मंगलवार, 10 नवंबर 2015


           रश्मि भारद्वाज की कवितायें

इधर कुछ समय से युवा कवियित्री रश्मि भारद्वाज की कविताओं ने सबका ध्यान आकृष्ट किया है । तमाम समकालीन पत्रिकाओं ,व ब्लागों में लगातार छपती रही हैं जिससे उनकी कविता पर विचार भी हुए हैं ।खाश बात ये है कि रश्मि की कविता स्त्री विमर्श के बने बनाए खांचे मे अटकर नही चलतीं आंशिक बाएं ही रहती है जिससे कारण वैचिरिक  असन्तोष और मूल्यहीनता के खिलाफ अस्वीकार का स्वर तमाम बुर्जुवा सन्दर्भों के खोखलेपन का एहसास करा देता है । मृत मान्यताओं द्वारा हर दिन टूटकर बिखरती स्त्री की अन्तर्दशा व आत्मपीडन की भंगिमाएं आज के लेखन मे आम है । पर निजी वैचारिक संरचनाओं के कारण  रश्मि मे ये स्थितियां बदलते मानवीय सम्बन्धों की विक्षुब्ध अभिव्यक्ति बन गयी हैं । आज की एकान्तिक कटी हुई जिन्दगी व सामाजिक विभेदों मे फँसकर घुटती अस्मिताओं का सवाल नवीन सौन्दर्य बोध व नवीन भाषा की मांग करता है रौमैन्टिक भावुकता के दिन अब नही रहे अब यथार्थवादी बौद्दिकता , खरापन बेहद जरूरी है । जिसे रश्मि की कविता मे देखा जा रहा है । रश्मि को पढना जैसे अपने परिवेश झटपटा रहे आम जीवन की पढना है कविता अपने निजी अर्थसंकेतों द्वारा तनाव और विक्षुब्धता को भी संवादी नाटकीयता से भर देती है इसे कला कह लीजिए या 'लोक' से लिए गये शब्दों की विस्तारपूर्ण मुद्राएं । भाषा की साझेदारी अर्थविस्तार की तमाम संभावनाएं उत्पन्न कर देती है । रश्मि की कविताई पर वरिष्ठ आलोचक गणेश पांडेय जी का अभिमत मुझे याद आ रहा है ' रश्मि भारद्वाज नया नाम तो है पर रश्मि के पास कविता का शऊर अधिक है । रश्मि अपनी पीढी में कला के मामले मे सबसे आगे दिखती है । उसे पता है कि भाषा के गैस चूल्हे की आंच कब और कितनी तेज करना है' (यात्रा 10) रश्मि भारद्वाज ने लोकविमर्श के लिए कुछ कविताएं भेजी थी जिन्हे आज प्रकाशित कर रहा हूं । आईए पढते हैं ।चित्र  कुँवर रवीन्द्र जी के हैं


१ जब बहुत कुछ

जब बहुत कुछ हो आस पास
जिसका बदलना हो जरूरी
और जानते हैं आप
कि नहीं बदला जा सकता कुछ भी
तो उपजती है कविता
हताशा है कविता

जब दफ़न करना पड़े हर प्रश्न
और सन्नाटे बुनने लगें उत्तर
घायल करने लगे ख़ुद को
अपना ही मौन
तो लिखी जाती है कविता
सवाल है कविता

जब किश्त दर किश्त
जीवन करता रहे साजिशें
और टूटती जाए उसे सहेजे रखने की हिम्मत
तो बनती है कविता
उम्मीद है कविता

कविता उस छीजती समय की रस्सी पर
पैर जमाए रखने की है कोशिश
जिसके एक और अंत है
तो दूसरी ओर हार


    हमें गढ़ते हैं वो


वह कहते हैं कि नाक की सीध में चलते रहो
यही है रास्ता
दाएँ-बाएँ देखना गुस्ताखी है
और रुकना समय की बरबादी
बस चलते रहो
और हो सके तो मूँद लो अपनी आँखें,
बंद कर लो अपने कान
मत करो प्रश्न
कि हम चल चुके हैं, बस यही है रास्ता  

इस रास्ते पर बिना थके, अनवरत चलते जाने के लिए
उन्होने गढ़े हैं कई सूत्र वाक्य
जो हमारी डूबती आँखों की चमक और
भटकते कदमों की थकान को थाम सके

इस रास्ते पर ठीक ठीक चलते जाने के लिए
उन्होने उधार दी हैं हमें अपनी जुबान, अपनी आँखें
अपने कान, पैर और बाकी सभी आवश्यक अंग
ताकि हम बोले तो उनकी बोली
देखे बस उतना जितना उन्हें जरूरी लगे
और सुने वही जितना सुनना हमें रास्ते पर बनाए रखे

यह बात दीगर है कि
उधार की जुबान से बोला नहीं जाता
सिर्फ हकलाया जाता है
ठीक वैसे ही जैसे किसी और के बताए रास्ते पर
चला या दौड़ा नहीं, सिर्फ रेंगा जाता है
और अपनी आँखें बंद कर लेने का सीधा अर्थ होता है
बंद कर देना अपनी आत्मा के कपाट 

और यह सब करके हम पहुँच पाएँ वहाँ
कि जहाँ तक पहुँच पाएँ हैं वो
अब यह कौन पूछे कि 
कहीं पहुँचने का अर्थ क्या वहीं होता है
जो तय किया है उन्होने   


    सीमा, तुम्हें सलाम


भोर के अंतिम तारे के आंखे मूंदने से पहले ही
वह जिंदा कर देती है, आँगन में पड़े अलसाए चूल्हे को
अपनी हड्डियों का ईंधन बनाकर, उलीचती है ढेर सारा पसीना
तब धधकती है चूल्हे में आग और ठंडी हो पाती है
चार नन्हें मासूमों और दो बूढ़ी ठठरियों के पेट की जलन     

हमारे सम्पन्न देश के मानचित्र से ओझल
एक फटेहाल गाँव में रहती है सीमा
पति के नाम की वैशाखियाँ कभी नहीं पहनी उसने
नहीं जानती वह सप्तपदी के मंत्रों का अर्थ
फिर भी परदेश कमाने गए पति की जगह खड़ी है,
बनकर उसके परिवार का आधार  

बैल की तरह महाजन के खेत में अपना शरीर जोतती
नहीं जानती थकना, रुकना या रोना
जानती है तो बस चलना, बिना रुके, बस चलते रहना  
हर साल, महाजन की रकम चुकाने आया पति
भले ही नहीं कर पाता काबू ब्याज की जानलेवा अमरबेल को  
लेकिन कर जाता है अपनी मर्दानगी का सुबूत पक्का
डाल कर उसकी गोद में पीठ से चिपका एक और पेट
तब भी नहीं रुकती सीमा    
एक दिन के जाये को सास की गोद में लिटा
वह निकल जाती है ,कुछ और रोटियों की तलाश में    

तेलसाबुन विहीन, चीथरों में लिपटा शरीर, सूखा चेहरा, रूखे केश
सीमा नहीं जानती शृंगार की भाषा    
बेमानी है उसके लिए, पेट के अलावा कोई और भूख
लेकिन फिर भी जानती है वह
जब तक गरम गोश्त की महक रहेगी
रात के पिछले पहर बजती रहेगी सांकलें
और वह मुस्कुराएगी छप्पर में खोंसे अपने हँसिये को देखकर    

नई रोशनी से दूर, भारी भरकम शब्दों से बने कृत्रिम विमर्शों से दूर
शाम ढले अपने बच्चों को सीने से लिपटाए, तारों की छाँव में
सुकून की नींद सोती है सीमा    
क्योंकि उसे नहीं है भ्रम, कल का सवेरा लाएगा कोई बड़ा बदलाव
उसे नहीं है इंतज़ार, एक दिन वह ले पाएगी मुक्ति की सांस
क्योंकि नहीं है उसे बैचनी, काट दे वह अपने जीवन की बेड़ियाँ    
वह नहीं जानती समानता के अर्थ, स्वतन्त्रता के मायने    
इस सारी आपा धापी से परे वह अकेले ही
खींच रही है अपने परिवार की गाड़ी, अपने एक ही पहिये के सहारे        

हमारे सम्पन्न देश के एक फटेहाल गाँव में रह रही सीमा
अनजाने में ही रच रही है स्त्री- विमर्श की एक सशक्त परिभाषा
बिना बुलंद किए कोई भी नारा,
बिना थमाए अपने अधिकारों की फेहरिश्त
किसी और के हाथों में  
सीमा, तुम्हें मेरा सलाम  
क्या तुम दे सकती हो
हम तथाकथित स्वतंत्र ,शिक्षित औरतों को
अपनी आधी हिम्मत भी उधार ?


   देवी

दशमी की अंधियारी रात को
उठती थी देवी की सवारी
दुर्गा अस्थान से
नौ दिनों की निरंतर पूजा अर्चना के बाद
ढम ढम बज उठते थे ढ़ोल
चीरते दूर तक फैले सन्नाटे को
विशाल प्रतिमा चौधरी के उदार राजकोष से निर्मित
चुंधियाती थी आँखें अपने दिव्य सौन्दर्य से
माहिषासुर मर्दिनी, लाल आँखों वाली माँ
भय और श्रद्धा से झुके सिर
जल में प्रवाहित होने से पहले
अंतिम विदा कहने
खोईंछे में दूभी- धान भरने
आती थी अपनी सवारी के साथ चौधरी की हवेली पर

घूँघट में रहने वाली चिंतामनपुर वाली
आम औरत नहीं थी
जो मुँह उठाए देख आती हैं मेला-ठेला
खा आती हैं जलेबी, और भर आती है कलाइयाँ दर्जन भर चूड़ियों से
वह प्रतिष्ठापित थीं चौधरी की हवेली में
उसके भार से लदी, झुकी 
वाक्य पूरा होने से पहले देख लेती थी कनखियों से चौधरी का चेहरा
पढ़ लेती थीं कि स्वीकृति के चिन्ह हैं या नहीं
उस एक रात वह भी बन जाती थीं देवी

खुल उठते थे चटाक- चटाक सभी देहबंध
खुले केश, लाल नेत्र अंगारों से दहकते
जैसे अब तक हृदय में समेट रखी
सभी कामनाओं को एक साथ धधका दिया हो
और उसके अंगारे चमक रहें हों आँखों में
दह –दह
देखो मत, जल जाओगे
सिर झुका बैठ जाता था सारा घर  
चरणों पर लोट रहे होते चौधरी
क्षमा माँ ! क्षमा !
मुझ नराधम को दे दो क्षमा
क्षमा कि तुम्हें मैं नहीं दे सका संतान
और बांझ कही जाती हो तुम
क्षमा कि विवाह के दस सालों बाद भी
नहीं जान पायी तुम देह सुख
क्षमा कि जड़ दिया तुम्हें तालों में
जहां हवा भी नहीं आती मुझसे पूछे बिना

चट चट चटाक पड़ती रहती थी लातें- थप्पड़
और भाव विहल, लीन मग्न चौधरी
झटके से आकर पकड़ता था गबरू जवान ढोलिया
जो जानता था देवी उतारने का मंत्र
मुस्कुरा उठती थी देवी
पान, फूल, इत्र, मिष्ठान
धूप, रूप, स्वाद , गंध
खुल जाते थे तन और मन के बंद पड़े रेशे-रेशे

दशमी की उस गहन रात्रि में
दुर्गा अस्थान से उठ कर आती थीं देवी
साल भर के लिए जल में विलय होने से पहले
दे जाती थी किसी को जीवन 
एक रात का 



    चरित्रहीन

बड़ी बेहया होती है वो औरतें
जो लिखी गयी भूमिकाओं में
शातिराना तरीके से कर देती है तब्दीली
और चुपके से तय कर जाती  हैं सफ़र
शिकार से आखेटक तक का
अदा से पीछे करती है
माथों पर लटक आए रेशमी गुच्छे
और मुस्कुरा उठती हैं लिपस्टिक पुते होठों से
सुनकर जहर में भिगोया संबोधन चरित्रहीन

बड़ी भाग्यशीला होती हैं वो औरतें
जो मुक्त हैं खो देने के डर से वो तथाकथित जेवर
जिसके बोझ तले जीती औरतें जानती हैं
कि उसे उठाए चलना कितना बेदम करता जाता है पल-पल उन्हें 
मुक्त , निर्बंध राग सी किलकती यह औरतें
जान जाती हैं कि समर्पण का गणित है बहुत असंतुलित
और उनका ईश्वर बहुत लचीला है

बड़ी चालाक होती है ये बेहया औरतें
कि जब इनके अंदर रोपा जा रहा होता है बीज़ दंभ का
यह देख लेती हैं शाखाएँ फैलाता एक छतनार वृक्ष
और उसकी सबसे ऊंची शाख पर बैठी छू आती हैं सतरंगा इन्द्रधनुष
उन्हें पता है कि जड़ों पर नहीं है उनका जोर
खाद-पानी मिट्टी पर कब्जा है बीज के मालिक का
शाखाओं तक पहुँचने के हर रास्ते पर है उसका पहरा
लेकिन गीली गुफाओं में फिसलते वह ढीली करता जाता है रस्सियाँ
और खुलने लगते हैं आकाश के वह सारे हिस्से
जो अब तक टुकडों में पहुँचते थे घर की आधी खुली खिडकियों से 

सुनते हैं, ज़िंदगी को लूटने की कला जानती हैं यह आवारा औरतें
इतिहास में लिखवा जाती हैं अपना नाम
मरती नहीं अतृप्त
तिनके भर का ही सही
कर देती हैं सुराख़ उसूलों की लोहे ठुकी दीवारों में 
और उसकी रोशनी में अपना नंगा चेहरा देखते
बुदबुदा उठते हैं लोग चरित्रहीन
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     माफ करना मुझे

कच्ची मिट्टी सी होती हैं अच्छी बेटियाँ,
पकाई नहीं जाती आंच पर
गढ़ा जाता है उन्हें ताउम्र ज़रूरत के हिसाब से
फिर एक दिन बिखेर कर
कर दिया जाता है हवाले नए कुम्हार के
कि वह ढाल सके उसे अपने रूप में

मुंह में ज़ुबान नहीं रखती अच्छी पत्नियाँ
उन्हें होना चाहिए मेमनों की तरह
प्यारी, मासूम, निर्दोष, असमर्थ
जो ज़िबह होते हुए भी
समेटे हों आँखों में करुणा, क्षमा और प्रेम

अच्छी माएँ, निर्मित करती हैं परिवार का भविष्य
खींचने के लिए एक चरमराती गाड़ी
वह तैयार करती है बैलों को
खत्म कर देती है कोख में ही
कितनी धड़कनें
एकाध आँसुओं के अर्घ्य से

माफ करना मुझे,
कि मैंने नहीं सुनी तुम्हारी सीख
कि मुझे भी होना था
एक अच्छी बेटी, पत्नी या माँ
कि इन्हीं से बनता है घर

दरअसल मैंने सुन ली थी
उन घरों की नींव में दफन
सिसकियाँ और आहें,
कि मैंने समझ लिया था कि
उन दीवारों मे चुनी जाती हैं कई ज़िंदा ख्वाहिशें
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     कुछ दिन

कुछ दिन बड़े कठिन होते हैं
जब मेरी आँखों में तैर जाते हैं कामना के नीले रेशे
लाल रक्त दौड़ता है दिमाग से लेकर
पैरों के अंगूठे तक
एक अनियंत्रित ज्वार
लावे सा पिघल-पिघल कर बहता रहता है
देह के जमे शिलाखंड से
मैं उतार कर अपनी केंचुली
समा देना चाहती हूँ खुद को
सख्त चट्टानों के बीच
इतने करीब कि वह सोख ले मेरा उद्दाम ज्वर
मेरा सारा अवसाद, मेरी सारी लालसा  
और मैं समेट लूँ खुद में उसका सारा पथरीलापन 
ताकि खिल सके नरम फूल और किलकती कोमल दूब

कुछ दिन बड़े कठिन होते हैं
जब भूल कर और सब कुछ
मैं बन जाती हूँ सिर्फ एक औरत
अपनी देह से बंधी
अपनी देह से निकलने को आतुर
चाहना के उस बंद द्वार पर दस्तक देती
जहां मेरे लिए अपनी मर्जी से प्रवेश वर्जित है
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८-बिजूका

देह और मन की सीमाओं में
नहीं बंधी होती है गरीब की बेटी
अपने मन की बारहखड़ी पढ़ना उसे आता ही नहीं
और देह उसकी खरीदी जा सकती है
टिकुली ,लाली ,बीस टकिये या एक दोने जलेबियों के बदले भी

गरीब की बेटी नहीं पायी जाती
किसी कविता या कहानी में
जब आप उसे खोज रहें होंगे
किताबों के पन्नों में
वह खड़ी होगी धान के खेत में,टखने भर पानी के बीच
गोबर में सनी बना रही होगी उपले
या किसी अधेड़ मनचले की अश्लील फब्तियों पर
सरेआम उसके श्राद्ध का भात खाने की मुक्त उद्घोषणा करती
खिलखिलाती, अपनी बकरियाँ ले गुजर चुकी होगी वहाँ से

आप चाहें तो बुला सकते हैं उसे चोर या बेहया
कि दिनदहाड़े, ठीक आपकी नाक के नीचे से
उखाड़ ले जाती है आलू या शक्करकंद आपके खेत के
कब बांध लिए उसने गेहूं की बोरी में से चार मुट्ठी अपने आँचल में
देख ही नहीं सकी आपकी राजमहिषी भी

आपकी नजरों में वह हो सकती है दुष्चरित्र भी
कि उसे खूब आता है मालिक के बेटे की नज़रें पढ़ना भी
बीती रात मिली थी उसकी टूटी चूड़ियाँ गन्ने के खेत में
यह बात दीगर है कि ऊँची – ऊँची दीवारों से टकराकर
दम तोड़ देती है आवाज़ें आपके घर की
और बचा सके गरीब की बेटी को
नहीं होती ऐसी कोई चारदीवारी

गरीब की बेटी नहीं बन पाती
कभी एक अच्छी माँ
कि उसका बच्चा कभी दम तोड़ता है गिरकर गड्ढे में
कभी सड़क पर पड़ा मिलता है लहूलुहान
ह्रदयहीन इतनी कि भेज सकती है
अपनी नन्ही सी जान को
किसी भी कारखाने या होटल में
चौबीस घंटे की दिहारी पर

अच्छी पत्नी भी नहीं होती गरीब की बेटी
कि नहीं दबी होती मंगलसूत्र के बोझ से
शुक्र बाज़ार में दस रुपए में
मिल जाता है उसका मंगलसूत्र
उसके बक्से में पड़ी अन्य सभी मालाओं की तरह

आप सिखा सकते हैं उसे मायने
बड़े – बड़े शब्दों के
जिनकी आड़ में चलते हैं आपके खेल सारे
लेकिन नहीं सीखेगी वह
कि उसके शब्दकोश में एक ही पन्ना है
जिस पर लिखा है एक ही शब्द
भूख
और जिसका मतलब आप नहीं जानते

गरीब की बेटी नहीं जीती
बचपन और जवानी
वह जीती है तो सिर्फ बुढ़ापा
जन्म लेती है, बूढ़ी होती है और मर जाती है
इंसान बनने की बात ही कहाँ
वह नहीं बन पाती एक पूरी औरत भी
दरअसल, वह तो आपके खेत में खड़ी एक बिजूका है
जो आजतक यह समझ ही नहीं पायी
कि उसके वहाँ होने का मकसद क्या है

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रश्मि भारद्वाज जानी मानी युवा कवियित्री और मेराकी की संचालक हैं 

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत जानदार कवितायेँ। रश्मि को बधाई। एक शानदार प्रस्तुति।

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  2. बहुत गहरी कविताएँ ... रश्मि समर्थ है अपनी कविताओ के माध्यम से अपना प्रतिरोध दर्ज करने के लिए.. देवी सहित हमे गढ़ते हैं वे, मेरी पसंदीदा कविताएँ है हर कविता दुबारा पढ़े जाने पर भी अपनी धार बनाये रखती है रश्मि जी के कृतित्व की यही सफलता है

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  3. स्त्री विमर्श को सार्थक करती कवितायें बधाई रश्मि

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