शनिवार, 5 सितंबर 2015

रेनू मिश्रा की कविताएँ

हमारी चेतना का वर्तमान संकट यह है कि पूंजी निर्मित व्यवस्था के सम्मुख हम निहत्थे खडें हैं । वर्गीय स्थितियां विकरालतम स्वरूप धारण करके भयावह और त्रासद परिवेश का तिलिस्म गढ चुकी हैं ऐसे में व्यक्ति की निर्थकता के साथ साथ जीवन मूल्यों में भी संकटों की उपस्थिति का दबाव देखा जा सकता है । यह संकट व्यक्ति का नहीं है मनुष्यता का संकट है ।रेनू मिश्रा की कविताएं इसी  संकट की बात करती हैं  रेनू मिश्रा युवा कवियित्री है सामयिक पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ छपती रहती हैं हिन्दी के चर्चित ब्लागों में भी उनकी कविताएं पढी जा सकती हैं ।रेनू की कविता स्त्रीविमर्श के रटे रटाए फार्मूले से थोडा अलग हटकर संवाद करती हैं उनकी कविता में जीवन  की उपस्थिति है वर्गीय वर्चस्व मे उलझे हुए मानव की उपस्थिति है । उनकी कविता में बदलाव ग्रस्त समाज व पारिवारिक मूल्यों में हुए विघटन से त्रस्त आम जीवन की त्रासद जटिलताओं की गहरी पडताल है। हमारे समय का यथार्थ भीषण और रुग्ण है इसलिए इसका बोध मानवीयता से विगलित दिखाई देता है रेनू की कविताओं का केन्द्र मनुष्य है इसलिए समस्याओं , अत्याचारों ,जैसे वाजिब सवालों को लेकर उनकी कविता अमूर्त संवेदन की भावुक परिणिति में जाकर ढह नही जातीं बल्कि इकहरे निष्कर्षों की स्थापना से बचती हुई आम जन जीवन की वास्तविक कहानी कहने की कोशिश करतीं हैं वास्तविक कहानी के लिए वास्तविक भाषा का प्रयोग यथार्थ बोध को गति प्रदत्त कर देता है कविता प्रयुक्त लोकरूढ शब्दों का प्रयोग उन्हे आज भाषागत मिथ्या फैशनपरस्ती से पृथक करके जनसंवेद कविता की जमीनी रीति से जोड देता है । रेनू मिश्रा जी ने लोकविमर्श के लिए कुछ कविताएं भेजी हैं अत: आज लोकविमर्श मे हम रेनू जी की चार कविताओं का प्रकाशन कर रहे हैं तो आईए और पढिए रेनू मिश्रा की कविताएँ चित्र प्रख्यात चित्रकार कुंवर रवींन्द्र के हैं




रेनू मिश्रा की कवितायें



1. || भूख का कटोरा ||
आज कल चिता की आंच पर
पकते हैं कितने भूखे किसान
जो बोते हैं तड़पती भूख के बीज को
धरती के उमसते आंवें में
चढ़ाते हैं धधकते सूरज को जल
करते हैं इंद्र से प्रार्थना
कि बारिश की नर्म बूंदों से 
खिल जाये सुनहरी गेंहू की बालियां
मगर उन्हें नहीं पता 
कैसे मनाये समय के कुचक्र को
जो भरने नही देता
उनके अनाज की कोठली 
उड़ा देता है सर से
गिरवी पड़ा आस का छत्तर
छोड़ जाता है नादान भूखे हाथों में
कुलबुलाता खाली दूध का कटोरा 
और चूल्हे की सोई आंच के पास  
औंधी पड़ी हुई देकची
अब तो परमात्मा भी नहीं आते
देकची में पड़े एक दाने से
भूखों का पेट भरने!
पर धरती का पूत भूखा रहके भी
नहीं देख पता अपने आस पास 
आँखों में लिलोरती भूख
तंग आकर समय के खेले से
खुद ही लगा लेता है फाँसी
या चढ़ा लेता है खुद को
चिता के धधकते चूल्हे पर
भूख मिटाने की चाह में 
मिटा लेता है खुद को
पर चिता की भूख है कि
कभी मिटती ही नहीं!!
अब भूख के कटोरे में दर्द भी है!
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2. || समझदारी ||
दुनिया में दिल अज़ीज़ होने के लिए 
समझदारी की नयी तहजीब सीखो
जब भी किसी से मिलो
बत्तीसी का इस्तेमाल बेहिसाब करो
कभी हाथ पकड़ के, 
तो कभी गले लगा के बात करो
लोगों की हाँ में हाँ मिलाने के लिए
गिरगिटी फितरत के अनुसार रंग बदलो
दिखावे की नकली दुनिया को है 
केवल दिखावे में विश्वास
सकुचा के चुप रह जाने से, 
या केवल मुस्कुरा भर देने से,
समझ लिए जाओगे दंभी।
समझदार कहे जाने वाले लोग,
गले ना उतरने वाली बात को भी
मन की हांडी में पका ही लेते हैं
चाहे भीतर ही भीतर सुलग रहे हों
और जलन बेइन्तहां मची हो
लेकिन उठने नहीं देते मन से धुंआ
पानी की तरह बह रहे ठंडे लहू से
दाब देते हैं मन की कलुषता
उभार लाते हैं चेहरे पर
उजली, करारी, ठहाकेदार हंसी
दिखावटी दुनिया, इसे ही तो मानती है
मिलनसार होने की निशानी
आज की दुनिया में 
सबसे बना के चलने को कहते है 
सबसे बड़ी 'समझदारी'!!



3. || गार्बेज ||
गार्बेज,
ये शब्द सुनने में ही
कितना गैरज़रूरी लगता है 
ज़ेहन में कितने ही
ख़याल उमड़ आते हैं
वो लगता है....
उतना ही फ़िज़ूल 
जितना कि 
दुकड़ा कमाने वाले के लिए ख़र्चा
उतना ही टाइम-पास
जितना कि खाली समय में 
बोलने बतियाने वाला बेगार दोस्त
उतना ही बेकार
जितना कि 
घर के पिछवारे फेका हुआ 
उदासी ओढ़े टूटा-फूटा कबाड़
ज़िन्दगी में
कभी-कभी हम भी
किसी किसी के लिए 
इतने ही अनुपयोगी हो जाते हैं
कि समझ लिए जाते हैं 'गार्बेज'
दूध में पड़ी मक्खी की तरह
फेंक दिए जाते हैं 
दिल की दहलीज़ के पार!!
अब सोचने के लिए
केवल एक सवाल...
क्या आप भी कभी गार्बेज हुए हैं??



4. || नितान्त अकेली ||
पहले जब तुझे जानती नहीं थी
सुनती थी तेरी हर एक बात
तेरे इशारों पर चला करती थी
जो कहना मानती थी तेरा
तो खुश रहने जैसा लगता था
ओ मेरी रूह,
कितना दबाव था तेरा मुझ पर

लेकिन एक दिन 
मैं हो गयी विद्रोही
लोग मनमन्नी कहने लगे
तुझे जानने की कोशिश में 
पहचान गयी खुद को
उपदेशों के सांकलों में बाँध के 
कोशिश भी की तूने रखने की
मगर मैंने एक ना सुनी
सारी रिवाज़ें रवायतें तोड़ भाग निकली
दुखता था दिल
कांपता था शरीर
दफ़्न होती जाती थी धड़कनें
मगर मैं भागती रही
नापती रही साहस के पहाड़ों को
तैरती रही दरिया के रौ के विरुद्ध
और छिपाती रही खुद को
बस अपने लिए खोज के निकाले गए 
समय के घने वीरान जंगल में

मैं जान रही थी कि
तू खोज रही होगी मुझको
लेकिन मैं जानती हूँ ना 
कि मैं कहाँ पाना चाहती थी तुझको
अब ना तेरे सुख का कोई गीत
या विचारों की प्रतिध्वनि
मुझ तक पहुँचती है
और ना तेरे विश्वास की कोई कड़ी
या नियम की कोई ज़ंजीर 
मुझे गहरे तक जकड़ती है
तुझे खुश रखने की आकांक्षा भी
अब कहाँ बची है मुझमें?
अब मैं भगोड़ेपन के सुकून में जी रही हूँ
अलमस्त, बेलाग, नितांत अकेली!!



परिचय
नाम- रेणु मिश्रा
जन्मतिथि- 18 दिसंबर, 1979
जन्मस्थली- वाराणसी, उत्तर-प्रदेश
कर्मस्थली- अनपरा, सोनभद्र, उ.प्र
शिक्षा-दीक्षा- 
परास्नातक (दर्शनशास्त्र), बीएचयू, वाराणसी
परास्नातक (जन-संपर्क व् पत्रकारिता) एसएमयू, मणिपाल
लेखन विधा- कहानी, कविता, ब्लॉग लेखन
कृतियाँ – विरहगीतिका, धूप के रंग' साझा काव्य संग्रह। विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं व दैनिक समाचारपत्रों (दैनिक जागरण, बिंदिया, आज-तक ऑनलाइन वैबसाइट, कादंबिनी, आउटलुक, कथाक्रम, पाखी इत्यादि) में समय समय पर कवितायें व कहानियां प्रकाशित।
पता - टाइप IV-203, एटीपी कॉलोनी, अनपरा, सोनभद्र -231225


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