शनिवार, 24 जनवरी 2015

विसर्जन-- कहानी

कहानी एकदम साफ़ है, कहीं कोई अस्पष्टता नहीं है ,कोई भटकाव नहीं है ,सरल रेखा की तरह आरम्भ होता है बगैर किसी दाँव पेंच और वैचारिक आग्रह के कथानक खुद को ख़त्म भी कर देता है |पहली नज़र में तो “आँखों देखा” हाल ही लगता है पर बेतरतीब ढंग से घट रही घटनाओं की अंतर संगति कारण पाठक समझ लेता है की यह कहानी है |सिनीवाली शर्मा की मैंने कई कहानिया पढ़ी गाँव ,खेत , परिवार ,मूल्य , सरोकार, सब कुछ दिखता ,बिलकुल वैसा ही दिखता है जैसा “है” किसी भी रंग-रोगन से रहित खालिस बिम्ब | बस कचोट सकता है तो वैचारिक पक्ष जिसके लिए कहानी जिम्मेदार नहीं होती अपितु लेखिका लेखिका द्वारा तयशुदा मूल्य होतें हैं |मेरा मानना है की जो टूट रहा है उसे टूटने दिया जाय ,लेकिन इस कहानी में  लेखिका “मूल्यों” के विसर्जन से कहीं न कहीं असहमत है आइये आज लोक-विमर्श में सिनीवाली शर्मा की कहानी विसर्जन पढतें हैं   




             विसर्जन

आज की रात -----आज की रात, बजरंग कला परिषद की ओर से एक महान सामाजिक नाटक का आयोजन होने जा रहा है। भाइयों और बहनों -----हजारों हजार की संख्या में आकर इस नाटक को सफल बनावें। आज की रात -----आज की रात------देखना भूलें-----ये आवाज आज दोपहर से ही गाँव में लाउडस्पीकर से गूँज रही है। इस एनाउंसमेंट के साथ खूब धूम-धड़ाके वाला फिल्मी गाना बजने लगता है, जिससे गाँव का माहौल और भी मेलामय    हो गया है।
आज दीघापुर गाँव में दशहरा के नवमी के दिन मेला के साथ साथ नाटक हो रहा है।" कलयुग के देवता " की आवाज पूरे गाँव में गूँज रही है। हर गली, चौराहे से गुजरती हुई आवाज घर-घर तक जा रही है।
भाइयों और बहनों, आज की रात -----देखना भूलें ------कलजुग का देवता ----- लाउडस्पीकर से और जोर जोर से एनाउंसमेंट होने लगा। मोहन दा------मोहन दा, आप जहाँ कहीं भी हों, जल्द से जल्द ग्रीन रुम में आने का कष्ट करें। फिर सलाम--इश्क गाना बजने लगता। गाने की आवाज कम करके दूसरी घोषणा गूँजने लगती, राकेश, राकेश तुम जहाँ कहीं भी हो, जल्द से जल्द ग्रीन रुम में आने का कष्ट करो, अब नाटक कुछ ही देर में शुरू होने वाला है। पर सभी अंदाजा लगा रहे थे कि नाटक शुरू होने में अभी देरी है। ऐसा एनाउंसमेंट बहुत पहले से ही होने लगता है ताकि नाटक का माहौल बनाया जा सके।
स्टेज के आगे बड़े से मैदान में नाटक देखने वालों की भीड़ लग चुकी थी और मेले में मिठाइयों की दुकान, पान की दुकान, चाट-पकौड़ी, गुपचुप और मीना बाजार यानी श्रृंगार की दुकानों से भीड़ खिसक कर नाटक के स्टेज के पास जमा हो गई।
नाटक देखने वाले दर्शक भी तरह-तरह के होते हैं। कुछ लड़के जो नाटक देखने के बहाने केवल लड़कियां देखने आते हैं। उनकी नजर नाटक पर कम, इधर-उधर ज्यादा रहती है। कुछ लड़के सिर्फ हुड़दंग मचाने ही आते हैं। बहुत कम ही लोग केवल नाटक देखने आते हैं। कुछ लोग इसलिए भी आते हैं क्योंकि उनके यार दोस्त नाटक में पार्ट कर रहे होते हैं। बड़े बुजुर्ग तो खैर कम ही होते हैं नाटक देखने वालों में। और हाँ, महिलाएं भी नाटक देखने आती हैं पर उनकी रुचि नाटक में कम गप्प मारने में ज्यादा होती है। कुछ महिलाएं तो बजाप्ता अपनी आस पड़ोस के गाँव वाले  संबंधियों को बुलावा भेज कर इस अवसर का सदुपयोग मिलने जुलने और संबंधों को तरोताजा करने के लिए करती हैं। पर दर्शकों में अधिकांश लड़के लड़कियां ही होती हैं।
वो लड़कियां जो कॅालेज से नया नया फैशन सीखकर आई हैं, उन्हें आजमाने का अच्छा मौका मिल जाता है और जो लड़कियां गाँव में ही रह गई होती हैं वो उन्हें कोसती और भीतर ही भीतर उनसे ईर्ष्या करती हुई दुखी होती हैं कि शहर जाकर टटका फैशन नहीं सीख पाई।
सभी अपना जगह लेकर बैठ गए, तो बहुत लोग खड़े भी रह गए। जगह मिलना आसान नहीं होता, जरूरत पड़ने पर हील हुज्जत भी करना पड़ता है। कोई ईंट लेकर बैठा। कोई कई माथों के बीच से किसी तरह अपना माथा घुसा कर तो कई लोग एड़ियों पर ऊचक ऊचक कर तो कई ठेलमठेल करके भी नाटक देखने को तैयार हैं।
स्टेज रौशनी से जगमगाने लगा। नीले रंग के किनारे वाला लाल परदा स्टेज पर गिर गया है। परदे के पीछे से थोड़ी थोड़ी देर में नाटक के करता धरता बाहर निकल कर भीड़ देख लेते और माईक से इतना जरूर बोल देते, आप लोग शांति बनाए रखें-----नाटक बस शुरू ही होने वाला है। इसी बहाने ये लोग जता देते कि वे मामूली नहीं हैं, बल्कि संचालक मंडल के महत्वपूर्ण सदस्य हैं।
लाउडस्पीकर में रह रह कर कोई पुराना गाना बज रहा है। उसकी धुन पर कुछ दर्शक अपने माथे से तो कुछ सशरीर थिरक रहे हैं।
हेलोजन लाइट भी स्टेज के आगे ऐसे रखा गया है कि इसके लाइट से नाटक और प्रभावशाली हो जाए। लाइट में लाल, पीला, हरा, बुल्लू पन्नी लगा दिया गया है जो नाटक में तो काम करेगा ही पर डांस शुरू होते ही लाइट अपना असली काम करेगा।
नाटक अब बस शुरू ही होने वाला है। इसके पहले बस इतना बताना चाहेंगे कि ये नाटक पूर्वी टोला वाले करा रहे हैं। ये गाँव तीन टोले में बँटा है। पूर्वी टोला दशहरा में तीन दिन चलने वाले मेला और नाटक की जिम्मेदारी लेता है। पश्चिम टोला वाले दिवाली में लक्ष्मी जी की मूर्ति बैठाने की जिम्मेदारी लेता है और गद्दी टोला छठ पूजा में सूर्य भगवान की मूर्ति बैठाने के साथ घाटों के सजाने और व्यवस्था करने की।
ये पूर्वी टोला का आयोजन था। इस टोले वालों की छाती पहले से ही चौड़ी हुई जा रही थी कि इस बार नाटक के साथ ऐसा डांस होगा कि पूरा गाँव देखता रह जाएगा। पर संचालक लोग इस बात को लेकर भी सचेत थे कि पिछले साल की तरह इस बार भी कोई तमाशा हो, किसी भी हाल में नाटक संपन्न हो जाए। इसलिए पिछली बार जिसने मंच संभाला था उसकी जगह दूसरे संचालक रखे गए जो अपनी बात सबके सामने अच्छे ढंग से रख सकें।
आखिर नाटक शुरू हो गया। सबसे पहले पात्र परिचय दिया गया फिर सीटी बजने के साथ ही परदा गिर गया। फिर नाटक का पहला सीन परदे के उठने के साथ ही शुरू हो गया। नाटक, देख तो सभी रहे थे पर सबको नाटक के बीच बीच में होने वाले डांस का इंतजार था। सुना है इस बार बहुत खरचा किया गया है डांस पर, बंगाल से डांसरों को लाया गया है। नाटक के दो दृश्य के बाद ही डांस शुरू हो गया, एकदम नयका गाने पर---चिकनी चमेली। लाल पीली हरी लाइट भी भुकभुकाने लगी--जगमगाने लगी, कभी रौशनी गोल गोल घूमती तो कभी पानी का भ्रम पैदा करती, कभी तेजी से तो कभी स्थिर हो अपना रुप बदल लेती। हल्ला होने लगा तालियां बजने लगी, सीटी बजने लगी, सब झूमने लगे।
कुछ कच्ची उम्र के लड़के खड़े होकर नाचने भी लगे। इस समय दर्शक थोड़ी देर के लिए अपने आप को हीरो और हीरोइन से कम नहीं समझते। डांस खूब जमा और उसके खत्म होते ही तालियों की गड़गड़ाहट ये बता रही थी कि दर्शकों को डांस का ये आइटम खूब पसंद आया।
संचालक महोदय ने सबका धन्यवाद किया और शांति बनाए रखने की अपील की। इस बीच उन्होंने शेरोशायरी का भी दर्शकों को रसास्वादन करवाया। भीड़ से फरमाइशी गाने पर डांस का चिट्ठा आया। संचालक महोदय ने चिट्ठे को गौर से देखा फिर डांस की अनुमति दे दी।
फिर तो जोर जोर से तालियां बजने लगी और लगातार दूसरे गाने पर डांस हुआ। गाना खत्म होते ही पश्चिमी टोले के एक लड़के ने भीड़ के बीच से उठकर फरमाइशी डांस का कागज दिया। संचालक महोदय ने इसे बड़े गौर से देखा। पर इस बार डांस के लिए हाँ नहीं कहा क्योंकि कागज में द्विअर्थी भोजपुरी गाने की फरमाइश थी। माँ बहनों के बीच इस तरह के गानों पर नाच करना उचित नहीं था और इससे नाटक मंडली का स्तर भी गिरता। इसलिए संचालक महोदय ने कहा, हम ये फरमाइश पूरी नहीं कर सकते हाँ कोई और गाना है तो -----
बात पूरी होने के पहले ही भीड़ से उठकर पश्चिमी टोले के एक दूसरे लड़के ने गरजना शुरू कर दिया, अच्छा  तुम्हारे टोला वाला बोला तो तुरंत नचा दिया-----हम कह रहे हैं तो बहाने बना रहे हो। उसके पास बैठा रमेश भी ताव में आकर बोलने लगा, क्या हम किसी से कम चंदा देते हैं-----फिर हमारे साथ ऐसा क्यों-----क्या हमारा कोई भैलू नहीं है-----खाली तुम्हीं लोगों का भैलू है, काहे की तुम लोग नाटक करा रहे हो।
इस बीच एक तीसरे लड़के ने भी हल्ला करना शुरू कर दिया, साले, हमको इगनोर मारते हो----- बहुत भचर भचर करते हो-----इसीलिए तो पिछले साल नाटक पूरा नहीं कर पाए।
ये सब सुनकर पूर्वी टोला वाले लड़कों का खून गरम होने लगा। इनमें से एक ने  हल्ला करने वाले लोगों के पास जाकर बोला, साले देखना है तो मुँह बंद कर के देखो नहीं तो अभी बता देंगे।
पश्चिमी टोले वाले पूरे दल बल के साथ नाटक देखने आए थे। लंबे चौड़े कद काठी वाले कई लड़के थे। सब का खून खौलने लगा। दोनों के बीच गरमा गरमी बढ़ने लगी।
पूर्वी टोला वाले राकेश ने रमेश का कॅालर पकड़ कर कहा, क्या बोला रे-----क्या दिखा देगा-----लगता है मुझे पहचानते नहीं हो। रमेश अपना कॅालर छुड़ाते हुए बोला, हाँ-----हाँ-----खूब पहचानते हैं-----कितना दम है, ये भी जानते हैं। अपनी उंगली दिखाते हुए बोला, जो भी करना है कर लेना। इतना सुनते ही राकेश ने उसे दो चार तमाचे खींच दिया। फिर तो शुरू हो गया, ले लात कि दे लात, घुस्सा-मुक्का, उठा पटक और माय बहन, किसी भी गाली की कमी नहीं रही।
संचालक समिति के बात संभालने के पहले ही बात हाथ से निकल गई और नाट्य स्थल, युद्ध स्थल में बदल गया। लाउडस्पीकर से शांत रहने की अपील होती रही पर इस भगदड़ में कौन सुनता। लड़कियां और औरतें, बच्चे सभी इस अकस्मात घटना से घबड़ा कर  घर जाने लगे।
इधर नाटक मंडली ने आनन फानन में  अंतिम दृश्य की घोषणा कर दी क्योंकि उन्हें भी पता था कि अब कितने दर्शक बचे रहेंगे। बस नाटक के नाम पर खानापूर्ती हो जानी चाहिए।
इस तरह इस साल भी पिछले साल की तरह नाटक पूरा नहीं हो पाया।
पूर्वी टोला वालों का गर्व से माथा ऊँचा कर घूमने का मौका हाथ आते आते निकल गया, पिछले बरस की तरह।
सुबह होकर पूर्वी टोला वाले जो नाटक से जुड़े थे उनका मीटिंग हुआ, बंद कमरे में। जो कल रात ग्रीन रुम था आज मीटिंग रुम बन गया। जिन्होंने लगातार कई महीनों से रिहलसल किया था वो अपनी कला सबको नहीं दिखा पाए, अपने हुनर का लोहा नहीं मनवा पाए, तालियां बटोरने की आस अधूरी रह गई, वो भीतरे भीतर कितने गुस्से में फनफना रहे होंगे, इसका अंदाज पाठक आसानी से लगा सकते हैं।
जो तैयारी करवा रहे थे, कई महीनों से नाटक से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से जुड़े थे, गुस्सा तो सबको था कि एक तो मेहनत गई और दूसरा पूरे गाँव में सालभर माथा ऊँचा करके चलने का मौका हाथ से चला गया।
राकेश सबके बीच से उठकर बोला, कुछ नहीं मोहन दा, ये सब साजिश है पश्चिम टोले वालों का-----नाटक के बीच में ही लड़ाई लाद देंगे ताकि नाटक पूरा ही नहीं हो और उनका लक्ष्मी पूजा वाला परोगराम हमसे अच्छा हो जाए।
कुर्सी पर बैठे बैठे बनवारी दा बोले, हाँ--जगहंसाई कराना ही इनका काम है, तभी तो भोजपुरी गानों की फरमाइश की जो हम नहीं बजा सकते। दर्शकों में बाल बच्चे, जनानी भी तो रहते हैं, उनका  ध्यान भी तो रखना पड़ता है। सभी अपने अपने विचार दे रहे थे। कम उमर वाले जो लड़के थे, उन लोगों का कहना था कि उन लोगों की ऐसी मरम्मत की जाए कि हरकत इस जन्म में तो क्या अगले जन्म में भी नहीं करेगा।
नया खून निर्णय लेने से पहले अधिक सोचता नहीं, वो बस किसी भी हाल में जल्दी से निर्णय कर देना चाहता है।
इस नाटक मंडली के सर्वेसर्वा त्रिलोचन बाबू अपनी सूझबूझ के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने सबको यह कहकर समझाया कि जब रास्ता दूसरा भी है सबक सिखाने का तो फिर अपने माथे पर कलंक क्यों लिया जाए। सब आश्चर्य से उनका मुँह ताकने लगे और सोचने लगे कि ये कैसे हो सकता है कि साँप भी मर जाए और लाठी भी टूटे। बबलू, जो नाटक में लड़की बनने वाला था, उसकी बदले की भावना और बलवती हो गई, बोला, काका, इनको लतियाने का और कौन सा तरीका है ?
त्रिलोचन बाबू इन सब बातों से असहमत होते हुए बोले, जब भगवान ही रास्ता बना रहे हैं तो फिर------
त्रिलोचन बाबू के आँखों की चमक और तिरछी मुस्कुराहट का अर्थ अब सब समझ रहे थे।

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दशहरा खत्म होने के कुछ दिन बाद ही दिवाली गई। अभी तक वातावरण में दुर्गा पाठ और रामायण पाठ का असर बचा ही था कि दीयों की जगमगाहट से घर द्वार गाँव झिलमिलाने के लिए तैयार हो गया।
प्रकाश और समृद्धि का पर्व दिवाली पश्चिमी टोला वाले खूब बढ़ चढ़ कर मनाते हैं। इस बार भी उन लोगों ने खूब हुमच कर चंदा किया। जो कमी रही अपनी जेब से भी लगाकर धूमधाम से लक्ष्मी जी और गणेश जी की मूर्ति बैठाई। एकदम बड़का पंडाल लगाया। गाँव घुसते ही दूर से ही सजावट दिखाई दे रही थी। सड़क के किनारे किनारे रंग बिरंगा जुगनू बल्ब, जो सांझ होते ही भुक भाक भुक करने लगता। लाउडस्पीकर पर भोर को भजन और उसके बाद दिन भर, आधी रात तक फिल्मी गाने, बज रहा था। सजावट में कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी, क्योंकि पूरे गाँव में ये आयोजन इनके इज्जत की बात थी। महीनों तक कहा जाएगा कि मूर्ति बैठाया तो पश्चिम टोला वालों ने। इसके आगे सबका आयोजन फीका, ये सोच कर ही कितना अच्छा लगता है जब तुलना करते हुए विपक्षी उन्नीस और हम बीस साबित होने लगते हैं। बीस साबित होने के लिए लक्ष्मी पूजा समीति वालों ने लड्डू भी खुले हाथों से खूब बाँटा। जो भी मूर्ति के दर्शन करने आता, घूम घूम कर सजावट देखता और फिर खुले दिल से बड़ाई भी करता।
पंडाल के पास पूरा गाँव रहा था तो पूर्वी टोला वाले भी और नाटक मंडली के सदस्यों को भी आना ही था। राकेश भी अपने एक दोस्त के साथ गया। राकेश मन ही मन सोच रहा था कि यदि वह नहीं जाता तो लोग समझते कि डर के कारण वह नहीं आया। राकेश के आते ही लक्ष्मी पूजा समीति वाले लड़कों ने उसे बड़े प्यार से अपने साथ बैठा लिया।
सबके साथ बैठ कर राकेश धीरे धीरे सहज हो गया। बातों ही बातों में उसने मनोज से जो बहुत बढ़चढ़ कर लक्ष्मी पूजा में भाग ले रहा था, कहा, यार--बड़े धूमधाम से पूजा कर रहे हो-----लगता ही नहीं कि हम ये सब अपने गाँव में देख रहे हैं-----ये तो शहर को भी मात कर रहा है। ये सुन कर मनोज की छाती और चौड़ी हो गई। उसने राकेश को तिरछी नजर से देखते हुए बोला, क्या यार-----हम चंदा का पैसा नहीं मारते -----कम बेसी होने पर अपने घर से भी लगा देते हैं। कनखी मारते हुए फिर वो बोला, ये सबके बस की बात नहीं है। बोलते बोलते अंतिम शब्द को आधा मुँह के भीतर ही रख लिया। ऐसे शब्द और अधिक शक्तिशाली हो जाते हैं, द्विअर्थी, त्रिअर्थी, और जाने कितने अर्थ हो जाते हैं।
राकेश तो ये कटाक्ष समझ गया। उसका खून खौलने लगा पर वह चुप रहा। मुँह तक गालियों की बौछार आई, नसें फड़फड़ाई, फिर भी इस हालत में उसकी चुप्पी ही अधिक बलवती निकली।
पूरे गाँव में चर्चा का विषय बन कर ये आयोजन पूरा हो गया। अब विसर्जन की तैयारी होने लगी। बहुत नामी आर्केस्ट्रा रहा है। यहाँ भी खूब जमकर डांस होगा। किस गाने पर कौन अच्छा नाचता है  ? बीच गाँव में जहाँ भीड़ अधिक रहती है वहाँ किस गाने पर नाचना है ? जहाँ भीड़ कम होती है वहाँ तो नागिन डांस से भी काम चल जाएगा। पर सबसे ज्यादा जरूरी बात, जिस घर में सुंदर और संख्या में लड़कियां हैं, वहाँ तो सबसे अच्छा डांस तो होना ही चाहिए। पर मंडली में इस बात की सभी को ताकीद कर दी गई कि दारु कोई भी नहीं पीयेगा, हाँ रात में जिसका जितना जी चाहे, अध्धा, पौआ सब मिलेगा पर दिन में नहीं। समिति की बदनामी का डर था। जब सब कुछ इतना अच्छा से हो रहा है तो अंत में गुड़ गोबर नहीं होना चाहिए और सब ने अपनी हाँ में अपनी सहमति दे दी।
तैयारी पूरी हो गई जो एक गाँव में हो सकता था पर शनिचर जाने से विसर्जन टल गया।

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और उसी दिन छठ पूजा शुरू हो गई।
गद्दी टोला इस पूजा का सर्वेसर्वा था। उन्हीं के जिम्मे सूर्य भगवान की मूर्ति बैठाने की और चार दिनों के आयोजन का था। हर साल की तरह तैयारी तो इन्होंने भी की थी। सूर्य भगवान और सात घोड़ों की मूर्ति, लक्ष्मी जी और गणेश जी की मूर्ति से मुट्ठी भर बड़ा ही था क्योंकि देखने वाले मूर्ति की भी तुलना करते हैं। जितना संभव हुआ सजावट भी किया। पताका और चायनीज बल्ब से इन्होंने भी सजाया सड़क पर से ही।
पर समस्या ये थी कि लक्ष्मी पूजा वाला रौनक इनसे पार नहीं लग रहा था। एक कारण ये भी था कि दशहरा और दिवाली चंदा और पर्व त्योहार में खर्चा हो जाने से गाँव वालों का हाथ छठ पूजा  के चंदा में थोड़ा कसा गया और चंदा कम होने से आयोजन में तो असर पड़ता ही है।
छठ पूजा वाले मन ही मन लक्ष्मी पूजा वालों से अपनी तुलना कर रहे थे। हालांकि वो ये पता नहीं लगने दे रहे थे पर अपने आप को कमतर तो महसूस कर ही रहे थे।
इस भावना को त्रिलोचन बाबू अच्छी तरह से समझ रहे थे या इसी का इंतजार कर रहे थे, लेकिन वो भी पता नहीं लगने देना चाह रहे थे कि वो इस बात को भाँप रहे हैं।
आज छठ का पहला दिन था। त्रिलोचन बाबू नहा धोकर गद्दी टोला के सूर्य नारायण की मूर्ति के दर्शन करने के लिये आए।
चहलपहल थी, वहाँ लोग जा रहे थे। रास्ते में मिलने वाले उन्हें प्रणाम करते, वो भी प्रणाम करके सबका हालचाल पूछ लेते। मूर्ति से थोड़ा हटकर चन्दर बाबू भी घूम घूम कर व्यवस्था देख रहे थे कि सामने मिलते ही त्रिलोचन बाबू को उन्होंने प्रणाम किया। त्रिलोचन बाबू भी बड़ी आत्मीयता से मिले। हालचाल पूछा, कुछ इधर उधर की बातें की और बड़ी ही सावधानी से वो बात कह दी, जो कहने आए थे, कि हद हो गई-----अब पूजा पाठ लोग भगवान के लिए नहीं अपने लिए करते हैं और अपनी इज्जत प्रतिष्ठा से जोड़ देते हैं।
तुलना करते करते और अपने को कम आंकते आंकते चन्दर बाबू क्षुब्ध तो थे ही, आशंकित भी थे। त्रिलोचन बाबू के मुँह से ये सुनते ही उनकी आशंका तेजी के साथ बाहर झाँकने लगी और घबड़ा कर पूछने लगे, कुछ हुआ क्या  ? फिर अपनी हालत उनके सामने जाहिर हो जाए इसलिए अपने को संभालते हुए बोले, हाँ भाई-----अब पहले वाला जमाना नहीं रहा-----थोड़ा सा----- लोग कुछ कर लेते हैं और देह ऐंठ कर चलने लगते हैं-----अपने आगे तो रत्तीभर भी किसी को कुछ नहीं समझते।
त्रिलोचन बाबू को भी लगा कि तीर ठीक निशाने पर लगा है तो वो भी हाँ में हाँ मिलाकर बोलने लगे, वही तो मैं कह रहा था। सुना है आज लक्ष्मी जी का विसर्जन वो लोग कर रहे हैं। अच्छी बात है पर-----कुछ क्षण चुप रह कर फिर बोले, शायद इसी रास्ते ले जाएंगे। अपनी छाती पर हाथ रखते हुए बोले, मैंने कहलवाया भी कि छठ पूजा का सजावट जो इतना भव्य हुआ है उससे डीजे या कुछ और टकरा कर सजावट खराब कर सकता है, पर अपने घमंड में चूर कोई सुने, तब ना----- सजावट को  बड़े गौर से देखते हुए त्रिलोचन बाबू बोले, वैसे आपने भी कम खर्च नहीं किया है-----पिछले साल तो सड़क किनारे ही सजावट था पर इस बार तो ऊपर भी खूब सजाया है, बहुत सुंदर -----बहुत अच्छा। ऊपर की ओर थोड़ी देर हवा में हिलते डुलते पताका और बल्ब को वो देखते रहे।
कुछ देर तक विषय बदल कर कुछ और बातचीत हुई। फिर त्रिलोचन बाबू वहाँ से चले गए। पर असली बात जो चन्दर बाबू के दिमाग में देने आये थे, वो देकर गए। इस तरह चन्दर बाबू के साथ  समीति से जुड़े अन्य सदस्यों का ध्यान अपनी पूजा के आयोजन से हटकर लक्ष्मी जी के विसर्जन पर चला गया।
उधर राकेश को छोड़कर बजरंग कला परिषद के अन्य सदस्य विसर्जन से पहले अपनी अपनी भूमिका निभाने चले गये। राकेश को इसलिए बाहर रखा गया कि  बार बार राकेश के जाने से शक की संभावना थी, पर वो दूर से ही अपनी नजर रखे था।
विसर्जन के दिन त्रिलोचन बाबू के छठ पूजा  के पंडाल से लौटने के बाद निर्धारित योजना के अनुसार खंजनराजकुमार और दो लड़के लक्ष्मी पूजा के पंडाल की ओर चले गए। किशन, जो की लक्ष्मी पूजा समीति का सक्रिय सदस्य था, उम्र यही कोई २०-२२ बरस के आसपास होगी, वो जोर जोर से मोबाइल पर डीजे के आने का समय पता कर रहा था। ये भी कह रहा था कि किसी भी हाल में से बजे के बीच जाना चाहिए। पलट कर देखा तो खंजन, राजकुमार खड़े थे।
किशन ने भी मौके का फायदा उठाते हुए विसर्जन के समय होने वाली भव्य तैयारी की चर्चा शुरू कर दी, साथ ही अपने को खास दिखाने के लिए अपनी व्यस्तता भी दर्शाने लगा। यार, क्या बताऊँ-----दम मारने तक का टैम नहीं है-----व्यवस्था संभालना बच्चों का खेल नहीं है-----एक एक चीज का इंतजाम करना पड़ता है-----कितनी मुश्किल से ये डीजे मिला है। मुँह पर चमक लाते हुए, हाँ थोड़ा खर्चा अधिक करना पड़ा-----पर हम लक्ष्मी जी के नाम पर कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते।
किशन आगे कुछ और बोलने ही वाला था कि खंजन पंडाल के चारों ओर नजर घुमाते हुए बोला, ठीक कह रहे हो यार-----कसर तो कुछ भी नहीं छोड़ी-----विसर्जन भी धूमधाम से कर रहे हो-----देखने वाले तो आँखें फाड़कर देखते ही रह जाएंगे।
राजकुमार किशन के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला, अरे कितने बजे चलना है-----बताना-----हम भी चलेंगे-----चलेंगे क्या-----हमारे घर के रास्ते से ही तो जाओगे-----वहीं साथ हो लेंगे।
खंजन ने सही समय पर बात छेड़ी, क्यों-----क्या हनुमान जी के मंदिर वाले रास्ते से नहीं जाओगे-----गंगा जी तो उधर से ही नजदीक हैं।
राजकुमार ने बात मरोड़ी, कैसे जाएगा उधर से-----छठ पूजा वालों ने मना जो कर दिया है। ऐलान कर रखा है उनलोगों ने कि अगर इस रास्ते से विसर्जन हुआ और सजावट में थोड़ा सा भी इधर-उधर हुआ तो छोड़ेंगे नहीं-----वहीं पर सबको गाड़ देंगे।
एक तो ऐलान शब्द अपने आप में ही युद्ध की घोषणा करने वाला शब्द है, ऊपर से वहीं गाड़ देंगे-----ये सुनकर तो किशन तमतमाने लगा। राजकुमार और खंजन ने बातों का पेट्रोल भी खूब अच्छी तरह से डाला और आग भभक पड़ी।
किशन को तमतमाया देख आसपास विसर्जन की तैयारी में लगे लोग सब काम छोड़कर इकट्ठे होने लगे। किशन गरज रहा था, क्या कर लेगा छठ पूजा वाला-----जान से मार देगा, अरे हम किशोरबा, नवीनमा सबको चीन्हते हैं-----एक एक को जानते हैं-----गीदड़भभकी, किसको दे रहा है-----हमको। फिर जमा भीड़ को देखकर बोला, हमसे भिड़ेगा-----हमसे-----साले पर सनीचर चढ़ गया है-----जानता नहीं है, हमारे ही मामू के साले यहाँ दरोगा हैं-----सबको भीतर करवा देंगे।
अब तो सबके अंदर क्रोध और लड़ाई की जो भी जरूरी भावनाएं होती हैं, सबके खून के अंदर जोर मारने लगी।
सबसे बड़ी बात थी कि पूरे गाँव में लक्ष्मी पूजा से जो इस टोला का शान बढ़ा था अगर गद्दी टोला वालों के सामने झुक गए तो सब गोबर में मिल जाता। तुरंत मीटिंग बुलाई गई और ये तय किया गया कि चाहे जो हो, मूर्ति उसी रास्ते जाएगी-----मार हो जाए तो हो जाए।
अब विसर्जन की तैयारी से अधिक लड़ाई की तैयारी होने लगी। सभी को कह दिया गया कि तैयारी का समय तो बहुत कम बचा है पर इंतजाम में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए। जिसके घर लाठी पैना, हॅाकी स्टीक है तुरंत लाने को कहा गया। इन सबके अलावा ईंट पत्थर और हथियार ट्रैक्टर पर मूर्ति के पीछे रखा जाने लगा। सब सदस्य इस बीच लक्ष्मी जी की सौगंध खाकर एक दूसरे को उत्साहित कर रहे थे।
गद्दी टोला वालों को खबर मिल गई कि पश्चिमी टोला वाले इस बार लक्ष्मी पूजा में कुछ ज्यादा ही उमता गए हैं। इतना भी सोचने को तैयार नहीं हैं कि इस रास्ते से आऐंगे तो हमारा नुकसान हो सकता है। इसका तो साफ मतलब है कि जानबूझकर ही हमसे पंगा लेना चाहते हैं। सुरेश तैश में आते हुए बोला, हाँ सूरो, लोग चाहता है-----हमारे पूजा में विघ्न खड़ा करना-----एक पूजा क्या कर लिया, पूरे गाँव को अपना बपौती समझ लिया है। सूरो भी गरमाते हुए बोला, आने दो सालों को-----यहीं सबका विसर्जन कर देंगे-----परमानेंटे भूल जाएगा पूजा करना।
अरे मोतिया, दिनेशवा, हिरवा सबको तैयार करो। उन लोगों के आने से पहले लाठी, डंडा, स्टिक-----जो भी मिले-----जमा करके रखो-----आते ही सबका होश ठिकाने लगा देंगे।
तैयारी तो दोनों ओर से पूरी हो गई। विसर्जन में क्या होगा, इसका अनुमान तो पूर्वी टोला वाले भी लगा रहे थे। पर इतनी जल्दी कुरुक्षेत्र का मैदान तैयार हो जाएगा, इसका अंदाजा नहीं था। त्रिलोचन बाबू ने राकेश से कहा, कहीं बात बहुत बढ़ जाए -----किसी की जान चली जाए-----इसलिए पुलिस को खबर कर देते हैं-----वो संभाल लेगी। राकेश बोला, काका, अब कुछ नहीं हो सकता-----पुलिस को अभी खबर करियेगा तो वो सांझ तक आएगी -----पुलिस पर भरोसा करते हैं-----वो कब समय पर पहुँचती है-----तब तक तो जो होना है वो तो हो ही जाएगा।
पश्चिम टोला वाले बाजे गाजे और डीजे के साथ विसर्जन करने निकल गए। जो इन बातों से अनजान थे वो खूब नाच रहे थे, बच्चे भी देह धुनकर नाच में मगन थे। और जो लड़ाई की तैयारी में थे वो चौकन्ने थे पर बाहर वालों को ये बात पता नहीं लगने दे रहे थे।
नाचते नाचते लक्ष्मी पूजा वाले छठ पूजा के सड़क पर पहुँचे-----डीजे जोर जोर से गा रहा था, देखें जरा, किसमें कितना है दम
शेर की तरह वे छठ पूजा के सजावट वाले सड़क में जानबूझकर घुस गए। छठ पूजा वालों ने भी मोर्चा संभाल लिया कि जैसे ही कोई नुकसान हुआ कि ------
योजनानुसार लक्ष्मी पूजा वालों का डीजे लटक रहे झूमर से टकराया, उसके बाद लगातार सड़क के ऊपर में लटके बल्ब, तार, रोलेक्स सब को समेटने लगा। और सब टूट टूट कर गिरने लगा। लाइट टूटते तो सबने देखा पर गिरते बहुत कम ने। क्योंकि सबका ध्यान टूटने पर ही लगा था कि ऐसा कुछ भी होते ही मार शुरू कर दिया जाएगा।

फिर क्या था, छठ पूजा वालों की जोरदार आवाज आई, मारो सालों को। पर ये आवाज डीजे के शोर में कुछ दब सी गई।
नाचने वाले नाच रहे थे और मार शुरू हो गया। कुछ ट्रैक्टर पर उछल कर चढ़ गए। दोनों तरफ से मारामारी चालू हो गया। खींच कर, दौड़ कर, पटक कर, सब कुछ फिल्म के क्लाइमेक्स की तरह हो रहा था। अंत में भगदड़ मच गई। किसी का हाथ टूटा तो किसी का पैर तो किसी का माथा फूटा।
और अगले दिन अखबार में खबर छपी, दीघापुर में वर्चस्व की लड़ाई में ------

शीर्षक :- विसर्जन

लेखिका :- सिनीवाली शर्मा





6 टिप्‍पणियां:

  1. क्यजरूरत है विदेशी आतंकवादी की हम भारतीय ही पर्याप्त है

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  2. सिनीवाली शर्मा की कहानियां पहले भी पढ़ता रहा हूं। पिछली कहानियों में वे भावुक हो कर अपनी बात कहती थीं तो कहानी अपने पूरेपन के साथ सामने नहीं आ पाती थी लेकिन इस कहानी में सिनीवाली ने काफी लम्‍बी दूरी तय करके एक मैच्‍योर कहानी दी थी। दशहरा, दिवाली और छठपूजा को प्रतीकात्‍मक रूप में लेते हुए उन्‍होंने गांव में चलने वाली टुच्‍ची राजनीति और वर्चस्‍व की लड़ाई को बेनकाब करने की कोशिश की है। कहानी अपने मकसद में सफल है। सीधी सादी भाषा, कोई टीम टाम नहीं और पते की बात कह जाना। बधाई सिनीवाली। खूब लिखो।

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  3. बहुत अच्छी कहानी है सिनीवाली जी। नष्ट होने के कागार पर खडे गांव आन्तरिक हालातो की वखूबी सूचना देती है।

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  4. इस कहानी में सिनीवाली अपनी पिछली कहानियों से आगे दिखाई देती हैं। ग्रामीण परिवेश का सटीक चित्रण और भाषा-प्रवाह उत्तम है। शुरू से अंत तक पाठक को बाँधकर रखने की क्षमता कहानी में है। कहानी का वैचारिक पक्ष भी साफं-साफ दिखाई देता है। कथाकार अपनी बात पाठकों तक पहुँचाने में सफल हुई हैं। "किस्सागोई" भी इस कहानी में सफलता पूर्वक उभर कर आई है, जो इसकी जान बनी है।
    कथाकार चिंतित है... उन्माद अपसंस्क्रिति से गाँव को बचाने की चिंता है...और यही चिंता इस कहानी का वैचारिक पक्ष है।
    पता नहीं, संपादक जी को इस कहानी में "विचार" क्यों नहीं दिखा!

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  5. आज सिरे से गांव को शहरीकरण के अजगर लील रहे हैं ऐसे में गांव को रचनात्मक स्तर पर जीकर ही बचाया जा सकता है | गांव में जीवन जीने की स्थितियां जरूर जानबुझकर खतम की जा रही हैं , बिजली के तार खीच गये लट्टु भी लग गये पर गांव में बिजली दिन में आती है ,शाम होते ही अंधेरा |और आदत भी बिगड़ गई कोई लालटेन भी नहीं जलाना चाहती ज्यादातर भूल गये हैं | कैसे गांव पढ़ैगा यह आज के विकास और तकनीकी दौर में सोचने की जरूरत है | कहानी के लिए बधाई |

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  6. आज सिरे से गांव को शहरीकरण के अजगर लील रहे हैं ऐसे में गांव को रचनात्मक स्तर पर जीकर ही बचाया जा सकता है | गांव में जीवन जीने की स्थितियां जरूर जानबुझकर खतम की जा रही हैं , बिजली के तार खीच गये लट्टु भी लग गये पर गांव में बिजली दिन में आती है ,शाम होते ही अंधेरा |और आदत भी बिगड़ गई कोई लालटेन भी नहीं जलाना चाहती ज्यादातर भूल गये हैं | कैसे गांव पढ़ैगा यह आज के विकास और तकनीकी दौर में सोचने की जरूरत है | कहानी के लिए बधाई |

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