सोनी पाण्डेय की कवितायेँ
डॉ. सोनी पांडेय की स्त्री विषयक कवितायेँ जनवादी चेतना
संवलित एक लोकधर्मी दृष्टि का खूबसूरत उदाहरण है | ये कवितायेँ अब तक के बयानों के
आलोक में सबसे अलहदा बयान लेकर उपस्थित होंती हैं| इन कविताओ में कही भी “देह
भाषा” व “देह विमर्स” जैसी एकांगी संकल्पनाओं के दर्शन नहीं होते स्त्री की समस्त
पीडाओं का मूल उसकी वर्ग स्थिति में खोजा गया है| एक ऐसी वर्ग स्थिति जिसमे न तो
एतिहासिकता का बहिस्कार है, न तो स्त्री के सम्वेद्नागत टकराओं का बहिस्कार है बल्कि पुरुष प्रधान समाज में
पुरुष के वर्चस्व का समग्र विवेचन करती ये कवितायेँ स्त्री के अंतर्चेतना में
परिवेश के प्रति एक तीखा विद्रोह उत्पन्न करती है| इन कविताओं में झटपटाहट इतनी
तीव्र है की कविताओं में निहित वेदना आधी आबादी का करुण गान बन गया है | इन
कविताओं में सृजित चरित्र नितांत प्रमाणिक हैं, विभिन्न जीवन सन्दर्भों में पुरुष
द्वारा गढ़े गए जीवन मूल्यों की खोज से ही वो संतुष्ट नहीं है वो अपने जीवन के
मूल्य खुद बनाना चाहती है, वह लेखक की कामुक कुंठा का चटखारा मात्र नहीं है बल्कि
भौतिक अनिवार्यताओं की जरूरी मांग है| इन कविताओं में स्त्री समाज से आसक्त भी है
और पृथक भी, वह जहा भी पृथक रूप में आई है वहा पर एक अलग रोमैंटिक भंगिमा के दर्शन
होते है ,यह रोमैंटिक भंगिमा नकली नहीं है बल्कि समाज की पीडाओं के मध्य उपजी
पारिवारिक आस्थाओं का संतुलित प्रबोध है| सोनी की कवितायेँ तो स्पस्ट रूप से कह
रही है की स्त्री कभी अकेली नहीं हो सकती क्योकि सामाजिक वर्जनाएं और विघटनवादी
अंधड़ कभी भी स्त्री को अकेला नहीं छोड़ सकते अस्तु अकेलेपन की कल्पना नियति से
उत्पन्न एक “फ़ालतू” होने का “मिस” बोध है| दुःख और पीडाएं किसी शक्तिमान सत्ता का
अभिशाप नहीं बल्कि सामयिक विघटनवादी परिवेश की देन है जिनसे जूझती हुइ स्त्री
वर्तमान में मौजूद है| यह स्त्री टकरावों से ऊबती नहीं भाग्यवाद के निगेटिव सेन्स
को स्वीकार नहीं करती बल्कि आक्रोश और वेदना की पाजिटिव भंगिमा अख्तियार करती है |इन
कविताओं की नारी अभिजात्य की प्रतिनिधि नहीं है वह अपने परिवेश से जुडी एक आम
भारतीय नारी है जो अपनी वैचारिक खुराक समाज की जड़ों से ही अर्जित कर रही हैA वह अहम
मूलक नहीं , अपितु जीवन के घात प्रतिघात सहने वाली हारती हराती, क्षुद्रता और
मनुष्यता को स्वीकार करती नकारती, निर्णय शक्ति को बचाती लुटाती, नए सामाजिक
संतुलन को जन्म देती एक कर्मनिष्ठ नारी है| आइये आज लोकविमर्श में पढ़ते हैं डा. सोनी
पाण्डेय की कवितायेँ
सोनी पाण्डेय की कवितायेँ
औरत ...........
औरत !
तुम कब तक
सभ्यता के पिंजडे मेँ कैद
परकटे परिँदे की तरह
फडफडाती रहोगी ?
कब तक तलाशती रहोगी
अपने हिस्से का आकाश ?
थोडी सी हवा
और कतरा - कतरा जीवन ।
औरत !
तुम कब तक लिखी जाओगी जिश्म ?
और सभ्यता के प्रहरी रौँदते रहेँगेँ तुम्हारे अस्तित्व को ?
तुम गंगा की तरह होती रहोगी मैली ?
औरत!
ये खेत . खलिहान
चूल्हा . चौका
बर्तन . तासन
सब हँसते हैँ
जब तुम हँसुवा लहराकर गाती हो
कि गांधी का सुराज आया है
और कंधे से कंधा मिलाकर
ढोती हो मन भर बोझ
तन के आँचल को सहेज कर ।
औरत !
बहुत मुश्किल है
तुम्हारे लिऐ आज भी
अपने हिस्से का
एक मुट्टी धूप
जीने के लिऐ
थोडा सा पानी
और चलने के लिऐ
सीधे रास्ते.
बचाऐ रखना अपना
अस्तित्व ।
६.....
औरत !
तुम कब तक
सभ्यता के पिंजडे मेँ कैद
परकटे परिँदे की तरह
फडफडाती रहोगी ?
कब तक तलाशती रहोगी
अपने हिस्से का आकाश ?
थोडी सी हवा
और कतरा - कतरा जीवन ।
औरत !
तुम कब तक लिखी जाओगी जिश्म ?
और सभ्यता के प्रहरी रौँदते रहेँगेँ तुम्हारे अस्तित्व को ?
तुम गंगा की तरह होती रहोगी मैली ?
औरत!
ये खेत . खलिहान
चूल्हा . चौका
बर्तन . तासन
सब हँसते हैँ
जब तुम हँसुवा लहराकर गाती हो
कि गांधी का सुराज आया है
और कंधे से कंधा मिलाकर
ढोती हो मन भर बोझ
तन के आँचल को सहेज कर ।
औरत !
बहुत मुश्किल है
तुम्हारे लिऐ आज भी
अपने हिस्से का
एक मुट्टी धूप
जीने के लिऐ
थोडा सा पानी
और चलने के लिऐ
सीधे रास्ते.
बचाऐ रखना अपना
अस्तित्व ।
६.....
छल ...............
आज फिर मिल गयी
अपने हाथ मेँ
तराजू ले
नफे -नुकशान को
तौलती जिन्दगी
जिसने सदियोँ से
कोशिश की
रखने की तुमको
और मुझको
लेकिन संतुलन नहीँ बैठा
तुम लंगडी मार योद्धा की तरह
हर बार भारी पडे
और मैँ तुम्हारे छल को देखती रही
और गुनती रही
तुम्हारे पौरुष की हार को ।
७....
आज फिर मिल गयी
अपने हाथ मेँ
तराजू ले
नफे -नुकशान को
तौलती जिन्दगी
जिसने सदियोँ से
कोशिश की
रखने की तुमको
और मुझको
लेकिन संतुलन नहीँ बैठा
तुम लंगडी मार योद्धा की तरह
हर बार भारी पडे
और मैँ तुम्हारे छल को देखती रही
और गुनती रही
तुम्हारे पौरुष की हार को ।
७....
दुधारू गाय
..............
मैँ कहना चाहती हूँ
थोडा ठहर जाओ बसंत
सुन लो माँ
मेरे पास समय नहीँ है
मरने का
कहने का ।
मैँ अक्सर चीख कर रोना चाहती हूँ
लेकिन बेटी की मासूम हँसी सुनकर
रोक लेती हूँ
हत भावोँ की मेघ वर्षा
और रात भर रोती हूँ ।
मैँ करना चाहती हूँ
प्रेम
समेट लेना चाहती हूँ
राख
अनगिनत सपनोँ
और मधुर कल्पनाओँ का
ताकी विसर्जित कर सकूँ
जहाँ -जहाँ
मिले गंगा
और पूछूँ
क्योँ तुमने स्वीकारा पुरुष की मुक्ति कामना को
देखो !
मैँ भी पुरुष की मुक्तिकामना का
प्रतीक बन
टांक दी गयी हूँ
खजुराहो के शिल्प मेँ
सुबह से आधी रात तक
मैँ केवल एक मशीन हूँ
काश . पडोसी के गैराज मेँ खडी
सुन्दर गाडी होती
या आलमारी मेँ सजा टैडी होती
जिसे देखकर तुम आहेँ भरते
चूम कर वो दिन याद करते
जब तुम पुरुष कम प्रमी थे
सुनो!
तुम भी उन पुरुषोँ मेँ हो
जो अंधेरे मेँ तलवे तक चाटते हैँ
कुत्ते की तरह
उजाले मेँ मद रहते हैँ हाथी की तरह
पौरुष के दंभ मेँ
ये मेरी कुंठा नहीँ
ठहरो समय
सुनो माँ
ये इस वैज्ञानिक युग का सत्य
और मीडिल क्लास औरत का दर्द है
जो अन्दर और बाहर
जोत दी जाती है बैल की तरह
और कही जाती है दुधार गाय ।
मैँ कहना चाहती हूँ
थोडा ठहर जाओ बसंत
सुन लो माँ
मेरे पास समय नहीँ है
मरने का
कहने का ।
मैँ अक्सर चीख कर रोना चाहती हूँ
लेकिन बेटी की मासूम हँसी सुनकर
रोक लेती हूँ
हत भावोँ की मेघ वर्षा
और रात भर रोती हूँ ।
मैँ करना चाहती हूँ
प्रेम
समेट लेना चाहती हूँ
राख
अनगिनत सपनोँ
और मधुर कल्पनाओँ का
ताकी विसर्जित कर सकूँ
जहाँ -जहाँ
मिले गंगा
और पूछूँ
क्योँ तुमने स्वीकारा पुरुष की मुक्ति कामना को
देखो !
मैँ भी पुरुष की मुक्तिकामना का
प्रतीक बन
टांक दी गयी हूँ
खजुराहो के शिल्प मेँ
सुबह से आधी रात तक
मैँ केवल एक मशीन हूँ
काश . पडोसी के गैराज मेँ खडी
सुन्दर गाडी होती
या आलमारी मेँ सजा टैडी होती
जिसे देखकर तुम आहेँ भरते
चूम कर वो दिन याद करते
जब तुम पुरुष कम प्रमी थे
सुनो!
तुम भी उन पुरुषोँ मेँ हो
जो अंधेरे मेँ तलवे तक चाटते हैँ
कुत्ते की तरह
उजाले मेँ मद रहते हैँ हाथी की तरह
पौरुष के दंभ मेँ
ये मेरी कुंठा नहीँ
ठहरो समय
सुनो माँ
ये इस वैज्ञानिक युग का सत्य
और मीडिल क्लास औरत का दर्द है
जो अन्दर और बाहर
जोत दी जाती है बैल की तरह
और कही जाती है दुधार गाय ।
८.....
. . . . अब मैँ यकीन कर लेना चाहती हूँ . . . . . .
अब मैँ यकीन कर लेना चाहती हूँ
कि सूरज दहकता है और
उसकी किरणेँ गाती हैँ
सतरंगी क्रान्ति गीत
दहकता है मलय पवन
शोला बन
गंगा की लहरेँ उफनतीँ हैँ
लावे की तरह
चूल्हे की चिन्गारी लिख सकती है
उत्थान पतन
हाँ बस करना होगा यकीँ
कि यहीँ लिखी जाती है
इबारत उन सभ्यताओँ की
जिनके अवशेष बताते हैँ
उस युग के क्रान्ति का आख्यान
और हम लेते हैँ सबक
नव क्रान्ति का
क्रान्ति होती रही है
क्रान्ति होती रहेगी
जब जब टकराऐँगीँ अहंवादी ताकतेँ
जीवन .जमीन .जंगल .
पहाड और पानी से
तब तब सूरज दहकता हुआ लाल रंग उगलेगा
और फिजा मेँ फैलाऐगा
सूर्ख लाल रंग
मेरी हथेलियोँ की मेँहदी
हाथ की चूडियाँ
माँग का सिन्दूर
और रसोँई की दीवार तक
फैलाऐगा लाल रंग
हाँ मुझे यकीन होने लगा है
डा. सोनी पाण्डेय
मऊ रोड सिधारी
आजमगढ़
sundar , marmik kavitayen.
जवाब देंहटाएंkalawanti
वाह अद्भुत है
जवाब देंहटाएंवाह अद्भुत है
जवाब देंहटाएं