शनिवार, 9 मई 2015

वे मुझे कमजोर करना चाहते थे 
क्योंकि 
वे महत्वाकांक्षी थे
मैं मजबूत रहना चाहता था 
क्योंकि 
मेरी कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी

अशोक कुमार की कविताओं का विस्तार फलक बहुत बड़ा है विभिन्न प्रकार के विषयों को  समेटते हुए परिवेश में तनाव की सृष्टि कर देना और उस तनाव को कविता द्वारा अभिव्यक्त करने का जोखिम उठाना अशोक की खासियत है |जीवन संदर्भों को अनुभव की सीमाओं में परखकर पाठकीय संवेदना को झकझोर देने वाली कवितायें अपने समकालीन दबावों को स्वीकार करती है | व्यवस्था द्वारा गढे गये समय के क्रूर , आतंककारी ,स्वार्थी चरित्र को आलोचित करते हुए अशोक मनुष्य के पीडाबोध को व्यापक सामाजिक संदर्भों से जोड़ देते हैं उनकी यह रचनात्मक प्रक्रिया राजनीति और पूँजीवाद के अनैतिक गठजोड़ से उत्पन्न बहुस्तरीय जटिलताओं को उघाड़ने के काम आती है |उनकी भाषिक संरचना राजनीति के छद्म कार्य व्यापारों को पकड़ने में सक्षम है यही कारण है उनकी कविता घिसे पिटे  मुहावरों से प्रथक होकर जनतांत्रिक भाषा में नए मुहावरे तलास करती हुई प्रतीत होती है और कविताओं में व्याप्त घुटन , तनाव , आक्रोश किसी न किसी सकारात्मक स्वर का संबल देते है | यहाँ बेचैनी फैसन नही है न ही वो नकली धडकनों से पैदा हो रही है बल्कि व्यवस्था की आग में जल रहे एक युवा कवि के सामयिक तेवरों को रेखांकित कर रही है | अशोक कुमार युवा कवि है इनकी कविताओं से मुझे निलय जी ने परिचित कराया पिछले एक हफ्ते से मैं इनकी कविताओं को पढ़ रहा था आज मैं साथी अशोक कुमार की कुछ कविताएँ प्रकाशित करने के  बहाने पिछले दो माह से व्यस्तताओं के कारण स्थगित चल रहे लोकविमर्श ब्लॉग को  पुन: आरम्भ कर रहा हूँ | ब्लाग अब लगातार अपडेट होगा | हम समस्त विधाओं का प्रकाशन करते है शर्त ये है की रचना सरोकार पूर्ण हो |


 अशोक कुमार की कवितायें

१ खुशखबरी 
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कई बार 
खुशखबरी क्या होती है सचमुच
चीजों के भाव गिरने के
बुखार उतरता है 
कई बार 
मियादी बीमार के .
२ झुका सिर 
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उसके आगे मैंने सिर झुकाया 
और उसकी कैंची मेरे बालों में चलने लगी थी
साब जी पचीस साल हो गये 
टीन टप्पर की दुकान के
जरूर हुए होंगे 
पंद्रह साल से तो मैं तुम्हें जानता हूँ
बाल बनाते समय वह चुप कहाँ रहता था 
खोद खोद कर पूछता था
भईया बच्ची को अब नहीं लाते
हाँ, बड़ी हुई न 
अब तो पार्लर में बाल कटाती है
आप भी तो कम आते हैं
मैंने कहा-  हाँ 
बाल भी तो कम हुए न अब
मैंने पूछा 
तुम्हारी बेटियाँ
बोला वह 
सर, तीनों की शादी कर चुका
चलो अच्छा किया
साब 
बहुत दिनों बाद आये हैं 
रामनवमी है 
बख्शीश भी मिलता कुछ
मैंने गौर किया था 
उसका सिर झुका हुआ था.
३ वसंत 
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वसंत एक उतरा हुआ जामा था 
आदमी ने अपनी त्वचा से उतारी थी 
जमी हुई बर्फ की परत 
और पेड़ अपनी खाल झाड़ रहे थे
एक औरत कोयल के साथ कूक रही थी वहीं 
जहाँ आम अपनी मंजरियों से रस टपका रहे थे
यह निम्बोलियों के पकने का समय था 
महुओं के टपकने का समय था 
ठंड से बचे हुए आदमी के लिये 
गरमी से लड़ने की तैयारी का समय था
पलाश के खिलने का समय था वसंत 
गेहूँ की बालियों के पकने का समय था
वसंत एक साल बीत जाने का समय था 
उम्र की गिनती का समय था.
४ दंभ
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वे मुझे कमजोर करना चाहते थे 
क्योंकि 
वे महत्वाकांक्षी थे
मैं मजबूत रहना चाहता था 
क्योंकि 
मेरी कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी
मैं लोभी नहीं था 
मैं दुर्बल नहीं था 
मैं जितेन्द्रिय था 
मैं कामी नहीं था 
मैं कायर नहीं था
और वे मुझे कमजोर करना चाहते थे 
क्योंकि वे कमजोर थे 
और उनकी महत्वाकांक्षायें पैर पसार रही थीं 
पर तोल रही थीं.
५ बहसों के बीच 
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बहसें जब खुले मैदानों में  होती थीं 
जहाँ सोमरा मंगरा बुधना थे 
उन्हें सख्त ताकीद थी 
कि वे भाषा में तमीज और तहजीब को जिन्दा रखें
बहसें अब भव्य बंगलों के आलीशान कमरों में हो रही थीं 
जहाँ सोमरा मंगरा बुधना नहीं थे 
ताज्जुब था कि भाषा 
बदतमीज और बे- तहजीब कैसे हुई थी.
' सीली हुई माचिस की तीलियाँ '
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माचिस की तीलियाँ बिन बरसात
गीली पड़ी थीं
माचिस की तीलियाँ भीषण गरमी के बावजूद महरायी हुई थीं
दिन भर काम के बाद
औरत जब फूँकना चाह रही चूल्हा
बेदम पड़ी थीं तीलियाँ
बिन पानी बादलों की तरह .
खतरनाक दौर था जब
विधेयक खो रहे थे अपना पाठ
और न्याय को संभाले हुए थी
एक तिरछी तराजू .
चाक गढ रहे थे कच्चे बरतन 
पकानेवाली भट्ठियाँ आग के बिना सूनी और ठंडी पड़ी थीं
ठंडेपन का आलम यह था कि जब लोग मिला रहे थे हथेलियाँ
बर्फ के ठंडेपन की सूईयाँ चुभ रही थीं
आग गायब हो रही थी लोगों के जेहन से
शहर के हड़ताली चौक से बुझी हुई आग समेट रहे थे लोग
सीली हुई माचिस की तीलियाँ
सूखने के इंतजार में थीं .

' जनता चुनती है आम आदमी '
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जनता ने चुना आम आदमी 
और वह सत्ता की दीवारों में चिना गया 
फिर समय की भट्ठी में तप कर खास बन गया
जनता ने पहले भी चुने थे आम आदमी 
जो महल के परकोटे पर चढ कर 
खास हो गये थे
जनता ने फिर चुना आम आदमी 
इम्तहान की घड़ियों ने जब टिक - टिक किया 
वह खास हो गया था
जनता हर बार चुनती है आम   ही आदमी 
और हर बार वह खास हो जाता है .
' आश्चर्य '
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दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य पूछा था यक्ष ने युधिष्ठिर से
धर्मराज ने कोई माकूल जवाब ही दिया था 
सबसे बड़ा सच भी पूछा था
सबसे बड़ा झूठ भी
लोभ के कारण भी
मुक्ति के उपाय भी .
... फिर भी दुनिया में घड़ियाल बढ गये थे 
डायनासोर विलुप्त हो गये थे
वे होते तो बढ गये होते .
ऐसा तो नहीं था कि वाजिब सवाल वे न थे
ऐसा भी तो नहीं था कि वे पूछे जाने जरूरी थे .
वे सवाल हरगिज गैर-प्रासंगिक और अनुपयोगी नहीं थे
उन सवालों का जवाब दे रहा था आदिमानव 
कंदराओं की भीत्ति-चित्रों से बाहर निकल कर 
जब नदी किनारे किसी बस्ती का चित्र खीँचा उसने 
मिट्टी की ढूह पर 
जब पेट की आग के लिये
चकमक पत्थरों से निकाल रहा था आग वह
और अपने पैरों में बाँध लिये पहिये .
अब तो महा-मानव भी पैदा कर लिये थे आदि-मानव ने
उनके पंख भी बाँध डाले थे 
ऐश्वर्य के साम्राज्य भी खड़े कर डाले थे .
यक्ष फिर भी था वहीं
और वही प्रश्न दुहरा रहा था.
फर्क था एक 
कि धर्मराज न था कोई
यक्ष अनुत्तरित था .










अशोक कुमार, शैलजा अपार्टमेंट, फ्लैट संख्या 102/बी, मटवारी, हजारीबाग (झारखंड) . मोबाइल संख्या 08809804642
      

1 टिप्पणी:

  1. दो बातें इन कविताओं से निकलती है एक कवि की समाजिक प्रतिबद्धता और दूसरी साफगोई ।जीवन स्थितियों से रची गई इन कविताओं को पढ़ना रूचिकर काव्यात्मक अनुभवों से गुजरना है ।

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