शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

     विजेन्द्र –जीवन और चेतना

वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जीवन के अस्सी वसन्त पार कर चुके हैं। उनकी सर्जना आज भी गतिमती है। हिन्दी-जगत् में उन्हें अनेक विशेषणों से विभूषित किया गया है। वह लोकधर्मी कवि है। जनपदीय कवि हैं। सौन्दर्य के कवि हैं। योद्धा कवि हैं। सभ्यतालोचन के कवि हैं। चिन्तक कवि हैं। साधक कवि हैं। विश्वव्यापी विजन के कवि हैं। प्रगतिशील कवि हैं। जनवादी कवि हैं। उनके सभी विशेषणों का प्रमाण है उनका विपुल काव्य। उनके आलोचनात्मक निबन्ध। उनकी तीन साहित्यिक डायरियां और सौन्दर्यशास्त्र से सम्बद्ध   पुस्तक “सौन्दर्यशास्त्र: भारतीय चित्त और कविता”। विजेन्द्र स्वयं को लोकधर्मी कवि समझना समुचित समझते हैं। उनकी लोकधर्मिता इतनी व्यापक है कि उसमें जनवाद और प्रगतिवाद दोनों का समावेश लक्षित होता है। उनके लिए उपर्युक्त विशेषण अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं है। वास्तविक है। प्रसिद्ध  माक्र्सवादी आलोचक डा0 शिवकुमार मिश्र ने विजेन्द्र की विशेषताएं बताते हुए लिखा है-निराला, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन की लोकधर्मी काव्य-परम्परा के अपने तमाम समकालीनों एवं परवर्तियों के साथ, विजेन्द्र हमारे समय के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। प्रगतिशील आंदोलन के साथ की अभिजात-परम्पराओं को चुनौती देते हुए लोक-जीवन और पक्षधरता के जिन बुनियादी संकल्पों के साथ प्रगतिशील कविता का आविर्भाव हुआ, विजेन्द्र उसके समकालीनों में पहली पंक्ति  के कवि हैं। प्रगतिशील जनपक्षधर, लोकधर्मी कविता के दायरे में विजेन्द्र ने जो रचनात्मक उपलब्धियां प्राप्त कीं, उनके पीछे दशकों की कठोर साधना है। विजेन्द्र की रचनात्मक उपलब्धियां इसी साधना की फलश्रुति हैं।“(इसी आलेख से )अस्सी के दसक में ही कविताई की पराकाष्ठा छू चुके विजेन्द्र  समकालीन सरोंकारो और तल्खी के साथ आज भी लेखन केर रहें है |आज जहाँ प्रतिबद्धताओं और मूल्यों में नए-नए संकट खड़े किये जा रहें है वहीँ विजेन्द्र उन संकटों से ही जूझने के लिए तैयार खड़े हैं उनके नए संग्रहों में नवउदारवादी अर्थ-नीतियों का खतरनाक पहलू खोजा जा सकता है |इस महाकवि के सम्पूर्ण जीवन और काव्य का समुचित मूल्यांकन करते हुए वरिष्ठ आलोचक अमीरचंद्र वैश्य ने आपके  “लोकविमर्श” के लिए एक आलेख भेजा है जिसे मैं आपके साथ शेयर कर रहा हूँ |आइये आज पढ़ते है विजेन्द्र  के काव्य का महत्व---

              विजेन्द्र काव्य का महत्त्व
                                                                                                                          अमीर चन्द वैश्य
वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जीवन के अस्सी वसन्त पार कर चुके हैं। उनकी सर्जना आज भी गतिमती है। हिन्दी-जगत् में उन्हें अनेक विशेषणों से विभूषित किया गया है। वह लोकधर्मी कवि है। जनपदीय कवि हैं। सौन्दर्य के कवि हैं। योद्धा कवि हैं। सभ्यतालोचन के कवि हैं। चिन्तक कवि हैं। साधक कवि हैं। विश्वव्यापी विजन के कवि हैं। प्रगतिशील कवि हैं। जनवादी कवि हैं। उनके सभी विशेषणों का प्रमाण है उनका विपुल काव्य। उनके आलोचनात्मक निबन्ध। उनकी तीन साहित्यिक डायरियां और सौन्दर्यशास्त्र से सम्बद्ध   पुस्तक “सौन्दर्यशास्त्र: भारतीय चित्त और कविता”। विजेन्द्र स्वयं को लोकधर्मी कवि समझना समुचित समझते हैं। उनकी लोकधर्मिता इतनी व्यापक है कि उसमें जनवाद और प्रगतिवाद दोनों का समावेश लक्षित होता है।
उनके लिए उपर्युक्त विशेषण अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं है। वास्तविक है। प्रसिद्ध  माक्र्सवादी आलोचक डा0 शिवकुमार मिश्र ने विजेन्द्र की विशेषताएं बताते हुए लिखा है-निराला, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन की लोकधर्मी काव्य-परम्परा के अपने तमाम समकालीनों एवं परवर्तियों के साथ, विजेन्द्र हमारे समय के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। प्रगतिशील आंदोलन के साथ की अभिजात-परम्पराओं को चुनौती देते हुए लोक-जीवन और पक्षधरता के जिन बुनियादी संकल्पों के साथ प्रगतिशील कविता का आविर्भाव हुआ, विजेन्द्र उसके समकालीनों में पहली पंक्ति  के कवि हैं। प्रगतिशील जनपक्षधर, लोकधर्मी कविता के दायरे में विजेन्द्र ने जो रचनात्मक उपलब्धियां प्राप्त कीं, उनके पीछे दशकों की कठोर साधना है। विजेन्द्र की रचनात्मक उपलब्धियां इसी साधना की फलश्रुति हैं। (लेखन सूत्र पृष्ठ-17
लोकधर्मी कवि विजेन्द्र ने अपनी काव्य-यात्रा सन १९६६ से प्रारम्भ की। अपनी यात्रा की निरन्तरता बानाए रखने के लिए उन्होंने धीरे-धीरे अनेक कविता-संकलन प्रकाशित करवाके समकालीन हिन्दी कविता को समृद्ध किया है। सन् 2014 में उनके दो नये काव्य-संकलन प्रकाश में आए हैं। पहला है बेघर का बना देश और दूसरा है मैंने देखा है पृथ्वी को रोते। अब तक प्रकाशित उनके कविता-संकलनों की संख्या बाईस है। इनमें एक अनूठा संकलन है आधी रात के रंग। आर्ट पेपर पर छपे इस संकलन में एक ओर विजेन्द्र द्वारा रचित चित्र हैं। दूसरी ओर चित्र पर आधारित कविता। हिन्दी और अंग्रजी दोनों में। कवि-कथन के अनुसार चित्र पहले रचे गए। फिर उन पर कविताएं। पहले अंग्रेजी में फिर हिन्दी में। यह संकलन पढ़ने के बाद कवि विजेन्द्र के चित्रकार रूप ने भी प्रभावित किया है। उनकी अभिरूचि नाटकों के प्रति भी है। अतएव उन्होंने समकालीन संदर्भ दृष्टिगत रखते हुए दो अद्वितीय काव्य नाटकों की सृष्टि कीं। अग्नि पुरूष और क्रौंचवध।
कवि विजेन्द्र का वैशिष्ट्य समझने के लिए उनकी जन्म-भूमि धरमपुर एवं कर्मभूमि भरतपुर-जयपुर के परिवेश से परिचित होना अनिवार्य है। साथ ही साथ उनके कवि व्यक्तित्व के वैशिष्ट्य से भी।
बदायूं जनपद की तहसील सहसवान के अन्तर्गत एक कस्वा है दहगवां। उसके समीप लगभग चार-पांच किलोमीटर की दूरी पर विजेन्द्र का गांव धरमपुर आज बदले हुए रूप में स्थित है। उनके पिता ठाकुर लाखन सिंह गांव के जमींदार थे। शानदार हवेली में रहते थे। उन्हीं के यशस्वी पुत्र के रूप में विजेन्द्र का जन्म हुआ। सावन के महीने में। इसका प्रमाण उनकी कविता है। कविता का शीर्षक है याद। विजेन्द्र अपने बारे में कहते हैं- कैसे भूल पाउंगा/धरमपुर गांव अपना/जहां पैदा हुआ घने सावन में/कैसे भूल पाउंगा /वह गंगा नदी/थोड़ी दूर/जो सटकर बहती मेरे गांव से। यह कविता मझोली है। कवि ने इस कविता में अपने गांव धरमपुर को याद किया है। यह कविता उनके किसी भी संकलन में संकलित नहीं है। इसका प्रकाशन पश्यन्ती पत्रिका के अक्टूबर-दिसंबर के 2001 में  हुआ। जहां पैदा हुआ/घने सावन में पंक्ति कवि के जन्म-समय का प्रमाण है। कवि-कथन के अनुसार जब उनका जन्म हुआ तब बादल गरज रहे थे। यह बात उनकी मां ने उन्हें बताई थी। प्रमाण पत्र के अनुसार उनके जन्म की तारीख 10 जनवरी, सन् 1935 है। लेकिन यह तारीख काल्पनिक है। कवि-कथन के अनुसार जब उनका नाम नीदर सोल स्कूल उझियानी (बदायूं) में लिखवाया गया, तब उनके अभिभावक को समझाया गया कि अपने बेटे की उम्र कम लिखवाइए। इसका लाभ आगे मिलेगा। अतः उनकी पैदाइश का सन् तीन वर्ष कम लिखवाया गया। इस प्रकार वास्तविक सन् 1932 निर्धारित होता है। और जन्म का महीना सावन।
अपने घर पर उर्दूं की प्ररम्भिक तालीम हासिल करने के बाद बालक विजेन्द्र पाल सिंह गांव के टाट-पट्टी वाले स्कूल में पढ़े। उझियानी के पास उसकी ननिहाल थी। अतः माता वीरवती ने बेटे को आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए उझियानी भेज दिया। शैक्षिक सत्र 1944-45 में उनका नाम कक्षा तीन में लिखवाया गया। रहने की व्यवस्था राजपूत छात्रावास में की गई। विद्यार्थी विजेन्द्र पाल सिंह को कक्षा मानीटर का गौरव प्राप्त हुआ। वह प्रथम श्रेणी में पास होते गए। सन 1948 में गांधी जी की हत्या हुई। उस समय विद्यार्थी विजेन्द्र उझियानी में थे। नीदर सोल स्कूल उझियानी से कक्षा सात की पढ़ाई पूरी हुई। शैक्षिक सत्र 1948-49 में। इसके बाद विजेन्द्र पाल सिंह ने आगे की पढ़ाई के लिए खुर्जा की ओर रूख किया। वहां नत्थीमल धर्मशाला में रहते थे। वहीं से हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। शैक्षिक सत्र 1951-52 में। संयोग से प्रज्ञाचक्षु गुरू भूपगिरि से अंग्रेजी पढ़ने का सौभाग्य वहीं प्राप्त हुआ। वह मार्क्सवाद के ज्ञाता थे। अतएव मार्क्सवाद विचारधारा का बीज विद्यार्थी विजेन्द्र पाल सिंह के चित्त में अनायास पैठ गया और बनारस के अनुकूल साहित्यिक माहौल में विपत्र होकर धीरे-धीरे विकसित होने लगा।



विजेन्द्र के कवि व्यक्तित्व के निर्माण में महाकवि त्रिलोचन का अविस्मरणीय योगदान है। विजेन्द्र आज भी उन्हें अपना काव्य-गुरू मानते हैं। वहां के साहित्यिक परिवेश ने उन्हें कविता रचने के लिए प्रेरित किया। उनके कविता-प्रेरक गुरू बने रामदरश मिश्र। उनकी पहली कविता सन् 1956 में कलकत्ता से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका ज्ञानोदय में छपी। कई संशोधनों के बाद। बिना किसी की सिफारिश के। कविता का शीर्षक है फांसोंगे गीत जो कवि ने कहा में संकलित है।
विजेन्द्र के कवि व्यक्तित्व के निर्माण में अनेक कारक सहायक सिद् हुए हैं। जन्म-भूमि धरमपुर का  प्राकृतिक सुरम्य परिवेश। वहां के बागान। वहां के खेत-खलिहान। श्रम करने वाले वहां के लोग। वहां का कुण्डा, जिसके किनारे बैठकर मछुआरे मछलियां पकड़ा करते थे। निकट बहने वाली महाबा नदी। और गांव से सटकर बहने वाली गंगा की धारा। लड़कपन से ही अन्याय का प्रतिरोध करनेवाली आदत। पिता से प्राप्त हुए औदार्य और सौन्दर्य-बोध के संस्कार। माता से प्राप्त हुआ पढ़ने का संस्कार। बनारस में प्राप्त उच्च शिक्षा। अंग्रेजी साहित्य और भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शन का गम्भीर अध्ययन। साथ ही साथ संस्कृत-काव्य-परम्परा का ठीक-ठीक ज्ञान। हिन्दी-काव्य-परम्परा से अंतरंग अनुराग। प्रकृति-सौन्दर्य के प्रति स्वाभाविक आकर्षण। कर्म-भूमि भरतपुर का लोक-जीवन। वहां का इतिहास और भूगेाल। वहां के कर्मठ कठा किसान। पर्यटन का स्वभाव। भरतपुर के पक्षी विहार के प्रति गहरा रागात्मक सम्बन्ध। भरतपुर की बोली-बानी सुनने के लिए उत्सुक कान। इसी प्रकार राजस्थान के अन्य स्थानों जैसे चूरू, नोहर, जयपुर, जैसलमेर  माउंट आबू आदि का प्रभाव। दूर-दूर तक फैला हुआ रेत ही रेत। और बनते मिटते पांव रेत में। वहां के पेड़ और वनस्पितियां। नाना प्रकार के फूल। विशेष रूप से मरगोजा। देश के इतिहास और भूगोल का सम्यक् ज्ञान। जीवन देखने की वैज्ञानिक दृष्टि और सर्वोपरि कारक है श्रमशील जनों के साथ उठना-बैठना। उनसे बातें करना। उनके बारे में गम्भीरता से जानना। वामपंथी राजनीति से जुड़ाव।
प्रत्येक बड़ा कवि संवेदनशील होने के साथ-साथ विचारशील भी होता है। गोस्वामी जी ने लिखा है कि जब विचार रूपी जल की वृष्टि होती है तभी काव्य रूपी मोती का जन्म होता है। अपनी ज्ञान-भूमि काशी से कर्म-भूमि भरतपुर पहुंचे विजेन्द्र ने अनुभव किया कि माक्र्सवादी जीवन-दर्शन मेरे लिए परम अनिवार्य है। वह तीसरी आंख है जो भूत-भविष्य-वर्तमान को वास्तविक रूप में देखती परखती है। अतएव विजेन्द्र ने इसे अपने जीवन की सांसों से जोड़ लिया। और आज की तारीख तक इसी विचारधारा में मग्न रहे हैं। इसका प्रमाण उनका विपुल काव्य है। और साथ ही साथ उनका विचारपूर्ण गद्य भी। उन्होंने अपनी लम्बी कविता आधीसदी में ठीक लिखा है- जितनी चोटें खाईं/ अन्दर से मजबूत हुआ हूं/नहीं हुआ विचलित/बनी रही आस्था माक्र्सवाद में/साथ दे रहे मेरा कामेश्वर त्रिपाठी/कविता ही अब मेरा जीवन है/उत्पादक श्रम का सबसे सुन्दर प्रतिफल है/नहीं सुहाता कुछ भी मुझको/रचता रहूं हर साँस राग को/कौन जानता/कवि जीता है जीवन के महात्याग को। ((मैंने देखा है पृथ्वी को रोते पृष्ठ-40 रचना-समय जुलाई 2012, जयपुर)
ध्यान दीजिए इन पंक्तियों पर “-नहीं सुहाता कुछ भी मुझको /रचता रहूं हर सांस राग को” ये पंक्तियां बता रही हैं कि विजेन्द्र सिर्फ कविता को अपना जीवन समझते हैं। उसी के लिए अपने जीवन की हर सांस अर्पित की है। ऐसे ही कवि-कर्म ने उन्हें सामन्ती संस्कारों से मुक्त किया। विजेन्द्र पाल सिंह को भुलाकर स्वयं की पहचान विजेन्द्र के रूप में स्थापित की। सोवियत संघ के विघटन के बाद हिन्दी के नामवर माक्र्सवादी जन पथ से विचलित हो गए। लेकिन विजेन्द्र अविचल रहे। यह अविचलता उनके संपूर्ण कवि-कर्म की रीढ है।
विजेन्द्र का कवि व्यक्तित्व लोकोन्मुखी है। इसलिए उनका कवि लोक की ओर ही देखता है। उसे सुनता है। उसे समझता है। उसे संवोधित करता है। उससे अपना रागात्मक सम्बन्ध जोड़ता है। दूसरे शब्दों में श्रमशील वर्गों के जुझारू लोग अर्थात् कृषक और श्रमिक उनकी कविता के नायक हैं। वह लिखते हैं कि लोक वह जो इस समाज के निर्माण में लगा हुआ हे। किसान या श्रमिक वह लोक पुरूष है। वही सभ्यता का निर्माता है। उसका जीवन आभिजात्य के प्रति व्ययंग्य और विडम्बना है। लोक भद्रता का उलट है। जनतंत्र में हमें उसी लोक-संस्कृति का निर्माण करना है उसी कला का और उसी रचना का।“ ((कवि की अंतर्यात्रा, पृष्ठ-18)
विजेन्द्र के ऐसे चिन्तन ने उनकी काव्य-भाषा का रचाव नये ढंग से किया है। धरमपुर और भरतपुर में प्रचलित अनेक शब्दों का प्रयोग उनकी कविताओं में हुआ है। ऐसे शब्द-प्रयोगों से विजेन्द्र के आलोचक नाक-भौंह सिकोड़ते हैं। विजेन्द्र ने अपने माक्र्सवादी चिन्तन को लोक से सम्बद्व करके उसे अभिनव रूप प्रदान किया है। अक्सर लोग कहते हें कि लोक शब्द अंगे्रजी के शब्द फोक का  पर्यायवाची है। कविता में लोक पर जरूरत से ज्यादा बल देने का अर्थ है स्वयं को गांव तक सीमित रखना। इसका कारण यह है कि लोग समझते हें कि लोक का सम्बन्ध तो गांव से है। नगर या महानगर से नहीं है। लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत है। लोक शब्द का प्रयोग भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में सदियों पूर्व किया। उन्होंने नाट्यधर्मी और लोकधर्मी शब्द प्रयुक्त किए हैं। उन्होंने लोक के लिए ही पंचम वेद नाट्यशास्त्र की रचना की। शूद्र वेद नहीं पढ़ सकते थे। लेकिन नाटक देख सकते थे। अतएव रचना का सम्बन्ध लोक से अनायास जुड़ता है। लोक श्रमशील होता है। इसके विपरीत भद्र लोक श्रम का उपभोक्ता होता है। वह पसीना नहीं बहाता है। परोपजीबी होता है। ध्यान दीजिए कि लोक से लोग शब्द का विकास हुआ है। किन्तु भद्र का विकास भद्दा अथवा भद्दे के रूप में। मतलब साफ है कि जो व्यक्ति मेहनत-मशक्कत नहीं करता है उसका शरीर बेडौल हो जाता है। देखने में भद्दा लगता है। वास्तविकता यह है कि समाज का सुविधाभोगी वर्ग शारीरिक श्रम कतई नहीं करता है। इसीलिए वह भद्र से भद्दा हो गया है।  विजेन्द्र का लोक गांव तक सीमित नहीं है। वह गांव से कस्बे तक, कस्बे से नगर तक ,नगर से जनपद, तक जनपद से प्रदेश ,तक प्रदेश से संपूर्ण देश तक, और एक देश से दुनिया के सभी देशों तक फैला हुआ है।,आचार्य अभिनवगुप्त ने ठीक लिखा है लोक नाम है जनपदवासी जन का। त्रिलोचन शास्त्री कहा करते थे कि जहां-जहां तक जन के पद पहुंचें वहां-वहां तक जनपद हैं। तात्पर्य यह है कि लोक सर्वव्यापी है। विजेन्द्र ने इसी लोक को अपनी कविताओं के केन्द्र में उपस्थापित किया है। अनेक वास्तविक जन-चरित्रों के रूप में। जन-चरित्रों से जुडा हुआ उनका संपूर्ण सामाजिक परिवेश कविता में उपस्थित होता है। साथ ही साथ लोक से जुड़ा हुआ प्रकृति का रंग-बिरंगा परिवेश भी। विभन्न ऋतुएं विभिन्न पशु-पक्षी, विभन्न फल-फूल,विभिन्न पेड़ और वनस्पितियां, अनाम घासें, खरपतवार, नदियां ,जलाशय, पोखर, पहाड़, पहाड़ियां, बीहड़ मैदान, मरूभूमि, दोआब की उर्वर भूमि आदि। विजेन्द्र की कविता में बार-बार लक्षित होते हैं। विजेन्द्र इस रंग-बिरंगे संसार को देख-परखकर यह मनोकामना व्यक्त करे हैं- मैं चाहता हूं बहुत जिउं।‘‘ क्योंकि उगते चन्द्रमा/अनूठे वसन्त और किलकारते बच्चों का रव मुझे अच्छा लगता है।/ मैं हर नया सूर्योदय प्रफुल्लित देखूं  देखूं/सूर्यास्थ को विनत बड़ी आशाओं से विदा करूं। (ऋतु का पहला फूल पृष्ठ-24 25 विजेन्द्र ने आचार्य भरत के अभिमत का उल्लेख करते हुए लिखा है कि लोक में  तीन प्रकार के लोग शामिल होते हैं। दुखार्त अर्थात् जीवन के अभावों से दुखी लोग। क्षुधार्थ अर्थात् कठोर श्रम से हारे-थके लोग। शोकार्थ अर्थात् जीवन के आधातों से शोक-ग्रस्त लोग। कहने की आवश्यक्ता नहीं है कि विजेन्द्र के विपुल काव्य में तीनों प्रकार के लोग शामिल हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि काव्य में लोकमंगल के विधान के लिए दो भाव अनिवार्य हैं। करूणा और प्रेम। करूणा की प्रवृत्ति रक्षण की ओर होती है। प्रेम की रंजन की ओर। सामाजिक विषमता के कारण रक्षण पहले अनिवार्य हैं। उसके बाद रंजन। विजेन्द्र के काव्य में इन दोनों मानवीय भावों की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति हुई है। सर्वप्रथम वे वर्तमान समाज की परिघटनाओं को वर्गीय दृष्टि से देखते हैं। उनकी हार्दिक संवेदना शोषित जनों के प्रति  है। आक्रोश होता है शोषकों और उत्पीड़कों के प्रति। येआकृतियां तुम्हारी हैं शीर्षक कविता में श्रमशील जनों को संवोधित करते हुए कहते हैं- ये गीत ये कविताएं /तुम्हारे लिए हैं/तुम्हारे लिए/इनमें तुम्हें धूप की गुनगुनाहट लगेगी/जो ग्रीश्म में तुम्हारे लिए आग बरसाती है/इनमें उन कीलों का उभार नजर आएगा/जिनकी वजह से तुम्हारा जीवन कठोर हो गया है/मैं तुम्हारे साथ /अब उस जगह पर खड़ा हूं/जहां  से वापस नहीं जा सकता।‘‘ (पृष्ठ-79 इन पंक्तियों में कवि ने श्रमशील जनों के प्रति अपनी एकात्म भावना व्यक्त की है। इसी भावना से पे्ररित होकर वे अपने जनपद अपने प्रदेश और अपने देश के लोगों के प्रति गहरी संवेदना व्यक्त करते हैं। जीवन का वास्तविक रूप दिखलाकर। तलछट शीर्षक कविता में उनकी यही संवेदना देश के किसानों के प्रति इस प्रकार वयक्त हुई है-इन रेत टीलों में/तंवॅंई लहरें ,लहरें/देखता हूं दूर दूर तक/धुंधलका है समय का/कराल है काल/पुलिस के डंडे  खाते किसानों को देखा/पौंछते खून बहता कनपुटी से/वे मांगते हैं अपनी जमीन का हक/अपने बनों पर अधिकार/तुम उन्हें करते जाते हो बेदखल/बेघर बेदम दरबदर/सामना कर रहा हूं/तुम्हारे कुचक्र भरे प्रहारों का।‘‘(बेघर का बना देश,पृष्ठ-118
उपर्युक्त पंक्तियां वर्तमान सरकार की जन-विरोधी नीतियों की आलोचना कर रही हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को फायदा पहुंॅचाने के लिए किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल किया जा रहा है। आदिवासियों से जल-जंगल और जमीन छीने जा रहे हैं। लेकिन कवि यथास्थति तोड़ना चाहता है। इसलिए वह जनशक्ति पर अपना भरोसा व्यक्त करता है। उसका मैं संगठित करोड़ों लोगों में बदलता है। प्रतिरोध की भावना से। विजेन्द्र ने अपनी लम्बी कविता जनशक्ति में यही विचार व्यक्त किया है। उन्होंने इस जनशक्ति को अभिजन की संस्कृति से अधिक महत्व प्रदान किया है- यहां कोई तपोभूमि नहीं है/ कोई स्वर्ग नहीं है/लावा से बनी पुरानी चट्टानें हैं/आदमी के अन्दर बाहर दहकती आंच है/जो लोग पेट में ईंट पत्थर धरे जीवित हैं/$$$सूर्यमल्ल की धरती वाले/ये स्वाभिमानी जन/यहां के पथरीले इलाके/उनसे लगे मीणाओं-गूजरों के गांव/उन्हें वंश भास्कर में स्थान नहीं मिला/यह छन्द चारणों का है/ओ कवि/तू इस नियति को बदल/अपने रूपक छन्द  लय और उपमान बदल/ये छन्द सूर्य चन्द्र तारागण और नक्षत्रों का है/तू धरती का छन्द रच।‘‘ (जनशक्ति पृष्ठ-55उपर्युक्त पंक्तियां संकेत कर रही हैं कि जो लोग अपने श्रम से उत्पादन करते हैं, उन्हें सामन्तों के साहित्य में सम्मानित स्थान प्राप्त नहीं होता है। अतः कवि कविता का परम्रागत ढांॅचा बदलना चाहता है। अपनी कविता में उन लोगों की क्रियाशीलता रचना चाहता है जो रात-दिन पसीना बहाते हैं। इसके लिए उसे कविता के उपकरण भी बदलने होते हैं। उसका निश्कर्ष है कि कविता एक चट्टानी संरचना है। और जनशक्ति उसका खनिज दल। लेकिन आजकल जनशक्ति सुसंगठित नहीं है। किसानों का अखिल भारतीय संगठन निष्क्रिय है। यह विचार कवि ने अपनी चरित्र प्रधान लम्बी कविता करिया अहिरवारमें कलात्मक ढंग से व्यक्त किया है। इस कविता के केन्द्र में विस्थापित किसान करिया अहिरवार है। जो बुन्देलखण्ड से विस्थापित होकर जयपुर पहुंचता है। कवि से उसकी भेंट होती है। संवाद भी होता है। विजेन्द्र ने उसके चरित्र के द्वारा यह विचार व्यक्त किया है कि एकता में ही शक्ति का निवास है। कविता का नायक करिया अहिरवार तुनककर कहता है -‘‘ अभी भरा नहीं है/घड़ा पाप का, सोचते सब हैं/डरते हैं सहते हैं इंतजार में/समय कभी बदलेगा......नहीं तो पैदा होंगे हम में से ही नेता जनता के/जो बदलेंगे हुकूमत बगावत से।‘‘ (बुझे स्थम्भों की छाया पृष्ठ-93 कविता का नायक अनपढ़ किसान अपने अनुभव से किसान-एकता का महत्त्व समझ लेता है। वास्तविकता भी यही है। वर्तमान लोकतंत्र को वास्तविक लोकतंत्र अर्थात् सुराज में परिवर्तित करनें के लिए उत्पादक वर्गों का संगठित होना अनिवार्य है। जातिवाद और सम्प्रदायवाद से ऊपर उठकर शोषित जन वर्गीय चेतना से सम्पन्न होकर ही सुराज की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। अपने इस विकल्प को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए विजेन्द्र ने सुराज शीर्षक लम्बी कविता की रचना की है। इस कविता में शोषित जन संगठित होकर अपराधी नेता को चुनाव में परास्त करते हैं। इससे लोगों को राहत मिलती है।
विजेन्द्र ने जुझारू किसानों का स्वभाव दर्शाने के लिए कठफूलाबांस शीर्षक लम्बी कविता रची जो अब कठफूलाबांस में संकलित है। इस कविता के केन्द्र में भरतपुर के निकट बसे हुए मलाह गांव के किसान हैं। इस कविता में विजेन्द्र ने माक्र्सवादी चिन्तन की अभिव्यक्ति करते हुए लिखा है कि पदार्थ से चेतना की उत्पत्ति हुई है। पदार्थ में द्वन्द्वात्मकता है। इसीलिए जीवन और जगत् में भी द्वन्द्वात्मकता है। सुख-दुख सनातन हैं। पतझर और वसन्त के समान। यही कारण है कि इस लम्बी कविता में किसानों का जन-संघर्ष अभिव्यक्त किया गया है। विजेन्द्र मानते हैं कि इतिहास कठफूलाबांस नहीं है। अर्थात् फूले हुए बांस के समान इतिहास व्यर्थ नहीं है। उससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। भविष्य को सुन्दर बनाने के लिए। इतिहास साक्षी है कि मनुष्य ने अपने बेहतर भविष्य के लिए सतत् संघर्ष किया है। अतः कवि ने ठीक कहा है-‘‘बोलती हैं मरखनी टक्करें/चिंघाड़ते हैं पैने नखर/अंगौहें सींग क्या पूरे इलाके को सकता मार गया/चिंगारियां नहीं/उठती लपटों में देखो अपने थके चेहरे/ उन्हें शत्रु के विरूद्व व्यूह रचने का/हक है/ उन्हें इन्सान होने का हक है/उन्हें तुम्हारे विरूद्व खड़े होने का हक है/लोकतंत्र में ये हक मुक्ति-संग्राम का सार है।‘‘
उपर्युक्त पंक्तियों में प्रतिरोध का सौन्दर्य झलक रहा हे। यह विजेन्द्र काव्य की प्रमुख विशेषता है। विजेन्द्र ने अपनी डायरी में लिखा है-किसान ही इस देश की जनशक्ति है। श्रमिकों से उनका गठजोड़ नये भविष्य का संकेत है। इसके बिना कुछ नहीं। ये दोनों हमारी असंख्य भुजाएं हैं। कान हैं। दिल की धड़कनें भी। जो कविता इनकी आवाज बने वह मीर है। वे हर समय के साथ हं। अथाह दुख-कठिनाइयों में डूबकर वे जिन्दा हैं। कभी घना कोहरा छटेगा। निखरी धूप खिलेगी। यहीं से कविता के खनिज जल मिलते हैं।‘‘ (चिन्तन दिशा अंक-जनवरी-मार्च 2011 पृष्ठ-69
यहां यह बात स्मरणीय है कि विजेन्द्र ने करोड़ों-करोड़ों छोटे किसानों को संगठित होने की बात कही है। उनके संगठन को सर्वहारा के संगठन से जोड़ने की इच्छा भी व्यक्त की है। वस्तुतः भारत जैसे विकासशील देश में आमूलचूल परिवर्तन लाने के लिए श्रमशील वर्गों का संगठित होना अनिवार्य है। अर्थात् कोटि-कोटि कृषकों और श्रमिकों का भारतव्यापी मजबूत संगठन। विजेन्द्र आशावादी हैं। उन्हें ऐसी संगठित जनशक्ति पर पूरा भरोसा है। वह मानते हैं हमारे लोकतंत्र का लोहा तप रहा है। बुनियादी बदलाव के लिए पूरे देश में लोक-लहरें आंदोलित हो रही हैं।
यद्यपि विजेन्द्र ने अनेक काव्य-रूप अपनाए हैं तथापि उनकी विशिष्ट पहचान लम्बी कविताओं से निर्मित हुई है। ऐसी लम्बी कविताएं जिनके केन्द्र में वास्तविक जन-चरित्र उपस्थापित किए गए हैं। कवि ने उनके चरित्र को उनके एकालाप द्वारा और उनकी क्रियाशीलता द्वारा विकसित किया है। चरित्र काल्पनिक न होकर वास्तविक हैं। जिस प्रकार महादेवी वर्मा ने अपने संपर्क में आगत अनेक व्यक्तियों पर मर्मस्पर्शी रेखाचित्र रचे हैं उसी प्रकार विजेन्द्र ने अपने परिचित निम्नवर्गीय साधारण व्यक्तियों को विशेषत्व प्रदान किया है। उनके माध्यम से अपने समय की वास्तविकता उजागर की है। जनवादी जीवन-मूल्यों की स्थापना की है। श्रम-सौन्दर्य का महत्त्व उजागर किया है। गंगोली, तसवीरन, लादू गड़रिया, वनस्पतियों की जानकार मागो, अल्लादी शिल्पी, इक्का चलाने वाला साबिर, मुर्दा सीनेवाला अनाम व्यक्ति, रामदयाल उर्फ रमदिल्लू, वायलिन-वादक नत्थी माली, श्रमशीला नूरजहां, मीना, कालीमाई, रूकमिनी, एक था मानुख का मनोहर, लच्छमी करिया अहिरवार पारो जुझारू कानसिंह दादी माई ऐसे ही जीवंत चरित्र हैं। इन चरित्रों का सम्बन्ध कवि के जन्म-भूमि धरमपुर और कर्म भूमि भरतपुर से है। ये सभी पात्र श्रमशील हैं और जीवन के अनुभवों से सीखते हैं कि जीवन कैसे जीना चाहिए। अल्लादी शिल्पी, साबिर और रामदयाल तीनों चरित्र धरमपुर से सम्बद्ध हैं। अल्लादी लुहार है। एक आंख धचक जाने और हाथ-पांव में कज होने पर भी वह लुहार का काम करता है। लोगों को जीवन जीने का पाठ पढ़ाता है। अपने काम में निपुण है। इसलिए लोग कहते हैं- ग्राम धरमपुर जाना/ अल्लादी लुहार है/ चड़वाने को हल हंसिया/खुरपी/कुठार है।‘‘ अल्लादी स्वाभिमानी है। उसे अपने काम से काम है- सबकी सुन पी जाता/नहीं अधिक धन पाना/वही छमाही/धौं भर बेझड़।/सड़सी ऊपर नीचे करता/ निर्भय चाहे कोई/कहे/सुने/शिल्पी है/मन का राजा/चाहे जो/ धुने बुने।‘‘ (धरती कामधेनु से प्यारी, पृष्ठ-93
मुर्दा सीनेवाला कविता के केन्द्र में ऐसा काला स्याह अधेड़ व्यक्ति है, जो आगरा के एस0 एन0 अस्पताल के सामने मुर्दा सीने का काम करता है। शराब पीकर, जो उसके लिए अनिवार्य है। समकालीन हिन्दी कविता में ऐसा चरित्र विरल है। कवि ने तटस्थ भाव से उसकी क्रियाशीलता और उसका स्वभाव दोनों निरूपित किए हैं। वह अपनी पत्नी से झगड़ता है। और अपनी बातों से समाज की कटु वास्तविकता उजागर कर देता है। वह कहता है-बढ़ा बहुत है लावारिस लाशों का नम्बर/कटे-फटे तेज धार से/गुमसुम चोटों से भरकर/लुटी इज्जतें जिनकी/ऐसी निरी औरतें/लेकिन तनखा बित्त-बित्त बढ़ती है।‘‘ ध्यान दीजिए इस वाक्य पर लुटी इज्जतें जिनकी/ऐसी निरी औरतें। यह वाक्य मुर्दा सीनेवाले अनाम व्यक्ति की संवेदना का द्योतक है। उन औरतों के प्रति जो अत्याचार-अनाचार-दुराचार-बलात्कार से पीड़ित हुआ करती हैं।
विजेन्द्र ने मैग्मा, प्लाज्मा, कौतूहल जैसी लम्बी कविताएं रचकर विज्ञान-बोध का सम्बन्ध अपनी कविता से जोड़ा है। इसका करण यह है कि जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास सम्भव हो सके। विज्ञान-ज्ञान के अभाव में लोग धार्मिक रूढ़ियों के शिकार हो जाते हैं। साम्प्रदायिक वैमनस्य के पीछे भी अज्ञान सक्रिय रहता है। इसीलिए शहीदे-आज़म भगतसिंह ने स्वयं को नास्तिक घोषित किया था। उनका विचार था कि जब तक भारतीय समाज में धार्मिक कट्टरता रहेगी तब तक साम्प्रदायिक दंगे होते रहेंगे। अतएव विज्ञान सम्मत जीवन-दृष्टि लोगों को धार्मिक कट्टरपन से बचा सकती है। कोटि-कोटि अकिंचन जनों के प्रति संवेदना व्यक्त करने के लिए ठिठुराती रात रची है। पूस का पहला पहर रचकर सामाजिक विषमता कलात्मक ढंग से उजागर की है।
विजेन्द्र सौन्दर्य-प्रेमी कवि हैं। प्रकृति के कण-कण में सौन्दर्य है। हरे-भरे खेतों में सौन्दर्य है। पकी हुई अन्न की बालियां झुक जाती हैं। ऐसा परिदृश्य भी कम मनोहर नहीं है। दोआब और मरूभूमि के पेड़ विजेन्द्र को आकृष्ट करते हैं। मरूभूमि का रोहिड़ा दोआब का पालाश समझा जाता है। कवि ने उसका चित्र अपनी सानेट-रचना में अंकित किया है- फूल रोहिड़ा जब पहले पहले देखा/लगा मुझे दोआब का पलाश है/खिला फूल जनपद की ऋतु का उलास है/माथा नवा मैंने खींची मन में रेखा/कभी न भूलूं यह धौंरों का सपना है।/यहां न था कोई मेरा साथ हुआ है/पुष्प राज है, मरूथल में मिला कुंआ है/मीठे जल का प्यासों का अपना है।‘‘ (उदित क्षितिज परपृष्ठ-31 मरू प्रदेश के रोहिड़ा को दोआब के सागवान के समान उत्कृष्ट और मूल्यवान माना जाता है।
विजेन्द्र के काव्य में ऋतुओं का उल्लास अनेक रूपों में अभिव्यक्त हुआ है। उन्होंने वर्षा ग्रीश्म शरद शीत पतझर और वसन्त के अनेक चित्र अंकित किए हैं। जेठ मास में तपी हुई भूमि को शीतलता प्रदान करने के लिए असाढ़ में जब बादल बरसता है तब चारों ओर का परिदृश्य अचानक बदल जाता है। पानी बरसने से खेतों में हलचल  शुरू हो जाती है। बिजाई होने लगती है। कवि ने बादल शीर्षक कविता में ऐसा ही दृश्य अंकित किया है-‘‘ बादल अभिनव बरस रहा है/बीजा भीतर/तड़क रहा है/भीज गए सब/पेड़ रूख/घर अंगनारे/कुछ बैठे हैं/बौछारों में/कुछ फिरते हैं/मारे मारे।‘‘ (बनते मिटते पांव रेत में पृष्ठ-7
वैदिक कवियों ने अग्नि को संवोधित करते हुए अनेक सूक्त रचे। लेकिन कालान्तर में कवियों ने अग्नि को कविता का विषय नहीं बनाया। विजेन्द्र ऐसे कवि हैं जो आज भी अग्नि को संवोधित करते हुए कहते हैं- ओ अग्नि/तू है प्राण अन्न का/जोति है पके धान की/रस है औषधि का/जड़ी-बूटी की पसरी जड़ है/पृथ्वी के गर्भ में/तू है आज भी मुझको पहली ऋिचा।‘‘ (वही पृष्ठ- वैदिक सूक्त के समान इस छोटी सी रचना में कवि ने अग्नि का महत्त्व व्यक्त किया है। अग्नि प्रत्यक्ष भी होता है और अप्रत्यक्ष भी। सूर्य मंडल में अग्नि का निवास है। उसकी ऊष्मा से ही अनाज पकता है। नाना प्रकार की औषधियां पकती हैं। धान की बालियां पकती हैं। अग्नि जीवन का मूल आधार है। सोचिए यदि अग्नि का आविष्कार न हुआ होता तो आज जो वैज्ञानिक प्रगति दृष्टिगोचर हो रही है वह दिखाई देती।
विजेन्द्र यह कभी नहीं चाहते हैं कि प्रकृति की सुन्दरता का क्षरण हो। क्षिति-जल-पावक- पवन-आकाश प्रदूषण से युक्त हां। इनका संतुलन बिगड़े। यदि ऐसा होता है तो जीवन असंभव हो जाएगा। आजकल यह असंतुलन दिखाई पड़ रहा है। यही कारण है कि प्रकृति का स्वभाव बदल गया है। समय पर वृष्टि नहीं होती है। वृष्टि होती है तो इतनी अधिक होती है कि प्रलयंकर बाढ़ का दृश्य उपस्थित हो जाता है। वर्तमान क्रूर पूंजी ने प्रकृति की सम्पदा का विदोहन अंधाधुंध ढ़ंग से किया है। कवि ने संपूर्ण धरती की व्यथा को गहराई से अनुभव करके ऐसी कलात्मक लम्बी कविता रची है जिसका शीर्षक है मैंने देखा है पृथ्वी को रोते। इस कविता में कवि का अध्ययन-मनन-चिन्तन और कलात्मक अभिव्यंजन समन्वित रूप में हुआ है। भूगर्भशास्त्र का ज्ञान कवि ने अपनी संवेदना में इस प्रकार ढाला है कि पाठक पढ़कर आश्चर्यचकित हो जाता है। कवि को भूमंडल से खमंडल तक की चिन्ता है। सागरों से महासागरों तक की चिन्ता है। इस कविता का संदेश यही है कि मनुष्य प्रकृति के प्रति संवेदनशील बने।
विजेन्द्र का सौन्दर्य-बोध दाम्पत्य प्रेम की अभिव्यक्ति में भी हुआ है। उनका दाम्पत्य प्रेम एकान्तिक नहीं है। वह सामाजिक है। पत्नी को संबोधित अनेक कविताओं में उन्होंने सामाजिक विषमता के अनेक चित्र अंकित किए हैं। उनका प्रेम आंच में तपा कुन्दन है। साथ ही साथ वह नारी जीवन की त्रासदी से भी साक्षात्कार करता है। कवि का कथन है- तुम्हारे बन्धनों को/और कसा जा रहा है/यह कैसी भयानक त्रासदी है/जो तुम्हारे सौन्दर्य को और अधिक कृत्रिम/और अधिक भड़कीला/बानाकर/मुक्त बाजार में/ले आया हूं।/ इसी तरह तुम जानो/तुममें भी/वह ताकत छिपी है/जो आंच की लपटों में /धधकती है।‘‘ (आंच में तपा कुन्दन पृष्ठ-45 कवि का दाम्पत्य प्रेम इतना व्यापक है कि वह आज के नारी-जीवन की त्रासद विवषता पर दृष्टिपात करता है और उसके प्रतिरोध में अपना स्वर मुखरित करता है। हकीकत यह है कि वर्तमान समय के मुक्त बाजार ने नारी को पण्य वस्तु बना दिया है। वस्तुतः आज की नारी स्वाधीन होते हुए भी पराधीन है। कवि ऋतुओं का सौन्दर्य भी अपने दाम्पत्य प्रेम से जोड़ देता है। प्रमाण के लिए सच्चा मोती शीर्षक कविता की पंक्तियां पढ़िए-शरद आने को है/वह तुम्हारे खिचड़ी बालों को/झरता हरसिंगार लाई है/घर में बैठकर/उस धूप की बरछियों से मैं बचा हूं/जिन्हें किसान/क्वांर  के खेतों को पलटने में झेलता है।/जो आए हैं बिजाई करके/उनके चेहरे काले हैं/माथे पर छलका पसीना/हवा छू रही है/ हर रोंयां।/मैं खो नहीं सकता/एक पल भी/जो है प्यार में पिरोया/सच्चा मोती।‘‘ (वही पृष्ठ-112 यह शसलिष्ट कविता है। एक ओर तो शरद ऋतु का वर्णन है। और दूसरी ओर किसान के कठोर श्रम का। तीसरी ओर दाम्प्त्य जीवन में बिताया गया प्रत्येक पल सच्चा मोती है। कवि ने बड़े ही सहज भाव से अपने प्रेम को खेती-किसानी से जोड़ दिया है। कवि को यह भी अहसास होता है कि- तुम्हें छूते ही लगता है/अन्न भरी पृथ्वी कों छुआ है/गन्ध को फूल से/कैसे अलग करू/पत्तियों की उभरी भूरी नसों में/छिपी हरीतिमा/ मेरी सांसों का भी हिस्सा है।‘‘( वही पृष्ठ-106,107 सारांश यह है कि विजेन्द्र-काव्य में प्रकृति के अनेकानेक मनोरम दृश्य उसकी क्रियाएं उसके रूप सक्रिय जीवन से इस प्रकार संयुक्त हुए हैं कि उन्हें अलगाया नहीं जा सकता है। जीवन और प्रकृति का ऐसा रागात्मक सम्बन्ध समकालीन कविता में लगभग न के बराबर है। आज के युवा कवि प्रेम कविताएं तो लिखते हैं लेिकन उनका सम्बन्ध दाम्पत्य प्रेम से नहीं जोड़ पाते। और न ही अपने प्रेम को प्राकृतिक परिवेश से।
विजेन्द्र के सौन्दर्य-बोध की एक अन्य विशेषता यह भी है कि वे प्राकृतिक जगत् में विद्यमान उन तुच्छ वनस्पतियों, झाड़ियो खरपतवारों पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं जिन्हें उपेक्षित समझा जाता है। देखकर अनदेखा कर दिया जाता है। भक्त कवि रसखान ने ब्रज की करील कुंजों पर कलधौत के करोड़ो धाम न्योछावर करने की बात कही है। लेकिन विजेन्द्र को करील की झाड़ी अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के कारण आकर्षित करती है। उसे उन्होंने चैत की लाल टहनी कहा है। इसी प्रकार एक नाम है कुकुरभांगरा। इसे चिरचिटा भी कहते हैं, जो कपड़ों पर चिपक जाता है। इसकी खूबी यह है कि यह स्वयं उगता है। विजेन्द्र ने इस पर ध्यान दिया। और महाप्राण निराला की कविता कुकुरमुत्ता  से प्रेरित होकर खड़ा मेड़ परकुकुर भांगरा शीर्षक लम्बी कविता रची। अर्थ की दृष्टि से इस कविता के अनेक स्तर हैं। कविता में कुकुरभांगरा कवि का भी प्रतीक है। इसके माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि अभिजात वर्ग के कवि और आलोचक मेरी कविता का विरोध करते हैं तो करते रहें। लेकिन मेरी सिसृक्षा कविताएं सहज भाव से रचती रहेगी। प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि निराला की कविता कुकुरमुत्ता में दिखाया गया है कि उसे खा लिया जाता है अर्थात् उसका अस्तित्त्व समाप्त हो जाता है। लेकिन विजेन्द्र के कुकुरभांगरा का अस्तित्त्व समाप्त नहीं होता है।  उनकी एक कविता शीर्षक है भटकटैया। यह भी उपेक्षित वनस्पति है। लेकिन कवि इसे आदर भाव से देखकर कहता है- ओ मेरी भटकटैया/खोने न दूंगा तुझे/तेरे सुकोमल बैंजनीं फूल/!पीली पराग केसर/दिखती बीच में/खोने न दूंगा।‘‘ (कवि ने कहापृष्ठ-122
विजेन्द्र भरतपुर के लोक-जीवन में सक्रिय लोक का सौन्दर्य निकट से देखते हैं। उसे अपने चित्त में बसाते हैं। और फिर उसे लयात्मक सांचे में रचते है। इस सन्दर्भ में पनघट शीर्षक कविता पढ़ी जा सकती है। इस कविता में कवि ने पनघट को जाती हुई और पनघट से आती हुई ग्रामीण महिलाओं की भंगिमाओं हंसी-ठिठोलियों मुसकानों आदि का स्वाभाविक वर्णन किया है- वे/दूर दूर से आती हैं/ पानी को।/आपस में व्यंग्य हंसी हंसती/चुलबुल करतीं/प्यार से मुसकातीं/ब्रज की/फाग से सनी गाली गाती हैं।/भरा हुआ है/पनघट/सुबह का/घना कौल है छाया/फिर भी आतीं/आतीं टोल बांधकर/नहीं दिखाई देते/उनके अनगढ़ चेहरे/अंगों की सुगढ़ाई/ केवल खटमुंदरे/बोल सुनाई पड़ते।‘‘ (वही पृष्ठ-110 इसी प्रकार एक और छोटी कविता है-मगर मैं देखूं। बूंद को संबोधित इस कविता में कवि कहता है -बूंद/तुम ठहरी रहो/अभी कुछ देर/ठहरी रहो/पंखड़ी की नोक पर/ठहरी रहो।/मैं तुम्हें देखूं/और देखू/न अघाएं कभी आंखें/देखकर/फिर तुम्हें देखूं।‘‘ (पृष्ठ-वही-122 ध्यान दीजिए कवि ने देखना क्रिया का प्रयोग कई बार किया है। वह उसे पंखड़ी की नोक पर ठहरे हुए रूप में देखना चाहता है। कहने का आशय यह है कि पंखड़ी की नोक पर ठहरी हुई बूंद किसी भी समय टपक सकती है। लेकिन कवि का अनुरोध है कि तुम ठहरी रहों। यह अनुरोध ही कवि के सौन्दर्य-बोध का अच्छा सबूत है।
वर्तमान समाज में ऐसी क्रूर व्यवस्था है कि जागरूक कवि और कलाकार उसकी क्रूरता का प्रतिरोध निरन्तर करते रहते हैं। प्रतिरोध के लिए हिम्मत चाहिए। बड़ा त्याग चाहिए। तभी प्रतिरोध का सौन्दर्य उभर कर आता है। डा0 रामविलास शर्मा अपनी आलोचना से सामन्ती, पूंॅजीवादी और साम्राज्यवादी दुष्ट नीतियों का पुरजोर प्रतिरोध करते रहे। बिना किसी समझौते के। इसीलिए उनकी आलोचना में प्रतिरोध का सौन्दर्य लक्षित होता है। ऐसा ही प्रतिरोधी सौन्दर्य विजेन्द्र-काव्य में भी है। उन्होंने अपने चरित्रों के द्वारा सामन्ती मूल्यों का विरोध किया है। रूढ़िग्रस्त विचारों का खण्डन किया है। अपने काव्य नाटक अग्निपुरूष के नायक के माध्यम से वर्तमान युग की एक धु्रवीय दुनिया का प्रतिरोध किया है और उसका विकल्प भी प्रस्तुत किया है। नाटक में व्यास कवि के विचारों के वाहक हैं जो स्वयं से कहते हैं- सघन अंधेरे में खोजता/उजास की एक रेख/एक  पूर्वजों को उनकी पगडंडियों को/देखता हूं आगे चट्टानें धचके धरातल उठी आकृतियां/होती है इतिहास की अनिवार्यतः/ पुनर्खोज/खोजता उर्वर धरती, आकाश और जल/रोपने को नया युग बीज/देखता हूं प्रवाहित अजस्र स्रोतनयेनये।‘‘ (अग्नि पुरूष पृष्ठ-102103 व्यास के इस स्वगत कथन का आशय यह है कि इतिहास से प्रेरणा लेकर वर्तमान को सुन्दर बनाया जा सकता है। मांगलिक भविष्य के लिए। इस प्रकार विजेन्द्र रचना की धार से यथास्थति पर प्रहार करते हैं। और उसके स्थान पर नया विकल्प भी प्रदान करते हैं। उनकी एक लम्बी कविता का शीर्षक है ओ एशिया। इस कविता में वाचक अर्थात् स्वयं कवि अपने जनपद की भूमि से एशिया महाद्वीप को संबोधित करता है। अपने इतिहासबोध से उसे प्रेरित करता है कि वह विश्व की महाशक्ति बने जिससे वर्तमान एक धु्रवीय दुनिया संतुलित हो सके। अर्थात् अमरीकी दादागिरी को यदि कोई चुनौती दे सकता है तो वह है संगठित एशिया महाद्वीप। यह बहुत बड़ा लक्ष्य है। जिस प्रकार दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों के नेता नेल्सन मंडेला ने अपने लोगों के कल्याण के लिए नेतृत्व की कमान संभाली। अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। इसी प्रकार अब समय आ गया है कि एशिया महाद्वीप का नेतृत्व कोई त्यागी महात्मा करे। उसे एकजुट करे। तभी एशिया महाद्वीप महाशक्ति के रूप में उभर सकता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए चीन को अपनी विस्तारवादी नीति त्यागनी होगी। संगठित शक्ति से आतंकवाद को कुचलना होगा। फिलिस्तीनी लोगों को न्याय दिलाना होगा। और पाकिस्तान की जनता को अपनी सरकार को मजबूर करना होगा कि वह आतंकवाद का रास्ता छोड़कर भारत से मैत्री-सम्बन्ध जोड़े।
विजेन्द्र के प्रतिरोध का सौन्दर्य  एक और लम्बी कविता में भी झलकता है। संवाद स्वयं से। इस कविता का वाचक भी कवि का प्रतिरूप है अर्थात् कवि स्वयं से मन नही मन संवाद कर रहा है। अपने मन में छिपे हुए शैतान से तर्क-वितर्क कर रहा है। उसे आत्मविश्वास से परास्त करता है। तात्पर्य यह है कि समाज को बदलने के लिए जरूरी है कि पहले स्वयं को बदला जाए। इसीलिए तो कबीर ने कहा था- बुरा जो देखन मैं चला/बुरा न मिलिया कोय/जो दिल खोजा आपना मुझसा बुरा न कोय।‘‘ इस प्रकार विजेन्द्र आत्म-समीक्षा करते हुए अपने अन्तद्र्वन्द्व को प्रशान्त करते हैं। यानी आदमी से इन्सान बनने की चेष्ठा करते रहते हैं। गालिब ने भी इसी की ओर इशारा किया था- बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना/आदमी को भी मयस्सर नहीं इसां होना।‘‘ यहां आदमी और इन्सान में फर्क किया गया है। मूल प्रवृत्तियों की दृष्टि से आदमी और जानवर में कोई फर्क नहीं है। लेकिन आदमी ने श्रम से स्वयं को संवारकर इंसान बनने की चेष्टा लगातार की है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इंसान से इंसान का हो भाई-चारा यही पैगाम हमारा।
निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि विजेन्द्र साधक कवि हैं। उन्होंने बड़े सरोकारों से अपनी कविता को जोड़ा है। उनका विजन जनपद से प्रदेश तक प्रदेश से संपूर्ण देश तक और संपूर्ण देश से संपूर्ण विश्व तक व्यापक है। उनके काव्य-गुरू त्रिलोचन के शब्दों में कह सकते हैं-केवल भारत नहीं विश्व का मानव जागे। विजेन्द्र-काव्य का यही आशय है। वे अपने देश के कोटि-कोटि शोषित जनों की बुलन्द आवाज हैं। उनके लिए संघर्ष करनेवाले कलम के सिपाही हैं। उनकी भाषा में देखना और बोलना क्रियाओं का अनेक बार प्रयोग हुआ है। वे जनशक्ति को संबोधित करते हुए कहते हैं कि बोलो और बोलो। बोलने से सन्नाटा टूटता है। व्यवस्था दहलती है। तुम्हारा यह संघर्ष अभी और आगे तक चलेगा। क्योंकि अभी तक समाज में गैरबराबरी का बोलबाला है। विभेदों की बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी हुई हैं। इन्हें ध्वस्थ करना होगा। रोटी के लिए समर आगे तक जारी रहेगा। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि विजेन्द्र ने शिवेतरक्षतये की पूर्ति के लिए अपने विपुल काव्य की सृष्टि की है। इसलिए वे आज के दौर के बड़े कवि माने जाते हैं। उनके विपुल लोकधर्मी काव्य में जनवादी जीवन -मूल्यों की व्यापक अभिव्यक्ति हुई है। जनपद से देश तक और देश से संपूर्ण विश्व तक। वस्तुतः विजेन्द्र का काव्य अमा निशा में जलती मरूाल है जो भविष्य का मार्ग आलोकित करती रहेगी। उनके अन्य प्रकाश्य संकलन उपलब्ध होने के बाद ही समग्र मूल्यांकन सम्भव हो सकेगा।
डा0 अमीर चन्द वैश्य द्वारा कम्प्यूटर क्लीनिकचूना मण्डीबादायूं 243601,उत्तर प्रदेशमोबा0 09897483597






3 टिप्‍पणियां:

  1. महत्वपूर्ण व सुचिन्तित आलेख।
    जनपदीय,संघर्षरत चित्रों,चरित्रों,भाव,अभाव,सुभाव
    के कङियल किसान कवि विजेन्द्र का तलस्पर्शी मूल्यांकन।

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  2. महाकवि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर अमूल्य लेख का हार्दिक अभिनन्दन है

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