जीवन की अनुकृति रचती कविताएँ
हरे प्रकाश उपाध्याय प्रतिभाशाली कवि हैं
अपनी नवीन भाषा के साथ नवीन संवेदनों व सहज बोध की जरूरी भंगिमा को आत्मसात किए
हुए भविष्य की कविता का ऊर्जावान युवा चेहरा हैं ।इनकी खासियत है कि अपनी कविता
में रोजमर्रा के जीवन में घटने वाली घटनाओं के सहारे अनुभवों का समानान्तर संसार
रचते हैं जो वास्तविक जीवन की प्रतिकृति होने के बावजूद भी जीवन की घुटन , त्रासदी , और संघर्षों का पारदर्शी बिम्ब बना देते हैं । बडी बात यह की यह प्रक्रिया बगैर किसी
चमत्कार के सम्पन्न हो जाती है ।सीधी और सपाट भाषा जिसके लिए शब्दकोश की जरूरत नही
पडती कविता का रचनात्मक व गत्यात्मक बिन्दु खुद बखुद तय कर देती है ।छोटी कविताएं
हो या बडी कविताएं व्यंग्य और भाषा का पारस्परिक अन्तर्ग्रथन कविता सरल , सहज प्रभावोत्पादक करते हुए नवीन जीवन बोध के खालिसपन से रूबरू करा देता है ।
दो टूक पन होना व कलात्मक विनिर्मितियों से पृथक होकर अपना प्रतिरोधी हस्तक्षेप दर्ज करना हरेप्रकाश को समकालीन कविता में सबसे अलग पंक्ति में खडा
कर देता है । भाषा का इससे अधिक सर्जनात्मक प्रयोग व कवि की आन्तरिक दुनिया का
वाह्य दुनिया में आन्तरीकरण आज की युवा पीढी मे बहुत कम देखने को मिलता है ।हरे की
तरह सीमा संगसार स्त्रीवादी विमर्श की नयी विनिर्मिति लेकर उपस्थित हुई हैं ।
स्त्रीवादी विमर्श का क्लासिकल फार्मेट भाषा के सन्दर्भ में सर्वदा अभिजात्य व
उच्च महानगरीय प्रभावों का संवाहक रहा है इससे संवेदन
घिसे पिटे महसूस होते रहे हैं । कविता दुहराई गयी और अनास्था गैर जनपदीय प्रतीत
होती रही है । मगर सीमा ने इस फार्मेट से खुद को पृथक किया है लोकजीवन की
मान्यताओं , विचारों , अवधारणाओं , के साथ साथ लोकजीवन की विभिन्न प्रतिक्रियाओं को भी कविता के शिल्प मे जडने की
कोशिश की है "उल्टे पाँव" कविता में पुरुषवर्चस्वाद व
जड विचारहीनता और गलित मूल्यों के प्रति
उत्तेजित अनास्था का तार्किक प्रस्फुटन देखा जा
सकता है । सीमा हर विषय मे कविता लिखती है मगर कविता द्वारा उठाए गये सवाल आधी
आबादी के मौलिक सवाल होते हैं जो दैहिकता और प्रेम की संवेदनहीन यान्त्रिक नकली
संरचनाओं को उपेक्षित करते हुए समय की तमाम बेचैनियों को सामन्ती समाज जन्य
अवसादों में तब्दील कर देती है । आईए हमारे समय के दो युवा रचनाकारों की कविताओं
से रूबरू होते हैं
उमाशंकर सिंह परमार
हरे प्रकाश उपाध्याय
हरे
प्रकाश उपाध्याय
संपादक
मंतव्य (साहित्यिक त्रैमासिक)
संपादक
मंतव्य (साहित्यिक त्रैमासिक)
204, सनशाइन
अपार्टमेंट,
बी-3, बी-4,
कृष्णा नगर, लखनऊ-226023
मोबाइल-8756219902
सोचो एक दिन
भाइयो, उस आकाश के बारे में सोचो
जो तुम्हारे ऊपर टिका हुआ है
इस धरती के बारे में सोचो
जो तुम्हारे पाँवों तले थर-थर काँप रही है
भाइयो, इस हवा के बारे में सोचो
जो तुम्हारे घूँघट खोल रही है
कुछ ऐसे सोचो
कुछ वैसे सोचो
माथा दुखने के दिन हैं ये
अपना माथा ठोंको भाइयो
बाजार में तुम क्या बेचोगे
क्या खरीदोगे
कौन से रास्ते तय करोगे सोचो
सोचने का यही सही समय है
सफर बाजार का तय करने से पहले सोचो
सोचो इस दुनिया में कितने अरण्य है
कितने रंग हैं
और कितना पानी है इस दुनिया में
अगर सोचने के लिए तुम्हारे पास समय नहीं हो
तो इतना ही सोचो
कि क्या यह सोचना जरूरी नहीं कि
तुम्हारी जेब कितनी लंबी हो सकती है
तुम्हारे बगल में लेटी हुई औरत
कब तक और कितना
क्या-क्या बेच सकती है
माँ का दूध कितने रुपये किलो बिकना चाहिए भाइयो
भाइयो चलते चलते सोचो कि
दुनिया की रफ्तार और धरती के कंपन में कैसा रिश्ता है
हर मिनट आखिर अधिकतम कितने हादसे हो सकते हैं
गर्भवती स्त्री बलात्कार के कितने सीन झेल सकती है
भाइयो अपने अरण्य से बाहर निकलकर
सोचो एक दिन सब लोग
धरती ने शुरू कर दी दुकानदारी तो क्या होगा?
सोचो दुनिया के अरबपतियो
धरती के सूख रहे पेड़ों के बारे में सोचो
हवा का रुख बदलने पर सोचो
गायब हो रहे पक्षियों के बारे में सोचो
चींटियो, तुम हाथियों के बारे में सोचो।
यह हाथियों के मदांध होने का दौर है।
अँजुरी भर शब्द
मेरे पास कुछ नहीं है
अँजुरी भर शब्दों के अलावा कुछ भी नहीं
धन न अस्त्र-शस्त्र पर लड़ूँगा
यकीन रखना जीतूँगा भी
वे जब करेंगे वार
अपने अस्त्र-शस्त्र से / धन से
मैं अँजुरी भर शब्दों को फेंकूँगा उनकी ओर
उनकी बौखलाहट बढ़ेगी
और देखते ही देखते उजड़ जायेगी
धन और अस्त्र-शस्त्रों से सजी दुनिया
और मेरे शब्द लौट आयेंगे
उन्हें घायल करने के बाद
नहीं रहूँगा चुपचाप
उनके आतंक से डरे लोगों को बटोरूँगा
शब्दों से सिहरन पैदा करूँगा और ताकत
बटोरता रहूँगा शब्द
अच्छे अच्छे शब्द बटोरूँगा
तब ढेर सारे अच्छे शब्द
बन जायेंगे सृष्टि के मंत्र।
राजा और हम
अँधेरे में
भूख से दर्द और दुख से बिलबिलाते
हम दवा और रोटी खोजते रहते हैं
राजा अपनी मूँछ खोजता रहता है
जेठ की चिलचिलाती धूप में हम
धूल पसीने से गुँथे
हम खनते रहते हैं कुआँ
राजा लाठी में सरसों तेल पिलाता रहता है
बारिश में काँपते-थरथराते
हम लेटते हैं खेत की मेड़ पर
और बचाते हैं पानी
राजा खून की नदी बहाता रहता है
हमारे बच्चे अक्सर
बीमार रहते हैं डगमग करते हैं
हम खोजते हैं बकरी का दूध
राजा श्वानों को खीर खिलाता रहता है
हम गीत प्रीत का गाना चाहते हैं
मिलना और बतियाना चाहते हैं
भेद भूलकर हँसना और हँसाना चाहते हैं
राजा क्रोध में पागल बस बैंड बजाता रहता है।
वह कौन है
वह कौन है
जो तुम्हारे टोले से जब न तब
उठा ले जाता है जवान मुर्गियाँ, अंडे, बकरियाँ
तुम्हारे खूँटे से दिन दहाड़े खोल ले जाता है
नयी नयी ब्याई गइया
कौन तुम्हारे घरों में घुस जाता है
वक्त बेवक्त
और कोहराम मचा देता है
इन खेतों में
जो मार फसलें उगती हैं
तुम्हारे पसीने से सींचकर
उन्हें कौन अपने गोदामों में ताला मार देता है
तुम्हारा चूल्हा क्यों नहीं जलता दोनों बेर
तुम्हारे बच्चों को स्लेट की जगह
कौन पकड़ा देता है हँसिया
तुम्हारी किशोरी बच्चियों को
तुम्हारे सामने से कौन खींच ले जाता है
तुम्हारी औरतें अपने पेट और गोद में किसका बच्चा पालती हैं
वह कौन है
जो तुम्हें पहुँचने नहीं देता मतदान केंद्र तक
जो तुम्हारे उपजाये अन्न के जोर पर
तुम्हीं पर ऐंठता है रोब
तुम्हारे ही बनाये लोहे से तुम्हें डराता है
आखिर वह कौन है
जिसने खेत खलिहान, फैक्ट्री गोदाम
थाने से लेकर संसद तक हथिया रखा है
और तुम्हारे ही विरुद्ध तुम्हारा इस्तेमाल कर रहा है
उसे तुम जानते तो हो
फिर बोलते क्यों नहीं
बोलो आखिर कब बोलोगे
वह है कौन
कौन है वह
2
सीमा संगसार
सीमा संगसार , फुलवड़िया 1 , बरौनी , बेगूसराय (बिहार)
दूरभाष -
उल्टे पाँव
----------
कहते हैं
उल्टे होते हैं
भूतनी के पाँव
क्यों न हो
उल्टे पाँव वापस जो आती हैं
स्त्रियाँ
सीधे शमशान घाट से---
सौ व्रत व पुण्य भी
जो कमाया उसने जिन्दगी भर
आरक्षित न करा सकी
स्वर्ग में
अपनी जगह
अधजली लाश
फंदे पर झूलती औरतें
कहां छोड़ कर जा पाती है ?
अपनी यह दुनिया
प्रसव पीड़ा से कराहती
ये औरतें भी
वापस आ जाती हैं
उल्टे पाँव
अपने दुधमूंहे बच्चों के पास
घर की चारदिवारी
जो कभी लांघ न सकी
सीधे पाँव
अपनी जिन्दगी में
बरबस खिंची चली आती है
स्वर्ग लोक से
उल्टे पाँव---
लोग जो डरते नहीं जीते जी
औरतों से
डरावनी हो जाती हैं
ये औरतें
मरने के बाद
चूड़ैल बनकर करती हैं
अट्ठाहास
शमशान घाट से
उल्टे पाँव भागी हुई औरतें ----
मकड़ी का जाला
------------------
दीवारों के कोने में
वृताकार
अनसुलझी पहेली जैसी
वृतुलाकार
महीन धागों से बनी
अपने अंदर छिपे
द्वंदों को
बुनते ही जाना
जाली नुमा कवच
असुरक्षित मन का
एक सुरक्षित कोना है ---
आर पार भेदती है
जिसे विकट परिस्थितियाँ
रंग बदलते गिरगिट
की तरह
जमाने से बचते हुए
चिपकती है
किसी पूराने दीवार पर
जिसकी परतें उघड़ने को बेताब है
फिर भी
आश्वस्त है वह
उस लिजलिजी सभ्यता से
जो अपने चिकनाहट का
दिखावा भर करते हैं
रौशनदान के पास
छिद्रों के पार
उस चकाचौंध से
अपने आपको बचाने के खातिर
इस सीलन भरी दीवार के
आसरे पर लिपटा
उसका भरोसा
जुड़ता ही चला जाता है
उस महीन बुनावट में----
धीरे धीरे रेंगती है वह
बिना किसी पदचाप के
चक्कर काटती है
अपने ही बनाए
मकड़ जालों के
वहीं
जहाँ कायम रहे अंधेरा
जंग लगे दरवाजों के पीछे
बंद खिड़कियों के बाहर
जहाँ मनुष्य का बसेरा न हो
बुन लेती है जाल अपना---
मन के किसी कोने में
कहीं न कहीं
यह कोना भी
आरक्षित है
जहाँ सभ्य लोगों का प्रवेश
वर्जित है
और / जहाँ हम बुनते ही जाते हैं
अपनी उधेड़ बुन की लंबी लंबी जालें
जहाँ संभावनाएँ निषिद्ध है
वर्जित है जहाँ पोशाक
व अन्य जरूरी सामान
जो तन व मन को
ढंकने की योग्यता रखते हों
जिन्दगी का स्याह सच
एक मकड़ी के जाले में
छुपा कर रखा है
जिस दिन एक सभ्य समाज की नजर
उस पर पड़ेगी
असुरक्षा के घेरे में घिरी
उस मकड़ी की मौत निश्चित है ---
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें