शनिवार, 3 सितंबर 2016

अनिल जनविजय की कवितायें

      
अनिल जनविजय की कवितायें
कवि के पास जन्मजात दृष्टि नही होती है उसे दृष्टि मिलती है | मतलब कवि अपने समय के संघातों , विचारधाराओं , प्रभावों ,समाजिक संरचनाओं , निजी संघर्षों को जब समग्रता से जीता है तो वह दृष्टि का निर्माण कर रहा होता है । यही दृष्टि कविता के लिए भाषा उपार्जित करती है । अर्थात कवि की भाषा व संवेदना कवि के निजी परिवेश व इस परिवेश मे पल रहे जीवन का साक्ष्य होती है ।स्त्री को लेकर बहुत सी कविताएं लिखी गयीं मगर जिस माहौल को भारत की आम स्त्री जीती है उसे बहुत कम दिखाया गया है । इस दिशा में महानगरीय स्त्री विमर्श और जन्म से चाँदी का चम्मच लेकर पैदा होने वाली कवियित्रियों  की विशाल भीड ने उच्चवर्गीय निजी सरोकारों की सीमा रेखा से इस विमर्श को आगे नही बढने दिया समाज | और सच से निरपेक्ष इस विमर्श ने स्त्री को एक भोग्या वस्तु के रूप मे दिखाकर  कर शराब की बोतल मे तब्दील कर दिया । दूसरा वर्ग ऐसी कवियित्रियों का रहा जो प्रेम और विरह की नकली भंगिमाओं और नकली भाषा से नही उबर सका इन कवियित्रियों के महानगरीय  पार्क , पूल , और काफी हाऊस , बारअधिक से अधिक घोसला चिडिया ,हाय हाय , छाती पीटना जैसी बातों में प्रेम की इतिश्री मान लेने की विवशता  रही । इन विमर्श काराओं में  गाँव और कस्बों में सडी गली मान्यताओं और सामन्ती दबावों में झुलस रही स्त्री की न तो संवेदना रही और न भाषा रही इसी लिए स्त्री विमर्श केवल विश्वविद्यालयों की किताबों में सिमटकर रह गया । और भारतीय परिवेश में अपनी व्यापक स्वीकृति नही बना सका स्थिति जस का तस है । लेकिन अस्सी के दशक में अचानक केदारनाथ अग्रवाल , त्रिलोचन , नागार्जुन जैसे कवि फिर से महत्वपूर्ण हो गये और देहवादी कुंठावादी अश्लील कविताओं का दौर मद्धिम पडने लगा  इस दशक मे बहुत से युवा कवियों ने हिन्दी कविता मे पदार्पण किया इन युवा कवियों में अनिल जनविजय महत्पूर्ण नाम हैं ।जनविजय की प्रेम कविताएँ और स्त्रीवादी कविताएं अस्सी नब्बे के दशकों में साहित्य में प्रभावी बुर्जुवा सांस्कृतिक संकट और सर्वग्रासी विचारधाराओं की भयावहता के बरक्स स्त्री के लिए गम्भीर संवेदना और अधिकारों की सृजनात्मक भाषा लेकर उपस्थित होती हैं रिश्तों में ऊष्मा है तो अपरिचय मे सहानुभूति है ।सहानुभूति झूठी नही है कला भवनों और अकादमियों की शाश्वत भंगिमा नही है बल्कि देह का चेतना तक विस्तिर है जो कैशोर्य भावुकता के साथ साथ तमाम अलोकतान्त्रिक शक्तियों की मुखालफत का माद्दा रखती हैं ।इन कविताओं में लोकजीवन की ऐन्द्रिक गंध शोपीस बनकर नही आती | वह  चमकदार और सुघड नही है | ड्राईंग रूम की संस्कृति का निर्माण  नही करती है बल्कि दुःसह परिस्थितियों में समूचे जीवन के साथ खडे हो जाने का संकल्प देती है । मानवीय रागात्मकता को  सामान्य कलाविहीन अकृत्रिम भाषा के साथ जोडकर कविता को तनावविहीन बुनियादी रागों तक ले जाने की उम्मीद देती हैं अनिल जनविजय की कुछ कविताओं के प्रकाशन के साथ ही आज मैं पिछले दो साल से बन्द पडे ब्लाग "लोकविमर्श" को पुनः सक्रिय कर रहा हूँ । इस ब्लाग मे पाठक संख्या बहुत है पर इसे मैँ तमाम व्यस्तताओं के चलते नियमित अपडेट नही कर पाता था ।अब यह नियमित अपडेट होगा और जिन साथियों की रचनाएँ मैं पढूँगा तो पहले की तरह  तात्कालिक अभिमत भी इसी ब्लाग में दूँगा । आईए आज अनिल जनविजय की कविताएँ पढते हैं




वह लड़की
दिन था गर्मी का, बदली छाई थी


थी उमस फ़ज़ा में भरी हुई


लड़की वह छोटी मुझे बेहद भाई थी


थी बस-स्टॉप पर खड़ी हुई



मैं नहीं जानता क्या नाम है उसका


करती है वह क्या काम


याद मुझे बस, संदल का भभका


और उस के चेहरे की मुस्कान

कहारिन

वह कहारिन


काली लड़की


बहुत सुन्दर है



पानी भरते, बरतन मलते


काली लड़की


कोई गुनगुनाती है


मुंडेर पर एक कोयल ठहर जाती है



छोटा कोठा, बड़ा कोठा


रसोईघर, कोठार, आँगन बुहारती है


काली लड़की


दुत-दुत कुत्ते को दुतकारती है


खिड़की में गिलहरी एक फुतकारती है

नीले-लाल, पीले-हरे, काले और सफ़ेद


निकर, धोती, ब्लाऊज, पैंट, कमीज़, चादर, खेस


कपड़ों को कूटती है


काली लड़की


चिनगी बन भीतर-भीतर


धीरे-धीरे, चटक-चटक फूटती है


नेवले-सी चुपचाप साँपों को ढूँढ़ती है



बहुत सुन्दर है


वह कहारिन


एक कोयल


गिलहरी


नेवले-सी


काली लड़की ।

माँ के बारे में

माँ


तुम कभी नहीं हारीं


कहीं नहीं हारीं


जीतती रहीं


अंत तक निरन्तर



कच-कच कर


टूटकर बिखरते हुए


बार-बार


गिरकर उठते हुए


युद्ध तुम लड़ती रहीं


द्वंद्व के अनन्त मोरचों पर



तुम कभी नहीं डरीं


दहकती रहीं


अनबुझ सफ़ेद आग बन


लहकती रही


तुम्हारे भीतर जीने की ललक


चुनौती बनी रहीं 


तुम जुल्मी दिनों के सामने



चक्की की तरह


घूमते रहे दिन-रात


पिसती रहीं तुम


कराही नहीं, तड़पी नहीं


करती रहीं चुपचाप संतापित संघर्ष


जब तक तुम रहीं



फिर एक दिन तुम


आसमान में उड़ीं


उड़ती रहीं, बढ़ती रहीं


अनंत को चली गईं


खो गईं

रोली

आकाश से तोड़कर एक ताज़ा फूल


बढ़ रही हो तुम दुनिया की तरफ़


ओ मेरी नन्हीं बिटिया


ख़ूब ज़ोर-ज़ोर से हँसो तुम


कि हिलने लगे समूची पृथ्वी


पेड़ों में फूट जाएँ नए कल्ले


नदियों में उतर आएँ पक्षियों के झुँड



ओ नन्हें फूल !


इस्पात बनो तुम


कबूतर बनकर उड़ों


अपने ही डर से ख़ामोश


इस चट्टान के भीतर



आज वह नहीं है

आज वह नहीं है
घर उदास है

अलगनी पर लटके हैं गंदे कपड़े
फ़र्श पर जमी है धूल
मेज़ पर पड़े हैं तीन सूखे गुलाब के फूल
गंदे बर्तनों का ढेर है रसोई
बुझी हुई अंगीठी में राख भरी हुई है
शराब की खाली बोतल लुढ़की हुई पड़ी है
अचार की शीशी का ढक्कन खुला हुआ है
माचिस की तीलियों और बीड़ी के टोटों से
फ़र्श पूरा भरा है
इधर-उधर बिखरी पड़ी है किताबें
वहाँ कोने में आज का अख़बार मरा पड़ा है

आज वह नहीं है
उदास हूँ मैं

मैं कविता का अहसानमन्द हूँ

यदि अन्याय के प्रतिकारस्वरूप
तनती है कविता
यदि
किसी आने वाले
तूफ़ान की अग्रदूत
बनती है कविता
तो मैं कविता का अहसानमन्द हूँ

अधजली-अधबुझी
बाईस की बीड़ी का
बेरोज़गारी से त्रस्त
थकी-युवा पीढ़ी का
आक्रोशमयी स्वर बन
जलती है कविता
तो मैं कविता का अहसानमन्द हूँ

जिनकी
ज़िन्दगी मशीन है
भूख कुलचिह्न है
रोटी एक जुगाड़ है
खोखली पुकार है
उनकी गुहार बन
गरजती है कविता
तो मैं कविता का अहसानमन्द हूँ

भट्टी पर उबलते आकाश में
मौसम के बढ़ते तनाव में
मज़दूर का, किसान का
फैलते लाल निशान का
बढ़ते घमासान का
सहसूर्य बनकर चलती है कविता
तो मैं कविता का अहसानमन्द हूँ
मस्कवा
आठों पहर
जगा रहता है
यह शहर

आतुर नदी का प्रवाह
कराहते सागर की लहर

करता है
मुझे प्रमुदित
और बरसाता है
कहर

रूप व राग की भूमि है
कलयुगी सभ्यता का महर

अज़दहा है 
राजसत्ता का
कभी अमृत
तो कभी ज़हर



(कवि भारत यायावर के लिए)

भारत, मेरे दोस्त! मेरी संजीवनी बूटी
बहुत उदास हूँ जबसे तेरी संगत छूटी

संगत छूटी, ज्यों फूटी हो घी की हांडी
ऐसा लगता है प्रभु ने भी मारी डांडी

छीन कविता मुझे फेंक दिया खारे सागर
' तुझे साहित्य नदिया में भर मीठी गागर

जब-जब आती याद तेरी मैं रोया करता
यहाँ रूस में तेरी स्मॄति में खोया करता

मुझे नहीं भाती सुख की यह छलना माया
अच्छा होता, रहता भारत में ही कॄश्काया

भूखा रहता सर्दी - गर्मी, सूरज तपता बेघर होता
अपनी धरती अपना वतन अपना भारत ही घर होता

भारत में रहकर, भारत तू ख़ूब सुखी है
रहे विदेश में देसी बाबू, बहुत दुखी है 


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