बुधवार, 16 सितंबर 2015

देवेन्द्र आर्य के गीत





इ गठरी मेहनत की गठरी
इ गठरी हिम्मत की गठरी
अंधियारे में सरक न जाये
नहीं है ये रिशवत की गठरी

आँख झपे सगरो अँधियारा ,नींद से जगे भोर
तोरी गठरी में लागा चोर , मुसाफ़िर  सोयो न !

हिन्दी में जनगीतों की पुरानी परम्परा है| लोकभाषा में रचे गए गीत कवित को जनता के बीच ले जाकर उन्हें वर्गीय अवस्थिति से परिचित करातें है | देवेन्द्र आर्य जी का यह गीत एक जागरण गीत है इसमें भारतीय लोकतंत्र के शोषक और बुर्जुवा चरित्र से लोकमानस को आगाह किया गया है | देवेन्द्र आर्य के गीत समूची व्यवस्था की पड़ताल करते हुए भारतीय आम जनता मनोस्थिति से रूबरू करातें है | कविता भले ही अपने तमाम संरचनात्मक पहलू छोडकर गद्य जैसी शुष्कता और सपाट भंगिमाएं स्वीकार कर ले पर लय नहीं छोडी जा सकती है ।लय कवि और कविता के मध्य शैली का सवाल है  शब्दों का चयन , संस्थापन , ध्वन्यात्मक आरोह , अवरोह , पाठ विराम , जैसे संरचनात्मक उपागम कविता को जीवन्त कर देते हैं । हलांकि कंटेंट की कीमत में 'लय' अबाध रखने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता है और उठाना भी नहीं चाहिए यदि वैचारिक अपक्षय हो रहा है तो कविता न होने का संकट खडा हो सकता है । ऐसे में जरूरी है कि कवि अपनी जमीनी अवस्थिति और परिवेश के प्रति वैचारिक रूप से लोकचेतन हो । कुछ भी लिख देना कविता नहीं हैं बल्कि लेखकीय आत्मसंघर्ष व वैचारिक रूप से पुख्ता जनसंवेदनाओं का दस्तावेज कविता है ऐसे ज्वलंत कंटेंट के साथ यदि कवि 'लय' को भी बरकार रखता है तो यह सोने पे सुहागा है ।ऐसे कवि विरले मिलते हैं  देवेन्द्र आर्य ऐसे ही कवि हैं जो कविता की अन्तर्वस्तु के साथ साथ शब्दों की लयात्मक भंगिमाओं को बडी शिद्दत के साथ कविता में प्रयुक्त करतें हैं । दवेन्द्र आर्य के गीतों में लय बन्ध संवेदनाओं के साथ रिदम तय करते है भाव उत्क्षेपण , विस्तार , संकुचन के साथ ही लयात्मक भंगिमा परिवर्तित हो जाती है इस स्थिति न केवल कविता गेय बन जाती है बल्कि पाठकीय मन: स्थिति के साथ अपने रचनात्मक प्रभाव भी दिखाने लगती है । संस्कृत ,हिन्दी ,अरबी , फारसी तक 'लय' की अपनी विशाल परम्परा है  गज़ल , गीत  , छन्दविधान कभी लोकगीत , ग्राम्यगीत आदि अपरूपों का सफ़र इंसानी सोच का सफर है इनमें मानवीय चेतना के विकास को परखा जा सकता है   अस्तु लयबन्धों को साहित्य के दायरे से अलग थलग करके हम मानवीय तहजीब और जमीनी सृजनात्मकता को ही नकार रहे होते हैं । देवेन्द्र आर्य के गीत जितने भी मैने पढें हैं वो सब इंसानी सौन्दर्य को विकृत करने वाली बुर्जुवा अपसंस्कृति के खिलाफ अकेले आदमी का आत्मसंघर्ष है यह संघर्ष मजहबी और सरहदी सीमाओं में नही समेटा जा सकता न ही कवि के परिवेश में सीमित किया जा सकता है यह समूची मानवता के सांस्कृतिक जद्दोजेहद को रेखांकित करता है । उनकी कविता 'चल रहीं हैं छीनियां' इसी प्रकार की कविता है । देवेन्द्र आर्य के गीतों में कृत्रिम भाषा नहीं है वही भाषा है जिसे दुष्यन्त कुमार कहते थे 'मैं बोलता हूँ जिसमे बात करता हूं' इसी भाषा को 'आमफहम' कहा जाता है जिसे लगभग हर हिन्दुस्तानी गुनगुना सकता है इसी भाषा में जनता बात करती है और इसी भाषा में जनता सीखती है कविता को जनता के बीच ले जाने के लिए इसी शिल्प और भाषा की जरूरत है जिसे देवेन्द्र जी ने अपनाया है । आज हम लोकविमर्श में अपने समय के प्रतिनिधि गीतकार देवेन्द्र आर्य के गीत प्रकाशित कर रहें है उन्होंने मेरे अनुरोध से  लोकविमर्श हेतु गीत भेजे हैं इसके लिए मैं उनका आभारी हूँ आगे भी उनसे सहयोग की अपेक्षा करूँगा गीतों के साथ चित्र के रवींद्र के हैं





(१) देखा जायेगा

होगा ,जो भी होगा साला
देखा जायेगा।
क्या कर लेगा ऊपरवाला
देखा जायेगा।

डर जीवन की पहली और अंतिम कठिनाई है
मौत को लेकर सौदेबाजी होती आई है
करो कलेजा कड़ा
आँख में आँखें डाल कहो
यह लो अपनी कंठी माला , देखा जायेगा।

पुल के नीचे एक किनारे दुबकी पड़ी नदी
दुनिया, दुनिया वालों से रहती है कटी-कटी
सपने सावन के अंधों की भीड़ हो गए  हैं
अंधों से भी कहीं उजाला देखा जायेगा ?

मरना सच है, जानके भी
किसने जीना छोड़ा
सच की राह में अपना टुच्चापन ही है रोड़ा
केवल खतरा-खतरा चिल्लाने से बेहतर है

मार लें हम होठों पर ताला  
देखा जायेगा।
***


(2) गठरी में चोर

तोरी गठरी में लागा चोर
मुसाफ़िर  सोयो न !

माथ पसीना गार के सींच्यो
पानी जड़-पाताल से खीच्यो
तपती धूप ढिढुरती सर्दी , खेत में जान-परान उलीच्यो

फसल कटे पर ठग-बटमारन की हुई गयी बटोर
तोरी गठरी में लागा चोर
मुसाफ़िर  सोयो न !

आठ बरिस की उमिर से लागा
घर-गिरहस्ती सुइ  में तागा
मुरझ गए अंखुआए सपने, जरिके  रहिगा पेट अभागा

उमिर की पोखर कींचड़ हुई गई
देह भई कमजोर
तोरी गठरी में लागा चोर , मुसाफ़िर  सोयो न !

दादा खटे सुखी हो बेटवा
बेटवा खटे भरे ना पेटवा
दुइ हाथन की अपनी कमाई
लूटे खातिर जग-पेटकटवा

जाग मुसाफिर जाग
ठगिनिया नींद रही झकझोर
तोरी गठरी में लागा चोर , मुसाफ़िर  सोयो न !

इ गठरी मेहनत की गठरी
इ गठरी हिम्मत की गठरी
अंधियारे में सरक न जाये
नहीं है ये रिशवत की गठरी

आँख झपे सगरो अँधियारा ,नींद से जगे भोर
तोरी गठरी में लागा चोर , मुसाफ़िर  सोयो न !
***

(3) लोन मेला

चलो, लोन मेला में हो आएं।

फ्रीज़ मिले ,कार मिले
सोलहो सिंगार मिले
लोन में मिलें मम्मी पापा
पूंजी है शेषनाग
ब्रह्म-ग्यान पूंजी को
व्यापे ना दैहिक दैविक भौतिक तापा

पुनर्पाठ नश्वर दुनिया की नश्वरता का
मंडी का दर्शन अपनाएं
चलो, लोन मेला में हो आएं।

किसी भी डिजाइन का टूटा फूटा लाओ
बदले में नया प्रेम ले जाओ
बंपर डिस्काउंट है
एक प्यार खर्च करो तीन प्यार पाओ

नया नया लांच हुआ सच का हूबहू झूठ
चलो, क्लोन मेला में हो आएं !

थोड़ा सा फिसलो और गट्ठर भर नेम-फेम
करनी में चार्वाक कविता में शेम-शेम
भीतर से चाटुकार , बाहर से भगतसिंह
द्वंद्व  ही कला है, जीवन है

खतरा है, खतरे से बचने के लिए बिकें
बिकने के लिए खरीदवाएं
ए  सुगना,
हम भी दुनिया से ऊपर तो नहीं
एक कदम अमरीका हो जाएँ।
***

(4) राम कहानी

तुम्हें क्या पता मैनें कैसे
जोड़े हैं थोड़े से पैसे
इतने थोड़े
जितने में एक छत भी नहीं हुआ करती है
जितने में निबाह करने को
जग की रीत मना करती है।

अब कितना कम खाता , बोलो
मन को कस में रख्खा लेकिन तन को क्या समझाता , बोलो
तुम्हें क्या पता मैनें कैसे
काटे हैं दिन ऐसे वैसे
जिन्हें काट पाना साधारणतः आसान नहीं होता है
पीठ भले हो जाये लेकिन
कौन यहाँ कंधा होता है

तुम्हें क्या पता मैनें कैसे टक्कर ली उस बाघ-समय से
जिसके होने की आशंका भी
बी.पी दुगना करती है।

थोड़ा नगद, उधारी ज़्यादा
दमा से मैं टकराया ले कर इन्व्हेलर की जगह जोशाँदा

तुम्हें क्या पता मैनें कैसे
कई नाम से कई तरह से
जिन्दा रह के पोसा है इस छोटी सी अपनी दुनिया को
जैसे होरी पोस रहा था
अपने भीतर की धनिया को

तुम्हें क्या पता मैनें कैसे
तीन की रक्षा की है छय से
मंडी जिसकी राम कहानी फंदे डाल बुना करती है।  

नाकारा हूँ मैंने माना
दुनिया का पुरुषार्थ यही है
चाहे जैसे नोट कामना

तुम इंटरनेट पर जितना व्यय करते होगे
मैं उतने में
चौथ भेज सकता था अपनी सद्यः परिणीता बेटी का
और बचा सकता था उसको जीवन भर सुनने से ताना

फटी जेब बाप बन जाना
मन को मार के मन बहलाना
मेरी दुखियारी बेटी ही मेरे लिए दुआ करती है।
***

(5) तीस्ता सीतलवाड के लिए    

कीमत फिर भी बड़ी चीज़ है
हमा-शुमां के लहजे को
मामूली अनुदान बदल के रख देता है।

सपनों में आया हल्का सा परिवर्तन
भीतर से इंसान बदल के रख देता है।

रिंग जा रही होती है
लेकिन रिस्पांस नहीं होता है
हो निर्वात तो संवादों का कोई चांस नहीं होता है
किसी देश के किसी काल के किसी भी गांधी को देखो तुम
डेढ़ हड्डियों पर एक गाल बराबर मांस नहीं होता है

एक कबीर का होना
वेद पुराणों से अर्जित सारा ग्यान
बदल के रख देता है।

जब भी कोई
सच में फिनिशिंग टच पैदा करने लगता है
सच का देशज औषद्यीय गुण भीतर से मरने लगता है
सच की सत्ता पर काबिज़ होके सूरज बनने वाला
सच की खाद-मिलावट की सच्चाई से डरने लगता है

सच में झूठ का हल्का सा भी खारापन
लोगों के दिल में उपजा सम्मान
बदल के रख देता है।
***


(6) रोटी का संविधान
दिल्ली झंडा और देशगान
साधू जंगल गइया महान ।

सबके सब ठिठक गए आके
लोहे के फाटक पर पाके
टिन का एक टुकड़ा लटक रहा
'कुत्ते से रहिए सावधान ।'
चेहरे पर उग आई घासें
सड़ती उम्मीदों की लाशें
वे जब भी सोचा करते हैं
उड़ते रहते हैं वायुयान ।

बातों को देते पटकनिया
चश्मा स्याही टोपी बनिया
उन लोगों नें फिर बदल दिया
अपना पहले वाला बयान ।

केसरिया झंडा शुद्ध लाभ
जैसे समझौता युद्ध लाभ
रस्ता चलते कुछ लोग हमें
देते रहते हैं दिशा ग्यान ।

एक गीत और एक बंजारा
अाओ खुरचें यह अंधियारा
नाखूनों की भाषा में लिख डालें
रोटी का संविधान ।
***


(7) जीवन -लय
घर हो या मौसम
कुदाल या कवितायेँ
लय  टूटी तो सब के सब घायल होंगे।

जीवन से उलीच के जीवन को भरती
कविता उन्मुख और विमुख दोनों करती
अगर न  रोपे गए करीने से पौधे
हरे-भरे तो होंगे
पर जंगल होंगे।

ताल-छंद
ध्वनियों शब्दों की आवृत्तियाँ
सुर में भी होती हैं अक्सर विकृतियां
कोल्हू सा चलना तो लय हो सकता है
लकिन उसमें  जुते  बैल की स्मृतियाँ !

कविता का विकल्प सिर्फ़ कविता होती
मौसम वही कि जिसकी प्यास नहीं मरती

चाहे जितना आजहो गए हों लकिन
हम उतना ही बचेंगे जितना कलहोंगे।

फल चमकती है कुदाल की सपनें में
घर खुद ही परिभाषित होता अपने में
लय  का रख-रखाव आवश्यक होता है
मन के भीतर कविताओं के छपने में

कविता में संकोच और रिश्तों में लय
आरोहों अवरोहों का ही नाम समय
ग़म
मरहम
लहजे का ख़म और कम से कम
बातों में हो दम तो सब कायल होंगे।

हम इस पार रहे उस पार रही कविता
कविता के भीतर ही हार रही कविता
खतरों का भय
यानी लय अनदेखा कर
अपने पॉव कुल्हाड़ी मार रही कविता

सामंती कविताओं
कवि-सामंतों से
बचना होगा कविता को श्रीमंतों से
जीवन की गति
संगती में हो , प्रसरित हो
तभी प्रश्न कविताओं के भी हल होंगे।
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देवेन्द्र आर्य
A -127 आवास विकास कालोनी ,शाहपुर
गोरखपुर -273006
मोबाइल - 09794840990


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