कुंवर रवींद्र – युग और बोध
चित्रकला में मिथक व क्लासिकल रूढ़वादी परम्पराओं को छोड़कर यथार्थ
की नैसर्गिक प्रवृत्ति का चित्रण करने वाले चित्रकार बहुत कम मिलते है ऐसा चित्रकार
कवि भी हो यह तो और भी मुश्किल है | कुँवर रवीन्द्र ऐसे ही कलाकार हैं | उनकी कला/कविता का दायरा
वस्तुगत जगत का स्वउपभुक्त यथार्थ है | वस्तुगत जगत की विसंगतियों में जी रहे मनुष्य
के जीवन का शिद्दत के साथ सर्वांग रैखिक बिम्व सृजन करना एवं शब्द बिम्बो से उसे संपुष्ट करना उनकी विलक्षणता है| जितनी शिद्दत
के साथ चित्रकला को यथार्थ से सरोबोर करके
कलात्मक टच दिया है उसी शिद्दत के साथ वें अपनी कविताओं में यथार्थ के विरूद्ध गम्भीर
आक्रोश व्यक्त करते है|
कुँवर रवीन्द्र के चित्रों को समझने के लिए उनकी कविता बहुत
की कारगर औजार है चित्रों के रंग संयोजन में व हल्के गहरे आरोह-अवरोह में कौन सा तथ्य
छिपा है इसकी जानकारी उनकी कविता ही दे सकती है| अमूमन चित्रकला को कल्पना से जोड़ने
की बहुत बड़ी गलती कर दी जाती है कुँवर रवीन्द्र के चित्र इस गलती का खण्डन है| वह सिद्ध कर देते है कि चित्रकला का आशय रेखाओं और
रंगों में प्रकृति के सर्वभौम जीवन को मूर्त करना है | यही मूर्तन पुनः अंकन है | यही कला है एवं कविता में
यही मूर्तन सम्वेद्य बिम्ब है| चित्रकार की उत्पेरणा भौतिक प्रकृति की रचनात्मक शक्तियों
का प्रतिबिम्व है वह जिस जीवन का अध्ययन कर रहा है | जिन परिस्थितियों से प्रभावित हो रहा है | वह जिस यथार्थ से आम लोक
मानस को आबद्ध देख रहा है | उस यथार्थ को रंगों में व्यक्त करना ही चित्रकला है| और
कुँवर रवीन्द्र इस मानक में खरे उतरते है | रवीन्द्र ने उस यथार्थ का अनुभव अपने चित्रों
में बखूबी सहेजा है|
उनकी कवितायें भी इस कटुता को दर-किनार नही करती अपितु यथार्थ के
प्रति कवितायें उतनी ही मुखर है जितना की उनके चित्र | आईये आज हम लोकविमर्श में
जीवन की विभिन्न अनुभूतियों से उकेरे गये रवींद्र के चित्र और उनकी कविताओं का
संतुलन देखतें हैं
1
रेल यात्रा
एक ठिकाने से दूसरे ठिकाने
पहुँचने की यात्रा होती है
इस विकल्प के साथ
कि आगे भी जाया जा सकता है
या फिर वापस
पुराने ठिकाने में लौटा जा सकता है
एक ठिकाने से दूसरे ठिकाने
पहुँचने की यात्रा होती है
इस विकल्प के साथ
कि आगे भी जाया जा सकता है
या फिर वापस
पुराने ठिकाने में लौटा जा सकता है
जीवन की यात्रा में
विकल्प शब्द नहीं होता
विकल्प शब्द नहीं होता
आना या फिर जाना
2
ज्वालामुखी धधक रहा है
भीषण ताप भीतर का पानी
सुखा चुका है
भीषण ताप भीतर का पानी
सुखा चुका है
जंगल !
एक बार तुम फिर हरिआओ
संसद में कालीनों की जगह
हरियर घास बिछाओ
एक बार तुम फिर हरिआओ
संसद में कालीनों की जगह
हरियर घास बिछाओ
3
दर्ज़ होगा इतिहास में -
लोग जाग रहे थे ,
मुस्तैद भी थे कुछ लोग
और कारवाँ लूट गया
लोग जाग रहे थे ,
मुस्तैद भी थे कुछ लोग
और कारवाँ लूट गया
वक़्त !
सिर्फ मुस्तैद रहने
या जागते रहने का नहीं है
खड़े होकर लुटेरों से
दो-दो हाथ करने का है
सिर्फ मुस्तैद रहने
या जागते रहने का नहीं है
खड़े होकर लुटेरों से
दो-दो हाथ करने का है
वक़्त लौटता नहीं
सिर्फ इतिहास में दर्ज़ हो जाता है
सिर्फ इतिहास में दर्ज़ हो जाता है
हाँ
सिर्फ इतिहास में दर्ज़ होगा
जीत
या फिर कायरों की तरह
बिना लड़े हार
सिर्फ इतिहास में दर्ज़ होगा
जीत
या फिर कायरों की तरह
बिना लड़े हार
4
दुःख
तो दुःख है
उनको दुःख है
रोटी न पचा पाने की
इनको दुःख है
रोटी न मिल पाने की
रोटी न पचा पाने की
इनको दुःख है
रोटी न मिल पाने की
दुःख
तो दुःख है
5
रोम एक बार फिर जल रहा है
जल रहा है रेशा-रेशा
वह सब कुछ भी जो
युगों युगों से
सहेज-सम्हाल कर रखा गया है
जल रहा है रेशा-रेशा
वह सब कुछ भी जो
युगों युगों से
सहेज-सम्हाल कर रखा गया है
फिर एक बार
इतिहास में दर्ज होगा सिर्फ नीरो
इतिहास में दर्ज होगा सिर्फ नीरो
चीखो,चीखो , चिल्लाओ जोर-जोर से
चीखने-चिल्लाने, जल जाने वाले लोग
कभी दर्ज नहीं होते इतिहास में.....
चीखने-चिल्लाने, जल जाने वाले लोग
कभी दर्ज नहीं होते इतिहास में.....
के रवीन्द्र को बेशक उनकी कविताओं में और चित्रों में खोज जा सकता है और मनुष्य प्रकृति के साथ पर्यावरण के प्रति बेहद ज़िम्मेदार के रवीन्द्र से मिल्कR तो जैसे पारस पत्थर पर यकीन पक्का हो जाता है
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