शनिवार, 29 नवंबर 2014

अवधी लोकगीतों में स्त्री -प्रतिरोध के पद-चिन्ह



अभिजात्य वर्ग को छोड़कर शेष आम जनता “लोक” कहलाती है |सर्वहारा लोक का वह हिस्सा है जिसके जीवन का आधार श्रम होता है | पूंजीवादी विचारकों द्वारा अक्सर लोक-धर्मी साहित्य के विरुद्ध “लोक साहित्य” की नकारात्मक आदतों व लोक के नाम से कुप्रचारित अभिजात्य साहित्य को ही एक मात्र लोकधर्मी साहित्य कहकर आक्षेप लगाए जाते रहें हैं | जबकि लोक साहित्य   व लोकधर्मी साहित्य में अंतर होता है |लोकसाहित्य का वह हिस्सा जो प्रगतिशील था अभिजात्य ने कभी स्वीकार नहीं किया है और अधिकांश वर्गचेतन लोकसाहित्य नष्ट कर दिया गया है | और अपने द्वारा लिखित क्रांतिविरोधी ,जनविरोधी अंध विश्वासपूर्ण साहित्य का  कुप्रचार करके लोक के साथ जोड़ दिया |यदि लोक साहित्य का अवलोकन किया जाय तो अभिजात्य की इस साजिस का पर्दाफास स्वत: हो जाता है |स्त्री , दलित, मजदूर, किसान, इन सबके द्वारा विभिन्न समयों में गाये जाने वाले गीत आज भी परम्परा से हमारे गावों में जीवित है इन गीतों को हम मूल का परिस्कृत और परिवर्तित रूप देख सकते हैं |समय समय पर विभिन्न साहित्यकारों द्वारा भी लोक की इस जनपक्षीय परम्परा का मूल्यांकन किया गया है |हमने अपने साथी और युवा आलोचक अजीत प्रियदर्शी से अवधी लोकगीतों में नारी चित्रण पर एक आलेख तैयार करने को कहा,वो इस समय लोकधर्मी परंपरा पर गंभीर कार्य कर रहे हैं|  उन्होंने हमारा आग्रह स्वीकार किया और  अपनी आलोचकीय प्रतिभा का पूर्ण परिचय देते हुए  अवधी लोक गीतों में नारी चिंतन पर पर बड़ा ही तथ्य-परक, आलेख  तैयार किया |जिसे हम आज लोकविमर्श में प्रकाशित कर रहें हैं आइये आप भी पढ़िए ----   



  अवधी लोकगीतों में स्त्री-प्रतिरोध के पद-चिह्न
                                                                             डा.  अजीत प्रियदर्शी

        हज़ारों वर्षों तक एक समाज के लोग जिस तरह के खान-पान रहन-सहन आचार-विचार विश्वास मान्यताएँ परम्पराएँ और धर्म-कर्म सम्पादित करते हैं उन सभी से उनकी संस्कृति बनती है। संस्कृति हमारे समूचे जीवन को व्यापे हुए है। हमारी लोक परम्पराएँ मान्यताएँ, विचार विश्वास धर्म-दर्शन आचार-व्यवहार पर्व व्रत और लोक साहित्य आदि में संस्कृति के रंग-रेशे मौजूद होते हैं।
        अवधी लोकगीतों में अवध क्षेत्र के लोक विश्वासों परम्पराओं प्रथाओं रीति-रिवाजों सामाजिक विधि-निषेध खान-पान रहन-सहन आदि का स्वाभाविक अंकन हुआ है। अवधीभाषी समाज की सांस्कृतिक चेतना का अविरल प्रवाह अवधी लोकगीतों के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को जाता रहा है। अवधी लोकगीतों में रामकथा की प्रधानता है और यहाँ वर को राम बहू को सीता के रूप में प्रायः चित्रित किया गया है। अवधी लोकगीतों में अवध क्षेत्र की जनता की सामाजिक धार्मिक आर्थिक सांस्कृतिक स्थितियों की झलक मिलती है। पौराणिक आख्यानों के साथ-साथ कुछ ऐतिहासिक घटनाओं के नायकों-खलनायकों के संदर्भ-संकेत भी अवधी लोकगीतों में देखने को मिलते हैं।
        अवध क्षेत्र में पुत्र-जन्म के अवसर पर गाये जाने वाले गीतों को सोहर कहते हैं। पुत्र जन्मोत्सव के मंगल अवसर पर स्त्रियाँ सोहर गीत गाते समय गर्भ से लेकर बच्चे के जन्म तक की सभी स्थितियों का चित्रण करती हैं। बन्ध्या एवं पुत्रहीन स्त्रियों की मनोव्यथा का चित्रण सोहर गीतों में मिलता है-
(क)    सासु मोरि कहै बझिनियाँ ननद ब्रजवासिनी
        जेकर बारी बियहिया वै घरा से निकारै।1
(ख)   सास ससुर निसदिन बोलिया बोलय ननद ताना मारइ हो।
        रामा कौने करमवाँ से चूकेन बलकवा न पायेव हो।2

        समाज में प्रचलित दारुण दहेज-प्रथा के कारण पुत्री के जन्म पर अप्रसन्नता और पुत्र के जन्म पर हर्ष-उल्लास का चित्र अवधी लोकगीतों में भी देखने को मिलता है। यथा- एक सोहर में पुत्र को जन्म देने वाली माता प्रसन्नता और गर्व के साथ कहती है: अब मैंने धिय नहिं जनमी जनमे हैं हीरा लाल। अवधी समाज में पुत्र-जन्म के छठे दिन उल्लास-उमंग के साथ छट्ठी उत्सव और बारहवें दिन बरही उत्सव मनाया जाता है। एक लोकप्रिय अवधी सोहर गीत में राम के छट्ठी-उत्सव में अपने हरिने को खो देने वाली हरिनी का शोक-संताप यों दर्ज है-
        छापक पेड़ छिउलिया तौ पतवन गहबर।
        अरे रामा तिहि तर ठाढ़ी हरिनियाँ त मन अति अनमनि हो।।
        चरतइ चरत हरिनवाँ तौ हरिनी से पूँछइ हो।
        हरिनी को तोर चरहा झुरान कि पानी बिन मुरझिउँ हो।।2।।
        नाहीं मोर चरहा झुरान न पानी बिन मुरझिउ होे।
        हरिना आजु राजाजी के छट्ठी तुम्हहिं मारि डरिहईं हो।।3।।
        मचियै बैठी कोसिल्ला रानी हरिनी अरज करइ हो।
        रानी मसुवा तौ सिझहीं रसोइयाँ खलरिया हमैं देतिउ।।4।।
        पेड़वा से टँगबइ खलरिया त मन समुझाउब हो।
        रानी हेरि फेरि देखबइ खलरिया जनुक हरिना जीतइ हो।।5।।
        जाहु हरिनी घर अपने खलरिया नाहीं देबइ हो।
        हरिनी! खलरी क खँजड़ी मिढ़उबइ राम मोर खेलिहईं हो।।6।।
        जब जब बाजइ खँजड़िया सबद सुनि अनकइ हो।
        हरिनी ठाढ़ि ढकुलिया के नीचे हरिन क बिसुरइ हो।।7।।3

        भारतीय समाज में विवाह अत्यन्त महत्वपूर्ण संस्कार होता है। अवध क्षेत्र में प्रचलित विवाह गीतों में सयानी होती पुत्री के लिए सुयोग्य वर खोजने तथा उसके विवाह में पिता को जितनी कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं, उनका संदर्भ-संकेत होता है। एक गीत में पिता के वचन हैं- उत्तर हेरयों दक्खिन ढूँढ़यो ढूँढ़यों मैं कोसवा पचास से।/बेटी के बर नहिं पायों मालिनी मरि गयों भुखिया पियास।।’’4 एक अवधी गीत में बेटी के विवाह में दहेज लोभी परिवार की नित नयी माँगों से आजिज होकर बेटी की माँ विक्षुब्ध होकर कहती है कि शत्रु को भी कन्या न हो- होइगा वियाह परा सिर सेंदुर नौ लाख दाइज थोर/भितराँ कइ माँगु बाहर दइ मारीं सतरू के धिया जिनि होइ।’’5
        अवधी लोकजीवन में प्रचलित बेमेल विवाह (बालिका व वृद्ध का विवाह, बालक व युवती का विवाह आदि) बाल-विवाह, बहु-विवाह प्रथा का मार्मिक अंकन अवधी लोकगीतों में देखने को मिलता है। यथा- इस विवाह गीत में वृद्ध-विवाह का मज़ाक उड़ाया गया है-
        बरहै बरिसवा कै मोरि  रँगरैली असिया बरसि क दमाद।
        निकरि न आवै तू मोरि रँगरैली अजगर ठाढ़ दुवार।।1।।
        बाहर किचकिच आँगन किचकिच बुढ़ऊ गिरै मुँह बाय।
        सात सखी मिलि बुढ़ऊ उठावैं बुढ़ऊ क सरग दिखाय।।2।।6
        अवध क्षेत्र में प्रचलित एक विवाह गीत में युवती अपने बाबा को कोसती है- नाहक गौन दिहे मोर बाबा बालक कंत हमार रे।/चीलर अस दुइ देवर हमरे बलमा मुसे अनुहार रे।।’’7 अवध क्षेत्र के विदाई व गौना के गीतों में पारस्परिक प्रेम और विछोह का मर्मस्पर्शी दृश्य उपस्थित होता है। विवाह के उत्साह-उल्लास भरे वातावरण में विदाई के वक्त घर-परिवार को छोड़कर जाती नवविवाहिता के वियोग-विछोह से अश्रुपूरित वातावरण बरबस ही सभी को अत्यन्त भावुक बना देता है। विदा होती बिटिया का यह अश्रुपूरित कंठस्वर किसको भावुक नहीं बना देता-
        अरे सुन बाबुल मोरे काहे क दीन्हयो बिदेस।
                ग्           ग्           ग्
        भइया क दीन्हौ बाबुल ऊँची अटरिया हमका दिह्यो विदेस।।
                                                                सुन बाबुल मोरे...
        बगिया के तरे मोरी पहुँची है डोलि कोयल सबद सुनाय
        अरे अबका बोलौ कारी कोयरिया छूटा बाबुल तोरा देस।।
                                                                सुन बाबुल मोरे...
        अरे मइया के रोवत छतिया फटत है बाबुल खड़े पछिताय।
        भइया के दौर पकरी है डोलिया हमरी बहिनी कहाँ जाय।।
                                                                सुन बाबुल मोरे...
        छोड़ो रे भइया मोरे हमरी पलकिया हम तौ चले परदेस।
        बाबुल मैं तो मोरे आँगन की चिरैया चार दिनां ह्या चार दिन उहाँ।
        अरे सुन बाबुल मोहे काहे क दीहयों विदेस।8
  अवधी समाज में विवाह के बाद विदा होती युवती को उसकी माता, भाभी आदि सहनशीलता धैर्य स्त्री-धर्म तथा पति व सास-ससुर आदि की सेवा के सुन्दर उपदेश दिया करती हैं। एक अवधी गीत में माँ कहती है- सिखि लेउ बेटी गुन अवगुनवाँ सिखि लेउ राम रसोइँ।/सासु ननद तोरी मैया गरियावैं लै लिहौं अँचरा पसारि।।’’9 अवधीभाषी समाज में प्रचलित एक विवाह गीत में स्त्री-कंठ में रची-बसी पीड़ा की अभिव्यक्ति इस प्रकार होती है-
        एक रे सेनुरवा के कारन बाबा, छोड़ेऊँ मैं देस तोहार।
                        ग्           ग्           ग्
        अम्मा कहे बेटी निति उठि आवऽ, बाबा कहे छठि मास।
        भइया कहे बहिनि काज परोजन भउजी कहै कस बात।।10
  फगुवा, चैता, कजरी जैसे ऋतु-गीतों में अवधी संस्कृति के मेल-जोल, राग-रंग, उछाड़ और प्रेम की मस्ती की बहुरंगी झाँकी देखने को मिलती है। फाल्गुन मास में गाए जाने वाले होली गीतों या फाग में आत्मीयता और अपनापा से भरे मेल-मिलाप के रस-रंग, मस्ती और उल्लास से सराबोर सरस वर्णन एवं मनमोहक चित्र उपस्थित होते हैं। यथा-
        रसिया को नारी बनाऊँगी रसिया को।
        माँग में बेंदी माथन टिकुली सेनुरा भल पहिनाऊँगी।।रसिया॰।।
        कान में बाली गले में हरवा लाकिट मैं पहिनाऊँगी।।रसिया॰।।
        कंगन चुनरी अंग में चोलिया, लहँगा भल पहिनाऊँगी।।रसिया॰।।11
  अवध क्षेत्र में सावन के मनभावन महीने में गाये जाने वाले कजली व हिंडोले के गीतों में प्रेम वियोग-संयोग आदि के मार्मिक वर्णन मिलते हैं। सावन की रिमझिम ओर मनभावन मौसम में पति परदेस जाने की बात कहता है तो पत्नी बड़े मनोविनोद और हाज़िरजवाबी के साथ मना करना चाहती है। पति-पत्नी का सरस परिहास कजरी-गीत में कुछ यों अभिव्यक्त होता है-
        रुनझुन खोलिदा केवड़िया हम विदेसवाँ जाबै ना।
        जऊँ तुहुँ पिया विदेसवाँ जाबा ना,
        हमरे बाबा के बोलाइदा हम नइहरवा जाबै ना।
        जऊँ तुहुँ धन नइहरवाँ जाबू ना,
        जेता लागल बा रूपइया उता देके जाया ना।
        जउँ तू पिया रुपइया मगब ना।,
        जइसन बाबा के घर रहलीं ओइसन कइके जइहा ना।
        बाबा घरवाँ रहलू धन बारी रे कुँवारी,
        ओइसन नाही होइबू ना, बाटे गोदिया में होरिलवा।।टेक।।12
  अवध क्षेत्र में प्रचलित एक हिंडोले के गीत में कोई कन्या कहती है- बाबा, निमिया क पेड़ जिनि काटेउनिमिया चिरइया बसेर बलैया लेऊँ बीरन।।/...बाबा, बिटियई जिनि कोई दुःख देईबिटिया चिरइया की नाईं बलैया लेऊँ बीरन।।’’13
  अवध क्षेत्र के श्रमगीतों (जाँत के गीत, रोपनी के गीत, निरवाही के गीत आदि) में स्त्री के विविध कष्टों व एकनिष्ठ प्रेम की झांकी मिलती है। अवध क्षेत्र में प्रचलित रहे जाँत के गीत की इन पंक्तियों में पति-परित्यक्ता गर्भवती सीता के दुःख की मार्मिक अभिव्यक्ति मिलती है- सोनवाँ की नइयाँ राम तायनि लाइ भँजि काढ़ेनि हो राम।/गुरु अस कै रामा मोहिं डाहेनि सपने ना चित्त मिलै हो राम।।’’14 धान रोपते समय अवध की श्रमिक महिलाएँ अपनी गरीबी और कष्टमय जीवन का वर्णन इस प्रकार करती हैं-
        जहिया से आयों पिया तोहरी महलिया,
        रतिया दिनवा करौ टहलिया रे पियवा।
        देहिया झुरानी मोरी करति टहलिया,
        सपना में सुख कै सपनवाँ रे पियवा।
        बखरी कै हरा तुहै जोत्या राति दिनवा,
        तबहूं न भरपेट भोजनिया हे पियवा।
        चिपरी पाथत मोरी अंगुरी खियानी,
        तबहूँ न तन पै कपड़वा रे पियवा।15
  अवध क्षेत्र की एक नवविवाहिता से जब उसका भाई मिलने आता है, तो वह स्त्री उसे अपनी दुःखमय गृहस्थी का वर्णन निरवाही के गीत में इस प्रकार करती है-
        कै मन कूटौ भैया कै मन पीसौ रे ना।
                ग्           ग्           ग्
        भैया कै मन सिझवऊँ रसोइया रे ना।।
        सबका खिआवौं भैया सबका पिआवौं रे ना।
        भैया बचि जाथै पिछली टिकरिया रे ना।।
        सासू खाँची भरि बसना मँजावै रे ना।
                ग्           ग्           ग्
        सासू पनियाँ पताल से भरावै रे ना।।
        कपड़ा तौ देखौ भइया मोर पहिरनवाँ रे ना।
        भइया जैसे सवनवाँ कै बदरी रे ना।।
  अपनी दुःखमय गृहस्थी का अपने भाई से मार्मिक बयान करने के बाद वह उसे किसी से न कहने की हिदायत भी देती है- सब दुख बाँधउ भैया अपनी मोटरिया रे ना।/भैया जहवाँ खोलेउ तहवाँ रोयेउ रे ना।।’’16
  अवध क्षेत्र में पुराने समय से प्रचलित रहे कुछ लोकगीतों में मुग़लों का वर्णन मिलता है। उदाहरण के लिए एक लोकगीत की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
        ठाढ़े एक ओर मुगुल पचास त यहि रन बन में।
        दुलहा एक ओर ठाढ़े अकेल त यहि रन बन में।।
        रामा जूझे हैं मुगुल पचास त यहि रन बन में।
        राजा जीति के ठाढ़ अकेल त यहि रन बन में।।17
  अवधीभाषी क्षेत्र में प्रचलित रहे कुसुमा देवी और चन्दा देवी की लोकप्रिय लोककथाओं में मुगलों के अत्याचारों का संदर्भ मिलता है। कुसुमा और चन्दा- दोनों ने कामुक मुगलों के कैद में पड़कर अपने सतीत्व की रक्षा जान देकर किया। अवध क्षेत्र में कहारों के लोकगीत कहरवा और अहीरों के लोकगीत बिरहा में प्रेम और श्रृंगार के चित्रों के अलावा समय के पद-चिह्न व ऐतिहासिक संदर्भ भी मिलते हैं। अंग्रेजों ने भारत में अपने लाभ के लिए रेलगाड़ी चलाई। अवध क्षेत्र में प्रचलित रहे एक कहरवा-गीत में एक स्त्री रेल को सौत बताती हुई कहती है-
        रेलिया न बैरी जहजिया न बैरी उहै पइसवइ बैरी हो।
        देसवा देसवा भरमावइ उहै पइसवइ बैरी हो।।
                ग्           ग्           ग्
        सेर भर गोहूँवा बरिस दिन खइबै पिय के जाइ न देबै हो।
        रखबे अँखिया हजुरवाँ पिय के जाइ न देबै हो।।18
  अवध क्षेत्र में कभी लोकप्रिय रहे एक बिरहा गीत की इन पंक्तियों में रेल की मार्मिक आलोचना यों मिलती है-
        जब से छुटि रेल कै गाड़ी कटिगा जंगल पहाड़।
        पैसा रहा सो गोड़ेक सौंपेऊँ पेटवा पीठि कै हाड़।।19
  1857 की क्रान्ति के अनेक संदर्भ अवधी लोकगीतों व लोकगाथाओं में मिलते हैं। 1857 के बलवे में शंकरपुर (जिला रायबरेली) के राजा बेनीमाधव, चलहारी (जिला बाराबंकी) के युवा राजा बलभद्र सिंह रैकवार, गोंडा के राजा देवीबख्श सिंह आदि अवध के नायकों की प्रशंसा में अनेक लोकगीत व लोकगाथाएँ अवध क्षेत्र में प्रचलित रहे हैं। एक अवधी लोकगीत में 1857 के बलवे में लखनऊ में फिरंगियों द्वारा कब्ज़ा व लूट का जिक्र यों मिलता है- गलियन गलियन रैयत रोवै, हाट बनिया बजाज रे।/महल में बैठी बेग़म रोवे, डेहरी पर रोवे खवास रे।।’’20 किसी समय प्रचलित रहे अवध क्षेत्र के कई लोकगीतों में चरखे का वर्णन मिलता है। एक लोकगीत में परदेसी पति की स्त्री इस तरह अपना दिन काटने के बारे में सोचती है- ‘‘धरि गइलें चनन चरखवा सिरिजि गज ओबरि हो राम।/दिन भरि कतबइ चरखवा ओहरियाँ ओठँघाइ देबइ हो राम।।’’21 जब महात्मा गाँधी ने चरखा, खादी और ग्रामोद्योग के कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया तब गाँव-गाँव में चरखा-गीत गाये जाने लगे। अवध क्षेत्र की महिलाओं में यह गीत लोकप्रिय हुआ:
        मोरे चरखा का टूटे न तार।/चरखवा चालू रहे।
        गांधी महात्मा दूल्हा बने हैं।/दुल्हन बनी सरकार। चरखवा...।
        सब रे वलंटियर बने बाराती।/ नउधा बना थानेदार। चरखवा...।
        सब पटवारी गारी गावैं।/पूड़ी बेलैं तहसिलदार। चरखवा...।
        गांधी महात्मा नेग माँगेेे।/दहेज में माँगे सुराज। चरखवा...।
        गवरमेंट ठाढ़ी बिनती करै।/जीजा गवने में देबो सुराज। चरखवा...।22
  इस तरह हम देखते हैं कि अधिकांशतः स्त्री कंठ में रचे बसे अवधी लोकगीतों में स्त्री-प्रतिरोध के पद-चिह्नों के साथ-साथ अवध की संस्कृति तथा इतिहास के रंग-रेशे व संदर्भ मौजूद हैं, जिनके माध्यम से हमें अवध की संस्कृति व इतिहास की सजीव झाँकी प्रस्तुत करने में सहायता मिल सकती है।
संदर्भ:
1.      श्री रामनरेश त्रिपाठी, कविता-कौमुदी (तीसरा भाग - ग्रामगीत) संस्करण 1990, पृष्ठ-136
2.      मीमांसा जून 2011, संपादकः डाॅ॰ मनीराम वर्मा पृष्ठ-8
3.      श्री रामनरेश त्रिपाठी वही पृष्ठ-163
4.      सम्मेलन पत्रिका भाग 39: संख्या 2-3 लोक-संस्कृति विशेषांक, संपादक: श्री रामनाथ सुमन,पृष्ठ-278
5.      श्री रामनरेश त्रिपाठी वही पृष्ठ-273
6.      वही पृष्ठ-326
7.      वही पृष्ठ-325
8.      मीमांसा वही पृष्ठ- 21
9.      श्री रामनरेश त्रिपाठी वही पृष्ठ-299
10.     वही पृष्ठ-296
11.     डाॅ॰ कमला सिंह अवधी-लोकरंग संस्करण 2000, पृष्ठ-77
12.     वही पृष्ठ-70
13.     श्री रामनरेश त्रिपाठी वही पृष्ठ-455
14.     वही पृष्ठ-341
15.     विश्वमित्र उपाध्याय लोकगीतों में क्रन्तिकारी चेतना प्रकाशन विभाग नई दिल्ली संस्करण-1999, पृष्ठ-68
16.     श्री रामनरेश त्रिपाठी वही पृष्ठ-416-17
17.     वही पृष्ठ-274
18.     वही पृष्ठ-26
19.     वही पृष्ठ-41
20.     प्रस्थान अर्द्धवार्षिक वर्ष: 3, अंक 5-6 (संयुक्तांक) संपादक: डाॅ॰ दीपक प्रकाश त्यागी पृष्ठ-6
21.     श्री रामनरेश त्रिपाठी, वही पृष्ठ-126
22.             विश्वमित्र उपाध्याय वही पृष्ठ-66

असिस्टेंट प्रोफेसर हिन्दी विभाग
डी॰ए॰वी॰ (पी॰जी॰)कालेज   लखनऊ
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