शनिवार, 3 जनवरी 2015

कैलास गौतम की कविताओं पर दूधनाथ सिंह

हिंदी की जातीय जमात से अलग-थलग माने जाने वाले कवि कैलास गौतम की कवितायें स्वतंत्र हिन्दुस्तान की अलग कहानी कहती हैं------- जी हाँ वही कहानी जिस कहानी को श्री लाल शुक्ल ने “राग दरबारी” कहा है जिस कहानी को हम देख-सुनकर भी उसके विद्रूप चरित्र को आसानी से पचा जाते हैं| यही कारण है की कैलास गौतम का “लोक” आज भी आलोचकों की नज़र से ओझल है उनकी कविता की चर्चा तक नहीं होती आलोचकों की नज़र भले ही उनकी कविता न देख सके पर उनकी “कविताओं” का “लौकिक यथार्थ” पाठक बखूबी देख लेता है वरिष्ठ कथाकार दूधनाथ सिंह ने कैलास की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए कहा है  “जो कवि कविता के फन और फैशन से बाहर खड़ा हो उससे लोग परिचित होना भी जरूरी नहीं समझते। क्योंकि अक्सर लोगों का ध्यान तो सौदर्यशास्त्र की बनीं-बनाई श्रेणियां खींचती हैं। कैलाश गौतम उस खांचे में नहीं अटते। वह खांचा उनके काम का नहीं है या वे उस खाचे के काम के नहीं है। इसका सीधा सा मतलब है कि यह कवि अपनी कविताओं के लिए एक अलग और विशिष्ट सौंदर्यशास्त्र, सौदर्यदृष्टि की मांग करता है। आखिर कविता की ऊब के इस माहौल में हमारी नजर किसी कवि पर क्यों जाती है क्योंकि वह जीवन को समझने की एक नई कला एक, सर्वथा नई दृष्टि, एक सर्वांग अछूते, ताजे और अनहोने सौंदर्य की सृष्टि अपनी रचनाओं से करता है। वह चलन से बाहर कविता का एक नया विधान, एक निजी और मात्र ठाठ रचता है। “आज हम लोकविमर्श में कैलास गौतम की कविताओं पर वरिष्ठ कथाकार /आलोचक श्री दूधनाथ सिंह का बयान प्रकाशित कर रहें हैं |यह बयान  हम अपनी पत्रिका प्रवासनामा में प्रकाशित कर चुकें है |साथ ही पाठकों के लिए कैलास गौतम की तीन कवितायें भी आलेख के साथ प्रकाशित हैं






जमात से बाहर का कवि.... कैलाश गौतम 

हिंदी कविता में इन दिनों एक अद्भुत ‘रीतिकाल चल रहा है। अगर आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों से प्रेरणा लेकर कहें  तो यह भी कह सकते हैं कि आधुनिक काल की छायावादोत्तर कविता में चलने वालों रीतिकाल का यह द्वितीय उत्थान है। पहली वार यह रीतिकाल चला जब अज्ञेय ने सप्तकों {खासकर पहले तीन] के माध्यम से हिंदी कविता को संभव बनाया।
अगर इनमें इकट्ठे सारे कवियों कुछ एक को छोड़कर जिनकी कविता जिनकी कविता सुमित्रानंदन पंत के विचार से छायावाद का ही विस्तार (छायावाद एक पुर्नमूल्यांकन) है कि कविताओं उनके नाम हटा दें तो आप पहचान नहीं सकते कि कौन कविता किसकी है। सारी कविताएं किसी की भी रचना हो सकती हैं। सब कुछ सभी का है और किसी का कुछ भी नहीं है। बात और विचार (यदि वह है तो) और कहने का ढंग- सब एक ही हैं। उसी में सब निज-निज मति अनुसार कोई नया बिंब, कोई नई उदासी, कोई नया लघुमानवत्व, कोई अजूबी-गरीबी, कोई नया संत्रास, कोई नई अस्मिता और कुंठा का खेल रच रहे हैं, लेकिन कवि नाम हटा दिया जाय तो वह उनमें से किसी की भी काव्य संपत्ति या विपत्ति हो सकती है। इसी को मैं आधुनिक (छायावादोत्तर) हिंदी कविता का रीतिकाल (प्रथम उत्थान या पतन) कहता हूं जिसका सारा नखासिख सारा नायिकाभेद सारा काब्य निर्णय एक है। उसी को हर कवि रगड़-घिस रहा है। एक व्यक्तित्वहीन चेहराविहीन कविता की भीड़- यही तो है किसी भी कविता का रीतिकाल। रुढिग्रस्त ऊबाऊ नीरस निरर्थक है। जिसके लिए पंत ने चिदंबरा की भूमिका में रीढ़हीन आत्मसुख-दुख के कदम में रेंगनें वाले लघु यथार्थ के कलाफेन की सृष्टि” कहा था। इसका सीधा अर्थ है कि ऐसी कविता मे कवि के मौलिक और अद्वितीय व्यक्तित्व की छाप कहीं नहीं होती। आधुनिक हिंदी कविता के इस प्रथम रीतिकाल को तोड़ने और बिगाड़ने का काम चाहे जैसे भी हो सन 60 के दौरान अकवितावादियों ने किया और अपनी दिग्भ्रमित ऊर्जा के भीतर से राजकमल चैधरी और धूमिल जैसे ऊर्जावान प्रतिभा संपन्न कवियों को पैदा किया। इसी पृष्ठीभूमि में आगे चलकर गोरख पांडे और आलोक धन्वा जैसे प्रतिभा संपन्न मौलिक कवि पैदा हुए जिनसे हिंदी कविता का नया इतिहास रचता बनता है। कविता के रीतिकाल का द्वितीय उत्थान या पतन जिसकी चर्चा हमने अपनी बात शुरू की थी सन 80 के आस-पास शुरू हुआ। अब पता चला क्योंकि किसी भी बात के शुरू होने की सूचना साहित्य में तुरंत नहीं मिलती। भारतीय मनुष्य और समाज और संस्कृति, इतिहास की बड़ी-बड़ी बातें है। वह मनुष्य और समाज संस्कृति किस रूप में कविता में रूपांतरित हुई है यह कोई नहीं जानता। इस तरह के माहौल में एक ऐसे कवि के बारे में बात करना जो पूरे जमात से बाहर हो थोड़ा कठिन है। फिर जब वह कवि इस जमात के खाट से अलग नहीं, इनके बाट से भी दूर अपनी निजी पगडंडी पर खड़ा है लेकिन ठीक इसी वजह से तो उस पर नजर गई। कैलाश गौतम कोई दूधमुंहें कवि नहीं है| कि उनका परचित देना जरूरी हो| लेकिन जो कवि कविता के फन और फैशन से बाहर खड़ा हो उससे लोग परिचित होना भी जरूरी नहीं समझते। क्योंकि अक्सर लोगों का ध्यान तो सौदर्यशास्त्र की बनीं-बनाई श्रेणियां खींचती हैं। कैलाश गौतम उस खांचे में नहीं अटते। वह खांचा उनके काम का नहीं है या वे उस खाचे के काम के नहीं है। इसका सीधा सा मतलब है कि यह कवि अपनी कविताओं के लिए एक अलग और विशिष्ट सौंदर्यशास्त्र, सौदर्यदृष्टि की मांग करता है। आखिर कविता की ऊब के इस माहौल में हमारी नजर किसी कवि पर क्यों जाती है क्योंकि वह जीवन को समझने की एक नई कला एक, सर्वथा नई दृष्टि, एक सर्वांग अछूते, ताजे और अनहोने सौंदर्य की सृष्टि अपनी रचनाओं से करता है। वह चलन से बाहर कविता का एक नया विधान, एक निजी और मात्र ठाठ रचता है।



कैलाश गौतम को बार-बार पढ़ते हुए या पढ़े जाने के बाद वह बात पकड़ में आती है। बार-बार पढ़ना इसलिए जरूरी नहीं होता कि उनकी कविता कठिन या अमूर्त या दूर की कौड़ी है| बल्कि वह इतनी निजी इतनी अपनत्व भरी, इतनी सहज परचित, सघन सच्चाई से इतनी भरी-पूरी लगती है, इतनी रच-बस जाती है कि पाठक और कवि या कविता के बीच रिश्ता बनाने के लिए अलग से कोई कसरत नहीं करनी पड़ती। बड़ी कविता इसी तरह हमारी सबकी अपनी हो जाती है। कवीर या तुलसीदास, निराला या नागार्जुन की पंक्तियों को हम महसूस पहले करते हैं और उन पर सोंच -विचार बाद में। यह तब होता है जब कोई कवि फन और फैशन से अलग अपनी जातीय परंपरा के संस्कारों का मौलिक और सच्चा प्रतिनिधि बनकर हमारे बीच अनजाने ही उपस्थित होता है।
कैलाश गौतम के संदर्भ में कुछ लोगों को यह बड़बोली लगेगी लेकिन वे वे लोग होंगे जो या तो इस कवि के मुक्त और सैलानी ठाठ से परिचित नहीं होंगे या कविता की प्रचलित सौदर्यशास्त्रीय श्रेणियों के बोझ तले बरी तरह दबे होंगें , लेकिन कोई भी कविता हमारे ऊपर अपना रंग आखिर क्यों जमा लेती है जब वह हमारा अति परिचित सत्य एकाएक हमारे सामने खोलकर रख देती है। जीवन और समाज और इतिहास की सच्चाइयों के लिए जो प्रमाण हम खोजते फिरते हैं या जो हमारी नजरों से ओझल होता है उसी का दिख जाना या खुल जाना या प्रकट हो जाना एक कला रचना को सर्वसम्मत बनाता है। कविता में जब इधर बहुत आय-बाय-शाय हो रहा है कैलाश गौतम बिना किसी बनावट के एक सहजता के साथ आजादी के बाद उभरी हुई विकृत सच्चाईयों का प्रमाण अपनी कविताओं के माध्यम से हमारे सामने प्रस्तुत करते है। जब सभी कवि भारतीय स्वतंत्रता के बारे में उत्तर आधुनिक विमर्श में जुटें हैं कैलाश गौतम आजादी के बाद उभरने वाले चऱित्रो का चित्र हमारे सामने प्रस्तुत कर रहें हैं। भारतीय चित्रपट पर वे चित्र कौन से हैं जो आजादी के बाद उभरे या रूपांतरित हुए हैं  पटवारी हैं जो लेखपाल के रूप में आजादी के दौरान स्कूल-कालेज छोड़कर  गांधीजी के आह्वाहन पर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ने वाले विद्यार्थी हैं जो बच्चू-बाबू के रूप में प्रेमचंद्र का सूतखोर झिंगुरी साहू हैं जो गुपतेसरा के रूप में सेवादल के पुराने भाईजी अब नए भाईजी के रूप ,में पुरानी सत्ता नए राजाजी के रूप में , प्रेमचंद्र का पंचपरमेश्वर कचेहरी पांडे के रूप में  आजादी की लड़ाई के दिनों में लगने वाला कफ्र्यू अब संप्रदायिक दंगों के कफ्र्यू के रूप में, सीटू, इंटक से निकलने वाले डांगे, रणदिवे अब ,रामनगीना के रूप मे- कहने का मतलब यह है कि राजनीति इतिहास और संस्कृति साहित्य के वे सारे प्रतीक या तो पूरी तरह से अपने नए रूपों में प्रकट हो रहे हैं या उन्होंने नए प्रतीकों की सृष्टि कर दी है। मैथलीशरण गुप्त की वह पंक्ति- अहा  ग्राम्य जीवन भी क्या है!
क्यों न इसे सबका मन चाहे...
अब इस कवि के समय और ऐतिहासिक परिदृष्य में जिस तरह से प्रकट हो रही है वह अभूतपूर्व अकल्पिनीय परिवर्तन है            दूधनाथ सिंह ,झूंसी इलाहाबाद 

       



कैलास गौतम की दो  कवितायें

१   बच्चू बाबू  

बच्चू बाबू एम.. करके सात साल झख मारे

खेत बेंचकर पढ़े पढ़ाई, उल्लू बने बिचारे


कितनी अर्ज़ी दिए न जाने, कितना फूँके तापे

कितनी धूल न जाने फाँके, कितना रस्ता नापे

लाई चना कहीं खा लेते, कहीं बेंच पर सोते

बच्चू बाबू हूए छुहारा, झोला ढोते-ढोते

उमर अधिक हो गई, नौकरी कहीं नहीं मिल पाई

चौपट हुई गिरस्ती, बीबी देने लगी दुहाई

बाप कहे आवारा, भाई कहने लगे बिलल्ला

नाक फुला भौजाई कहती, मरता नहीं निठल्ला


ख़ून ग़‍रम हो गया एक दिन, कब तक करते फाका

लोक लाज सब छोड़-छाड़कर, लगे डालने डाका

बड़ा रंग है, बड़ा मान है बरस रहा है पैसा

सारा गाँव यही कहता है बेटा हो तो ऐसा ।

२  गाँव गया था गाँव से भागा
गाँव गया था

गाँव से भागा ।

रामराज का हाल देखकर

चायत की चाल देखकर

आँगन में दीवाल देखकर

सिर पर आती डाल देखकर

नदी का पानी लाल देखकर

और आँख में बाल देखकर

गाँव गया था

गाँव से भागा ।

गाँव गया था

गाँव से भागा ।

सरकारी स्कीम देखकर

बालू में से क्रीम देखकर

देह बनाती टीम देखकर

हवा में उड़ता भीम देखकर

सौ-सौ नीम हक़ीम देखकर

गिरवी राम-रहीम देखकर

गाँव गया था

गाँव से भागा ।

गाँव गया था

गाव से भागा ।

जला हुआ खलिहान देखकर

नेता का दालान देखकर

मुस्काता शैतान देखकर

घिघियाता इंसान देखकर

कहीं नहीं ईमान देखकर

बोझ हुआ मेहमान देखकर

गाँव गया था

गाँव से भागा ।

गाँव गया था

गाँव से भागा ।

नए धनी का रंग देखकर

रंग हुआ बदरंग देखकर

बातचीत का ढंग देखकर

कुएँ-कुएँ में भंग देखकर

झूठी शान उमंग देखकर

पुलिस चोर के संग देखकर

गाँव गया था

गाँव से भागा ।

गाँव गया था

गाँव से भागा ।

बिना टिकट बारात देखकर

टाट देखकर भात देखकर

वही ढाक के पात देखकर

पोखर में नवजात देखकर

पड़ी पेट पर लात देखकर

मैं अपनी औकात देखकर

गाँव गया था

गाँव से भागा ।

गाँव गया था

गाँव से भागा ।

नए नए हथियार देखकर

लहू-लहू त्योहार देखकर

झूठ की जै-जैकार देखकर

सच पर पड़ती मार देखकर

भगतिन का शृंगार देखकर

गिरी व्यास की लार देखकर

गाँव गया था

गाँव से भागा ।

गाँव गया था

गाँव से भागा ।

मुठ्ठी में कानून देखकर

किचकिच दोनों जून देखकर

सिर पर चढ़ा ज़ुनून देखकर

गंजे को नाख़ून देखकर

उज़बक अफ़लातून देखकर

पंडित का सैलून देखकर

गाँव गया था



  कचेहरी

भले डांट घर में तू बीबी की खाना

भले जैसे -तैसे गिरस्ती चलाना

भले जा के जंगल में धूनी रमाना

मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना

कचहरी न जाना

कचहरी न जाना|

कचहरी हमारी तुम्हारी नहीं है

कहीं से कोई रिश्तेदारी नहीं है

अहलमद से भी कोरी यारी नहीं है

तिवारी था पहले तिवारी नहीं है|

कचहरी की महिमा निराली है बेटे

कचहरी वकीलों की थाली है बेटे

पुलिस के लिए छोटी साली है बेटे

यहाँ पैरवी अब दलाली है बेटे|

कचहरी ही गुंडों की खेती है बेटे

यही जिन्दगी उनको देती है बेटे

खुले आम कातिल यहाँ घूमते हैं

सिपाही दरोगा चरण चुमतें है|

कचहरी में सच की बड़ी दुर्दशा है

भला आदमी किस तरह से फंसा है

यहाँ झूठ की ही कमाई है बेटे

यहाँ झूठ का रेट हाई है बेटे|

कचहरी का मारा कचहरी में भागे

कचहरी में सोये कचहरी में जागे

मर जी रहा है गवाही में ऐसे

है तांबे का हंडा सुराही में जैसे|

लगाते -बुझाते सिखाते मिलेंगे

हथेली पे सरसों उगाते मिलेंगे

कचहरी तो बेवा का तन देखती है

कहाँ से खुलेगा बटन देखती है|

कचहरी शरीफों की खातिर नहीं है

उसी की कसम लो जो हाज़िर नहीं है

है बासी मुहं घर से बुलाती कचहरी

बुलाकर के दिन भर रुलाती कचहरी|

मुकदमें की फाइल दबाती कचहरी

हमेशा नया गुल खिलाती कचहरी

कचहरी का पानी जहर से भरा है

कचहरी के नल पर मुवक्किल मरा है|

मुकदमा बहुत पैसा खाता है बेटे

मेरे जैसा कैसे निभाता है बेटे

दलालों नें घेरा सुझाया -बुझाया

वकीलों नें हाकिम से सटकर दिखाया|

धनुष हो गया हूँ मैं टूटा नहीं हूँ

मैं मुट्ठी हूँ केवल अंगूंठा नहीं हूँ

नहीं कर सका मैं मुकदमें का सौदा

जहाँ था करौदा वहीं है करौदा|

कचहरी का पानी कचहरी का दाना

तुम्हे लग न जाये तू बचना बचाना

भले और कोई मुसीबत बुलाना

कचहरी की नौबत कभी घर न लाना|

कभी भूल कर भी न आँखें उठाना

न आँखें उठाना न गर्दन फसाना

जहाँ पांडवों को नरक है कचहरी

वहीं कौरवों को सरग है कचहरी

               
   

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत प्यारी कविताएँ हैं ।मुहावरेदारी गाँव-गिराँव के आम लोगों की है ।जीवन इतना करीब है कि कविता कविता नहीं लोकगीत बन गई है ।छंद भी लोक के हैं ।यह समर्थ कवि की कविताएँ हैं जो कविता के पुराने खाँचे तोड़ कर अपनी अलग जमीन बनाता है ।

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