सोमवार, 24 नवंबर 2014

 मोहन कुमार डहरिया के कविता संग्रह “न लौटे फिर कोई इस तरह” की समीक्षा



मोहन कुमार डहरिया जी के कविता संग्रह “न लौटे फिर कोई इस तरह” पर जाने माने कवि बुद्धिलाल पाल जी की भावपूर्ण टिप्पणी मेरे पास आई थी |एक कवि जब भावुक होकर किसी किताब पर अपना अभिमत देता है तो भले ही हम उसे “आलोचना” मापदंडों में न कस पायें पर वो अभिमत भी एक कविता जैसा आनंद देता है |आइये आज लोकविमर्श में कवि साथी बुद्धिलाल पाल द्वारा की गयी समीक्षा पढ़ते हैं





              दैहिक ताप के बीच प्रेम

न लौटे फिर कोई इस तरह काव्य संग्रह की कविताओं में मोहन कुमार डेहरिया का प्रेम उफनता हुआ प्रेम है। जो किसी नदी या बांध में नहीं है समतल से दिखाई देने वाले समुद्र की सतह की तरह है। ज्वार भाटा की तरह आकर्षण विकर्षण में है। ना दिखने वाली अंदर ही अंदर बहती हुई जल धाराओं में है। घने कुहासे के बादलों के बीच से प्रेम को अपनी तरह से देखने की एक जिद है और प्रेम की परम्परा का खुरदरा परन्तु स्वाभाविक सौन्दर्य की आपूरित प्रेम है जो पिघलते हुए मोम की तरह भी है। अपने स्वाभाविक धागों से बुना हुआ जीवन के यथार्थ परक कष्मकष की अनुभूतियों का इसमें एक ब्यौरा भी है। न लौटे फिर कोई इस तरह एक आत्मनाद भी है। प्रेम को खो देने का प्रेम को पा लेने का प्रेम में भटकने का। प्रेम जो था, इसमें शुरू में भी आकर्षण बाद में खो देने पर भी आकर्षण भटकन में भी आकर्षण और इसी आकर्षण विकर्षण के घेरे में प्रेम की सुख दुख की अनुभूतियों की व्यंजना एक रोमांच की तरह है। इस तरह की कवितायें चुम्बक और प्रेम का जीवन के बीच एक यथार्थपरक अनुभूतियों के साथ जीवन के सुख-दुख अपेक्षा में इस तरह लौटना जैसे कि एक यातनागृह को चुनना जैसे भी है।
        दैहिक ताप एवं प्रेम की स्वाभाविक ताकत के बल पर ही मोहन यह कहने में समर्थ हो पाता है- तुमसे मिलने के बाद /झक से कौंध उठा मेरे अंदर जैसे कोई प्रकास /और ध्वस्त हो गया चारों तरफ फैला भय का तिलिस्म। यह भय से मुक्ति प्रेम की ही मुक्ति नहीं है इसे इस तरह भी पढ़ा जा सकता है कि पूरी दुनिया में भय के बरक्स प्रेम सबसे बड़ा विश्वसनीय  औजार हो सकता है। प्रेम दुनिया में अपनी वास्तविक मानवीयता की गतिशीलता में अपनी भूमिका में पूरे समग्र संसार को परिवर्तित करने की क्षमता रखता है। और यह प्रेम युद्ध की तरह भी हो सकता है- सचमुच तुमसे मिलने के बाद पहली बार जाना/कितना भी विकट हो दुःख/कितनी  भी दुर्जेय हो हताशा/रद्दी कागज की तरह /फाड़कर फेका जा सकता है इन्हें/ कभी भी । यह दुर्धष जीजिविषा की तरह है।
        कविता इस जन्म में प्रेम की पंक्तियां - कभी भरना था कल्पना में /दुश्मनों  के चक्रव्यूह को चीरते हुए / किसी राजकुमारी को ले उड़ने का/ एक पराक्रमी राजा का स्वांग। इस तरह की पंक्तियाओं  दृष्य पारंपरिक सामंती दृष्य है इसमें न प्रेम करने वाले के लिए कुछ है न ही प्रेम के लिए कुछ जगह है। यहां पर एक दावानल है और युटोपिया है जो कभी पूर्ण नहीं होता है। प्रेम में तो युटोपिया उसी तरह होना चाहिए जिस तरह के सामर्थ में आप जहां पर स्थित हैं। उसी तरह संवाद करता हुआ कोई युटोपिया पैदा होता है । तो वहीं जनजीवन के प्रेम का यथार्थ हो सकता है। जो युटोपिया यहां पर संम्पृक्त है वह तो आपको बेहद अंधेरी खाई में ले जाकर प्रेम की वास्तविक वैश्विकता की ताकत को नष्ट करता है । भव्यता का ढांचा प्रेम का आकार नहीं हो सकता ।
        इसके उलट कविता आदर्श  स्त्री में एक आदर्श  स्त्री में एक आदर्श  स्त्री का चित्र है जिसमें सामंती प्रभाव क्षेत्र में सामंती मूल्यों के बीच एक आदर्श  स्त्री है उसका जीवन है साथ  ही उसका घुटता हुआ प्रेम चित्र है । उसकी नियति है । कवि के भीतर यहां पर आग उगलता हुआ समाज के प्रति एक विद्रोह भी है जो आदर्श  स्त्री की चित्रात्मकता में स्त्रियों के लिए समाज के लिए मूल्यावन स्थिति में है - वह एक जो लड़की है। कंठ में भभकती एक रूलाई को कुचलकर/धारण करके होठों पर शालीन मुस्कुराहट/ जा रही है मेरी तरफ पूरी ताकत से अपनी पीठ किये/ आखि रवह एक आदरश  स्त्री है। साबित हुआ इतिहास उसके लिए एक बेहतर उपदेसक/चल पड़ी अंततः भेड़ों की तरह गर्दन झुकाए/एक दलदली जमीन की तरफ/ किये मेरी तरफ पूरी ताकत से अपनी पीठ/ आखिर वह एक आदर्श स्त्री है ।
        प्रेम को लेकर कवि के भीतर बहुत बेचैनी है - जगह नहीं थी कहीं थोड़ी सी भी/ उस युवा लड़के और लड़की के रूकने के लिए/ भाग रहे थे निरन्तर/ । ओ क्रूरता के दरशन के टीकाकरों/मारों मार सको तो मार डालो इन्हें / दौड़ रही देखो जीवन की सबसे सुन्दर प्रागौतिहासिक पगडंडी पर /संकल्प की दो निहत्थी चट्टान।
आज हमारे सामने समाचार माध्यमों से खाप पंचायतों के दिल दहला देने वाले बहुत सारे काले कारनामें काले मनोभाव काले न्याय भाव हमारे सामने है अगर यह अतिवाद है तो भी सामान्य स्थिति में भी समाज में भीह खाप पंचायतों के दिल दहला देने वाले बहुत है तो भी सामान्य स्थिति में भी समाज में भी प्रेम को लेकर यही स्थिति है।
        कविता - न लौटे जीवन में कोई इस तरह इस कविता में बहुत सी कही अनकही बातों का विष्वासों का दैहिक ताप में, प्रेम के भीतर बार-बार आवाजाही के रूप में एक प्रवेशद्वार  की तरह है । यह कविता एक सूत्र की तरह भी है जहां से कवि  प्रेम में अपने विश्वासों   को पाने का प्रेम में एक जीवन देने का एक जो उपक्रम  उसके भीतर है यहीं से अपने अनुक्रम में अपने आपको पाता हुआ एवं समय तथा समाज को देता हुआ अपनी उपस्थिति को परिपूर्ण बनाता हुआ नहर आता है। इस तरह कवि अपने उपक्रम में सफल है। एवं संग्रह प्रेम में जीवन की गत्यात्मकता को पाने केलिए एक संवाद के रूप मतें भी है। इस तरह यह प्रेम कवितायें समकालीन साहित्य के प्रेम क्षेत्र में एक अलग ही किस्मत की प्रेम कवितायें हैं, एवं अपनी पूरी जिद तथा तेवर के साथ मौजूद है । फिर भी अपनी तन्मयता अपेक्षा में एक सीढ़ी उपर आगे आने की आवश्याकता  है। सम्पूर्णतः यह कवितायें प्रेम की सीढ़ी में प्रेम के एक आवष्यक क ख ग के रूप में है। जहां पर उसके मूल को समझकर प्रेम में वास्तविक संवाद का यथार्थ बनता है।



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