शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

अखिलेश के उपन्यास “निर्वासन” पर संदीप तिवारी की पाठकीय प्रतिक्रिया




 अखिलेश का उपन्यास 'निर्वासन' एक ही साथ कई प्रश्नों को उठाते हुए चलता है | मसलन बाज़ारवाद हमारे ऊपर कितना हावी हो चुका है, सत्ता में बैठे लोग कैसे दलाल हो गए हैं, और मीडिआ कैसे बिकती है, ये तमाम प्रश्न, उपन्यास पढ़ते हुए आपको सोचने के लिए मज़बूर कर सकते हैं| उपन्यास के सूत्रधार सूर्यकांत और उसके चाचा के बचपन के बहाने इमरजेंसी की बर्बरता और चौरासी के सिख दंगों का बड़ा ही मार्मिक चित्रण हुआ है| इसी दंगे की वज़ह से चाचा की मोहब्बत बलवंत कौर और उसका बचा-खुचा परिवार सुल्तानपुर छोड़कर भटिंडा चला जाता है और वहां एक निर्वासित ज़िंदगी जीने के लिए मज़बूर हैहज़ारों पेड़ों की बलि देकर, हज़ारहाँ लोगों को घर-बेघर करके, ये बड़े-बड़े राज़मार्ग; फ्लाईओवर जिसपर दौड़ती हुई फर्राटेदार गाड़ियां, ज़िंदगी और मौत का  खेल-खेला करती हैं, ये विकास है या सत्यानाश |
 उस विकास का क्या महत्व रह गया है जब  एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को देखना पसंद नहीं करती है| बाप दर्द से कराहता हुआ बेटे से दवा मांग रहा है और बेटा कुछ सुन नहीं पा रहा है क्योंकि कान बंद हो गया है .....ईयरफ़ोन नामक कोई ताला है जो कान बंद कर देता है... सिर्फ अपनी सहूलियत की चीज़ें सुनाई पड़ती है| देश दुनिया मर रहा  है  या जी रहा है  इस बात की उन्हें थोड़ी सी भी फ़िक्र नहीं है|
 आदिवासी इलाकों  में हो रहे लकदक परिवर्तन की चिंता रणेन्द्र के उपन्यासों में भी देखने को मिलती है जो कि वह समाज हमारी मुख्यधारा से कटा हुआ समाज है| पर जरा ठहर कर सोचो कि यह जो हमारी मुख्यधारा का समाज है, क्या यहाँ विनाशकारी परिवर्तन तेज़ी से नहीं हो रहे हैं? आदमी मशीन होता चला जा रहा है| सारी संवेदनशीलता छुप सी गई है| ऐसे में उपन्यास का हर पात्र परेशान व चिंतित है इस बदलाव से| जहाँ बदलाव की ज़रूरत है वहां किसी कि नज़र ही नहीं पड़ रही है| वरुणा एक्सप्रेस चालीस साल पहले जैसी थी, वह  आज भी वैसी ही है| आज भी उसके पंखे को कलम या कंघी से हिला कर चलाया जाता है| दो शहरों के बीच के स्टेशन अब भी वैसे और उतने ही बड़े हैं जितना कि 'पैदा होते' समय थे
 ग्लोबल  दुनिया और तकनीकी  क्रांति  के समय में भी लेखक ने बार-बार गांव-देहात या कस्बों की उन छोटी-छोटी चीज़ों को पकड़ने और अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है जिससे इस झूट-मूठ के आडम्बर  को ध्वस्त किया जा सके| दरअसल हम एक  ऐसे समय में जी रहे हैं जब छोटे-छोटे शहर, क़स्बे भी बड़े शहरों की नक़ल में पागल हुए जा रहे हैं तब लेखक ने बड़ी संज़ीदगी  से इन कस्बों की ज़िंदादिली को ( जो कि इस आपाधापी में लोगों से दूर होती जा रही हैं ) को किसी न किसी बहाने सामने लाने का प्रयास किया है| फ़िर इसी  बहाने सुल्तानपुर अंचल के कई  आंचलिक शब्द जैसे -मड़ई,छान,जाँत,थरिया,तपता,गोड़,मुसरी,गटई,सिल-लोढ़ा आदि मन मोह लेते हैं| उपन्यास के दो बुड्ढे बराबर पाठकों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करते हैं कि किस तरह से आज की युवा पीढ़ी उनके प्रति उदासीन है| एक तो गांव गोसाईंगंज के जगदम्बा कुम्हार और दूसरा सूर्यकांत की दादी| ये दो पात्र किसी एक गांव या शहर का प्रतिनिधित्व नहीं करते है बल्कि भारत के उन तमाम गांवों व शहरों का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ बूढ़ों की दुर्दशा फैशन का रूप ले रही है |
>>>> उपन्यास की कथा रामअजोर पाण्डेय के बाबा भगेलू कुम्हार के गांव की तलाश के साथ-साथ चलती है जो लगभग सौ साल पहले गिरमिटिया बनकर फ़ैज़ाबाद से सूरीनाम ले जाए गए थे |यहाँ से जाते समय इन्होंने अपना नाम भगेलू पाण्डेय बताया थाइसलिए सूरीनाम में यह पाण्डेय के नाम से ही जाने जाते थे फ़िर उनकी पूरी ज़िंदगी इस आशा में बीत गई कि वह एक दिन गांव ज़रूर लौटेगें| पर उनकी आशा धरी की धरी  रह गई और एक दिन वो इस दुनिया को छोड़कर चले गए| अब इस 'आशा' को पूरा करना चाहते हैं उनके पोते रामअजोर पाण्डेय जो अब अमेरिका में रहते हैं और बड़ी बड़ी कंपनियों के स्वामी हैं | लेकिन इस खोज की सबसे बड़ी समस्या यह हुई कि पूरा का पूरा गांव अपने को अमरीका पांड़े से जोड़ रहा है| सभी  एक स्वर  में चिल्ला रहे हैं कि हम ही हैं पाण्डेय के असली वारिस| शायद अमरीका पाण्डे में लोग अपनी दरिद्रता का अंत खोज रहे हैं |पर वास्तव में जिन्हें अमरीका पाण्डेय की ज़रूरत है या जो असली वारिस हैं वो नीम के नीचे पड़ी खटिया पर लेटकर पाद  रहे हैं या कहें  कि पादना उनकी नियति है
 इस तरह लेखक ने सही कहा  है कि नगण्य  लोगों को छोड़  दिया  जाय  तो आज सभी अमेरिका से नाता जोड़ने को आतुर दिखते हैं| यहाँ अमेरिका और पाण्डेय के पुरखों की खोज, कथा कहने की एक टेकनिक हो सकती है| असल में लेखक, बाज़ारवाद के छत तले कराहते लोगों की पीड़ा का बयान करना चाहता हैउपन्यास में सूर्यकांत के चाचा इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं जो एक खाते-पीते घर में भी सुकून से नहीं रह पाते है| अंततः घर के पीछे ही एक झोपड़ी बना कर रहने को अभिशप्त हैं| कथा का सूत्रधार स्वयंं सूर्यकांत भी निर्वासित ज़िंदगी जी रहा है क्योंकि एक रात उसे और उसकी पत्नी गौरी  को घर से निकाल दिया जाता है| ग़लती इतनी  ही है कि बिना पिता जी को बताये, उन्होंने प्यार कर लिया और  कोर्ट में शादी कर ली| इस तरह कथा सिर्फ़  भगेलू कुम्हार के निर्वासन की नहीं है बल्कि निर्वासन के अंदर कई निर्वासन हैं | क्योंकि निर्वासन घर से दूर रहने पर ही नहीं, घर में रह कर भी होता है| आज समाज में तमाम ज़िंदगियाँ एक साथ रहते हुए भी निर्वासन का दंश झेल रही हैंवजहें साफ़ हैं, अपने ज़मीन और जड़ से लोगों का पलायन| हर जगह दिखावा, खाने से लेकर सोने तक| ऐसे में एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी की या फ़िर  एक ही पीढ़ी के दो लोग, एक दूसरे की मनोदशा समझने में नाकाम हैं| इसी दर्द की कथा है निर्वासन....... ..........................

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>>>> सम्पर्क- संदीप तिवारी
>>>> कक्ष संख्या- १२७, अमरनाथ झा छात्रावास
>>>> इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद- २११००२
>>>> मो.न. 9026107672
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