मंगलवार, 18 नवंबर 2014

नितीश मिश्रा की कवितायें

 वर्तमान युग विसंगतियों  का युग है| आम आदमी के सपनों के  टूटन का मद्धिम स्वर जनतांत्रिक मूल्यों के विखंडन का स्वर बन चूका है| चुनौतियाँ बढती जा रही हैं और समाधान दिनों दिन लिजलिजे होते जा रहें है |ऐसे में व्यक्ति की चेतना विभिन्न विकल्पों की तलाश  में थक हार कर निराशावाद के गहरे अवसाद में बैठ चुकी है| जीवन का प्रत्येक कोण कहीं न कहीं कुढ़न का शिकार है| पूँजी का का दबाव मानवता को लील रहा है| विज्ञापन और मुनाफा की अर्थशास्त्रीय साज़िश आज का मार्किट मूल्य है| हम चाह कर भी विज्ञापन के द्वारा सृजित आवश्यकताओं को दरकिनार नहीं कर सकते| हमारे मूल्य बाज़ार तय करता है |हमारी संस्कृति बाज़ार तय करता है |स्वाभाविक है घोर आधापापी के माहौल में जब जनतंत्र बाज़ार का खेवनहार बन जाता है तो आम जनता की उम्मीदों में जीवन जीने के सारे तर्क चुक जाते हैं|और इसके बाद आरम्भ होती है जनतंत्र के विरुद्ध मोहभंग की कहानी और आम आदमी के सपनो को मौत में तब्दील करने की करुण गाथा |साथी नितीश मिश्रा की कवितायें बाजारू मोहभंग का नतीजा हैं यही कारण है की उनकी कविता बौद्धिक यथार्थवाद के साथ ही रोमैंटिक भावुकता भी समेटकर चलती है |भले ही वो भद्रता को नकारते हों लेकिन सच्चाई का खारापन उनकी कविताओं को एक खास उत्तेजना और आक्रोश से टीप देता है आज हम लोकविमर्श में भावुकता और आक्रोश की मिली जुली प्रतिक्रियाएं अर्थात नितेश मिश्रा की कवितायेँ प्रस्तुत कर रहें हैं आप भी पढ़िए







नितीश मिश्रा की कवितायें


मैं आखिरी रात प्रेम पत्र लिखता हूं
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जिंदगी की आखिरी रात में
मैं कुछ भी कर सकता हूं
देवताओं से पूछ सकता हूं
उनका चरित्र!
या जीवन का मूल्यांकन कर सकता हूं
या, लंबी- लंबी कविताएं लिख सकता हूं
चांद को हथेलियों से छूकर बता सकता हूं
चांद का स्वाद वर्फी जैसा होता हैं।
या अपने को सबसे पवित्र घोषित कर सकता हूं
या दुनिया को एक विचार दे सकता हूं
या, अपने सारे सपनों के साथ रात भर खेल सकता हूं
बहुत सा धन कमाकर विरोधियों को परास्त कर सकता हूं
मैं देश को राजनीति का एक विकल्प दे सकता हूं
लेकिन! मैं आखिरी रात ऐसा कुछ भी नहीं करता हूं
मैं अपने मन-पसंद का खाना खाता हूं
अंधेरे में चक्कर लगाता हूं
और मौन हो जाता हूं
और लिखता हूं एक प्रेम पत्र
जिससे उसे भी लगे मैं मरने से पहले बहुत खुश था।।
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रेगिस्तान में एक लड़की
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रेतों के मंजर में बैठी लड़की कुछ लिख रही थी
अनमनी अगुंलियों से
जीने के लिए किसी अनिवार्य सूत्र को होठों में छिपाएं
अपने तसव्वुर पर मुस्करा रही थी
शायद! मालूम नहीं है
मिट जाएगी उसके अन्तर्मन की गीतिका
जिसे वह गाए जा रही हैं
यह सोचकर कि रेत उसके सपनों को सीने में छिपा लेगा
मैं उसे कैसे बताऊं कि रेत के सीने मे दिल नहीं होते
बल्कि टूटे हुए हर युग के टुकड़े होते हैं
वह चल सकते नहीं/  बोल सकते नहीं
इसलिए ! शून्य होकर बिना प्रतिशोध के मनुष्यों के प्रश्नों को देखते भर हैं।।
लड़की रेतों के आईने में खुद को निहारती हैं
इस उम्मीद के साथ की वह सबसे खूबसूरत कोई तरन्नुम हैं
अपने देह को त्रिभुजाकार/ धनुषों की तरह मोड़ती हैं निर्विघ्न होकर रंगती हैं
अपनी वृत्तिकाओं को............
शायद! वह सन्नाटे में तोड़ना चाहती हैं
खजुराहों की दीवारों पर सजी मनुष्यों की इबादतों को
लड़की को मालूम है कि
खजुराहों मनुष्यों की एक सीमा भर हैं
किसी स्त्री की सीमा नहीं
उसके बाल कुछ ऐसे खुले है
जैसे वह रेतों की गुहाओं में वर्षो से समाधिस्थ रही हो
उसे देखकर मैं भूल गया था अपनी छोटी सी प्रार्थना को
मैं उसके चेहरे को थामना चाहता हूं
लीपना चाहता हूं आपनी करूणा
अभी मैं यही सब सोच रहा था
तभी उसने अपने बदन के वैभव को उतारकर
लूनी नदी में रख दिया
इस उम्मीद से कि आकाश उसे छू सक ता नहीं
रंग उससे बोल सक ते नहीं
किसी का स्पर्श उसके मर्म पर हाथ रख सकता नहीं
मैं उसे कैसे बताऊ गंगा की एक धारा मुझमें भी हैं
इसी संभावना को लेकर मैं लौट आता हूं
कुछ देर के बाद वह मिलती हैं
हाथ में लालटेन लिए
और धीरे से कहती हैं
तुम्हीं मेरे शब्द हो
और मुझे अहसास हुआ कि रेतों के सोए हुए ख्वाब फिरसे जाग गए हैं।।
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मैं अपनी मां का सिंकदर नहीं हूं
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यदि कभी मैं
बाबूजी के साए को छूकर गुजरता हू
मेरी वापसी सिंकदर की तरह होगी
लेकिन! मैं घर छोड़ने से पहले मां के साए को छूकर निकलता हूं
मां! खुश है
यह सोचकर कि उसका बेटा लाख कायर है
पर सिंकदर की तरह घर कभी वापस नहीं आएगा
हां! मैं सिंकदर नहीं हूं
जो घर छोड़ने से पहले वादा करू कि
एक दिन सारी दुनियां मेरी मुठ्ठी में होगी
वह दुनिया जो मुझे पालती आ रही हैं
क्या मेरे सिंकदर बन जाने से
यह दुनिया मुझे अपना मान लेगी
हां! मैं सिंकदर नहीं हूं
जो मरने से पहले अपनी स्मृतियों को पहन न सकूं
मैं अपनी मां को पाने के लिए सिंकदर बनने का ख्याल छोड़ देता हूं
और मेरी मां देर तक हंसती है।।
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मैंने दिशाओं की हत्या की है
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जब मेरे पास कुछ नहीं था
तब मैं दिशाओं को पहनकर
सृष्टि पर पहरा देता था
अपनी दुनिया में भाषा का सेतु बनाता
जब मेरे पास दीवारें नहीं थी
तब दुनियां बहुत सुंदर थी।
और दिशाएं मेरे साथ सोती थी
आज दीवारे है और दुनियां आलमारियों में सिमटती जा रही हैं
मैंने अपनी दिशाओं की हत्या करके कमरे में दीवारों के बीच बैठा हुआ हूं।।
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सुबह का सूरज
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सुबह का सूरज मुझे देवता कम
डॉक्टर कु छ ज्यादा लगता हैं
सुबह- सुबह सूरज
मरीजों के बिस्तर पर बैठकर
त्वचा की नोटबुक पर लिखता है दवाईयां।
सुबह का सूरज देवता कम मास्टर कुछ ज्यादा लगता हैं
एक मास्टर की तरह देर तक पढ़ाता है
और शाम को स्कूल बंद करके चला जाता हैं।
सुबह का सूरज देवता कम
मेहतर कुछ ज्यादा लगता हैं
मेरे उठने से पहले साफ कर देता है
मेरे आस- पास का अंधेरा।
सुबह का सूरज मुझे अपने टेबल घड़ी सा लगता हैं
जो दिनभर मेरी दिनचर्या बनाता हैं।।
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प्यार में दो हाथ का होना जरूरी हैं
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जब मेरे पास प्यार और प्रेमिकाएं दोनों थी
और दिमाग में बहुतेरे ख्वाब
अगर सपनों के मामले में तुलना की जाती तो
इतिहास के पन्नों में मेरे नाम की भी कोई सभ्यता होती
लेकिन! अफसोस
हमारे यहां के निकम्मे इतिहासकार
बिस्तर से लेकर सिंघासन तक की खबर लिखे
लेकिन मनुष्यों के सपनों के बारे में कु छ नहीं लिखे।
जब मेरे पास प्रमिकाएं थी
तब मैं घोर नास्तिक था
ऐसे में मुक्तिबोध के बहृाराक्षस से भी डर नहीं लगता था
अज्ञेय का केशकंबली कभी रहस्यमयी नहीं लगता था
जब प्रेमिकाएं पास में थी
तब बुद्ध और भगत भी बौने लगते थे
लेकिन!  जैसे ही प्रेमिकाओं का जिंदगी से जाना हुआ
मैं उधार की कमीज की तरह खुद को देखने लगा
एक हादसे में
मैं अपना दोनों हाथ गवां बैठा था
मेरे सामने मेरी प्रमिकाएं समुद्र में लगातार सुराख किए जा रही थी
और मैं उनके कारनामें को कागज पर दर्ज कर नहीं पा रहा था
तब याद आया प्यार में दो हाथ का होना कितना जरूरी होता हैं।।
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कब्रिस्तान में प्रेमपत्र
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कब्रिस्तान की सभी आत्माएं
धरती से
अपने साथ कुछ न कुछ सामान लेकर गई थी
कोई हीरा लेकर
कोई सोना- चांदी
कोई रूपया लेकर गया था
कब्रिस्तान की एक आत्मा
धरती से
अपने साथ अपना प्रेमपत्र लेकर गई थी
यमराज दे आज घाषित कर दिया कि
जिसके पास प्रेमपत्र है
वह कब्रिस्तान की सबसे रईस आत्मा हैं।।
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जब आकाश उतरेगा आंगन में
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एक दिन
आगंन में उतरेगा आकाश
और तुम चुनोगी
हांडी भर चावल का दाना
दीया भर तेल
और थोड़ी सी आग।
एक दिन जब आकाश उतरेगा आंगन में
और तुम बनाओगी पतंग
बच्चों की खातिर कुछ कविताएं
और थोड़ी सा सिंदूर
और रंगोगी अपना यर्थाथ।।
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हामिद
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हामिद मुझसे रह-रह कर
अयोध्या का पता पूछता हैं
मैं बार उसकी बात टालकर
उसके प्रश्नों से हाथ झाड़ लेता हूं
हामिद: कभी महीनें में
अपने प्रश्न के साथ उपस्थित होता था
पर जबसे भारत और तालिबान का अर्थ समझने लगा हैं
अपने प्रश्न की आंच में दिन- रात जलता हैं
वह जानना चाहता है
अयोध्या के हाथ इतने कैसे लंबे हो गए
रेगिस्तान में भी उसके मां -बाप नहीं बच पाए
जबकि उसके यहां कोई नमाजी भी नहीं था
हामिद: अब मेरी बातों में नहीं फंसता
वह इतिहास पर पत्थर फेंकता है
बाबर/ गोरी को गाली देता हैं
इतिहास के कब्रिस्तान से जागकर
दिल्ली से टकराता है
और बेहोश होकर मेरी आंखों में गिर जाता हैं
पथराई सी उसकी आंखे
मुझसे अयोध्या का अर्थ पूछती हैं
हामिद अब बहुत अधिक समझदार हो गया है 
न कुरान से लगाव रखता है और न ही मस्जिद से
पर अपने इतिहास और वर्तमान को बदलने की खातिर
लोकतंत्र की दीवार पर मूतता जरूर हैं
और अपनी सूनी सी आंखों से
जब राम को देखता है
तब उसे यकीन नहीं होता कि
इतना पवित्र चेहरा वाला
भारत को रौंदते हुए श्रीलंका में जाकर विश्राम किया होगा
अब उसे अपना चेहरा
श्रीलंकावासियों जैसा लगता हैं
और फिर धीरे से कहता है कि
वह इस दुनिया में कोई अकेला क्षतिग्रस्त इंसान नहीं हैं।।
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मेरे बारे में दीवारे बताएगीं
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दीवारे!
हर अच्छे- बुरे वक्त में मेरे साथ रही
दीवारे मुझे भूलने की बीमारी से हमेशा दूर रखती रही
मां के न होने का अहसास नहीं होने देती थी
मुझसे अधिक दीवारे मां की याद को बचा कर रखी हुई हैं
बाबूजी! की बहुत सारी यादे दीवारे ढो रही है वर्षो से
मैंने भी दीवारों पर लिख रखा है कई सारे सूत्र
और कई सारे चित्र बना रखे हैं
दीवारे बताएगीं
मैं कविता लिखने से पहले कैसे रोता था
दीवारे बताएगीं
मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं
दीवारे बताएंगी
 कि मैं लोगों के बारे में क्या क्या सोचता था
दीवारे बताएगीं
मैं कितनी रात रात सोया नहीं
और कितने दिन भूखा रहा
दीवारे बताएगीं
मैंने काशी को बचाने के लिए क्या क्या नहीं किया।।




NITISH MISHRA
(sub. Editor )
Madhya Pradesh Today Media Pvt. Ltd.
Balarao Engle Parisar,MTH Compound, Indore (MP)
Mobile : +91 8889151029.


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