जितेन्द्र कुमार सिंह की कवितायें
जितेन्द्र कुमार सिंह की कवितायें एक संवेदनशील व्यक्ति का
आत्मसंघर्ष है | लोगो ने उन्हें पढ़ा कम होगा क्योंकि उन्होंने हिंदी की प्रचलित
राजनीति से पर्याप्त दूरी बनाकर रखी है | कभी खुद पर चर्चा परिचर्चा को स्वीकृति
नहीं दी है | हमेशा एक कार्यकर्ता की तरह
वाम संगठनो और पार्टी रहते हुए किसानो ,मजदूरों , छात्रों के बीच जाकर काम करते रहे | खुद को अपनी विचारधारा से अलग नही
होने दिया | यही कारण है वो सत्ता और खेमेबाज़ी के फेर में नही पड़े | उनकी कवितायें
उनकी वैचारिक अवस्था की देन हैं |आज उनकी उम्र सत्तर वर्ष है आज़ादी के बाद से लेकर
अब तक के उदारीकृत हिन्दुस्तान को उन्होंने देखा है , बखूबी समझा है इस
हिन्दुस्तान को उनकी कविताओं में स्पष्ट
देखा जा सकता है | निजी पूँजी और सत्ता के अदृश्य गठबंधन के फलस्वरूप उत्पन्न
असंगत दुनिया का वास्तविक मगर खतरनाक चित्र उनकी कविताओं में उपस्थित है | मनुष्य
की चेतना में अलगाव कैसे होता है , उस अलगाव द्वारा पूँजी व्यक्ति को कैसे निहत्था
करती है , निहत्थे , पारजित , थके हुए आदमी को इस वर्तमान दुनिया के खिलाफ खड़ा
कैसे किया जाय कवि की मूल चिंता है | इसके लिए वो व्यापक बदलावों की बात करते है |इनकी कविताओं में मुख्यतः लोकधर्मी
चेतना , जीवनानुभवों की विविधता
, जनसंघर्षों के प्रति आस्था , प्रतिरोध की अभिव्यक्ति
, जिजीविषा , आदि का स्थापत्य देखने को मिलता
है मेरे पास उनकी तीन
कवितायें उपलब्ध है आज हम लोकविमर्श में जितेन्द्र
कुमार सिंह की कविताओं पर बात करेंगे | ( चित्र कुंवर रवीन्द्र के हैं)
1 लकङ सुंघवा
रौंद देना चाहते हैं
आकाश को लोग
तोङकर नक्षत्रों की ख्वाहिशें
रोक रहे हैं सूरज को हंसने से
पैरों से कुचल देना चाहते हैं
पृथ्वी को
और सोख लेना चाहते हैं
पाताल की उर्जा
शहर में घूम रहे हैं
लकङ सुंघवा
तकनीकी शिक्षा में जुटे बच्चे
गायब हो रहे हैं
कैम्पस से
शेयर बाजार कर रहा अट्टहास
और लोग हांफ रहे हैं
खङे खङे
मुरझा रही है
लोक कथाओं की हरियाली
कहीं गीत झूल नहीं झूल रहे झूला
पेङ की डाल बेजुबान हो गयी
कुंए और पोखर
धंसते जा रहे हैं
नीचे और नीचे
रुंआसा सा हो गया
गांव का मुंह
और थम सी गयी है
धरती की सांस
घुटनों में सर गङाये
बैठी हैं नदियां
योजनाओं की छत पर
टहल रही हैं
खुदगर्ज छिपकलियां
एक ही काॅरीडोर में
हो रहा है
रहस्य और रोमांस का
कीर्तन और नर्तन
वैश्विक सम्मोहन का छाया है कुहासा
भाव ताव जारी है
पश्चिमी घरानों का
थमती जा रही है
देश की नब्ज
समय की जरूरत के विरुद्ध खङे
इस जघन्य मौसम में कैसे टकराये
बंद दरवाजों पर रखे पत्थरों से
इतिहास के इस पन्ने पर
कहां से लायें हम
तथागत के शिला लेख
और कहां रखेंगे हम
गांधी की आत्म कथा को
आकाश को लोग
तोङकर नक्षत्रों की ख्वाहिशें
रोक रहे हैं सूरज को हंसने से
पैरों से कुचल देना चाहते हैं
पृथ्वी को
और सोख लेना चाहते हैं
पाताल की उर्जा
शहर में घूम रहे हैं
लकङ सुंघवा
तकनीकी शिक्षा में जुटे बच्चे
गायब हो रहे हैं
कैम्पस से
शेयर बाजार कर रहा अट्टहास
और लोग हांफ रहे हैं
खङे खङे
मुरझा रही है
लोक कथाओं की हरियाली
कहीं गीत झूल नहीं झूल रहे झूला
पेङ की डाल बेजुबान हो गयी
कुंए और पोखर
धंसते जा रहे हैं
नीचे और नीचे
रुंआसा सा हो गया
गांव का मुंह
और थम सी गयी है
धरती की सांस
घुटनों में सर गङाये
बैठी हैं नदियां
योजनाओं की छत पर
टहल रही हैं
खुदगर्ज छिपकलियां
एक ही काॅरीडोर में
हो रहा है
रहस्य और रोमांस का
कीर्तन और नर्तन
वैश्विक सम्मोहन का छाया है कुहासा
भाव ताव जारी है
पश्चिमी घरानों का
थमती जा रही है
देश की नब्ज
समय की जरूरत के विरुद्ध खङे
इस जघन्य मौसम में कैसे टकराये
बंद दरवाजों पर रखे पत्थरों से
इतिहास के इस पन्ने पर
कहां से लायें हम
तथागत के शिला लेख
और कहां रखेंगे हम
गांधी की आत्म कथा को
2 गंवई गीत
तुम जो गाती हो
सुर लय ताल में
गंवई गीत
तो आक्षितिज फैल जाती है
थिरकन
गूंज उठता है नक्षत्रों का अक्षत छंद
पैठ जाती है
भीतर तक मन प्राण में
आदिम गंध
तुम जब भी गाती हो
समवेत सोहर
तन जाता है
जीवन का मंगल वितान
फैल जाती हैं उल्लास की किलकारियां
फहराने लगता है
ध्वज सा
नये प्राण का विहान
सृष्टि के नवाकुंर को
मिल जाता है
अनन्त आशीष
खिलखिलाती हंसी बन जाता है
मां के दूध से भीगा आंचल
तुम जब भी गाती हो
कोरस विवाह गीत
परिभाषित होता है
नारी की मांग में लगा सिन्दूर
और रेखांकित होती
उसकी नीयति नीति
उद्धृत होते हैं विधि निषेध
और दर दहेज के अंधङ भी
दिख जाते दर्पण में
आंसू से भीगे गाल
विदा हो जाती हैं बिटिया
खोइछा भर नैहर लिये
तुम झूले की पेंग बढाकर
जब भी गाती हो सस्वर कजरी गीत
बगिया में पेङों की डाल
नासिका में भर जाती है
आम्र मंजरी की सुरभि
आंचल छू आता है
फुनगियों का छोर
गाने लगती है कोकिल
और हवा गुनगुनाने लगती है
जब भी तुम गाती हो
रोपनी के गीत
नदी की लहरों सा आंचल
कमर में खोंस कर
मानों पपीहा पुकारता कहीं
परदेशी पिया को
पी कहां ,पी कहां
कछाङ मारे
खेत के छपर छपर पानी में
धान रोपती
छलछला आते
श्रम बिन्दू सूर्य तनया देह पर
श्रम श्लथ
बखरी में आकर
तुम पाती हो कुछ धान
मजूरी में
बेटे की शहादत पर
अस्सी पार की मां
गाती क्या ,रोती है
कहवां हेराय गइलन हिरवा
एक बार माई कहिदा ललनवा
तब फट जाता है आसमान का कलेजा
और धरती सौ सौ सलाम भेजती है
सुर लय ताल में
गंवई गीत
तो आक्षितिज फैल जाती है
थिरकन
गूंज उठता है नक्षत्रों का अक्षत छंद
पैठ जाती है
भीतर तक मन प्राण में
आदिम गंध
तुम जब भी गाती हो
समवेत सोहर
तन जाता है
जीवन का मंगल वितान
फैल जाती हैं उल्लास की किलकारियां
फहराने लगता है
ध्वज सा
नये प्राण का विहान
सृष्टि के नवाकुंर को
मिल जाता है
अनन्त आशीष
खिलखिलाती हंसी बन जाता है
मां के दूध से भीगा आंचल
तुम जब भी गाती हो
कोरस विवाह गीत
परिभाषित होता है
नारी की मांग में लगा सिन्दूर
और रेखांकित होती
उसकी नीयति नीति
उद्धृत होते हैं विधि निषेध
और दर दहेज के अंधङ भी
दिख जाते दर्पण में
आंसू से भीगे गाल
विदा हो जाती हैं बिटिया
खोइछा भर नैहर लिये
तुम झूले की पेंग बढाकर
जब भी गाती हो सस्वर कजरी गीत
बगिया में पेङों की डाल
नासिका में भर जाती है
आम्र मंजरी की सुरभि
आंचल छू आता है
फुनगियों का छोर
गाने लगती है कोकिल
और हवा गुनगुनाने लगती है
जब भी तुम गाती हो
रोपनी के गीत
नदी की लहरों सा आंचल
कमर में खोंस कर
मानों पपीहा पुकारता कहीं
परदेशी पिया को
पी कहां ,पी कहां
कछाङ मारे
खेत के छपर छपर पानी में
धान रोपती
छलछला आते
श्रम बिन्दू सूर्य तनया देह पर
श्रम श्लथ
बखरी में आकर
तुम पाती हो कुछ धान
मजूरी में
बेटे की शहादत पर
अस्सी पार की मां
गाती क्या ,रोती है
कहवां हेराय गइलन हिरवा
एक बार माई कहिदा ललनवा
तब फट जाता है आसमान का कलेजा
और धरती सौ सौ सलाम भेजती है
३ कवि गीत रचेगा
ऊपर ऊँचे आसमान पर
उगते ,चढ़ते सूरज पर
चाँद सितारों पर
नदियों ,पेङ पहाङों पर
तितली भौरों मछली चिङियों पर
चह चह करती चिङियों पर
कवि गीत रचेगा
कविता होगी
क्या भूख प्यास
कविता से बाहर होगी
शोषण दोहन उत्पीङन पर
या महुआ बीन रही
बुढिया पर कोई गीत नहीं रचेगा
उगते ,चढ़ते सूरज पर
चाँद सितारों पर
नदियों ,पेङ पहाङों पर
तितली भौरों मछली चिङियों पर
चह चह करती चिङियों पर
कवि गीत रचेगा
कविता होगी
क्या भूख प्यास
कविता से बाहर होगी
शोषण दोहन उत्पीङन पर
या महुआ बीन रही
बुढिया पर कोई गीत नहीं रचेगा
नख शिख पर कविता होगी
खिले फूल से चेहरे पर
नील झील सी आंखों पर
कटि नितम्ब पर
खुली टांग पर कविता होगी
क्या भूख प्यास कविता से बाहर होगी ?
क्या किसान की बदहाली पर
बंधुआ मजदूर पर
आदिम जीवन जीते लोगों पर
दलितों पर
औरत पर
भूखे सोते बच्चों पर
और अकलियत पर
छंद भंग हो जायेगा ?
कोई कविता नहीं बनेगी
खिले फूल से चेहरे पर
नील झील सी आंखों पर
कटि नितम्ब पर
खुली टांग पर कविता होगी
क्या भूख प्यास कविता से बाहर होगी ?
क्या किसान की बदहाली पर
बंधुआ मजदूर पर
आदिम जीवन जीते लोगों पर
दलितों पर
औरत पर
भूखे सोते बच्चों पर
और अकलियत पर
छंद भंग हो जायेगा ?
कोई कविता नहीं बनेगी
क्या सबकुछ ऐसे ही
रखने को
गुपचुप सी कविता होगी ?
कोई प्रश्न नहीं उठेगा
जीवन का, जन जन का ?
क्या किरकिट तिरकिट
ताक धिनाधिन -ताक धिना धिन
ताक धिनाधिन कविता होगी ?
रखने को
गुपचुप सी कविता होगी ?
कोई प्रश्न नहीं उठेगा
जीवन का, जन जन का ?
क्या किरकिट तिरकिट
ताक धिनाधिन -ताक धिना धिन
ताक धिनाधिन कविता होगी ?
इंटरनेट कम्प्यूटर होगा
खरबों के मालिक अम्बानी होंगे
कविता में सचिन, गावास्कर
अजहर होंगे
चौका होगा
छक्का होगा
क्या सज्जन कुमार और प्रज्ञा देवी
खरबों के मालिक अम्बानी होंगे
कविता में सचिन, गावास्कर
अजहर होंगे
चौका होगा
छक्का होगा
क्या सज्जन कुमार और प्रज्ञा देवी
की करतूतें नहीं होंगी
बिग बी होंगे
नेता होंगे
अभिनेता होंगे
विश्व सुन्दरी
राष्ट्र सुन्दरी मिशेल ओबामा
वैष्णो माई
अली , बली , बजरंग बली
और धर्म गुरू का प्रवचन कीर्तन
पूजा पाठ चढावा होगा
हथियार गैस परमाणु रियेक्टर
कम्पनियों का विज्ञापन होगा
जल जमीन हथियाने को निजी एजेंसी होगी
जन जीवन विस्थापित होगा
रहने को ठौर नहीं होगा
चूल्से में आग नहीं जलेगी ।
खाने को कौर नहीं होगा
क्या इसपर कविगण मौन रहेंगे ।
कोई कविता नहीं रचेंगे
बिग बी होंगे
नेता होंगे
अभिनेता होंगे
विश्व सुन्दरी
राष्ट्र सुन्दरी मिशेल ओबामा
वैष्णो माई
अली , बली , बजरंग बली
और धर्म गुरू का प्रवचन कीर्तन
पूजा पाठ चढावा होगा
हथियार गैस परमाणु रियेक्टर
कम्पनियों का विज्ञापन होगा
जल जमीन हथियाने को निजी एजेंसी होगी
जन जीवन विस्थापित होगा
रहने को ठौर नहीं होगा
चूल्से में आग नहीं जलेगी ।
खाने को कौर नहीं होगा
क्या इसपर कविगण मौन रहेंगे ।
कोई कविता नहीं रचेंगे
जितेन्द्र कुमार सिंह
बड़ा महादेवा , पीरनगर , आजमगढ़ ,
पुस्तकें – जो लोग अभी तक जिन्दा हैं , मार्क्सवादी समाज का
चिंतन, सोनबरसा की सोनचिरैया , साहित्य का समाजशास्त्र ,
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