यात्रा में कई वक्ता अपनी आवाज़ें खो बैठे और हकलाने लगे
धरती को सोहर की तरह गाने वाले कई कोकिल-कंठ गूंगे हो गए
कई कवि-लेखक अपनी मूर्धन्य रचना की पंक्तियाँ तक भूल गए
पर सबसे बड़ा दु;ख यह है कि बुढ़िया की लाठी खो गई इस यात्रा में

गोधूलि की बेला आने को है और 
दिन इस कदर डूबने को है इस यात्रा में कि
साँझ जैसे-जैसे गिर रही धरती पर,
धरती अपना सबसे प्यारा राग भूलती जा रही

न जाने किस दे, किस महासागर से उठी यह आग है कि
( कि कौन सी समय की मार है कि )
उसकी लपटों में भूसी की आग की तरह जल रहे
गाँव-घर, पगडंडियाँ, नदी, जल और जनपद सब-ओर
और धुआँ के गुबार-सा फैल रहा पूरब में

सुबह जहाँ से सूरज पृथ्वी के लिए अपने शौर्य की लालिमा,
आशा, ओस, नमी और दूब की ताजगी लेकर उठा था,
वहाँ साँझ ढलते ही उसकी शलजमी आँखें डबडबा गईं
इस यात्रा में
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सुशील कुमार 
रांची jharkhand

 mob 90067 40311 और 0 94313 10216)



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