शनिवार, 27 दिसंबर 2014

            तो काहे का मैं- पर महेश चन्द्र पुनेठा


“लोकधर्मिता न  गाँव के दृश्य या घटानाओं को कविता में  लाना भर है न पेड़-पत्ती-फूल की बात करना मात्र न केवल किसी अंचल विशेष की लोकसंस्कृति का उल्लेख करना और न लोकबोली के शब्दों का अपनी कविता में प्रयोग करना भर है। लोकधर्मिता एक व्यापक अवधारणा है जो गाँव से लेकर महानगर तक फैली उस संवेदना का पर्याय है जो उस हर व्यक्ति से संबंद्ध है जो उपेक्षित-पीड़ित-शोषित है और अपने शारीरिक श्रम पर जीवित है” (इसी समीक्षा से ) महेश चन्द्र पुनेठा हमारे समय के सजग कवि हैं एक और जहां वो कविता में “लोक” के प्रति स्पष्ट पक्षधरता रखते हैं तो दूसरी और उनकी आलोचना दृष्टि भी “लोक-धर्म” और तर्क की संतुलित व्याख्या करती है उनका आलोचक  व्यक्तित्व लोकोन्मुखी है। इसलिए उनका तर्क  लोक की ओर ही देखता है। उसे सुनता है। उसे समझता है। उसे संबोधित करता है। उससे अपना रागात्मक सम्बन्ध जोड़ता है। सामयिक खतरों में सबसे बड़ा खतरा “विश्व-पूँजी” की व्यापकता है जिसकी  वज़ह से मानवीय संवेदनाएं बाजारवादी मूल्यों में सिमट चुकीं हैं |लोकतान्त्रिक व्यवस्था का मूल मंत्र “लोक-कल्याण” सरकारी नीतियों से ओझल हो गया है अवशेष है तो जनता  को गुमराह करने वाली बयान-बाज़ी और “निजीकरण में ही जनता का हित है निजी कारण ही सच्चा लोकतंत्र है” विज्ञापित करने वाला मिथ्या प्रचार ...कवि केशव का नया कविता संग्रह “तो काहे का मैं” २०१४ मे प्रकाशित हुआ नवउदारवादी परिवेश में “लोक” किस कदर पीड़ित है कवि ने स्वयम परखा है और चिंतित भी है | इस संग्रह की कविताएं एक विशिष्ट समय का मूर्त खाका खींचतीं है |कवि के इस समय –और संवेदना को आलोचक “महेश चन्द्र पुनेठा” ने बखूबी पहचाना है| खास चरित्र का सृजन करने वाली कविताओं की व्याख्या में आलोचक ने “लोक-धर्म” की -लोकभूमि का भी संकेत कर दिया है |आइये आज हम लोक-विमर्श” में केशव तिवारी के कविता संग्रह “तो काहे का मैं” पर युवा लोक-धर्मी कवि/आलोचक महेश चन्द्र पुनेठा की समीक्षा पढ़ते हैं |यह समीक्षा “नया-पथ” में  जून के  अंक में प्रकाशित भी हो चुकी है मैं नया –पथ के प्रति आभार व्यक्त करते हुए आप सब के लिए यह समीक्षा प्रस्तुत कर रहा हूँ 





      इतिहास जहाँ पर चुप हो जाता है कविता बोलती है
                                              
  लोकधर्मिता न  गाँव के दृश्य या घटानाओं को कविता में  लाना भर है न पेड़-पत्ती-फूल की बात करना मात्र न केवल किसी अंचल विशेष की लोकसंस्कृति का उल्लेख करना और न लोकबोली के शब्दों का अपनी कविता में प्रयोग करना भर है। लोकधर्मिता एक व्यापक अवधारणा है जो गाँव से लेकर महानगर तक फैली उस संवेदना का पर्याय है जो उस हर व्यक्ति से संबंद्ध है जो उपेक्षित-पीड़ित-शोषित है और अपने शारीरिक श्रम पर जीवित है। युवा कविता में इस लोकधर्मिता की सबसे अधिक व्याप्ति हमें केशव तिवारी के यहाँ दिखाई देती है। उनके सद्य प्रकाशित कविता संग्रह तो काहे का मैं में उनका लोक अपने गाँव से लेकर दिल्ली तक फैला है जिसमें मुराद अली ,जोखू ,गुरु पासी, बिसेसर ,सुगिरा काकी ,धनई काका ,मइकू ,मोमिना से लेकर मानबहादुर सिंह ,विनायक सेन,विष्णु चंद्र शर्मा,कपिलेश भोज, तक मौजूद हैं। उनकी कविताओं में एक ओर गाँव के “रास्ते का कुआँ है तो दूसरी ओर पेरिस ,मांटेस्क्यू वास्तील के किले का जिक्र मिल जाएगा। इसी तरह कहीं गाँव की रामलीला तो कहीं चित्रकूट में “औरंगजेब का मंदिर दिख जाएगा। सब अलग-अलग भावभूमि पर लेकिन सबके केंद्र में लोक। क्या मुराद अली, जोखू ,गुरु पासी ,बिसेसर, सुगिरा काकी ,धनई काका, मइकू, मोमिना आदि का जीवन संघर्ष केवल किसी खास लोकेल में रहने वालों का जीवन संघर्ष है| सर्वहारा गाँव में रहता हो या शहर में क्या उसका जीवन संघर्ष एक समान नहीं है |उनकी कविताओं में आने वाले दृश्य-बिंब-पात्र भले ग्रामीण परिवेश से अधिक हों लेकिन संवेदना सार्वभौम है। औरत के लिए बस इतनी सी आजादी की माँग, बेरोजगारी में इश्क  “तो काहे का मैंजोगी डर जैसी कविताओं को क्या हम किसी गाँव या शहर की सीमा में बाँध सकते हैं।  उनकी कविता कभी माड़िया-गोड़ से हमारा परिचय कराती है। कभी जगदलपुर तो कभी कौसानी ले जाती है।
   संग्रह की पहली ही कविता से शुरू करें जो चित्रकूट में औरंगजेब द्वारा बनवाये गए बालाजी के मंदिर को अवलंब बनाकर लिखी गई है। इसे हम किसी खास क्षेत्र तक सीमित नहीं कर सकते हैं। यह कविता इतिहास के सांप्रदायीकरण पर गहरी चोट करती है। जनसामान्य में औरंगजेब या मुगल शासकों को हमेशा मंदिरों और मूर्तियों के विध्वंसक के रूप में ही देखा जाता है। बहुत कम यह जानते हैं कि औरंगजेब ने मंदिर भी बनवाए। केशव ऐसे ही एक मंदिर से अपनी कविता में पाठकों को परिचित कराते हैं। वह कहते हैं “भले यहाँ नहीं उमड़ती भक्तों की भीड़ लेकिन एक रास्ता इधर से भी जाता है। यह वह रास्ता है जिससे पाठक इतिहास के उन पन्नों तक पहुँचाता है जिन्हें जानी-बूझी साजिश के चलते नेपथ्य में डालने की कोशिश की गई ताकि एक खास कालखंड को एक खास धर्म की छवि को बिगाड़ने के लिए इस्तेमाल किया जा सके लेकिन कवि ऐसा नहीं होने देता है। वह हमें कुछ ऐसे उजले पक्षों के दर्शन कराता है जो इतिहास की दरारों को भरने का काम करते हैं। यह कविता उसी का उदाहरण है। कवि अपील करता है-तमाम धार्मिक उद्घोषों/जयकारों के बीच धर्म और इतिहास के मुहाने से/चीखती एक आवाज/तमाम ध्वंस अवशेषों से क्षमा माँगती/कोई सुने तो रुक कर।  लेकिन दुर्भाग्य इसी बात का है कि  रुक कर सुनने को कितने तैयार हैं यहाँ तो अधिकांश ने अपने आँख-कान बंद कर लिए हैं।अपनी सुविधानुसार इतिहास को स्वीकार कर लिया है। इतिहास के तथ्यों की जाँच और विश्लेषण के भाववादी कारण ढूंढ लिए हैं। धर्मग्रंथों या खास संगठनों की प्रचार सामग्री को इतिहास मान लिया है।  कैसी विडंबना है आदमी डर के कारणों में ही डर की मुक्ति देख रहा है-दुनिया भर की तमाम/पवित्र किताबें/भय और आतंक से/भरी पड़ी थीं/और मैं/अपने सबसे डरे समय में/उन्हीं को पढ़ रहा था।(डर) बिना शोरशराबे के सांप्रदायिकता का ऐसा विरोध जो उसके जड़ों पर ही चोट करता है यह केशव तिवारी का काव्य कौशल है। केशव इतिहास की गड़बड़ियों पर पैनी नजर रखते हैं। वह जानते हैं कि इतिहास हमेशा आल्ह ऊदल ताला सैयद मलखान जैसे लोक नायकों का नाम तक नहीं लेता है। केशव इस बात से अच्छी तरह परिचित हैं कि -इतिहास का होता है एक/अपना गणित /वह जानता है कहाँ बोलना है/और कहाँ सोट खींच लेना है/पर सच तो यह है कि /इतिहास जहाँ पर चुप हो जाता है/कविता बोलती है ।(महोबा) केशव की कविता इसी भूमिका में है।
   इसी तरह एक लंबी कविताबिसेसर है जिसे हम किसी गाँव या शहर की कविता नहीं कह सकते हैं। यह आजादी से मोहभंग और प्रजातंत्र के नाम पर हो रहे पाखंडों को उघाड़ने वाली   कविता है। बिसेसर जो-पुस्तैनी धंधा मुराई का/सब्जी उगाते सर पर रखकर/गाँव-गाँव फेरी लगाते या/हाट के दिन बाजार हो आते उन्होंने देश की आजादी के लिए हुए संघर्ष को देखा-सुना है। देश आजाद हुआ तब जवान हो चुके थे बिसेसर। उन्होंने देखा-वही कोठी जहाँ से चलता/था अंग्रेजों का हुकुम/अब खद्दरधारियों का ठिकाना बन रही थी/बाबू साहब की हिंस्र आँखों की दिखावटी/दया टपक रही थी। क्योंकि देश में प्रजातंत्र आ गया था। बिसेसर इस प्रजातंत्र में एक पार्टी के/कोल्हू के बैल हो गए थे। लेकिन कुछ समय बाद धीरे-धीरे नए-नए लोग आने लगे/नई-नई बात समझाने लगे/बात बढ़ते-बढ़ते गाँधी बाबा/और जवाहर लाल के जादू से /छूटने लगी/पर बिसेसर कभी यहाँ कभी वहाँ/जाति बिरादरी के नाम पर/भटकते रहे/एक खोह से निकलकर दूसरी /में अटकते रहे। देश के हर आम आदमी की स्थिति यही थी। केशव बिल्कुल सही पकड़ते हैं -यह राजनीति के जाल और झूठ का समय था/लोग उलझ कर मर रहे थे/बिसेसर बिना गोसइयाँ की गाय हो चुके थे/उन्हें कोई नहीं दिख रहा था/जिस पर भरोसा करते। इस भरोसे के टूटने से ही जनता में कोई नृप होई हमै का हानी का नैराश्य भाव पैदा हुआ जो दिन प्रतिदिन मजबूत होता जा रहा है। उसी का परिणाम है-बिसेसर की आजादी/घूम फिर कर वहीं/बाबू साहब की कोठी/के इर्द-गिर्द चक्कर/काटती रही। आजादी से पहले भी बिसेसर बाबू साहबों की कोठी में फेरी लगाकर सब्जी बेचता था और आज भी। बस अंतर इतना ही आया कि अब शोषण का प्रजातांत्रीकरण हो गया है। लोकतंत्र की आड़ में लोक का शिकार किया जा रहा है। प्रजातंत्र के नाम पर एक/पूरी की पूरी पीढ़ी को/गन्ने की तरह चूसा जा रहा है। लेकिन दुःखद यह है कि जनता में इस सब के खिलाफ कोई खास हलचल नहीं है।कोई संगठित प्रतिरोध नहीं। केशव इस विडंबना को कविता के अंत में इस प्रकार व्यक्त करते हैं-बिसेसर तमाम लोगों के साथ/एक जहाज पर बैठे/हाथ हिला रहे थे/बिना यह जाने कि वे आखिर /किधर जा रहे थे। यहाँ यह जहाज प्रजातंत्र है जिस पर बैठी जनता कभी इसे तो कभी उसे हाथ हिला रही है।जहाज को चलाने वाले उसे अपनी मनचाही दिशा में ले जा रहे हैं।
   


कवि केशव तिवारी की  कविताओं की मिठास डाल से गिरे उस अमरूद की तरह है जिसे सुग्गे ने आधा खा दिया हो जिसे एक जरूरतमंद बच्चा अपनी कमीज से पोंछ कर खा लेता है।जरूरतमंदों-उपेक्षितों-शोषितों-पीड़ितों की यही दुनिया है जिसे केशव अपनी कविता के सीने से लिपटाए रखना चाहते हैं। उसी के लिए कविता को बुनना चाहते हैं और ऐसी बुनावट रखना चाहते हैं जो इतनी महीन न हो कि उसमें बुनावट ही बुनावट दिखे चित्र दब कर रह जाय। कुछ कलावादी उनकी कविताओं की बुनावट को लेकर नाक-भौं सिकोड़ते हों लेकिन वह उनकी परवाह नहीं करते हैं।वह सीधे कहते हैं-जुलाहे भाई इतना भी/महीन न बुनो कि/बुनावट भर रह जाए/और चित्र खो जाए/कभी-कभी मूँज से/खर खर बिनी खटिया/कितनी खूबसूरत बन पड़ती हैं।(जुलाहे भाई) खूब लिखी जा रही नकली और अमूर्त कविताओं के ढेर में केशव की कविताएं बिल्कुल उनकी कविता धनई काका की अलबी-तलबी की तरह लगती हैं-जैसे संकर के दौर में/देसी टमाटर की खटास/जैसे पानी देखते ही चटक उठे/बहुत देर से रोकी प्यास/जैसे दना रहे चना का लोनहा खेत/जैसे तलुओं में गुदगुदाए चढ़ती/नदी की रेत/जैसे फटा पड़े जमकर पाँसी/ऊख से रस/जैसे /बहुत दिनों का भूखा/परसने वाली से न कहे बस। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए भी बस कहने का मन कहाँ होता है।एक प्यास बनी रहती है। ऐसी कविताएं वही लिख सकता है जो जीवन में सहज हो  जिसने बेकार के दंभ न पाले हों और अभिजात्य के खिलाफ खड़ा हो सकता हो  धनई काका की तरह।
  उनकी कविताओं में जो बुंदेली जन आते हैं-इनके गहरे काले रंग पर/दुपहरिया के चमकते फूल खिलते हैं/उदास आँखों के कोनों मंे कहीं/हर वक्त अलसी के फूलों के/ दीए जलते हैं/ये विंध्य से ज्यादा मजबूत/और बड़े हैं/बात जब-जब आन पर आई/अड़े हैं/आँधी ,बारिश में खैर के/पेड़ की तरह खड़े हैं(मेरे बुंदेली जन) अपने जन पर इतना गहरा विश्वास एक लोकधर्मी कवि का ही हो सकता है।केदार,त्रिलोचन,नार्गुजन जैसे कवियों के यहाँ ऐसी रागात्मकता दिखाई देती है। उनकी इस रागात्मकता के दर्शन ढोल पुजाई कविता में  भी होते हैं। अपने जन से इतना प्रेम करते हैं इसलिए तो शुभ दिनों की शुरुआत और हर शगुन में खूब टनकने वाली ढोल का चुपचाप खूँटी पर टँगा रहना उनको नहीं भाता है और उससे कहते हैं-तुम गूँजो उन सूने घरों में/जहाँ तुम्हारा गूँजना अब/बहुत ही जरूरी हो गया है....तुम गरजो बादलों की तरह/कि गेहूँ के पौंधों से मुरझाए/चेहरों का विश्वास न डिगे। अपने जन से प्रेम ही है कि उसके बिना वह प्रकृति की सुंदरता की कल्पना तक नहीं करते हैं। वह मानते हैं कि मनुष्य ही है जिसके चलते प्रकृति की सुंदरता का महत्व है।गेहूँ के दूर-दूर तक फैले खेत और चमक रहा चाँद कवि को तभी सुंदर लगते हैं जब उनके बीच घरों को लौटते लोग होते हैं।     उनकी कविता के नायक वे लोग हैं जो तमाम अभावों के बीच भी अपने “नाम और स्वाभिमान को बचाए रखने के लिए सचेत हैं -गगरी गढ़ते वक्त एक सूत/रेंच  न रह जाए कि/नाम धरें लोग /नहीं है दाना-पानी मौजे में /मइकू का पानीदार नाम तो है।(मइकू का नाम) बाजारवादी समय में जहाँ लोग ऐन-केन प्रकारेण पैसा जुटाने में लगे हैं ,मइकू का इस तरह सोचना आश्वस्त करता है कि अभी भी बहुत कुछ बचा है जिससे इस दुनिया की सुंदरता बनी हुई है।एक कवि जितना अपने जन के नजदीक होता है और उसके सुख-दुःख का साझीदार बनता है तथा उसे मान-सम्मान देता है उतना ही जनता अपने कवि को देती है और उसकी बाँह पकड़ लेती है......जब भी मन किया जाने को बाहर/इन सबने बाँह पकड़ कर कहा/तुम अकेले ही नहीं थके हो/तुम अकेले ही नहीं थके हो/इन दुःखों के बोझ से हम भी थके हैं/हम जैसे सहते हैं सहो/हमारी बात कहो/पर कवि हमारे साथ ही रहो।(कवि हमारे साथ रहो) 
  कविवर केशव तिवारी अद्भुत कल्पनाशीलता के धनी हैं | जिसके चलते वह सुरों में डूबी धरती के हृदय में  गड़े कांटे को भी देख लेते हैं और सुरों में डूबी धरती की कराह को सुन लेते हैं।कहीं न कहीं यह कल्पनाशीलता उनके यथार्थ की गहरी पकड़ और परम्परा से गहरे जुड़ाव का परिणाम है। वह कहते हैं-“मैं जयशंकर को पढ़ता हूँ/और निराला के आगे/ सिर धुनता हूँ/परम्परा में जीता हूँ और /उसी में अफनाता भी हूँ। यह उनके कवि की विशेषता है कि वह परम्परा में जीता है लेकिन उससे बंधता नहीं। बिल्कुल उस बीज की तरह जो जमीन के भीतर अंकुरित तो होता है लेकिन उसी जमीन को तोड़कर बाहर निकल आता है और अपना स्वतंत्र रूप-रंग ग्रहण करता है। इसके बावजूद जमीन से ही जल और खनिज लवण लेता रहता है।परम्परा से ताकत ग्रहण करने वाला कवि ही समय के हाथों संचालित नहीं होता है बल्कि अपने समय का साझेदार बनकर रहता है तभी इतने विश्वास से कह पाता है-आज ढोल की तरह टाँग दिया है/तुमने खूँटी पर/कल नगाड़े की तरह/तुम्हारे सर पर मुनादी करूँगा। (अपने समय का कवि) उनकी कल्पनाशीलता की ताकत प्रकृति के मानवीकरण में भी दिखाई देती है।तभी तो उनकी कविताओं मे कहीं पलास का पेड़ अपनी लाल झंडी सी बाँह हिलाता है , कहीं कोयल कूक कर रेल के देर-सबेर पहुँच ही जाने का उद्घोष करती है, कहीं -बसंत में शलभ सी/उड़ने को तैयार यह सोमेश्वर घाटी/पावस में/सीढ़ीदार खेतों के बीच धानी साड़ी पहन/पैर लटकाए बैठी/कोसी से कुछ बतिया रही है।

  इन कविताओं में मानव मन की हरेक भाव दिखाई देता है। कवि खुश होता है तो उस खुशी को व्यक्त करता है और उदास होता है तो उदासी भी छुपाता नहीं।दूसरों की बेचैन आँखों को पढ़ने में भी चूकता नहीं है। लेकिन कवि की चिंता का सबब एक ऐसी उदासी है जिसमें बेचैनी नहीं है।जीवन में उदासी होना स्वाभाविक है लेकिन उसमें बेचैनी का न होना खतरनाक है। कवि अच्छी तरह जानता है कि यदि उदासी में बेचैनी है तो वह बदलाव की लड़ाई की ओर बढ़ती है लेकिन बेचैनीविहीन उदासी पूरे समाज को अवसाद के गर्त में धकेलती है। ऐसा समाज पलायनवादी या यथास्थितिवादी हो जाता है। जो खालिस उदासी की चादर ओढ़ लेते हैं वे ,कुछ नहीं हो सकता है के दर्शन को बढ़ावा देकर अंततः उदासी के कारकों ही को सहायता पहुँचाते हैं। इसलिए जब कभी कवि उदास होता है अपने पुरखे से मदद की गुहार करता है-ओ मेरे गायक मेरे मन को /तमूरे की तरह बजा तू/मुझे उदासी से बाहर निकाल। कवि कबीर के पास जाता है । उसे आशा है कि वह ही उसे उदासी से बाहर निकाल सकता है।                                  

  एक कवि की जिम्मेदारी बहुत बड़ी होती है। वह केवल कविता लिखने तक ही सीमित नहीं होता है।उसे जीवन में भी साबित करना होता है। खुद को ही बचा लेना उसके लिए पर्याप्त नहीं है। समाज में घटित होने वाली हर अच्छाई-बुराई में उसका भी अंश है। केशव अपनी इस सामूहिक जिम्मेदारी को समझते हैं इसलिए जब तस्लीमा को अपनी लिखी किताब के लिए वतन बदर कर दिया गया तो उनके कवि का सिर शर्म से झुक गया-दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र/का नागरिक मैं/उसे देख रहा हूँ सर झुकाए यह भारतीय लोकतंत्र की कैसी विडंबना है कि-जहाँ मनुष्यता के हत्यारे/खुले आम घूम रहे हैं/वहीं सर छुपाने की जगह/माँग रही है वह। कुछ लोग अपने को लिखने तक सीमित रखने की बात करते हैं उनका प्रतिरोध शब्दों तक ही रहता है लेकिन केशव तस्लीमा के हवाले से कहते हैं-ये वक्त ....उनसे आँख मिलाने का है/जिनके खिलाफ लिख रहे हो तुम। केशव की पूरी कोशिश रहती है कि जिन लोगों के खिलाफ वह लिख रहे हैं जीवन में उनसे आँख न चुराएं। इसी के चलते वहविनायक सेन का समर्थन करते हुए उन पर कविता लिखते हैं और उन्हें सामूहिक स्वरों का मुक्ति गान स्वीकार करते हुए अपना स्वर भी उसमें मिलाते हैं। जीवन-संघर्ष में उतरने की बात उनकी इन पंक्तियों में भी व्यक्त होती है-जीवन में कितना कुछ छूट गया/और हम विचार की बहँगी उठाए/आश्वस्त फिरते रहे/नदी पर कविता लिखी/और जिंदगी के कितने/जल से लबालब चैहड़े सूख गए।उनकी दृढ़ मान्यता है कि –‘जिसने प्रेम किया/एक अथाह सागर थहाता रहा/जिसने प्रेम परिभाषित किया/किताबों में दबकर मर गया। वह खुद को कटघरे में खड़ा करने में देर नहीं लगाते-जब रुक कर सोचने का वक्त था/खुद को समेटने का /हम विचारों की घुड़सवारी कर रहे थे। समीक्ष्य संग्रह की शीर्षक कविता तो काहे का मैं  में तो जैसे वह खुलकर ही इस बात को कहते हैं-अगर यह सब कविता में तुम्हें/सिर्फ सुनाने के लिए सुनाऊँ/तो फिर काहे का मैं। उनके लिए कविता सिर्फ सुनाने भर के लिए नहीं बल्कि जीवन में उतारने के लिए है। वह बेईमान की आँखों में खटकने मित्रों को गाढ़े में याद आने और मुहब्बत से देखने वालों के सीधे सीने में उतर जाने पर विश्वास करते हैं। वह कविता की चिंता के लिए समाज के पास जाने वाले नहीं बल्कि समाज की चिंता से कविता के पास जाने वालों में से हैं। उनके लिए कविता लिखना कुछ भौतिक लाभ प्राप्त करने की आकांक्षा नहीं है।यह अपना पक्ष तय करने, मन की कलौंच धोने और खुद की रेकी करने सा है-कविता कितनी निर्ममता से/माँजती है मन/जैसे झाँवा से हलवाई/रगड़ता है कढ़ाई की कलौंच/कविता लिखना एक आत्ममुग्ध/दुनिया में/खुद के ऐब गिनाने सा/लगता है।(कोई रोकता है)उनका स्पष्ट मानना है कि कविता तंग काफी हाउस या वातानुकूलित कमरों में बैठकर नहीं लिखी जा सकती है और न ठंडी किताबों को पढ़कर । हवाई किलों में कवि का दम घुटता है वह जीवन के विस्तृत मैदान में विचरण कर नए-नए अनुभव ग्रहण करना चाहता है। तभी सच्ची कविता संभव है। एक कवि जीवन में धँस कर ही बड़ी कविता लिख सकता है।उसे किसान की तरह तैयारी करनी पड़ती है।यह तैयारी उनके यहाँ दिखती भी है। उन्हें महिनों तक तमाम कठिनाइयों को उठाते हुए असुविधाओं के बीच अपने गाँव और उसके जन के बीच खुशी-खुशी दिन गुजारते हुए देखा जा सकता है।   
  यही कारण है कि केशव  मध्यवर्गीय जीवन जीते हुए भी लोकजीवन में इतनी गहरी पैठ रखते हैं। उनकी कविता में हमें किसानी संस्कार मिलते हैं । किसान का पूरा जीवन धड़कता है। उनकी कविताओं में अधिकांश बिंब किसान जीवन से ही आते हैं। कितना अद्भुत बिंब है-जिंदगी हाथ में हरा चारा/और पीछे रस्सी छुपाए/बुलाती रही। इस बिंब से गुजरते ही वह चित्र सामने उतर   आया जिसमें माँ कुलाँचें मारती बछिया को हरी घास देकर बाँधने का प्रयास करती है। किसान जीवन जीने वाला ही इतना अनूठा बिंब कविता में ला सकता है।लोक और प्रकृति से दूर रहकर ऐसे बिंब कविता में लाना संभव नहीं है। एक वृद्ध लोेक गायक को सुनकर एक किसान चेतना का कवि ही इतना भाव-विभोर हो सकता है कि उसका मन लय की वलय पर तैरने लग जाय। उसके चैता को सुनकर यह महसूस करने लगे-सींच रहा है तपे मन को/कुशल कृषक सा/कोई कोना न छूट जाए  /कौन सुरों से जोत रहा है/इन खेतों की उदासी/और अभावों की शिला तोड़ता है। एक किसान आँखों के सामने घूमने लगता है। क्या मध्यवर्गीय मानसिकता में डूबा कवि ऐसी पंक्तियाँ लिख सकता है| केशव को किसी लोकगीत का गाया जाना सिर्फ मनसायन नहीं लगता है। यह सत्य भी है लोकगीत केवल मनोरंजन के लिए नहीं जाता है वह लोकमन की हर्ष-उल्लास, दुःख-दर्द और संघर्ष की अभिव्यक्ति है। वह मानते हैं कि यह –एक जिंदा आवाज का दखल है/सन्नाटे और धूप के बीच।इस जिंदा आवाज के बदौलत लोक ने न जाने कितने संघर्षों का कितनी बार मुकाबला किया।
  लोक का एक बड़ा हिस्सा गाँव में बसता है इसलिए लोकधर्मी कविताओं के केंद्र में गाँव और उसकी समस्याओं का होना स्वाभाविक है। केशव भी इस दृष्टि से अपवाद नहीं हैं। गाँव उनकी कविताओं में खूब आता है। अपने अलग-अलग रूपों  में। जिस साँझे की शान  की बात वह करते हैं वह गाँव में ही संभव हो सकती है-गाँव भर ने मिल कर छाई/गाँव-भर ने उठाई/पूरे गाँव के कंधे पर तनी रही......कँधई की छान है यह/गाँव-भर की आन है यह। यहीं आते-जाते लोग छाँह बैठते ,यहीं पानी पीते और यहीं बेघर अपना घर बनाते।किसी शहर में यह नहीं देखा जा सकता है। इसी तरह ढोल पुजाई और खेत जगाए जा रहे हैं जैसे दृश्य भी गाँव में ही दिखाई दे सकते हैं। इन कविताओं में ग्राम्य-संस्कृति से तो पाठक का परिचय होता ही है।साथ ही किसानों की दुर्दशा से भी। कवि को यह स्थिति बहुत कचोटती है-न धान को जड़ों भर पानी/न खेतों को कम्पोस्ट और डी.ए.पी./भूखे-प्यासे खड़े हैं खेत। कवि खेतों के साथ जागने वालों को तो जानता ही है साथ ही उनको भी जो-सड़ते हुए अनाज पर/गलत बयानी करते जा रहे हैं। और किसानों की आत्महत्या के लिए जिम्मेदार हैं। कवि संकेत करता है कि भूखे-प्यासे खड़े खेतों की भूख-प्यास को कोई आयोग दूर नहीं करेगा बल्कि उसे दूर करने के लिए उन्हीं लोगों को आगे आना होगा जो खेतों के साथ-साथ जाग रहे हैं। यहाँ केशव पूरी तरह राजनीतिक हो जाते हैं। इससे उनकी राजनीतिक चेतना का पता चलता है। वह कोई भावुकता  भरा समाधान नहीं सुझाते। वह अच्छी तरह जानते हैं कि बिन लड़े कुछ नहीं मिलता है। वह जानते हैं जीवन दुखों की एक अनंत यात्रा है।लड़ना ही इनसे बाहर निकलने का एकमात्र उपाय है। गाकर दुःख न कटे और न कटेंगे इसलिए वह अपनी एक कविता में सोचने के लिए कहते हैं-जब कभी ठहर जाय मन/कुछ थिरा जाय दुःख/तो सोचना सुगिरा काकी तुम/जरूर सोचना/उस कहावत के बारे में/जिसे कहती आयी हो आज तक/कि गाए गाए कट जाता है दुःख।(सुगिरा काकी) दुःख तो लड़कर ही कटेगा। कवि इस आवश्यकता की ओर हमारा ध्यान खींचता है। सोचने को प्रेरित करता है।तमाम अभावों के बावजूद जीने की ललक को भी कवि दुःख के खिलाफ लड़ने की एक शुरुआत के रूप में देखता है। छोटे-छोटे विरोध में भी बड़ी संभावना देखना कवि केशव की विशेषता है।छोटी-छोटी उड़ानांे से एक लंबी उड़ान पर उनका विश्वास है। केशव किसी का दुःख देखकर फफक उठते हैं। सुनसान रस्ते उन्हें हर पल बुलाते से लगते हैं। अपने ठिकानों में लौटकर नई तैयारियों और नई मंजिलों के बारे में सोचते हैं। अन्न की तरह भूख तक पहुँचने की इच्छा रखते हैं अर्थात सचमुच उस आदमी तक पहुँचने की जिसको उनकी जरूरत है।


    ग्राम्य लोक के नजदीक होने का  मतलब यह कतई नहीं कि वहाँ फैली कुप्रवृत्तियों का वह समर्थन करते हों। उनका तो स्पष्ट मानना है कि एक सच्चा लोकधर्मी कवि लोक में फैली तमाम गलत बातों का पहला विरोधी होता है। वह लोक में मौजूद बदमाशी को बताते हैं। वह यह रेखांकित करने से भी नहीं चूकते कि आपसी लड़ाई-झगड़ा ,कोर्ट-कचहरी ,मुकदमा भी गाँव से पलायन का एक बड़ा कारण है-कई-कई बार बोला वह/एक रोटी खाकर भी न छोड़ता देस/रोटी ही नहीं यह वजहें भी थी(कल रात)। लेकिन इस सब के बावजूद अपने देस में बहुत कुछ ऐसा होता है जो उसकी याद आते ही आँखं  नम कर देता है। अवध की रात कविता में भी वह गाँव के अंधेरे पक्ष को उजागर करते हैं-गाँव के गाँव चलती है/हत्यारों की हाँक/भेड़ों की तरह शाम से ही/घरों में  कैद हो जाते हैं लोग। 

केशव तिवारी गाँव से शहर गए मध्यवर्गीय जीवन में आने वाले बदलावों को भी बारीकी से चित्रित करते हैं-सबसे पहले बदली हमारी बोली/तब हमें समझ में  आया यहाँ/उन चीजों के साथ नहीं रह सकते/जो हमारे रक्त और संसार में शामिल हैं/यह एक विस्थापन का दौर था/सब धीरे-धीरे विस्थापित हा रहा था/एक नए-पुराने के अजीब से/मेल हो चुके थे हम। उनकी मरचिरैया कविता गाँव से शहर विस्थापित होने के दौरान पाने और गँवाने का हिसाब रखती है- ,सालों साल बाद इतना कुछ सहकर/हमने जो पाया था/उसके बदले में जो गँवाया था। लेकिन एक उलझन कवि के  मन में भी है कि इसे नई पीढ़ी को बताया जाय कि नहीं। वह इस तिलिस्म को महसूस करता है कि-कैसे बाजार के दलदल में फँसा आदमी/तब तक नकारता है /जब तक उसमें डूब नहीं जाता है/हमने चाहा/पुरखे कभी-कभी किस्से/कहानियों में सुपरमैन से आएं/उनका संघर्ष उनकी साँसत उनका जीवन/जबान पर भी न आए। इस कविता में गाँव व शहर के बीच झूलते मध्यवर्ग की सांसत को बहुत सुंदर से व्यक्त किया गया है।

  आधुनिकतावाद के प्रभाव में  अधिकांश लोग अपनी देसज पहचान को छुपाना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि देसज दिखने से लोग उन्हें असभ्य व पिछड़ा मानेंगे। गवाँर कहकर मजाक उड़ाएंगे। लेकिन केशव अपनी पहचान के साथ जीना चाहते हैं।लापहचान नहीं होना चाहते हैं।जिस गाँव में खड़े होकर उन्होंने पहली बार दुनिया को देखना प्रारम्भ किया अब उसे सारी दुनिया को दिखाना चाहते हैं। जब भी परदेस गए अपने नदी तालाब पेड़ बोली बानी के साथ। अपनी देस की मामूली चीजें भी उनके भीतर तक धँसी रहती है । ये दुनिया में  जहाँ भी पहुँचे हैं/पहुँचे हैं अपनी अवधी पहचान के साथ यह बात केशव ने भले अवधी आमों के लिए कही हो पर केशव तिवारी पर भी बहुत अधिक लागू होती है। अवध के आमों की तरह उनकी कविताओं की महक बता देती है कि वह किस जमीन से आए हैं। वह अपनी पहचान के प्रति कितने सतर्क रहते हैं इन पंक्तियों से समझा जा सकता है-मेरा गाँव मेरी वल्दियत/जिसके बिना/लापहचान हो जाऊँगा मैं.....मित्र कहते हैं पाँच सितारा/होटल में भी /झलक जाता है मेरा देसीपन/मुझे लगता है झलकना नहीं/साफ दिखना चाहिए/जब मैं धनहे खेत से आ रहा हूँ/तो मुझे दूर से ही गमकना चाहिए।कितना अद्भुत भाव है। एक ऐसे समय में जब लोग श्रम की गंध को महेंगे-महेंगे इत्रों से छुपा रहे हैं, वह दूर से ही गमकना चाहते हैं और इस  पहचान को बदलना भी नहीं चाहते हैं। साफ-साफ कहते हैं- बदलना ही पड़ा तो/हम मौसमों की तरह/तो बिलकुल ही/नहीं बदलेंगे/न किसी इश्तहार की तरह/जिंदा चेहरों की तरह/अपनी-अपनी छाप लिए/बदलेंगे हम।(छाप)  कुछ लोगों के लिए वह कभी नहीं बदले लेकिन इसको उनकी न बदलने की जिद की तरह नहीं लिया जा सकता है या यह नहीं माना जा सकता है कि वह बदलाव विरोधी हैं बल्कि जैसा कि वह स्वयं कहते हैं-इस केंचुल बदलते समय के बीच/कुछ चीजों को उनके/मूल रूप में ही देखना चाहता हूँ। अब सवाल उठता है मूल रूप में ही क्यों देखना चाहते हैं ? क्या यह उनका नास्ल्टेजिया तो नहीं  नहीं ऐसा नहीं है । दरअसल उनका मानना है कि फैशन के चलते कुछ चीजों के बदले रूपों की अपेक्षा उनके मूल रूप बेहतर हैं तो फिर बदलाव क्यों फिर केंचुल बदलना वास्तव में बदलना नहीं है। वह पूछते भी हैं-क्या सुबह की नारंग धूप का रंग/आप पीला देखना पंसद करेंगे।


  इन कविताओं में कवि का गहरा आत्मसंघर्ष भी प्रस्फुटित हुआ है। कवि बाहर से मुटभेड़ करने के साथ-साथ बार-बार खुद से भी मुटभेड़ करता हुआ दिखता है। एक कवि के लिए यह जरूरी भी है। वह खुद से प्रश्न करते हैं- यह खाली जेब किसान/जिस आशा और ललक से/देख रहा है/आम के इन टिकोरों को/मैं उसे क्यों नहीं देख पाता। खुद ही उसका उत्तर देते हुए बताते हैं कि ऐसा इसलिए होता है कि आदमी का सौंदर्यबोध उसका आर्थिक स्तर तय करता है। सौंदर्यबोध पूरी तरह वस्तुगत तथा निरपेक्ष नहीं होता है।केशव के कवि मन में कोई गोरी ,तीखे-नैन नक्श व फूलों के रंग वाली  छायावादी नायिका नहीं बल्कि सांवली सूरत वाली बैलाडीला के लोहे या डोंगरी के ताँबे से रंग वाली लड़की माँदल की तरह गूँजती है। देखने वाली बात है कि गूँज भी किसी अभिजात्य वाद्य की नहीं बल्कि लोक वाद्य की। कवि का विश्वास है-ए साँवली सूरत वाली लड़की/तेरे आँखों की कोर में सिमटी/नदी जिस दिन/तेरे होठों से फूटेगी/धरती थमकर सुनेगी उसका संगीत। इस तरह वह पाठक के भीतर लोकधर्मी सौंदर्यबोध पैदा करते हैं जहाँ काला रंग ,खुरदुरापन ,सांवलापन,अनगढ़पन, जैसे अभिजात्य सौंदर्यशास्त्र से निष्कासित सौंदर्य मूल्य सम्मान पाते हैं।
         प्रेम कवियों का सबसे प्रिय विषय रहा है। इतनी अधिक प्रेम कविताएं लिखी जा चुकी हैं कि    उसमें मौलिक रहना आसान नहीं है।हर रूपक-उपमा प्रतीक व बिंब पुराना व बासी ही लगता है।लेकिन केशव यहाँ भी नए बिंब व रूपक खोज लाते हैं। देखिए यह छोटी सी कविता- तुम्हारा रूप जैसे पूस की सुबह/केन पर चमकती हुई धूप/तुम्हारा नाम जैसे होंठ पर/रच-रच जाए देसी महोबिया पान/इस आँधी में हमारा प्यार/जैसे लफ़-लफ़ जाए/आरर जामुन की डार।(तुम्हारा रूप) कितनी भी लपक जाए जामुन की डाल पर टूटती नहीं है।तमाम मुसीबतों के बीच प्यार में उतार -चढ़ाव आते रहते है  लेकिन सच्चा प्यार वही होता है जो इस सब के बावजूद टूटता नहीं है।पे्रयसी के रूप और नाम को लेकर जो रूपक प्रयुक्त किए गए हैं वे एकदम मौलिक और जीवंत हैं। प्रेम कहीं भी हो केशव की कवि नजरों से वह छुपता नहीं है। एकजोगी की अनासक्ति के पीछे छुपी आसक्ति को भी वे ताड़ लेते हैं और प्रेम में डूबी सांसों को पढ़ने में देर नहीं लगाते हैं। वह पूछते हैं-एकतारा का तार तो/सुरों से बँधा है/तुम्हारा मन कहाँ बँधा है जोगी। और फिर खुद ही कहते हैं-प्रेम यही करता है जोगी/डुबाता है उबारता है/भरमता है भरमाता है। प्रेम पर कविता लिखने की अपेक्षा प्रेम करने में विश्वास करने वाले कवि केशव की प्रेम के बारे में राय है कि.......प्रेम एक अनंत यात्रा है जिसमें/अक्सर लोग थककर/कहीं कोने में रखकर /भूल जाते हैं बांसुरी.......प्रेम इन पठारी मैदानों में/कमर में मउहर खोंसे/अलमस्त फिरता एक गड़रिया है/दुनिया के तमाम सुर हैं/उसकी रेवड़े/यह डेढ़ फुट का इटकुटार /जब फूलेगा/उसमें फूलेंगे हमारे ही प्रेम के फूल।(आती जाती ऋतुओं में) बेरोजगारी में इश्क का भी अपना एक अलग अनुभव होता है -कुछ खुली अधखुली थी दुनिया/इतना भी न रहता कि कुछ दे पाते उसे मनपसंद/एक समय के बाद तो कुछ देने का वादा/करने पर भी आने लगी शर्म। लेकिन इसके बावजूद प्रेम की के एक उदात्त अनुभूति को जी रहे थेखाली जेब उससे मिलते और/भरे मन वापस लौट आते। .........एक समय के बाद प्रेम में यह स्थिति भी आती है-.कटे धान की उदासी रह गया है/हमारा प्रेम/जिसमें स्मृतियों के फूल काँटों की तरह कसकते हैं/तुम्हारे दरवाजे से गुजरता मैं/तुम्हारे होने के अहसास को अनखता हूँ।(कटे धान की उदासी)
  केशव तिवारी की कविताई की खासियत है कि वह कविता के लिए विषय नहीं ढूँढते हैं बल्कि किसी सामान्य से अनुभव को भी अपनी लोक संवेदना से कविता में बदल देते हैं। इसके चलते विवरण कब कविता में बदल जाते हैं पता ही नहीं चलता है। दिल्ली में एक दिल्ली यह भी’  कविता को ही देखिए -इसमें कवि अपनी दिल्ली यात्रा का जिक्र करते हुए वरिष्ठ कवि विष्णुचंद्र शर्मा की आत्मीयता के बारे में बताते हुए इस बात को रेखांकित कर देते हैं कि राजधानी अर्थात सत्ता के केंद्र  में रहते हुए भी एक सच्चा कवि कैसे अपनी संवेदनशीलता को बचाए हुए है।उस दिल्ली में  जहाँ लोगों के पास न मिलने का समय है और न ही इच्छा वहीं एक बूढ़ा कवि अपनी शरीरिक कमजोरी तथा अभी-अभी पत्नी के बिछुड़ने के दुःख में डूबा होने के बावजूद गर्मजोशी से आगंतुक का स्वागत करता है। वास्तव में –वह राजधानी में एक और ही दिल्ली को जी रहा था। यह एक पंक्ति इतनी काव्यात्मक है कि पूरे विवरण को कविता में बदल देती है।यह न केवल राजधानी के चरित्र को बता देती है बल्कि एक संवेदनशील कवि के माध्यम से असली दिल्ली कैसी होनी चाहिए ,यह भी बताती है।
    उनकी कविताओं में स्त्रियों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है। मोमिना एक ऐसी महिला है जो विधवा है। परदे से बाहर निकल गाँव-गाँव जाकर खटिया बिनने का काम करती है।यह काम करते हुए उसने परम्परा को भी तोेड़ा है। खटिया बिनते हुए उसकी अंगुलियां मछली-सी चपल चलती हैं। उसके बारे में कवि की राय है-खटिया बीनती मोमिना/मेरे गाँव की/सबसे जागती कविता है।....गाँव-गाँव घूमती/जिंदगी के चिकारे का/तना तार है मोमिना। इन पंक्तियों में एक तरह से कवि मोमिना के साहस और श्रम की प्रशंसा करता है। इस कविता में श्रम भी है और प्रतिरोध भी उस व्यवस्था का जो स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक मानती है। उसे बांधे-झुकाए रखना चाहती है। यह बड़ी बात है कि मोमिना परदे से बाहर भी आती है और तने भी रहती है। इस कविता में एक विधवा स्त्री का पूरा संघर्ष भी उजागर होता है। केशव के स्त्री पात्रों में कोई तनकर खड़ी हो रही है तो कोई अपनी देह पर मालिकाना हक माँग रही है। केशव जानते हैं कि लज्जा ,शील ,भय ,भावुकता आदि वे हथियार हैं जिससे औरत की आजादी का शिकार किया जाता रहा है। उनके स्त्री पात्र इन हथियारों को धता बताती हैं और मुनादी करती हैं-जीने का इरादा लिए/मरने को तैयार/तुम्हारे रचे व्यूह के बीच मुनादी करती/तुम्हारे गौरव पर पैर रख/निकल जाना चाहती है एक औरत। (शिवकली के लिए)  वह फटे कपड़ों में खुद को समेटे खेत काटती औरतों के भूख के खिलाफ संघर्ष को देखते हैं।वह जानते हैं भूख और भूख के खिलाफ संघर्ष का इतिहास बहुत पुराना है। दुःखद है कि लाख कोशिशों के बाद भी स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं आया-कब से डटी हैं ये भूख के खिलाफ/इनके हिस्से है इस धरती की भूख/पर इनके समय का धँसा पहिया/लाख कोशिशों के बाद भी/जौ भर नहीं जुमका। कैसी विडंबना है कि-इनका वक्त दुनिया की घड़ियों/के बाहर है। ऊपर एक कविता में व्यूह का और यहाँ धँसा पहिया का प्रयोग पाठक को बहुत दूर इतिहास में पहुँचा देता है। स्मृतियों में अभिमन्यु कौंध आता है। वास्तव में पुरुषप्रधान समाज द्वारा रचे व्यूह में इन स्त्रियों के संघर्ष-रथ का पहिया अभी फँसा हुआ सा ही लगता है। ये अभी उस व्यूह को तोड़ने में समर्थ नहीं हो पायी हैं। ऐसे में एक जनपक्षधर कवि का मन समय के उस धँसे पहिए में फँसे रहना स्वाभाविक है। केशव तिवारी  स्त्री के लिए अपने जीवन को अपनी मर्जी से जीने की आजादी के समर्थक हैं।वह औरत के लिए अपनी पसंद का पहनने ,पढ़ने  ,घूमने की-,बस इतनी सी आजादी/जो किसी की कृपा पर न हो।चाहते हैं। इस कविता में  ,बस इतनी सी आजादी पदबंध के बहुत गहरे निहितार्थ हैं।कवि बिना कहे यह जता देता है कि औरतों को इतनी सी आजादी भी प्राप्त नहीं है बड़ी-बड़ी आजादी की क्या बात करें। कवि को यह पता है कि जिस दिन कृपा जताए बिना औरत को यह आजादी मिल जाएगी उस दिन अन्य तो वह खुद प्राप्त कर लेगी। दरअसल औरत को यह आजादी देना उसके स्वतंत्र अस्तित्व और अस्मिता को स्वीकार कर लेना है जो सबसे बड़ी जरूरत है।     

   प्रस्तुत संग्रह की  कविताएं एक स्लाइड शो का सा आनंद देती हैं। जिसमें कहीं आज भौंड़े शोर में दब गए मुराद अली के मशक बीन के सुर-गदराये आमों में/धीरे-धीरे/मिठास की तरह उतर रहे होते हैं।कहीं मोमिना की खटिया बिनती मछली-सी चलती चपल उँगलियाँ दिखती हैं। कहीं गगरी गढ़ते मइकू का पानीदार नाम चमकता है। कहीं अपनी अबली-तलबी सुनाते धनई काका मिलते हैं। कहीं सुगिरा काकी दुःख को काटने के लोकगीत गाती है। कहीं सब्जी उगाते और बेचते बिसेसर। कहीं गाँव से दूर शहर में रह रहे लोगों की रातों में रोती हुई मरचिरैया।कहीं दीवाली पर खेत जगाते लोग हैं तो कहीं धान का खेत हैं गाते कीचड़ में नहाए स्त्री-पुरुष-बच्चे।कहीं होटल में छूट गई घड़ी को देने भागकर आता बिहारी बैरा संतोष है जिसका चेहरा एक अजीब गर्व से चमकता है।कहीं गिट्टी तोड़ते पहाड़ जैसे ही मजबूत और पहाड़ी रंग वाले पहाड़ी लोग।कहीं गेहूँ की कटाई के बीच आम के पेड़ों से पीठ टिकाए आम की चटनी के साथ रोटी खाते बिलासपुरिया मजूर।कहीं घुटने-घुटने पानी में खड़े हच्छू-हच्छू करते कपड़े धोते धोबी। एक विविधता-भरा संसार दिखता है इसमें। पूरा भूदृश्य और स्थिति हमारे सामने चित्रित हो उठती है। केशव एक दृश्य बिंब को सामने प्रस्तुत कर अपनी कविता की शुरुआत करते हैं। इसलिए उनकी कविताएं देखने और पढ़ने दोंनों का आनंद देती हैं। वह पाठक को वहीं खड़ा कर देते हैं जहाँ कविता घटित हो रही है। इन संग्रह की कविताओं में भाषा की व्यंजकता का विस्तार हुआ है तथा  बिंबों और प्रतीकों का नया संसार पाठक के सामने खुलता है। लोकबोली के शब्द भाव की गहराई को और अधिक बढ़ाते हैं ।अवधी की महक और तेज हुई है। अच्छी बात है कि उनकी कविताओं में बनावटीपन नहीं है इलिसए कहीं उदासी तो कहीं थकान भी दिख जाती है। मन की कशमकश भी व्यक्त होती है। उनका कवि हर वक्त खराद पर भी नहीं रहना चाहते हैं । हर वक्त की बेचैनी से बचना भी चाहता है। चीजों को वैसे ही मान लेना चाहता है जैसा कि लोग कहते हैं लेकिन यह भाव स्थाई नहीं है। भीतर बैठा कवि गश्ती सीटी बजाने लगता है। कवि तय नहीं कर पाता है-अतीत का  कोठार भरा है/क्या चुनूँ उससे/और वर्तमान के कोठार में भी/बेमतलब का बहुत है। कवि वहाँ पहुँचना चाहता है-जहाँ आदमी का बनाया सब कुछ/मिले हर आदमी को। वह बैठे ठाले के कवि नहीं-हम चाहते हैं ये नदी, पेड़,पहाड़ ,लोग/सब निकल पड़े हमारे साथ। उनके यहाँ हमें ईमानदार स्वीकारोक्ति भी मिलती है। वह अपने चेहरे की कालिख और अपने कंधों के अपराध के बोझों को छुपाते नहीं है।यह कहने में भी नहीं चूकते कि-कविता में तमाम झूठ/पूरे होशो हवाश में बोलता रहा हूँ/तुम्हें दिखाए और देखे/सपनों का हत्यारा मै खुद/लो मेरी गर्दन हाजिर है/तुम ले आओ दारो रसन अपना। कितने कवि हैं अभी हिंदी साहित्य में जो इस ईमानदारी के साथ खुद को प्रस्तुत करते हैं।यही खासियत केशव के कवि को लंबे समय तक जिंदा रखेगी।

तो काहे का मैं(कविता संग्रह)
केशव तिवारी
प्रकाशक-साहित्य भंडार ५०  चाह चंद इलाहाबाद २११०००३
मूल्यः पचास रुपए।





महेश चन्द्र पुनेठा
राजकीय इंटर कालेज देवलथल
जिला पिथौरागढ़
२६२५०१ 

रविवार, 21 दिसंबर 2014

अवधी कवितायेँ -मृदुला शुक्ल



कविता  लिखना और कविता को आम-जन जीवन का दस्तावेज बना देना अलग-अलग बातें हैं |जिस कविता से कवि की पहचान नहीं होती तो ज़ाहिर है वह कविता जीवन से सीधे संवाद भी नहीं कर सकती कवि की पहचान अपनी जनपदीय रागात्मकता से बनती है। त्रिलोचन शास्त्री युवा कवियों से कहा करते थे कि यदि तुम्हें कवि के रूप में अपनी पहचान निर्मित करानी है तो तुम जहां के रहने वाले हो वहां का जन-जीवन निकट से देखो। अनपढ़ लोगों को बात करते हुए सुनो। उनसे भाषा सीखो। और अपनी कविता में उनका जीवन अपनी भाषा में इस प्रकार रचो कि उनका परिवेश उसमें अभिव्यक्त हो। तुम्हारी काव्य-भाषा उनकी बोली-बानी के शब्दों से सुगन्धित हो।  हो। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी लिखा है कि देश प्रम की शुरूआत स्थानीय प्रेम से होती है। जिसे अपनी जन्म-भूमि से कोई लगाव नहीं है उसे अपने देश से कैसे लगाव होगा। कविवर रसखान ब्रजभूमि ब्रजपति और ब्रजभाषा पर न्योछावर थे। त्रिलोचन अवध के रहने वाले थे। अतएव उनके काव्य में अवध के जनपद का जीवन अभिव्यक्त हुआ है।केदार बाँदा के रहने वाले थे अत: उनकी कविताओं में बाँदा और बाँदा की प्रकृति का विहंगम चित्र उपस्थित है |समकालीन कविता में भी लोकजीवन से जुड़ा कोई भी कवि अपनी जमीन को नहीं भूल पाया यही जमीन कविता की उर्जा है , कविता का कारखाना है ,विजेंद्र , निलय, केशव, की कवितायें इस बात का पुख्ता प्रमाण हैं |लोक-आसक्ति की इस परम्परा का निर्वहन करने वाली कवियित्री मृदुला शुक्ल में  “लोक” का अलहदा अंदाज़ मिलता है | अपने कविता संग्रह “उम्मीदों के पाँव भारी हैं” से चर्चा में आयीं | इला त्रिवेणी सम्मान से सम्मानित कवियित्री मृदुला शुक्ल अवध की रहने वालीं हैं उन्हें अवधी जमीन और जमीन से जुड़े जन जीवन का बखूबी ज्ञान है उनकी रचनात्मकता का दूसरा पक्ष ये है की वो अवधि में भी कवितायें लिखतीं हैं किसी भी लोकभाषा में कवितायेँ लिखने के लिए उपभुक्त जीवन की सच्चाई के साथ-साथ ध्वन्यात्मक अर्थों का शैल्पिक गुम्फन अनिवार्य हो जाता है |यह किसी कला से कम नहीं है | यही कला “क्रिया-रूपों” से संगति सुनिश्चित करती है | मृदुला शुक्ल की अवधी कवितायें इस श्रमसाध्य कला और जमीनी हकीकत का विलक्षण आमेलन है आइये आज “लोकविमर्श” में हम मृदुला शुक्ल की अवधी में लिखी गयीं कुछ कवितायें पढ़ते है


मृदुला शुक्ल की अवधी में कवितायें

1

कलुआ क माई
भिन्सहरें उठी के
हमका जड्वाइदेत

न कथरी बा
न गुदरी बा
पेड़े के तरे
हम परा अही
न झोपडी बा न महल अहै
गोरुअन से बदतर
जिअत अही

गोरुअन की मड़ही
में टटरी अब बंधे लाग
जाड़ा बाढ़ी
मुल हमरे तो मुड़े
भीजी ई पूस माघ
जाड़ा गाढ़ी

ई बना रहे
झबरा कुकुरा
जे रतिया की दंदाइ देत

कलुआ क माई
भिन्सहरें उठ के
हमका जड्वाइदेत

उनके खातिर
तो सिउटर बा
फिर साल ओढ़
कनवऊ बांधे
दिन रात बरै
कउड़ा तापें
घुघरी गंजी और रस चांपे
दिन रात देह
थर थर कापें
न दउरिऊ से हमका ढाके

अब हमें समझ में आवा
की झबरा बिन
जाड़ काटे न कटी
झबरा से
हम रिसिआन रहे
जब हम पे
टांग उठाई देत

कलुआ क माई
भिन्सहरें उठ के
हमका जड्वाइदेत।



2


कमल नाल से टूटि गयो /पंजा भयो लाचार
आपु आपु के राज में /बढ़नी के ललकार

लईके बढ़नी हाथ /में कहैं केजरीवाल
अब हमही उत्तर अही/हमही अही सवाल

भोर भये सब छुपि गए/ लोखरी और सियार
बिनु मालिक के गाँव माँ/ कुक्कुर हगें दुआर

फटी रजाई माघ माँ जस कोढ़ी के खाज
भेस बदल पुनि पुनि फिरे /नेतन केर समाज

नयी पार्टी राज नवा /सबका देहु बताय
चिकवा लेई बोकरी चला/ खैर मनावे माय


3

रहट रहा खेत में
औ कोल्हू सिवान में
रात भर रखावे खेत बैठ के मचान में
पेट में न अन्न रहा
देहि पे न नरखा
प्रेम औ पिरीती रही
रीति रही नीति रही
तब जीयु जहां में
का इहै उ गाँव या का इ है उ देश या

गाँव गाँव बिजुरी के अन्जोरे
चौंधियात बा
हर नाय हेंगा नाय
फर नाय बर्द नाय
थ्रेसर औ ट्रेक्टर बा खेत खलिहान में
मकुनिऊ का कोंचा न जुहात रहा जेकरे
अब तीन जुनी दाल रोटी साग और भात बा

यहिका अंजोर कही
याकि अंधियार कही
केहू किहु से बोलई न
केहू दुआरे डोलई न
सांझेंन से कुली जवांर
देखत बिग बॉस बा
का इहै उ गाँव या का इहै उ देस या
                      मृदुला शुक्ल 





मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

साऊथ ब्लाक में गाँधी पर पाठक की टिप्पणी

राजकुमार राकेश ने अपनी “कला” का सौंदर्य “विरोध और संघर्ष” में खोजा है |यह हिंदी की एक बड़ी  उपलब्धि है |वास्तव में सुन्दर वही होता है जो सच होता है ,संघर्ष ही हमारे समाज का सच है अत: संघर्ष ही सुन्दर है |यह संघर्ष ही प्रकति के विकास का चेतन कारक है|जीवन यात्रा की मुख्य गति है ,जो लेखक इस संघर्ष को दरकिनार करता है वह सफल कलाकार नहीं हो सकता है |एक सफल कलाकार वही है जो तमाम संघर्षों के बीच “संतुलन” की खोज करता है |राजकुमार राकेश का पूरा साहित्य संघर्ष और संतुलन के खोज की कलात्मक उपलब्धि है |परस्पर विरोधी तत्वों के संघर्ष  का तार्किक समन्वय है यदि जीवन की विडम्बनाओं में मनुष्यता की गहन पड़ताल करना है तो राजकुमार राकेश से बेहतर कोई दूसरा लेखक नहीं है | (इसी समीक्षा से) प्रदुम्न कुमार सिंह बाँदा जनवादी लेखक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता हैं उन्होंने राजकुमार राकेश जी का कहानी संग्रह पढने बाद हर एक कहानी पर छोटी-छोटी टिप्पणी लिखी मैं उन टिप्पणियों को आज लोकविमर्श में प्रकाशित कर रहा हूँ आइये आप भी पढ़िए







          एक समीक्षा साऊथ ब्लाक में गाँधी 
                                                                                 प्रद्युम्न सिंह
 साऊथ ब्लाक में गाँधी सत्रह कहानियों का अद्भुत संगम है, जो एक दूसरे से इस प्रकार से गुथी गयी  है, जैसे माला में पिरोये गए मोती हो जिनमें से यदि एक भी मनका टूट जाय तो पूरी माला टूटकर बिखर जाएगी |कहानी संग्रह में सत्रह कहानियों का अद्भुत संगम है |कहानी संग्रह का प्रारंभ दिल्ली दरवाजा,मृतकल्पना का शोकगीत से आगे साउथ ब्लाक में गाँधी और याकि पञ्च हाथों वाली औरत से होता हुआ अदृश्य अवतार वा भटकती आत्माएं ई फार्मिंग के दिनों में प्यार और तथास्तु जैसी कहानियो में अपनें उत्स की ओर अग्रसर होती है | इसी के साथ समकालीन जीवन के इतिहास बोध अँधेरे में सचेत कराती रात्रि के पहरेदार की तरह आहट देते चलती है |
            लेखक राजकुमार राकेश की कहानियों में मध्यम वर्ग की पीड़ा जो प्रत्येक अवस्था में अपने को संघर्ष के निमित्त तैयार करती नज़र आती है |जैसा की उनकी प्रथम कहानी दिल्ली दरवाजा का अमीनुद्दीन अंसारी अपनी पूरी पीढ़ी से संघर्ष करता दिखाई देता है |अपने परिवार के द्वारा दिए गए परिवेश के सारे बन्धनों को नेस्तनाबूत कर अपना अलग मार्ग चुनता है जो कष्ट साध्य है किन्तु रास्ते से कभी भी विचलित होता दिखाई नहीं देता | अक्सर लोग रिश्तों के मायाजल में उलझकर रह जाते हैं किन्तु अमीनुद्दीन इससे अछूता दिखाई देता है |इस कहानी को लेखक कहानी की तरह न प्रस्तुत का नाटक की तरह पेश करते नजर आता है किन्तु कहीं भी कहानी अपनी मौलिकता नहीं खोती |प्रत्येक दृश्य एक दूसरे के विकास में सहायक की तरह पेश होते हैं जो कहानी की त्वरिता  एवं मौलिकता को बरकार रखते हैं |कहानी लम्बी होने बाद भी अपनी लयबद्धता को संजोये हुए दिखती है |कहानी के नायक द्वारा पुत्र-पुत्रवधू की अनैतिक अपेक्षाओं को बिना किसी लाग लगाव के नजरअंदाज कर देना आज के समाज में फैले भाई भतीजावाद,वंशवाद, जातिवाद ,धर्मवाद की घिनौनी राजनीति करने वालो के मुंह पर करारा तमाचा है | जो इन बोझिल रिस्तों के बोझ में दबकर अपना जमीर बेंचने को हर वक्त तैयार दीखते हैं |अमीनुद्दीन पूंजीवाद के फौलादी साम्राज्य से टकराने की चाहत लिए हुए पूंजीवाद का समर्थन देने वाले हिन्दू जैसे पत्र के सम्पादकीय लेखक के दायित्व का निर्वहन भी करता है, लेकिन कभी भी अपने वसूलों से समझौता करता नहीं दिखता |कठिन से कठिन समय में भी वह अपने दायित्त्व से मुख मोड़ता नज़र नहीं आता |यद्यपि यह कार्य विपरीत दिशा में जाती हुई दो नौकाओं में पैर रखने जैसा ही था |किन्तु कामरेड अंसारी मुस्किल हालातों का सामना करना बखूबी जनता था |
यद्यपि इतिहास का छात्र होते हुए भी उसे व्यवहारिक जगत की जानकारी न के बराबर थी जो उसके परिवार के द्वारा उसे उपहार स्वरुप मिली थी |क्योकि उसके परिवार की निगाह में यह कार्य उसके लिए था ही नहीं |जब उसका सामना इन वस्तुओ हुआ तब वे उसके लिए बिलकुल नई प्रतीत हुई |जिन वस्तुओ से उसका अन्तराल था सिर्फ आस्थाओ के कारण गौरान्वित महसूस करता था अब वह हकीकत में बदल चुकी थी |राकेश जी ने हिंदी भाषा की उपेक्षा को भी बखूबी उकेरने की कोशिश की है |उनका नायक अंग्रेजियत की दास्तान को जड़ से उखाड फेकने को उतावला दिखता है |यद्यपि उसको घुट्टी के रूप में बचपन से अंग्रेजियत ही घूंट रूप में पिलाई गई थी | राजकुमार राकेश ने इस विरोध के माध्यम से कान्वेंट स्चूलों में हो रही ज्यादतियों को दिखने की कोशिश की है कि  कैसे ये तथा कथित शिक्षा की ठेकेदारी करने वाले ठेकेदार इन विद्यालयों के अन्दर राष्ट्रभाषा का अपमान करने का घृणित कार्य करते हैं |लेखक अपने कहानी कौशल को और अधिक पुष्ट करने के लिए बीच बीच मुहावरों का प्रयोग भी करता नजर आता है |
जैसे वह कामरेड होने पर कंटीले रास्तों पर चल निकला था “
जिसका तात्पर्य प्रत्येक वस्तु निजी है एवं कुछ भी निजी नहीं है |मजदूर आन्दोलन से जुड़ाव अमीनुद्दीन अंशारी के जीवन का टर्निंग प्वाईंट है जो उसे जुझारू बना उसे हर परिस्थिति से निपाटने सक्षम बनाता है |जहाँ से लोगो के जीने की प्रत्याशा, अस्मिता, समानता की शुरुआत होती है अंग्रेजी में वह दूर दूर तक नजर नहीं आती है |किसी कहानी का प्रमुख तत्व उसका द्वन्द होता है जहाँ पर द्वन्द समाप्त हो जाता है कहानी भी समाप्त हो जाती है| राजकुमार राकेश जी इस बात से पूरी तरह वाकिफ है इस कारण उनकी कहानियों में उनके पात्र शुरुआत से ही द्वन्द करते दिखाई देते हैं |नायक अमीनुद्दीन इसका जीता जगत उदहारण है |कहानी के कथानक को आगे की ओर अग्रसर करने वाले अन्य पात्र भी कहानी में अवरोध न बनकर उसकी गतिशीलता को बनाये रखते है |कहानी में चहुमुखी अन्याय का विरोध दिखाया गया है |ट्रक ड्राईवर सार्दुल सिंह का अपने साथी प्रताप को डांटना इसी का हिस्सा है | सिपाही द्वारा डंडा लेकर उसके पास आना और उस पर अन्याय करते हुए रुपये ऐंठना आज के वाहनों से वसूली की वास्तविकता का परिचय है | किस प्रकार आम जनमानस को सरकारी लूटेरे लूट कर अपमानित कर अपमान का घूंट पीने को मजबूर करते हैं | उसके पास उनका विरोध करने की ताकत नहीं होती है |
पोते मुनीश को स्कूल भेजने के लिए जाने को तैयार होने पर भी बहू का झूठे दिखावे के चलते उसके तैयार होने से पहले ही टैक्सी से स्कूल भेज देना परिवार के विकृत होने का भयावह रूप है |जिसे अंसारी को भी बेवश हो सहना पड़ता है |जिसके कारण उसे संसार के संबोधनों के प्रति नफ़रत होने लगती है जो उसके ह्रदय में आत्मग्लानी का संचार करते हैं |
मृत कल्पना का शोकगीत मेंलेखक आज की सबसे विकराल समस्या बेरोजगारी को लक्ष्य कर समाज में व्याप्त अनैतिकता की ओर ध्यान खीचने का प्रयास किया है|जिसके कारण समाज का युवा वर्ग गुमराह होकर अनैतिक राह पर चल पड़ता हैं | बेरोजगारी से ग्रसित युवा वर्ग का अपना सारा सुख दुःख बेरोजगारी की भाण में जल जाता है न तो उसे अपने घर में शान्ति मिलती है न ही बाहर, और उसका पूरा समय बेरोजगारी और महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में ही समाप्त हो जाता है |अंतत: जीवन दुःखपूर्ण हो जाता है |जैसा कहानी के पात्र चिरंगी लाल भार्गव का हो जाता है |जो अंत में पुन: अपनी सांसारिक चमक धमक छोड़ पुन:अपनी दुनिया में वापस आकर ही खुश होता है जहाँ उसकी पत्नी जो दिनभर अपनी दिनचर्या करती है और सुखी रहती है
                     अदृश्य अवतार भटकती आत्माएं-रिश्तों के गिरते परिदृश्य का उत्कृष्ट नमूना है |जिसमें सगे से सगे रिश्ते भी स्वार्थपरता की भेंट चढ़ जाते है |किस कद्र अंधविश्वास, अंधभक्ति समाज के अन्दर व्याप्त है, कि कोई भी कार्य बिना किसी ज्योतिष के विचार के नहीं कर सकते इसका जीता जगाता उदहारण कहानी के पात्र डिंगा सिंह सरीन के चरित्र में बखूबी दिखता है |जिसके कारण उसका दाम्पत्य जीवन भी बर्बाद हो जाता है |साथ ही लेखक ने स्त्रियों के प्रति समाज के नजरिये का खाका खीचा है |जिसे सुलभा एवं मिस दारूवाला के चरित्र रूप में देखा जा सकता है |
           इन सभी परिदृश्यों के कारण उसका अंतर्मन अशांत हो जाता है जो उसके जीवन में एक ऐसा भूचाल लाता है कि वह घर बार छोड़ कुछ समय के लिए गायब हो जाता है किन्तु जब पुन: परिदृश्य पर प्रकट होता है तब तक उसके प्रति लोगों की धारणा बदल चुकी होती है | जो अनेक शंकाओं एवं मिथकों को जन्म देने वाली थी| वह पूरी तरह विक्षिप्त  हो चुका था, कुछ मित्रों के द्वारा थोड़ी पहल की जाती है किन्तु बारिश में उसके दुबारा गायब हो जाने पर लोगो का प्रयास न कर अपने अपने कार्यों में लग जाना उनकी स्वार्थ परक सोच एवं संवेदनहीनता को दर्शाता है, जैसा आज के समाज में लोगो में दिखाई देती है |न तो पहली बार की तरह रिश्तेदारों द्वारा वह खोजा जाता है न ही मित्रों द्वारा न ही पत्नी द्वारा ही |ठीक उसी प्रकार जैसे बेकार पड़ चुके अंगो को काटकर बहार फेंक दिया जाता है उसी प्रकार डिंगा सिंह सरीन से भी समाज ने अपने से अलग कर लिया |
 साउथ ब्लाक में गांधी कहानी आज आफिसों में अफसरशाही के रवैये को दर्शाती कहानी है| एक बास अपने मातहतों के निजी मामलातों में दखलंदाजी करन अपना अधिकार समझते है |और ऑफिस की सभी मर्यादाओं को अपनी निजी जागीर समझ कर मातहतों को प्रताड़ित करने का उपक्रम करते रहते है |न कुछ की बातों को भी लाग लपेट के साथ बहुत बढा चढ़ा कर बतंगड़ बनाने से गुरेज नहीं करते | कहानी आज के मित्रो की कहानी बयां करती नज़र आती है किस प्रकार एक मित्र पूंजी की चकाचौंध में एक मित्र को भुलाकर मात्र पूँजी के हाथों की कठपुतली बन मर्कट की तरह नाचता नज़र आता है |और उस मित्र को भुला देता मुनाफा ही मुनाफा देखता है जिसने उसकी मदद ऐनवक्त की थी |स्वार्थ में इस कदर डूब जाता है की अपनी तरजीह भी भुला बैठता है |
                    समाज के सारे सरोकारों को ताक पर रखकर कार्य करने पर आमादा रहता है |फिर चाहे वर्तमान का व्यक्ति हो या आतीत का जैसा की लेखक ने दिखने की कोशिश की है |की देश की सर्वोच्च संस्था का कार्यपालक ही क्यों न हो सभी इस मायाजाल में फंसे नज़र आते है और उपाय खोजते खोजते अपने अस्तित्व को भी भुला बैठते हैं |
             याकि पाँच हाथों वाली औरत- |समाज के सबसे उपेक्षित वर्ग के दुःख दर्द को बयां करती इस कहानी को अभिजात्य वर्ग के अत्याचारों एवं शोषण के विरुद्ध आक्रोश के रूप में देखा जाना चाहिए | समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, अनाचार का पर्दाफास करने की एक पहल है |राजकुमार राकेश जी ने सरकारी दफ्तरों में व्याप्त भ्रष्टाचार से प्रारम्भ करके समाज के निचले तबके के अपमान तक पहुँच जाते है | कहानी पढ़ते-पढ़ते पाठक के अनादर भ्रष्ट नौकरशाही जो आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी है के प्रति जनाक्रोश उत्पन्न हो जाता है |किस प्रकार आम आदमी मजाक बन मूकदर्शक मात्र रह जाता है |ठीक उसी प्रकार जैसे पिंजरे के अन्दर बंद पक्षी स्वतंत्र रहते हुए भी स्वतंत्र नहीं होता है |कहानी के माध्यम से लेखक ने रोजमर्रा की वस्तु केरोसिन की कालाबाजारी के प्रति अफसरों के निठल्लेपन एवं बेईमानी की नियति को उजागर किया है |जिस पर एक ईमानदार महिला के माध्यम से इसे समाप्त करने के प्रति की गयी एक ईमानदार कोशिश को दिखाया है | समाज की कुरीति वैधव्य जीवन जीने वाली औरतो के उत्पीँडन को भी बाखूबी दिखाया है जो समाज के तथाकथित ठेकेदारों की कठपुतली की तरह कार्य करने को मजबूर है |जो समाज में हो रहे अत्याचारों के विरुध्द न्याय दिलाने का झूठा दंभ भरता है | ऑफिस के लोगों द्वारा आधुनिकता का राग अलापने के सहारे सही को गलत और गलत को सही सिद्ध करने की मुहिम में लगे रहना आज के युग का मानों चलन हो गया है |उच्च अधिकारीयों का अपने अधीनस्थ अधिकारीयों पर रौब गांठना एवं अपने अहम की तुष्टि करना जिसके कारण कनिष्ठ का वरिष्ठ के प्रति बगावती तेवर दिखाना आम बात हो गयी है |लेखक ने बिगड़ी हुई दिनचर्या को सुधारने के लिए एक सोच उत्पन्न करने एवं भ्रष्टाचार मिटाने के प्रति एक विजन प्रस्तुत करने के साथ एक सन्देश देने का प्रयास किया है |यदि हौशलों को पंख लग जाय तो सारी दुनिया को भी नापा जा सकता है जो काम पाँच लोग नहीं कर सकते हैं उसे एक कृशकाय कोमलांगी द्वारा संपन्न कराकर जड बनती जा रही कार्यालयी संस्कृति का पटाक्षेप करते हुए कर्तव्यबोध की ओर ईशारा किया है |   
                                 पिटती हवा का रुख और मेंढा में लेखक ने समाज में फ़ैली हुयी कुरीतियों की ओर ईशारा किया है |आज जब दुनिया चन्द्रमा में पहुँच चुका है एवं मंगल पर जाने की तयारी में जुटा है ऐसे समय में हम छुआछूत बलिप्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों में फंस निरीह प्राणियों की हत्या जैसे जघन्य कार्यों को अंजाम देने को तत्पर दिखते है |आई हुई समस्त आपदाओं के लिये गरीब लोगो को ही निशाना बनाना तथा समस्या का निदान भी उन्ही गरीबों के धन में देखना जैसे हमारा धर्म बन गया है |फाँसीवादी ताकतों के द्वारा जितने भी आडम्बर हो सकते है करते हैं इसके नई नई कहानियां गढ़ी जाती हैं |जैसा सोहण सिंह एवं उसके साथियों द्वारा गढ़ी जाती हैं |किन्तु स्वारू जैसे धर्मभीरु द्वारा भी बेजुबान के प्राण रक्षा हेतु कमर कस खड़ा होना पड़ता है |
   अधर - कहानी समाज में मानवता को भी कलंकित करती जाति व्यवस्था पर तीखा तंज है |किस प्रकार एक दलित को समाज में हर जगह अपमान का घूंट पीना पड़ता है| गुरु-शिष्य जैसे पवित्र रिश्ते को भी नापाक करती लालच को बताती है |जिसकी कीमत हरिमोहन नमक दलित लड़के को शिक्षा से लेकर नौकरी तक में चुकानी पड़ती है |उच्च वर्ग अपनी विफलता एवं बच्चों के नकारापन को दोष न देकर इसका ठीकरा आरक्षण पर फोड़ता नज़र आता है |जैसा कि गुरुजी द्वारा आरक्षित वर्ग के प्रति बयानबाजी जिसमे उसके पूर्वजों का जिक्र किया जाना उनकी खीझ को और अधिक स्पष्ट करता है |गुरूजी द्वारा सुरक्षा की सीख भी अपने नकारा पुत्र के प्रति सहानुभूति प्राप्त करने का जरिया मात्र है |वे स्वार्थ में इतने अंधे हो गए जैसे धृतराष्ट्र दुर्योधन के मोह में मन से भी अँधा हो गया था |लेखक ने कहानी के माध्यम से शहरी जीवन की सच्चाई का खाका खीचने का प्रयास किया है | किस प्रकार जीविकोपार्जन में लगे व्यक्ति को मुहमाँगा धन खर्च करने पर भी नारकीय जीवन जीने को विवश  होना पड़ता है |बाहर से जातिव्यवस्था के बंधनों से मुक्त दिखने वाले शहरी जीवन की जड़ों में भी किस प्रकार जातिव्यवस्था लिपटी है |इसका उदहारण कहानी में मिल जाता है जिससे सिद्ध हो जाता है की जाति व्यवस्था का दंश व्यक्ति को हर जगह झेलना पड़ता है फिर वह चाहे जहाँ चला जाता है |
                              हवा के तंग रास्ते से बाहर - कहानी के माध्यम से लेखक ने यह बताने की कोशिश की है किस प्रकार व्यक्ति थोड़े से लाभ के लिए जितना नीचे तक गिर सकता है गिरता है |कहानी में लेखक ने फैशनपरस्ती में आकर कुत्ते का आंचलिक नाम रख उसके स्वभाव पर परदा डालने की कोशिश करता नजर आता है |जैसा आज भौतिकता में अंधे होकर ऊपर से तो भले दिखते हैं किन्तु अन्दर से वही लालच से भरा अंतरमन | जो मन लालच की पूर्ति न होने पर अपने वहशीपन की सारी हदें पर करने में भी गुरेज नहीं करता है | जैसा कहानी का पात्र दयाल शरण के कथन से स्पष्ट होता है |
        अभियोग एक अधूरी कहानी-यह एक छोटी कहानी है जिसमे उन्होने आधी आबादी के दर्द को बयां किया है | भारतीय समाज एक तरफ तो यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता: की विचारधारा का सैद्धांतिक रूप से पालन करने में विश्वास करता है तो दूसरी तरफ व्यवहारिकता में इसके विपरीत उस पर अत्याचार करने में किसी तरह का गुरेज नहीं करता है जैसा कि उक्त कहानी में दामाद बच्ची के जन्म पर झूठी खुशी जाहिर करना है |राकेशजी उक्त कहानी के माध्यम से भारतीय जनमानस में लड़के के प्रति व्याप्त आशा और लडकी के प्रति हेयता को दिखाने का प्रयास किया है |साथ ही बच्ची के जन्म पर पोंगापंथ का सहारा लेकर भविष्यबाड़ियाँ कर लोगो को लूटने वाले पुरोहितों पर तीखा तंज कसा है |की किस प्रकार पर उपदेश कुशल बहुतेरे की कहावत चरितार्थ करते जीजा को साली द्वारा दिया गया करारा जवाब उसके द्वारा नारी अस्मिता के विरुद्ध सामाजिक रीतिरिवाजों के विरुद्ध खुली बगावत है |जो प्राचीनकाल से स्त्रीधन में ही पुत्री का अधिकार है और पैतृक संपत्ति पर नहीं जैसी विचारधारा के विरुद्ध मनो शंखनाद है |
        विधाओं का हस्तक्षेप उर्फ़ विधाओं के बीच हस्तक्षेप- आज हम नित विकास के नये आयाम गढ़ रहे है फिर भी हमारे सामाजिक ताने बने में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है | आज भी समाज उंच नीच की परिधि को लांघ नहीं पाया है, गाहे वेगाहे वह इसका प्रदर्शन जरूर कर देता है |आज की मौकापरस्ती भी लेखक ने दिखाने की कोशिश की है |जो मास्टर दीनदयाल के चरित्र में स्पष्ट दिखती है | आज आधुनिकता ने इस कदर सामाजिक ताने बाने को तहस नहस किया है | जिससे सारे सामाजिक सरोकार टूटने के कगार पर पहुंच गए है |जिसका मुख्य उद्देश्य अपना हित साधन करना है चाहे इसके लिए किसी को रास्ते से हटाना पड़े हटायेगे |
         

वक्त का चेहरा- एक कहावत है वक्त सबको अपनी औकात से वाकिफ करा देता है उसे किसी का भय नहीं होता है |जैसा कि हमारे पुरुष प्रधान समाज में पुत्र को महत्ता दी जाती है पुत्री को दोयम दरजे का मन जाता है |और हमेशा पुत्री को बन्धनों में बांधने की पुरजोर कोशिशे की जाती है जबकि पुत्र पर ऐसे कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाये जाते |जिसके कारण पुत्रियों को हमेशा एक सहारे की जरूरत महसूस होती रहे उसीसे सरे दायित्वों की पूर्ति की उम्मीद लगायी जाती है जैसे उसका जन्म इसी कारण हुआ हो |यदि पुत्त्रियों को मौका मिले तो वे वह सभी कार्य आसानी से करने में सक्षम हो सकती है जो आम तौर पर पुत्रो से आशा की जाती है |यदि अवसर नहीं मिलाता तो कभी कभी स्थिति विस्फोटक रूप अख्तियार कर लेती है, जिसे संभालना मुस्किल हो जाता है | कहानी के अंत में पुत्री द्वारा परमा के रूप में आत्मविश्वास से लबरेज दिखाई पड़ना |
        ज्यों प्यारी कोई चीज पास आती है- राकेशजी हमेशा से समाज के दबे कुचले लोगों की मनोभावनाओं को उकेरने के लिए जाने जाते है |उक्त कहानी में सामाजिक तौर पर दलितों की स्थिति आत्मसम्मान का जिक्र किया गया है |किस प्रकार प्रशासन मूकदर्शक बना अतिशय उदासीन बना देखता रहता है |परिणामस्वरुप न जाने कितने लोग असमय काल कवलित होते रहते है तथा सामाजिक अन्याय को सहकर भी चुप रहने को मजबूर होते हैं |यदि इस अन्याय के प्रति यदि वे खड़े होने की कोशिश करते है तबी समाज के तथाकथित ठेकेदार उसी व्यक्ति को गुनाहगार साबित करने में कोई कोर कसार नहीं रखते |और असली मुजरिम मुखौटे के पीछे छिप जाता है और उसकी जगह जुर्म के विरुद्ध आवाज उठाने वाले व्यक्ति को खड़ा कर दिया जाता है |तथा गुनाह करने वाले लोग लोगो की आँखों में धुल झोकने में कामयाब हो जाते है | थाने में शिकायत करने के बावजूद थाना का हरकत में न आना आज के परिदृश्य की हकीकत बयां करता है |
            वियावन: एक उत्तर आधुनिक रामायण- भारतीय समाज में जाति की जड़े इतनी मजबूत है की उन्हें तोड़ पाना आसन कार्य नहीं है |मानव जितना विकास का दंभ भरता जाता है वह इन अंधकूपों में उतना ही डूबता जाता है |समाज में ऊंच नीच की खाई से ही समाज में विषमता के अंकुर फूटे जो वृक्ष बनकर हमारे समाज के लिए ही नासूर बं गए | यह नासूर बढ़कर इतना बड़ा हो गया की सारी औषधियां मिलकर भी इसे नहीं भर सकीं और यह रिसता ही रहा |इस रिसाव ने न जाने कितनी जिंदगियों को निगल लिया और अभी न जाने कितनी को और निगलेगा |पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों को दोयम दर्जे का माना जाता है और उसे मात्र भोग की वस्तु के अतिरिक्त कुछ भी न समझा जाता है |समाज का उसके प्रति किये गए अपराध को अपराध की मान्यता न दिया जाना एक प्रवृत्ति बन चुकी है | समाज के लिए अभिशाप बन चुके अस्पर्श्यता को बयां किया है |किस प्रकार से एक शूद्र को सामाजिक सरोकारों से दूर रखने की भरपूर कोशिश की जाती है कि न तो उसे रिस्तो के निभाने की तमीज होती है न ही न्याय मांगने की आजादी ही ये सरे अधिकार उच्च वर्गों तक सीमित हैं |इन अधिकारों की आड़ में उन्हें सारे अपराध करने की खुली छूट है जबकि निम्न वर्ग को केवल सुनने और सहने की नियति है |जिसे तथाकथित पोंगापंथ ने और अधिक आग में घी डालने का कार्य किया करता है |या यूं कहे कि यह वर्ग समाज में भय और कष्ट को अपनी सहमति दे समाज में एक विषाक्त वातावरण तैयार कर समाज तोड़ने का ही कार्य करता है |अपनी झूठी शान बचाए रखने के लिए वह अपने कुतर्कों का सहारा ले आम व्यक्ति का जीना दुर्भर कर देता है | अपने द्वारा किये गए कुकृत्यों एवं पाखंड से शर्मिन्दा होने के बजाय अपना दोष दूसरे पर मढ़ ठीक उसी कहावत को चरितार्थ करता है सौ-सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज करने |किन्तु वह भूल जाता है की जब एक स्त्री क्रोध में आ जाय तो उसकी रक्षा कोई भी नहीं कर सकता है वह चंडी बं सबको नष्ट करने की क्षमता रखती है |
        उस आदमी की मुझे याद है- हमारे समाज में यद्यपि प्राचीनकल से ही कर्मकंडों की प्रधानाता रही है| यही कर्म कांड हमारे आज हमारे समाज के लिए आडम्बार बन गए है| लोगों के अन्दर मनगढ़ंत बातों का डर पैदा करके उन्हें विवेकशून्यता की स्थिति में ला दिया गया है|जिसकी आड़ में लोग उनके अन्दर एक अंजना अनपहचाना खौफ भर देते है जिससे वह उनके द्वारा बतायी गयी लीक से अलग न तो कुछ सोच सकता है नहीं कुछ कर ही सकता है जिसका परिणाम भी अंतत: हमारे समाज को ही भुगतना पड़ता है |समाज का एक वर्ग हमेशा दूसरों पर अधिकार रखना चाहता है इस कार्य के लिए वह अपनों को भी नहीं छोड़ता है |आज इसकी बानगी गाहे वेगाहे देखने को मिल जाती है जब समाज में इन मान्यताओं को जोर सर से प्रचारित कर इन मान्यताओं को समाज को मान्यता की मंजूरी चंद लोगों की तुष्टी हेतु मिल जाती है और वे लोग उसका मौके बेमौके नाजायज फायदा लेने से नहीं चूकते और वे अपने मनमुताबिक वह हर कार्य करवा लेते है जिसे वह करवाना चाहते हैं | इसके लिए नए देवता पैगम्बारों का अविष्कार कर उनके नाम पर दिग्भ्रमित कर भय का वातावरण तैयार करते है किन्तु इन अंधविश्वासों से निरपेक्ष व्यक्ति प्रतिरोध की एक अमित इबारत लिख देता है और उसकी इबारत की इबादत के भंवर से यह तथा कथित लोग अपने को बचाने में असहाय हो जाते हैं |
        कुहासा- कुहासा कोई नाम नहीं है बल्कि अस्पष्टता को उकेरती स्त्रियों के प्रति पुरुष की सोच को इनगिता करती कहानी है जिसमें लेखक ने दिखाने की कोशिश की है की एक स्त्री को मात्र गुलाम बनाकर रखने की फितरत हमेशा से पुरुष की रही है |किस प्रकार  अपनी खुन्नस अंतत:स्त्रियों पर ही निकालता है |पूँजी के आगे किस प्रकार मर्कट की तरह उसके इशारों पर नाचता दिखाई पड़ता है |अपने झूठे दंभ के कारण वह उन कार्यों को करने लगता है जिन कार्यों से पूरी मानवता शर्मसार हो जाती है |उसके इस कार्य की सबसे सरल एवं सुलभ वास्तु एक स्त्री होती है जिस पर वह अपना पूर्ण नियंत्रण रखना चाहता है और किसी भी कीमत में वह उसे उसका अधिकार देना नहीं चाहता |वह उसे समाज के सामने नुमाइस बना पेश करना उसकी फितरत हो गयी है आज इसकी बानगी हर जगह देखने में मिल जाती है |इस कार्य को करने में भले ही उसे जन ही क्यों न देनी पड़े किन्तु पूँजी के निमित्त वह सारे रिश्तों की बलि देने को तैयार हो जाता है |
           अलौकिक इच्छा का छिपा फल- आज हमारे नैतिक मूल्य इतने अधिक गिर चुके है जिसकी कल्पना मात्र से हमार्री रूह कांप उठती है |हम सरे रिश्तों की परिभाषा धन से करने देने लगे है |धन के आगे सब कुछ गौड़ हो गया है |फिर चाहे गुरू जैसा पवित्र रिश्ता ही क्यों न हो | आज के राजनीतिक परिदृश्य की हकीकत को बताने का प्रयास किया गया है की किस प्रकार आज गुरू जैसा व्यक्ति भी भौतिक चमक के आगे नतमस्तक होने को विवस है |किस प्रका र से विभिन्न किस्म के पत्थर के टुकड़ों के माया जाल में फंसकर लोग अपने कर्तव्य भूल इनके चमत्कार को नमस्कार करते नज़र आते हैं |और पोंगापंथियों के ढोंग को सहर्ष स्वीकार करने को उत्सुक दीखते है जबकि ये पोंगापंथी उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने से नहीं चूकते |जैसा की कहानी के पात्र किश्नू का हाथ देक्खाने के बहाने उसकी गरीबी का उपहास उड़ाने का प्रयास उसके सहपाठी द्वारा ही किया जाता है और उसके गंदे गलीच होने का प्रमाणपात्र सबके सामने प्रस्तुत किया जाता है |जो लेखक से सहन नहीं होता और वह उठ खड़ा हो वहा से चला जाता है तथा आत्मसम्मान की याद आते ही किश्नू भी सभा छोड़कर वापस आ जाता है |
          ई फार्मिंग के दिनों में प्यार- भारतीय समाज में शादी से पहले प्यार को गुनाह की दृष्टि से देखा जाता है |आज भी यह परमपरा है इश्क और मुश्क दोनों छिपकर ही आनंद देते है | दिन प्रतिदिन अमीर गरीब के बीच की खाई घटने के बजाय बढ़ती ही जा रही है | जब पूरा विश्व एक गाँव में तब्दील हो चुका हो ऐसे समय में टेक्नोलाजी का ज्ञान न होना पिछड़ेपन को दर्शाता है |आज के युग में जब चाँद मंगल पर मनुष्य के पहुँचने की होड़ मची हो ऐसे समय में एक अदद कंप्यूटर की जानकारी न होना किसी अपमान से कम नहीं है जिसको राकेश जी ने बखूबी दिखाया है |आज आधुनिक तकनीकि का उपयोग करके उन्नत खेती के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय बाजारों की जानकारी प्राप्त करके अपने उत्पादों की सही कीमत इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त कर सकता है |
      यहाँ पर काला नामक नौकर बंता सिंह को पूरे हालातों की जानकारी देता रहता है और बंता जाट के पुत्र के प्रेम एवं हनीमून जैसे शब्दों के बारे बंता से पूंछता है जिसकी सजा भी उसकों बंता सिंह द्वारा दी जाती है किन्तु वह सच्चाई को बिना किसी हिचक के कहता है |और समाज रिश्तों की बुनियाद जो पूरी तरह से पूंजी पर टिकी हो जिसकी बानगी अचिन्तराम के गैस एजेंसी का बंतासिंह के अंगूठे के निशान ले अटार्नी पावर अपने नाम कर लेना और इसकी सूचना पाकर बलवंता का घर वापस आ जाना स्वार्थपरता की पराकाष्ठा को बताता है |
      तथास्तु- मानव जब से होश संभाला शायद तब या उसके कुछ समय के पश्चात् से वह वस्तुओं और स्थितियों के मध्य सामंजस्य बिठाने का कार्य करता आया है यदि सामंजस्य बिठाने में असफल रहा तो उसे नियति मान नकारने के बजे स्वीकार करने में अपनी भलाई मानता है चंद्रप्रकाश चौरसिया ऐसा ही पात्र है जो कठिनाई में भी सुख ढूँढने का प्रयास करता है जबकि इंद्र जैसा व्यक्ति उसे दुखी करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है |फिर चन्द्र प्रकाश उसमें भी सुख खोज सुखी रहने की कोशिश जारी रखता है |
        आज हमारे देश की स्थिति कुछ ऐसी ही हो गयी है जिसके कारण आमीर गरीब के बीच एक गहरी खाई निर्मित हो चुकी है जिसे मिटने की उच्च वर्ग सार्थक पहल करना नहीं क्योकि यही खाई उसके अस्तित्व का आधार है जब तक खाई है तब तक उसका अस्तित्व है आज आम जन प्रयोग होता रहता है चाहे वह भावनात्मक रूप से हो या आर्थिक रूप और बुजुर्वा वर्ग उसको करने के नित नये-नये हत्कंडो का प्रयोग करता रहता है सामान्य जन जितना इन निकम्मों के लिए करते रहते हैं उनका निकम्मापन उतना ही बढ़ता जाता है |शासं वर्ग न तो जनसामान्य के मरने कोई तालुक्क रखता है न ही जीने से |वह तो अपने ऐशो आराम में अपनी मक्कारी को छिपाने के निमित्त स्वांग रचता रहता है |आज आम्जन्मंस किस प्रकार दुखों के बोझ टेल दबा हुआ रहता है और शासकवर्ग उस पर जितने अत्याचार संभव हो सकते है करता रहता है जैसा की कहानी के पात्र इंद्र द्वारा चन्द्रप्रकाश की मृत पत्नी के दुःख में दुखी होने के बजाय चन्द्रप्रकाश की सवारी करने की कमाना रखता है और निर्लज्जता दिखाते हुए सवारी भी करता है |वह अपनी स्वभावगत कमजोरी को छोड़ने के लिए कतई तैयार नहीं दिखता है |आज के राजनीतिज्ञों की तरह हर जगह अपनी हेकड़ी दिखाने से बाज नहीं आता भले ही कंडक्टर जैसे बदजात से पिटने का मामला हो या अन्य मामले हों वह शर्म महसूस करने के बजाय बेशरमी की सारी हदें पर कर जाता है |और अपनी मानसिकता के अनुरूप कार्य रूप देना जिसका दंड चंद्रप्रकाश को सहना पड़ता है और स्वम वहां से भाग खड़ा होता है |और अपनी करतूत को अपने आका विष्णू के सामने दन्त निपोरते हुए निर्लज्जता के साथ बयां करत है |और अभी भी उसको प्रताड़ित होता हुआ देखना चाहता है की अब वह स्वर्ग से ही उस पर नजर रख लेगा |आज का हमारा राजनैतिक एवं पूंजीपति वर्ग ऐसा ही हो गया है |उनका आप चाहे जितना भला कर से उसके मिशनों को पूरा करने अपना जी जन लगा दें किन्तु मौका पड़ने पर वह ठेंगा दिखने से बाज नहीं आयेगा |इसके लिए वह नित नये-नये  हथकंडे जिनमें जातिवाद, धर्मवाद, रंगवाद ,भाई-भतीजावाद, क्षेत्रवादआदि वादों को जन्म देकर आमजनमानस को उस चक्रव्यूह में धकेलने का प्रयास करता है जिस प्रकार मकड़ी के जाले में अरझा हुआ कीड़ा मकड़ी का शिकार बनता है | अनाचार,अत्याचार ,व्यभिचार,और न जाने कितने चारों में रत-दिन एक किये हुए रहते हैं और ये हिजड़ों की तरह निर्लज्ज बने दांत निपोरते रहते हैं |  राजकुमार राकेश ने अपनी “कला” का सौंदर्य “विरोध और संघर्ष” में खोजा है |यह हिंदी की एक बड़ी  उपलब्धि है |वास्तव में सुन्दर वही होता है जो सच होता है ,संघर्ष ही हमारे समाज का सच है अत: संघर्ष ही सुन्दर है |यह संघर्ष ही प्रकति के विकास का चेतन कारक है|जीवन यात्रा की मुख्य गति है ,जो लेखक इस संघर्ष को दरकिनार करता है वह सफल कलाकार नहीं हो सकता है |एक सफल कलाकार वही है जो तमाम संघर्षों के बीच “संतुलन” की खोज करता है |राजकुमार राकेश का पूरा साहित्य संघर्ष और संतुलन के खोज की कलात्मक उपलब्धि है |परस्पर विरोधी तत्वों के संघर्ष  का तार्किक समन्वय है यदि जीवन की विडम्बनाओं में मनुष्यता की गहन पड़ताल करना है तो राजकुमार राकेश से बेहतर कोई दूसरा लेखक नहीं है |


                                                                                                                              Pradumna kumar singh
                                                                                                                                          Janpad banda