मंगलवार, 6 सितंबर 2016

जीवन का बिम्ब रचती कविताएँ- भारत यायावर


     जीवन का बिम्ब रचती कविताएँ -  भारत यायावर

अस्सी के दशक में युवा कवियों की एक नयी पीढी का आगमन हुआ था इस पीढी में सुधीर सक्सेना , अनिल जनविजय  भारत यायावर , शम्भू बादल  जैसे शानदार कवि थे । इस पीढी ने बाद के तमाम बदलावों को अपनी कविता में समेटा पर कविता की बुनियादी सरंचना और संवेदना मानवीय व्यवहार को बचाए रखने का संघर्ष , घर परिवार की दुनिया , मित्रों और परिचितों की दुनिया , पर्यावरण की चिन्ता , सांस्कृतिक विस्थापन , उपेक्षित एवं शोषित तबकों के लिए तदर्थवाद व शुष्क वेदना की बजाय वास्तविक सहानुभूति थी । भारत यायावर इस पीढी के बेहतरीन कवि हैं वह जितने अच्छे कवि हैं उतने ही तर्कनिष्ठ आलोचक व कुशल संपादक हैं ।आज भी न तो आत्ममुग्ध हैं न थके हैं न हारे हैं | मैने उनसे विचारधारा और कविता के पारस्परिक अन्तर्सम्बन्धों के सन्दर्भ में पूँछा तो उनका कहना था कि "उमा भाई विचारधारा जीवन बोध से उपजती है और कविता भी जीवन बोध का आख्यान है  वो कविता को जीवन का बिम्ब मानते हैं । उनका लिखा हुआ और सम्पादित किया हुआ विपुल साहित्य है नामवर सिंह और फणींश्वरनाथ रेणु पर उनका स्वतन्त्र समालोचना कर्म है जिसे शायद कभी नही भुलाया जा सकता है अस्सी के दशक के इस जरूरी और  बेहतरीन कवि ने  अपने जीवन का बहुत सारा हिस्सा गाँव मे गुजारा और राजधानी से दूर रहने का खामियाजा भी भुगतना पडा । बावजूद इसके भारत आज भी रचनात्मक रूप सक्रीय हैं | भारत अपनी कविताओं मे पूँजीकृत अस्मिताओं की भी परिचर्चा करते है मगर उस नजरिए से नही करते जिस नजरिए से  उत्तरसंरचनावाद करता है उनका नजरिया यथार्थ की विकृतियों के अनुरूप होता है उनके लिए अस्मिता महज अस्तित्व व हक का प्रश्न नही है वह व्यवस्था में सचेतन भागीदारी का सवाल है । पहचान का सवाल है पहचान तभी सम्भव है जब अस्मिता को अस्तित्व और भागीदारी से जोडा जाए सबको समता और अवसर प्रदत्त किए जाँए । कवि केवल अपनी काया मे व काया की जरूरतों मे नहीं जीवित रहता है वह अपने सृजन संसार में भी जीवित रहता है | उनके जीवन के छोटे छोटे जीवन्त अनुभव उसकी कविता में समाहित होकर युगीन असंगतियों को स्वर दे रहें हैं  | भारत यायावर के पंसदीदा कवि निराला और मुक्तिबोध हैं फलतः उनकी क्रान्तिकारी चेतना रूमानियत में तब्दील नही हो सकी है यह समय का वह दौर था जब जनतान्त्रिक मूल्यों के क्षरण से मध्यमवर्ग चिन्तित होकर  भविष्य के लिए संवेदनशील , आधुनिक द्वन्दात्मक हथियारों का अन्वेषण कर रहा था ताकि वह आगे और कठिन होती जा रही लडाई में अपने आप का अस्तित्व और अस्मिता सहेज सके। भारत की कविताओं में मध्यमवर्ग का नकार नही है पर मध्यमवर्गीय चेतना का नकार अवश्य है । उनकी प्रेम कविताएं और रिश्तों पर लिखी गयी विशुद्ध गार्हस्थ कविताओं में मध्यमवर्गीय जीवन बोध को देखा जा सकता है ।भारत ने मिथकों में भी मानवीयता की वैविध्यपूर्ण अन्तर्दशाओं का बिम्ब उकेरा है उनकी अभिमन्यु कविता में अभिमन्यु चतुर्दिक घेराव में फँसा घायल एवं व्यवस्था कृत अलगाव द्वारा सबसे अलग थलग किया गया वंचित तबका है जिसके जीवन की जटिल स्थितियों से उभरे सवालों को  अपनी इस  कविता में दिखाया है ।सामन्ती लोकतन्त्र , व विकृत पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा मनुष्य को तटस्थ और संवेदनहीन कर देने की खतरनाक प्रक्रिया ,एवं दुख और दहशत के बरक्स मानवीय अस्मिता का सवाल का भारत की कविताओं का मुख्य कहन है यही कारण है उनकी कविताओं मे आधारभूत मानवीय चेतना को बचाकर रखने की बेचैनी बडी शिद्दत से उभर आई है | भारत यायावर केवल कवि ही नहीं हैं जीवन से निरन्तर अनुप्राणित कलाकार भी हैं आलोचना , संस्मरण , भाषा और शोध पर उनका लिखा गया विपुल साहित्य उनके निरन्तर संघर्षरत रहने का प्रमाण है |

सुनो अभिमन्यु 

और आज भी तुम लौट आए
पर तुम्हारी चाल से लग रहा था जैसे तुम
उदास और थके क्षणों को पाँवों से रौंद रहे हो

यह आज ही नहीं हुआ है
कल भी हुआ है
परसों भी हुआ है
और होगा-- कल भी, परसों भी, और....

तुम आज भी मुस्करा रहे हो
लगता है जैसे व्यवस्था के पसरे अन्धेरे से
तनिक भी नहीं घबरा रहे हो

सुनो अभिमन्यु !
इस व्यवस्था का चक्रव्यूह बहुत विकराल है
और तुम्हारे पास लड़ने को न कोई औजार है, न हथियार है

और लड़ोगे भी कैसे अभिमन्यु ?
फटे हुए कोट, घिसे हुए जूते,
सम्बन्धियों के व्यंग्य, मित्रों के उपहासों
के बीच-- लड़ोगे भी कैसे अभिमन्यु ?

फिर भी लड़ रहे हो तुम पेट की लड़ाई
पेट आज जिसका अर्थ विश्व हो गया है
विश्व, जो चन्द पेटों में ही स्थापित हो रहा है
पेटों में ही उद्योग स्थापित हो रहे हैं
पेटों में ही श्रमिक जी रहे हैं

तुम समय के ऎसे गर्भ में जी रहे हो, मनु
जहाँ हर आदमी एक दूसरे को खा रहा है
मौक़ा मिलते ही हड्डियाँ तक चबा रहा है

सुनो अभिमन्यु, सुनो !
इस भयानक पेट को चीरना ही होगा
मुक्ति हमारा सबसे बड़ा पर्व है, मनु !

अभिमन्यु ! यह 'तुम' नहीं, 'मैं' हूँ
जो कह रहा हूँ, सुन रहा हूँ, देख रहा हूँ,
यह 'मैं' नहीं 'तुम' हो
जो कह रहे हो, देख रहे हो, सुन रहे हो 
मेरा प्रेम
मेरा प्रेम वैसा ही है
जैसा पानी का रंग
मेरी घृणा वैसी ही है
जैसी तेजाब की गन्ध

मैं प्रेम को प्रेम करता हूँ
और घृणा को घृणा
मैं वैसी चीज़ों की तलाश करता हूँ
जिनकी शक्ल में
पानी का रंग घुला होता है
वैसी छाँह की तलाश करता हूँ
जो धूप की भयावह शक्ल से
बचाती है मनुष्य को

मेरी पूरी तलाश एक मनुष्य की है
मनुष्य की एक भरपूर पहचान लिए
मैं जाता हूँ जहाँ भी
लड़ता हूँ अन्धेरों से
पशुता से
करता हूँ सामना

मैं जाता हूँ जहाँ भी
खिलखिलाता हूँ, ख़ुश होता हूँ
देखता हूँ फूलों को, भौरों को
चिड़ियों को, वृक्षों को, बच्चों को
यहाँ
इस जगह
प्रेम की एक नदी उग आती है मेरे अन्दर
न जाने किस तरह

घृणा और प्रेम के बीच जी रहा हूँ मैं
मैं जी रहा हूँ
दुर्गन्ध और ख़ुशबू के बीच

दुर्गन्ध और ख़ुशबू के द्वन्द्व को
जी रहा हूँ मैं
क्योंकि मैं
प्रेम को प्रेम करता हूँ
और घृणा को घृणा
कविता
सबसे अच्छी कविता है वह
जो ख़ुद कहती है
गहरी हताशा और मंदी के दौर में
जब
सब-कुछ टूट रहा हो
बिखर रहा हो
कविता ही उबारती है
और पीठ सहलाती है
झूठ और घृणा भरे माहौल में
सच और प्रेम की
मशाल जलाती है
लड़ाई का सही रुख
जब लोग भूल रहे हों
जीवन में भटकाव को ही
संदर्भ मिल रहा हो
कविता चुपचाप आती है
और दबे स्वर
कान में
जीवन का मूल मंत्र
फूँक जाती है

पत्नी के लिए

दो प्यारे और भोले और निश्छल
बच्चों के बीच
सोई हुई है
गहरी नींद में
मेरे बेटों की माँ
मध्यरात्रि में
मैं उसके पास नहीं जाता
उसे नहीं जगाता
बस देखता भर हूँ
और एक मौन स्मिति
होंठों पर खिल उठती है

यह वही तो है जो दिन भर
फिरकी की तरह
बच्चों के साथ
घर-गृहस्थी में नाचती रहती है
मुझे भी बच्चे की तरह पालती है

दिन भर चैन से न बैठने वाली
कितनी शान्त और गहरी नींद में है
एक मिठास लिए
मेरा मन होता है
रात भर जागकर
उसे इसी मुद्रा में
देखता रहूँ
कुछ भी तय नहीं था!

न तूफ़ान का आना तय था
न पेड़ का गिरना
न मेरे मिट्टी के मकान का
पूरी तरह धँस जाना

न यह तय था
कि उस मकान को छोड़कर
हम बाहर आएँगे
और उसे इस तरह भूल जाएँगे

भूल जाएँगे
कि जेठ की दोपहरी में
उसकी धरन में
रस्सी बाँधकर
झूला झूलने वाले हम
मिट्टी के मलबे से
उस धरन को निकालकर
बेच देंगे

तय कुछ भी नहीं था
फिर भी हमने बचपन के जर्जर उस मकान को
छोड़ दिया
उस मकान की दीवारों में
रह रहे चूहों ने भी उसे छोड़ दिया
रोज आँगन में
न जाने कहाँ-कहाँ से
आ जाने वाले कौओं ने भी आना छोड़ दिया
छ्प्पर में घोंसला बना कर रहने वाली
गौरैय्यों का भी कहीं अता-पता नहीं
आसपास मँडराने वाले
जूठन पर पड़ने वाले
कुत्तों को भी अब वहाँ कोई नहीं देखता

मकान
जो पहले हमारा घर था
अब बचपन का सिर्फ़ एक बूढ़ा मकान था
धूप-बताश-बारिश में अकेला रह गया
पिछवाड़े में खड़ा वह आम का पेड़
जिसे हमारे दादा ने लगाया था
वही साथी रहा अकेला

गर्मियों की एक रात
आँधी-तूफ़ान
पेड़ और मकान
दोनों धराशाई हो गए
दोनों ने अपनी
बरसों की मित्रता निभाई
पर निभा न पाए हम
जबकि
ऎसा
कुछ भी तय नहीं था!
वह लड़की
पूरी रात जागकर
मैं जिसके सपने देखता था
जिसके पास होने को हर वक्त महसूस करता था
जिसकी एक हल्की मुसकान मेरे भीतर हलचल पैदा कर देती थी
जिसे दूर से बस देखता था और कहता कभी कुछ नहीं था
यह उस समय की बात है जिसे बीस वर्ष बीत गए
आज वह लड़की अपने दो बच्चों के साथ दिखी
वह मुझे पहचानती नहीं थी
फिर भी मैंने पहचाना
और पुरानी स्मृतियों को याद कर मुस्कराया
आज न वे बातें हैं
न वे नींद जागी राते हैं
न वे सपने हैं, न वे भाव हैं
और दो बच्चों के साथ वह लड़की
वह लड़की नहीं एक ढली हुई औरत है
जिसे पास पाकर कुछ भी नहीं होता
न दर्द, न टीस
न चाहत, न उद्वेग
आज वह सिर्फ़ एक औरत है
चलती-फिरती अनेक दृश्यों के बीच










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