रविवार, 23 अगस्त 2015

सज़ग शिल्पी - कुंवर रवीन्द्र




 रंग और रेखाओं के हल्के और गहरे अंकन से जीवन की उम्मीदों का मूर्तन करने मे सिद्धहस्त कुंवर रवीन्द्र का व्यक्तित्व भी उनके चित्रों मे समाया हुआ है । जब कविता अपनी जमीन के असाधारण एवं कटु सच को कहने मे चूक सकती है ऐसे में अक्सर कवि समाधान के अन्यान्य साधनों की खोज करने लगता है यहीं से तमाम कलाएं कविता को संक्रमित करने लगती हैं ।कला केवल एक माध्यम है कविता नहीं है भाव , निहितार्थ , संवेदन , पीडाबोध , युग-बोध , जैसे कविता मे अंकित होतें हैं हो सकता है 'कला' उन्हे बेहतर अंकित करे  | कला और जीवन का सम्बन्ध निरपेक्ष नहीं होता सापेक्ष होता है |रवीन्द्र की कलात्मक प्रेरणा जीवन और जगत की सापेक्षिक अनुभूतियों में अन्तर्निहित है । उनकी कला बुर्जुवा पलायनवाद का सर्वसुलभ मार्ग नहीं है बल्कि जीवन के कटे , पिटे विद्रूप सन्दर्भों पर मनुष्यता के विजय की कहानी है । पलायन का मार्ग यथार्थ से कटकर बनता है जो आदर्शवादी गन्तव्य को भौतिक समाधान मानकर चलता है लेकिन विजय तो हथियारों के बल पर ही सम्भव है मनुष्यता की  विजय तभी सम्भव है जब चित्र चरित्रों को जन्म दें । रवीन्द्र के रंग और रेखाओं द्वारा सृजित 'करेक्टर' बिखरे एवं त्रासद यथार्थ से जीवन्त मुठभेड करतें हैं वहीं विजय प्राप्त करते हैं वहीं टूटते हैं वहीं जीवन अर्जित करतें हैं वो नये जीवन का निर्माण नहीं करते इस दुनियां से अलग दुनियां नही बनाते  बल्कि जीवन की पुनर्रचना करते हैं इसी दुनियां को बदलने की कोशिश करते हैं । लोकविमर्श में कुंवर रवींद्र जी के चित्रों पर बहस चल रही है आज इस बहस में राजीव रंजन जी का आलेख मुझको प्राप्त हुआ जिसे आज लोकविमर्श में प्रकाशित कर रहा हूँ ..................



समकालीनता के प्रतिनिधि हैं रवीन्द्र कुँअर के चित्र [आलेख] – राजीव रंजन प्रसाद
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मेरे निवास पर एक कप चाय के लिये आपको निमंत्रण हैकुँअर रवीन्द्र का यह मैसेज मुझे फेसबुक के माध्यम से प्राप्त हुआ था। मैं अपने गृहनगर बचेली जा रहा था; रायपुर पहुँचने के पश्चात ‘नेकी और पूछ पूछ’ वाली कहावत मैने तुरंत ही चरितार्थ कर दी और उनके निवास पर पहुँच गया। एक कलाकार की जिन्दगी उसके घर में प्रवेश करते ही झांकने लगती है। बाहर का कक्ष जिसमें एक डेस्क्टॉप और उसके समानांतर अलमारियाँ जिसमें अनगिनत पत्र-पत्रिकायें और पुस्तकें। दीवारों पर लगे चित्रों से बात हो पाती इससे पहले मेरा हाथ पकडे वे मुझे साथ ही लगे बैठक कक्ष में ले गये। एक दीवार जिस पर बडी सी बंदूख शान से टंगी हुई थी जो रवीन्द्र जी के मूछों वाले व्यक्तित्व के साथ बहुत जँचती होगी। दीवार का हर कोना तस्वीरों से भरा-भरा था। सामने दीवान पर भी बडे बडे पोट्रेड रखे हुए थे। कुछ ताजा बनी चित्रकृतियाँ भी जो सूख रही थीं। अगले ही दिन रायपुर में उनके चित्रों की प्रदर्शनी लगने वाली थी और यह सारी अस्तव्यस्तता इसीलिये थी। चित्रों पर चर्चा बाद में हुई पहले गर्मागर्म चाय के साथ रवीन्द्र जी ने अपना वायदा निभाया।




यह अवसर था जब चित्रकार और उसके चित्र दोनो ही मेरे सामने थे और मैं दोनो से ही बातें करना चाहता था। अपने सम्मुख उपस्थित जिस कृति को देखता वह किसी कविता सी प्रतीत होती थी; जिसमें कहीं चिडिया बोलती जान पडती तो कहीं परछाई किसी छिपे को उभार देती। गाढे गाढे रंग और गूढ गूढ बातें जो बिना शब्द ही समझने की कोशिश करने वाले को नि:शब्द कर दें। एसा कम ही होता है जब किसी चित्र को सामने रख कर कविता लिख दी जाये और फिर चित्रकार और कवि दोनो ही सहमत हों कि कूची के हर घुमाव की शब्द-दर-शब्द व्याख्या हो गयी है किंतु किसी भी कविता या कहानी से आप पूछ लीजिये वह हर रंग और रेखा से सहमत जान पडेगा यदि उसका चित्रण कुँअर रवीन्द्र ने किया है। भावों-शब्दों या कहें कि साहित्य पर गहरी पकड़ का ही प्रतिफल है कि उनके रेखाचित अथा चित्रकृतियाँ धर्मयुग, नवभारतटाईम्स, पहल, परिकथा, हंस, समावर्तन, वागर्थ, कथादेश, वसुधा, कलासमय, सर्वनाम आदि आदि अनेकानेक पत्र-पत्रिकाओं में किसी कविता का मर्म दर्शाती मिली, तो कभी किसी कहानी का कथानक कहती दिखाई पडी, तो किसी विमर्श की सहयोगी बन कर दृढता से खडी मिली, तो कभी मुखपृष्ट की भाषा बनी। एक कलाकार की उर्जा और सोचने की क्षमता का क्या इससे भी बड़ा कोई उदाहरण हो सकता है कि अब तक उनके सत्रह हजार से भी अधिक रेखांकन  चित्र प्रकाशित हुए हैं तथा साधना अब भी अनवरत जारी है।



शायद ही कोई एसा रचनाकार होगा जिसके मन में यह इच्छा न जागती हो कि उसकी किताब का मुखपृष्ठ रवीन्द्र कुँअर की कूची से निकले। यद्यपि इतने सुलभ भी नहीं हैं वे, चूंकि बातो बातों में ही उन्होंने कविता पोस्टर पर अपना दृष्टिकोण बताते हुए कहा कि मुझे किस कविता को अपने चित्र देने हैं यह मैं स्वयं तय करता हूँ यद्यपि मुझपर कवि मण्डली से दबाव बहुत रहता है। कलाकार वही तो है तो अपनी शर्तो पर काम करे और उसे स्वयं स्पष्ट हो कि वह क्या कर रहा है तथा वही कार्य कर रहा है जो करना चाहता है।



रवीन्द्र कुँअर से मुलाकात के बहुत पहले से ही मैं उनकी रेखाओं और चित्रों से परिचित था लेकिन जब वे स्वयं अपने चित्रों के मायने समझा रहे थे तो रह रह कर अभिभूत हो जाता कि इस समय एक अद्भुत और असाधारण व्यक्ति के साथ मैं खडा हूँ। कितने ही चित्र जो अलग अलग रखे थे और संभवत: अलग अलग भावार्थों के लिये बनाये गये थे किंतु एक नन्ही सी चिडिया ही उन्हें आपस में जोड देती थी। एक प्रेक्षक की तरह मैने उनके निजी संग्रह में जितने भी चित्र उस दिन देखे वे सभी मुझे आपस में किसी उपन्यास की तरह बहुत बडे कलेवर की बात कहते मिले और किसी क्षणिका की तरह एकाकी भी जान पडे। 



ये चित्र किसी समकालीन कविता की तरह अपने समाज के लिये लडते खडे होते हैं तो कभी बहती नदी बन जाते हैं और फिर उन्हे मंत्रमुग्ध हो कर निहारते रहा जा सकता है। स्त्री उनके चित्रों में हर बार विमर्श की तरह ही आती है। न केवल उनके रंग ही प्रकृति के नजदीक उन्हें खड़ा करते हैं बल्कि उनके चित्र भी धरती को, पेड पौधों को, नदी को, आकाश को, बादलों को और हर बार किसी न किसी रूप में चिडिया को समाहित किये रहते हैं।


हर वह चित्र जिसके सामने मैं खडा था जैसे ही उसे समझता तो लगता कि इस कृति में मैं भी कहीं हूँ। क्या अंतर्मन के इतना गहरे भी कोई उतर सकता है? क्या अपने बिम्बों के साथ इतना प्रयोगधर्मी भी कोई हो सकता है कि कुछ रेखायें ही इतना कुछ कह दे जो महाकाव्यों के लिये भी असम्भव हो? सबसे असाधारण बात यह कि रवीन्द्र कुँअर के चित्र चीखते-चिल्लाते हुए नहीं है, ये आपको बडे बडे विचारों की आग्नि में नहीं झोंकते, ये चित्र आपको किसी भूलभुलैया में घुसा कर फारिग नहीं होते और न ही ये चित्र आपको इंकलाब और जिन्दाबाद का सूत्र थमा देते हैं। ये चित्र तो आईने की तरह है और आप इसमे अपनी ही भावनाओं का अक्स देख सकते है, अपने ही समय को हू-बहू महसूस कर सकते हैं, आप मुस्कुरा सकते हैं, आपकी आँखे भर सकती हैं, आप उस शून्य में आ खडे हो सकते हैं जिसके पश्चात आपकी विचार श्रंखलायें खुद को तरोताजा महसूस करेंगी किसी भी विमर्श के लिये।


 रवीन्द्र कुँअर मुझे बेहद भावुक इंसान प्रतीत हुए क्योंकि जो कुछ भी उन्होंने रचा है उसमे से प्रत्येक उनके मन के किसी संवेदनशील कोने की ही अभिव्यक्ति हैं। प्रयोग धर्मिता के लिये भी मैं उनकी कृतियों को महत्वपूर्ण मानता हूँ चूंकि उनके अनेकानेक बार प्रयोग में आने वाले वही वही बिम्ब किस तरह कई कई अर्थों में कोई दृश्य उपस्थित कर सकते हैं यह देखते ही बनता है। 



इस दौर के जितने भी चित्रकारों से मैं प्रभावित हूँ अथवा जिनके भी रेखाचित्रों नें मुझे ठहर कर सोचने के लिये बाध्य किया है उन नामों में मैं रवीन्द्र कुँअर को सर्वोपरि रखना चाहूँगा। चित्रकला में जिस क्लिष्टता को इन दिनो आवश्यक तत्व मान लिया गया है और जटिलतम बिम्ब आरूढ हो चले हैं वहीं रवीन्द्र कुँअर के चित्रों में हर देखने वाले के लिये एक अर्थ उपस्थित मिलता है।


रवीन्द्र कुँअर और उनके चित्रों के साथ मेरी यह शाम अविस्मरणीय थी। इन चित्रों ने मुझे तराशा। उनके चित्रों से निकल कर चिडिया मेरे कंधे पर आ बैठी थी और मेरे सोच में एक पूरा आकाश समा गया था। अगर किसी समय का सच्चा प्रतिनिधि उसका साहित्य है तो आज के साहित्य का सर्वश्रेष्ठ परिचय रविन्द्र कुँअर के चित्र ही हैं।

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