रविवार, 26 अक्तूबर 2014

जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय सम्मलेन में श्री दूधनाथ सिंह जी के द्वारा किया गया अध्यक्षीय संबोधन
     आदरणीय शेखर जी ,महासचिव चंचल चौहान जी ,मुरली मनोहर जी और उपस्थित साथी लेखक गण, कवियों, मित्रो जनवादी लेखक संघ की सम्पूर्ण कार्यपरिषद ने जो मुझ पर विश्वास प्रकट किया है उसका मैं  आभार व्यक्त करता हूँ |मैं कोशिश करूँगा कि आप सब की आशाओं पर खरा उतरू, मैं आपके विश्वास को खंडित नहीं करूँगा|
यह संगठन लेखकों, कवियों, बुद्धिजीवियों का संगठन है यह महत्वपूर्ण अवसर है की हम सब एक मंच पर एकत्र हैं |आज हम एक साथ यह सोच रहे हैं की भविष्य में हमें क्या करना है |वर्तमान का सोचना ही हमारी भविष्य की रणनीति साबित होगा, इसलिए पहला काम जो हम सब को करना है,वह है अन्य प्रगतिशील संगठनो से सामंजस्य बैठाकर वर्तमान खतरों का मुकाबला करना|
लेखन और विचारों पर हमारी प्रतिबद्धता रचनात्मक होना चाहिए ,तमाम कोशिशों के वावजूद भी लेखन को बरकरार रखना चाहिए|अकेले लेखन से कुछ नहीं होता है ,जब तक वैचारिक धार न हो अत: परिवर्तन के लिए वैचारिक धार के साथ-साथ शाशक वर्ग के विरुद्ध मोर्चा लेने का संकल्प सजगता के साथ रचनात्मक रूप से आगे बढ़ाना चाहिए | हमारा मूल लेखन है ,हमारे रचनात्मक योगदान का साधन है,हम इसी माध्यम से समाज को बदल सकते हैं |जन सामंजस्य बढ़ा सकते हैं|यह सम्मेलन हमारी लेखकीय प्रतिबद्धता को मज़बूत करेगा ऐसा मेरा विश्वास है|
       हिंदी और उर्दू के बीच “वाम” में कभी अंतर नहीं रहा, हिंदी की तरह उर्दू भी हिन्दुस्तानी है दोनों भाषाओँ का साहित्य और उसके तेवर हमारी प्रतिबद्धता का साबूत है|दोनों का सामंजस्य “वाम” की देन है| संगठन के बहार हो या संगठन के अन्दर सामंजस्य “वाम” ने ही बनाया है |इस समंजस्य को किसी भी संगठन का लेखक नकार नहीं सकता ,यह स्थिति आज से नहीं है ,१९३६ से है |१९३६ के बाद साहित्य में न तो “वाम” को नकारा जा सकता है और न ही सामंजस्य को नकारा जा सकता है|क्योंकि यह सोच आम भारतीयता की सोंच है ,यह सोंच जन का प्रतिनिधित्व करती है |”वाम” का दबाव लेखन में हमेशा रहेगा चाहे कोई संगठन के बहार हो या संगठन के अन्दर हो| इस सन्दर्भ में मुझे मुक्तिबोध की एक पंक्ति हमर्षा याद आ जाती है –
     कोशिश करो
      कोशिश करो
   जीने की
ज़मीन में गडकर भी
   एक लेखक के लिए इसका अर्थ है की हमें जमीनी हकीकत से अलग नहीं होना चाहिए |लेखन का सर्वांग है ज़मीन,इसी जमीन का यथार्थ लेखन की धार तय करता है| सबका नजरिया लेखन के प्रति एक नहीं होता, लेकिन हमारा नजरिया केवल एक है जो मुक्तिबोध कह रहे हैं की “जमीन में गड़कर भी” अर्थात जमीन ही हमारा नजरिया है|
   समय के साथ सोच में बदलाव आता है|आज जिस विचार को लेकर हम रचना कर रहे हैं हो सकता है की अगली रचना में “मोहभंग” हो जाये| समाज के कल्पित स्वरूप से भी मोहभंग होता है |आज़ादी के बाद मोहभंग के अनेक उदाहरण साहित्य में देखे जा सकते हैं|हम सब की रचनाएँ परिवेश के प्रति मोहभंग को व्यक्त करती हैं|१९६० के बाद तो प्रगतिशील आन्दोलन की मुख्य आवाज़ ही मोहभंग की आवाज़ हो गयी| रिश्तों में मोहभंग, परिवार से मोहभंग,सत्ता से मोहभंग, सब देखा जा सकता है|इस मोहभंग से एक नया लेखन उत्पन्न होता है जो आरम्भ में अस्वीकृति लेकर आता है लेकिन कुछ समय बाद वही स्वीकृत और सर्वमान्य हो जाता है वही युग की मुख्य आवाज़ बनता है | इसलिए हमें नए लेखन का सम्मान करना चाहिए उसके साथ सामंजस्य बैठना चाहिए |नयी रचना एक अहसास की तरह हमारे पास आती है हमें प्रभावित भी करती है ,हम उसे अनदेखा नहीं कर सकते |अत: नयी रचना को इमानदारी के साथ स्वीकार करके नए लेखन को आगे बढाने का काम करना चाहिए |यह भी एक लेखकीय कर्तब्य है |
लेखन में धार विचार देता है और विचार संगठन देता है | संगठन के विचारों को ही हम लेखक आगे बढ़ाते हैं |लेखन को निखारते हैं |संगठन का उद्देश्य है महान लेखक पैदा करना हमारा संगठन अपने गठन के साथ से ही यह काम बखूबी कर रहा है आगे भी करता रहेगा इस कम में मैं तेज़ी लाने का पूरा प्रयास करूंगा आपसे यह मेरा वायदा है |
एक बार मैं पुन: आप सब साथियों का अपनी इस नयी जिम्मेदारी के लिए आभार व्यक्त करता हूँ सभी साथियों का अभिवादन करता हूँ| सम्मलेन की सफलता हेतु मैं कार्य परिषद् को भी बधाई देता हूँ|

                                                                         धन्यवाद        

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें