कोई भी कवि जिसकी कविता में
लोकचेतना और जनपदीय बिम्बों का अभाव हो उसकी कविता यथार्थ का बोझ नही उठा सकतीं है
जब कवि अपने आस पास के वातावरण से संवेदित होता है तो यथार्थ का तनाव विषय बन जाता है और काव्यभाषा में कवि का अक्स दिखने
लगता है| अरुण शीतांश की कविताओं में जीवन
के जितने सामाजिक , राजनैतिक , आर्थिक .
पूंजीवादी, जमीनी ,पारिवारिक आयाम हैं
छोटी छोटी कविताओं में छोटे छोटे बिम्बों के सहारे उपस्थित होतें है | ये छोटे
छोटे बिम्ब व्यक्ति और परिवेश के मध्य दृष्टि के सहारे निर्मित होतें है | छोटे बिम्ब एकत्र होकर एक बड़े बिम्ब का निर्माण
कर देतें है| सारे बिम्बों का सामूहन एक बड़े बिम्ब में हो जाता है जिसमें
छोटी छोटी कवितायें आखिर में बड़ी
कविता का निर्माण कर देती है | बिम्ब
सामूहन की यह कला बहुत कम कवियों में देखने को मिलती है| इन कविताओं में वैज्ञानिक जांच के सहारे व्यापक मानवीय संबंधों को रचनात्मक
स्तर पर परिभाषित करने की कोशिश की गयी है
यहाँ यथार्थ का तनाव भाषा
को अधिक जिम्मेदारी दे देता है यहाँ भाषा ही वह माध्यम बनती है जो कविता के अंत:
स्तरों को पाठको के समक्ष खोलती है| भाषा कवि का निजी उत्पाद नहीं हैं बल्कि उस जनसमुदाय का सामूहिक उत्पादन है जहां पूँजीवाद द्वारा प्रदत्त यंत्रणा समूचे
समुदाय के लिए एक जैसी है | अनुभूति और स्व संवेदन एक जैसा ही है | अभिव्यक्ति का तीखापन और पीडाबोध का स्तर भाषा
का तीखापन और बोधगम्यता का निर्धारक होता है| अरुण शीतांश की कवितायेँ कहीं भी “अभिजात्य” भाषा बोध से
अनुलग्न नहीं हैं | भाषा की प्रमाणिकता यही है की आम आदमी की जिंदगी में रोजमर्रा प्रयुक्त होने वाले शब्द
समूहों का यहाँ संतुलित और सचेत प्रयोग है | एक ऐसी भाषा जो व्यापक जनसमुदाय के
बीच प्रचलित है, जिससे व्यक्ति का हर रोज़
साक्षात्कार होता है, जिन शब्दों से वह अपनी पीडाओं को स्वर देतें है, उनका अर्थ
कवि की जमीनी और समुदायिक की पीडाओं में
खोजा जा सकता है, ऐसे शब्दों का कविता में प्रयोग भाषागत प्रयोगधर्मिता के साथ साथ
भाषा को एक नयी ऊर्जा से भर देता है | अरुण शीतांश की कविता में कंटेंट के अनुसार में रचनात्मक भाषायी प्रयोगों के दर्शन होते हैं | भाषा का पैनापन तब और बढ़ जाता
है जब भाषा मुहावरों की तरह प्रतिसाद देने लगती है| तब कविता कविता के दायरे से निकलकर एक संवाद जैसी भंगिमा अख्तियार लगने लगती है |
आज हम लोकविमर्श में अरुण शीतांश की भिन्न भिन्न विषयों पर लिखी गयीं कविताओं का
प्रकाशन कर रहें है जिनमे भाषागत विविधता के साथ साथ बिम्बों का अंत: सम्बन्ध खोजा
जा सकता है
अरुण शीतांश की कवितायें
१ दो गज़ जमीन का हत्यारा
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अरूण शीतांश
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अरूण शीतांश
वो समय का पाबंद नहीं था
वह पिता की हत्या करना चाहता था
वह अपना कभी नहीं था
बुद्ध तो देख रहे थे
माँ आँसू बहा रहा थी
माँ आँसू बहा रहा थी
पिता की बेइज्जती पर
मानुषखोर था वह
जंगली नहीं था
जंगली नहीं था
उसके पिता छोड़ रखे थे खुलम्खुला
वह हत्या करनेवाला खिलाड़ी था
वह हत्या करनेवाला खिलाड़ी था
ठेहे पर पिता की मूंडी रख तड़पाना चाहता था
पिता ने पैसे खर्च किए पढाने में
रोजगार दी
रोजगार दी
वह हत्या के जरिए
बालूस्तान मे फेंकना चाहता था उन्हें
बालूस्तान मे फेंकना चाहता था उन्हें
मुझे नफरत नहीं उससे
दया है
दया है
वह बीडी. पीता दुकानदार से दारू नहीं
ख़ून माँगता है
ख़ून माँगता है
वह इस पृथ्वी का पहला इंसान है जो रहने लायक नहीं है .
उसे देखकर अपने गाँव में
रोज़ एक दिन मर रहा हूँ
उसके मरने से पहले
रोज़ एक दिन मर रहा हूँ
उसके मरने से पहले
वह गोली भी मारेगा मुझे या मेरे परिवार के सदस्य को
तो आह निकलेगी
तो आह निकलेगी
हे राम ! नहीं
१८.०३.'१५
२ सही समय
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अरुण शीतांश
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अरुण शीतांश
सही समय
सही पहचान
घर अफिस दोस्त सब मिथ्या अहंकार.बाबा का समय था .सहज .
छल पर थूकते लोग
बल था
बिगड़ता पल
समय ने लाकर रख दिया हमें
किस जगह माता !
ये दुनिया हमारे लायक नहीं
सही पहचान
घर अफिस दोस्त सब मिथ्या अहंकार.बाबा का समय था .सहज .
छल पर थूकते लोग
बल था
बिगड़ता पल
समय ने लाकर रख दिया हमें
किस जगह माता !
ये दुनिया हमारे लायक नहीं
वृक्षों की डालियां पसर रहीं है रात रात भर
राईफल गोला बारुद लैपटॉप मिसाईल युद्ध कारखाने आराजक सरकार दम्भी क्रुर गाली गलौज गाडियाँ सब पक कर रहें हैं विश्वास
राईफल गोला बारुद लैपटॉप मिसाईल युद्ध कारखाने आराजक सरकार दम्भी क्रुर गाली गलौज गाडियाँ सब पक कर रहें हैं विश्वास
रोज़ मरते लोग आँकड़ा बेईमान
शहर शैतान
न्यायधीशों के पाँव पैसों से लदा फदा
छतों से फेकतीं रोटियाँ कचडे़ में
रोड हाय हाय
बाय बाय
सेमिनार हॉल में बहसें
सरकार की खिंचाई
सब रोना धोना बंद
सब राजा का चरण दास
दिल्ली दरबार मीडिया पत्रकार
शहर शैतान
न्यायधीशों के पाँव पैसों से लदा फदा
छतों से फेकतीं रोटियाँ कचडे़ में
रोड हाय हाय
बाय बाय
सेमिनार हॉल में बहसें
सरकार की खिंचाई
सब रोना धोना बंद
सब राजा का चरण दास
दिल्ली दरबार मीडिया पत्रकार
२०१५ आजतक इस पल तक
उत्तेजनात्मक विचार
उत्तेजनात्मक विचार
क्यों रो रहीं रधिया
रामबली
सुगना बचवा
बस बची है किसी तरह एक कोठरी
आदिवासी विचार ....
रामबली
सुगना बचवा
बस बची है किसी तरह एक कोठरी
आदिवासी विचार ....
३ चोप
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अरुण शीतांश
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अरुण शीतांश
पारिस्थितिकी संतुलन के लिए हर घर मे
एक बागीचा चाहिए
पेडो़ं में फल हो
पौधों मे फूल
एक बागीचा चाहिए
पेडो़ं में फल हो
पौधों मे फूल
रोज़ नई घटना की तरह
बना रहे सुंदर पर्यावरण
बना रहे सुंदर पर्यावरण
जंगल की तरह घेरे में पक्षियों के कलरव
घोड़ों का टॉप सुनाई दे
ठक ठक ठक ठक
शुद्ध हवा में
शांत; विश्राम की तरह
घोड़ों का टॉप सुनाई दे
ठक ठक ठक ठक
शुद्ध हवा में
शांत; विश्राम की तरह
कोई माउस लैपटॉप न हो और मोबाईल
बस
संवाद हो निश्चल हँसी के साथ भरपूर
बस
संवाद हो निश्चल हँसी के साथ भरपूर
आम का पेड़ खूब हो
जिस पर बैठकर ठोर से मारे
मनभोग आम को
कोई सुग्गा
एक दिन गिरे तो चोंप कम हो
धोकर खा जाँए सही सही
मुँह में चोप का दाग हो
कोई बात नहीं
जिस पर बैठकर ठोर से मारे
मनभोग आम को
कोई सुग्गा
एक दिन गिरे तो चोंप कम हो
धोकर खा जाँए सही सही
मुँह में चोप का दाग हो
कोई बात नहीं
हर भारतीय को नसीब कहाँ
बाल्टी में भरकर खा लें भरपेट आम
बाल्टी में भरकर खा लें भरपेट आम
कुत्ता बेचारा खा नहीं सकता
देखता है कातर नज़र से
बच्चे हुं हां करते
ओ ओ ओ
आ आ आ आ आ
दौड़ते भागतें भैंस गाय के साथ चिलचिलाती धूप में
माँए गाली देती -अरे बईआ समवना!
अरे अरे ! खा ले खा ले
लू लग जइहें
देखता है कातर नज़र से
बच्चे हुं हां करते
ओ ओ ओ
आ आ आ आ आ
दौड़ते भागतें भैंस गाय के साथ चिलचिलाती धूप में
माँए गाली देती -अरे बईआ समवना!
अरे अरे ! खा ले खा ले
लू लग जइहें
माँए
महुआ को पसारती
सुखाती भांड़ी में रख आई
महुआ को पसारती
सुखाती भांड़ी में रख आई
नयका चाउर के भात का माड़ कुत्ता खाता
चपर चपर चपर ...
थोड़ा जल
हाँफते पीता
चटर चटर चटर.....
चपर चपर चपर ...
थोड़ा जल
हाँफते पीता
चटर चटर चटर.....
चमकती बिजली की तरह टाल का खेत
कौंधती धमकती आँच
लहकती सी देह
तप्त पसीने से सराबोर
पेंड़ की छाँव हीं काम आया
गमछी बिछाकर ..
दू बात सबसे करके
सानी पानी गोबर डांगर सब निफिकीर
पीते हुए पनामा सिगरेट
कौंधती धमकती आँच
लहकती सी देह
तप्त पसीने से सराबोर
पेंड़ की छाँव हीं काम आया
गमछी बिछाकर ..
दू बात सबसे करके
सानी पानी गोबर डांगर सब निफिकीर
पीते हुए पनामा सिगरेट
जो पनामा नहर को याद दिलाती है किसानों को
कल पेड़ और खेत के गीत गाए जाऐगें
रोपी जाएँगी फ़सलें
रोपी जाएँगी फ़सलें
रात भर भरे जाएँगें पानी से
खेत ....
सरकार की नज़र से बचकर कहाँ जाऐगा
पेट
खेत ....
सरकार की नज़र से बचकर कहाँ जाऐगा
पेट
४ एक नशा है
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अरुण शीतांश
पानी की भी उमर होती है
पचपन
पानी ने पूछा नहीं हवा से उमर के बारे में
हवा पानी बनती गई
उमर की तरह
पचपन
पानी ने पूछा नहीं हवा से उमर के बारे में
हवा पानी बनती गई
उमर की तरह
हम किस रुख की हवा की बात कर रहें हैं
उत्तर दक्षिण
पूरब पश्चिम
हर हवा में दिशा है
एक नशा है
उत्तर दक्षिण
पूरब पश्चिम
हर हवा में दिशा है
एक नशा है
हवा पानी लेने गई
पहाड़ से
पानी मैदान में बरस रहा है
बारिश में नहाते बच्चे
कह रहें हैं
घोघा रानी कितना पानी....
२२.०४.'१५
पहाड़ से
पानी मैदान में बरस रहा है
बारिश में नहाते बच्चे
कह रहें हैं
घोघा रानी कितना पानी....
२२.०४.'१५
५ खण्डहर
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अरूण शीतांश
रात में रंगरेज रंग रहा है कपड़ा
रौशनी है
रौशनी का पीलापन कौन रंग रहा है रंगरेज
रौशनी का पीलापन कौन रंग रहा है रंगरेज
कमरे में अचानक अँधेरा
अँधेरा कौन रंग रहा रंगरेज
अँधेरा कौन रंग रहा रंगरेज
आवाज जोर से निकली
बचा लो कबीर!
मुँह से थूक निकल आया
थूक का रंग किसने कब रंगा रंगरेज
बचा लो कबीर!
मुँह से थूक निकल आया
थूक का रंग किसने कब रंगा रंगरेज
मेज पर फूल और फल देख रहा हूँ
फूल और फल को किसने रंगा रंगरेज ....
फूल और फल को किसने रंगा रंगरेज ....
२१.०४.'१५
६ समय सबका होता है
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अरुण शीतांश
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अरुण शीतांश
समय तबाह करता है
समय किसी का नहीं होता
समय किसी का नहीं होता
समय सब देख रहा है .
हमें समय को देखना चाहिए
समय हमें क्यों देखेगा
समय हमें क्यों देखेगा
सही बात समय से शुरु होती है
और खत्म हो जाती है .
और खत्म हो जाती है .
समय को कोई नहीं मार सकता
हमे समय मार सकता है
हमे समय मार सकता है
हर समय में हम हैं
बस
समय बचना चाहिए
बचाना भी चाहिए
बस
समय बचना चाहिए
बचाना भी चाहिए
बहुत समय खर्च करते है हम
नहीं तो हम समय से सुंदर होते !
नहीं तो हम समय से सुंदर होते !
( एक आवारा लड़के के लिए )
२४.०३.'१५
२४.०३.'१५
७ समय के बाँहों में
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अरूण शीतांश
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अरूण शीतांश
समय से सब है
हम समय में हैं
हम समय में हैं
थरथराते हाथ खोज रहे हैं
सहारा
समय के लिए
सहारा
समय के लिए
हो जाए आराम
टूटे वृक्ष की तरह
टूटे वृक्ष की तरह
हम वृक्ष की परीछांई हैं
हम समय के सिपाही
हम समय के सिपाही
दो जून की रोटी
समय में है
समय में है
चलो ! चाँद से पानी माँगू .
१६.०३.'१५
८ बेल
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अरूण शीतांश
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अरूण शीतांश
तुम्हारी गोलाई को देखकर
बेल याद आती है
पेड़ नहीं
बेल याद आती है
पेड़ नहीं
और जब पेड़ देखता हूँ तो बेल नहीं दिखाई देता
उसके शाखा पर लटका भटका टटका
भोर हूँ
जो ब्रह्म मुर्हूत में चला जाता हूँ पीने पाने
बेल का शरबत
भोर हूँ
जो ब्रह्म मुर्हूत में चला जाता हूँ पीने पाने
बेल का शरबत
मेरे पास कुछ नहीं है
आँख के सिवाए ;
आँख के सिवाए ;
तुम्हारे पास सबकुछ है
जिस दिन
पेड़ बोलेगा पत्तियाँ हिलेंगी
पेड़ बोलेगा पत्तियाँ हिलेंगी
नाच नचा दूँगा उस दिन जी भर
बाबा की फुलवारी में
बाबा की फुलवारी में
दीप्त हो उठेगा
पृथ्वी की अंडाकार की गोलाई
पृथ्वी की अंडाकार की गोलाई
१२.०३.'१५
संपादक देशज
मणि भवन
संकट मोचन नगर
आरा बिहार
बहुत बहुत सुन्दर रचनाएँ अरुण सर को कोटिशः बधाइयाँ और उमा भाई को ऐसी मर्मस्पर्शी रचनाओ को शेयर करने के लिए आभार |
जवाब देंहटाएंकविता एक बारगी हमें स्मृति से जोड़ती है | जब हम सब अपने-अपने जीवन के शोर में डूबे होते हैं , जब कुछ भी सुनने की स्थिति नहीं होती तब कविता ही मानव बिरादरी की पहरेदारी करती है | जो जीवन स्थितियां हम जी लिये और जिसे छोड़ आये वह सब कविता के द्वारा जीया जाता है | एक कवि अपनी कविता से हमारे सामने ही हमारी दुनिया को बार -बार रखता है | देखों यह है दुनिया और यह है जिन्दगी और हां इसी के साथ आने वाली चुनौतियों को सामने रख एक विकल्प की दुनिया तैयार करती है | आपकी कविताएं इसी रूप में हमारे सामने आती है | उमा शंकर जी को बेहतर रचना कर्म से परिचित कराने के लिए आभार |
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