डा. मोहन कुमार नागर की कविताएं आदमी को उसी के परिवेश में
पहचानने की कोशिश हैं । परिवेश से पृथक रहकर न तो उनकी तल्ख भंगिमा को समझा जा
सकता है न ही उनकी लोकप्रमाणित अनुभूतियों के पारस्परिक अन्तर्द्वन्द्व को परखा जा
सकता है । यद्यपि उनकी कविताएँ संश्लिष्ट जीवन की संवेदनाओं का का बिम्ब
बडी साफगोई से प्रस्तुत करती हैं पर आत्म उपस्थिति इतनी संजीदा होती है कि लेखकीय
आत्मसंघर्षों का पूरा परिदृष्य उपस्थित हो जाता है । सजग लोकधर्मी कवि की यह
विशेषता होती है कि वह चीजों को स्वयम् ही देखता है यही नागर जी कर रहे हैं । उनकी
बहन श्रृंखला की कविताएं महज भावनाओं का पारिवारिक स्पदंन नहीं हैं बल्कि कवि
द्वारा जीवन संस्कृति और जीवन प्रक्रिया के मध्य तनाव और संकटों का
बहुआयामी सवाल है। नागर जी मे अनास्था और मोहभंग का जो मूर्त संकेत मिल रहा है वह
भी लोकतान्त्रिक मूल्यों के विघटन की त्रासद अवस्थिति है जो आज की कविता का जरूरी
अभिकथन है | गीत , लधु कविता , लोकगीत की लय पर लिखी गयीं
कविताएं लोकभाषा और शिल्पगत भंगिमा का सृजनात्मक प्रयोग हैं ।यही कारण
हैं मोहन की कविताएं भाषा आधारित दोहराव से रहित होकर अपने 'नयेपन' को बरकारार रखती हैं
। और आधुनिक वैचारिक सरोकारों का मुकम्मल हस्तक्षेप रेखांकित करते हुए तमाम सम्भावनाओं
की उपस्थिति दर्ज करातीं हैं । आज हम लोकविमर्श में डा. मोहन कुमार
नागर की कविताएँ प्रकाशित कर रहे हैं | हलांकि इन कविताओं को आप उनकी फेसबुक वाल में कभी न कभी पढ
चुके होंगें पर आज लोकविमर्श उन सब को एक साथ प्रकाशित कर रहा है कविताओं में
चित्र जाने माने चित्रकार अग्रज कुवंर रवीन्द्र जी के हैं |
मोहन कुमार नागर की कवितायें
1 साहित्य का भांडकाल -
राजा ने इस दशक
किसी लेखक के सिर पर गोली नहीं मारी
न ही कारागार में ठूंसा !
किसी लेखक के सिर पर गोली नहीं मारी
न ही कारागार में ठूंसा !
कुछ को छांटकर बुलाया
अपनी मनसद पर पुट्ठे टिकाऐ
और कलाई में बंधे गजरे को सूंघते
बड़ी नजाकत से बोला
- कुछ सुनाओ भई !
अपनी मनसद पर पुट्ठे टिकाऐ
और कलाई में बंधे गजरे को सूंघते
बड़ी नजाकत से बोला
- कुछ सुनाओ भई !
लेखक से दरबारी
और अंततः मुकम्मल भांड हुए
उन सभी का
आज तक पता नहीं
और अंततः मुकम्मल भांड हुए
उन सभी का
आज तक पता नहीं
साथी आज भी इंतजार में
( कुछ अफसोस में , शेष धिक्कारते )
( कुछ अफसोस में , शेष धिक्कारते )
कुछ दरबार के बाहर अभ्यास में
कमर हिलाते
कूल्हे मटकाते
टिकटिकी लगाए
आस बांधे
कमर हिलाते
कूल्हे मटकाते
टिकटिकी लगाए
आस बांधे
कि राजा उन्हें भी बुलाए
और वे भी
भांड हो जाऐं।
भांड हो जाऐं।
( एक बार फिर ये कविता -
दिखती हुई ... )
2
जिनके पास
धार भांजने का
देशज हुनर होता है
धार भांजने का
देशज हुनर होता है
वे -
बुट्ठल हथियार लिये नहीं घूमते ।
बुट्ठल हथियार लिये नहीं घूमते ।
3
उस पेट को
फाड़ो -
जो भूख से भी बड़ा है !
जो भूख से भी बड़ा है !
वहीं ...
हां हां ठीक वहीं भरी है -
तुम्हारे हिस्से की रोटी ।
हां हां ठीक वहीं भरी है -
तुम्हारे हिस्से की रोटी ।
4 बहन
यूं ही नहीं छोड़ जातीं
बहनें **
यूं ही नहीं छोड़ जातीं बहनें
जैसे झटके में छोड़ जाता है कोई !
जैसे झटके में छोड़ जाता है कोई !
तला चावल छोड़ती हैं
फिर अपनी गुड़िया
फिर खेल - खिलौने !
फिर अपनी गुड़िया
फिर खेल - खिलौने !
हारने लगती हैं ज्यादा ही - टिप्पो के दाम
हाथ आने लगती हैं - राजा के चोर में
यहाँ तक कि कर बैठो बेईमानी तक
न लड़ाई न कोहराम
भूल जाती हैं झगड़ना
न मां से शिकायत न पिता से लगाई - बुझाई !
हाथ आने लगती हैं - राजा के चोर में
यहाँ तक कि कर बैठो बेईमानी तक
न लड़ाई न कोहराम
भूल जाती हैं झगड़ना
न मां से शिकायत न पिता से लगाई - बुझाई !
उठने लगती हैं मां से भी पहले ही
मां से भी ज्यादा घर के चार काम
छोड़ देती हैं साथ बैठकर खाना
आखिर में मां के साथ खाते भी हूं हां बस
सुबह की चाय लेकर पिता को जगाने नहीं जातीं !
मां से भी ज्यादा घर के चार काम
छोड़ देती हैं साथ बैठकर खाना
आखिर में मां के साथ खाते भी हूं हां बस
सुबह की चाय लेकर पिता को जगाने नहीं जातीं !
यूं ही नहीं छोड़ जातीं बहनें
जैसे झटके में छोड़ जाता है कोई
भाई से झगड़े छोड़ती हैं
फिर मां से मनुहार
फिर पिता से अधिकार
सब नाप तौलकर इतना कि पता न चले !
( हालांकि चलता तो है )
जैसे झटके में छोड़ जाता है कोई
भाई से झगड़े छोड़ती हैं
फिर मां से मनुहार
फिर पिता से अधिकार
सब नाप तौलकर इतना कि पता न चले !
( हालांकि चलता तो है )
पर इतना सब छोड़कर
खाली हाथ जाती बहन भी
कितनी भरी - भरी लगती है ....
खाली हाथ जाती बहन भी
कितनी भरी - भरी लगती है ....
और हम
कितने खाली - खाली ।
कितने खाली - खाली ।
5" बहन "
फटी कमीज नहीं
जख्म सिलती थी बहन !
जख्म सिलती थी बहन !
आज टूटी बटन टांकते
बिठा रहा था मीजान -
बिठा रहा था मीजान -
पहले धागे पर गांठ लगाती थी
फिर काज़ के हिसाब से कमीज पर फुंदा
फिर बटन के छेद क्रास में धागा
शी ssss
फिर काज़ के हिसाब से कमीज पर फुंदा
फिर बटन के छेद क्रास में धागा
शी ssss
लो !
फिर चुभ गई सुई !
फिर चुभ गई सुई !
फिर याद आ गई -
सिलाई वाली बहन ।
सिलाई वाली बहन ।
६ सुप्रभात -
मुर्गा थक चुका है बांग दे देकर
नानी भी !
नानी भी !
मां लगा चुकी है टेर
चार पांच दफे !
चार पांच दफे !
सूरज चुभो चला है
अपनी पैनी किरणों के नश्तर
अपनी पैनी किरणों के नश्तर
पिता की खीज अब भी जारी है -
हु्ह ! अभी तक सो रहे हैं शहजादे
अभी से ये हाल हैं
पता नहीं क्या करेंगे आगे ?
हु्ह ! अभी तक सो रहे हैं शहजादे
अभी से ये हाल हैं
पता नहीं क्या करेंगे आगे ?
मैं चादर ढांपकर
फिर पलट गया गुड़ी मुड़ी
नींद का नाटक करते ....
फिर पलट गया गुड़ी मुड़ी
नींद का नाटक करते ....
बहन चाय लेकर आती ही होगी !
बिना उसकी मीठी सी झिड़की के
ये नींद कम्बख्त कब टूटती है ?
ये नींद कम्बख्त कब टूटती है ?
( छूटे गांव की चिरैया से
)
७
मुझे उन चूहों से
कोई उज्र नहीं
जो चिंदी लेकर घूम रहे
पर सबसे बड़े बाजारी हैं !
कोई उज्र नहीं
जो चिंदी लेकर घूम रहे
पर सबसे बड़े बाजारी हैं !
वो मुझसे तो बेहतर हैं
जो थान लिये बैठा है
जो थान लिये बैठा है
पर बेचने का हुनर नहीं जानता ।
( पुरानी डायरी से )
८ बहन
विदा हो रही है आज ( पुरानी डायरी से )
रात की बची रोटियाँ हो ..
या बासी तले चावल का बँटवारा
बहन से चिकचिक
किसी युध्द से कम ना थी ।
या बासी तले चावल का बँटवारा
बहन से चिकचिक
किसी युध्द से कम ना थी ।
अक्सर वो तले चावल का
बड़ा हिस्सा मठार जाती
तली रोटियाँ भी कुछ
कम ही हिस्से आतीँ
हमारी बमचिक शुरु होते ही
पापा अखबार पर नजर गड़ा लेते
माँ लोटे सी लुड़कती
कभी इधर कभी उधर
बड़ा हिस्सा मठार जाती
तली रोटियाँ भी कुछ
कम ही हिस्से आतीँ
हमारी बमचिक शुरु होते ही
पापा अखबार पर नजर गड़ा लेते
माँ लोटे सी लुड़कती
कभी इधर कभी उधर
बहन जा रही है कल अनजान देश
अपनी सही जगह तलाशने ...
मैँ अब किससे झगड़ूँगा ?
अपनी सही जगह तलाशने ...
मैँ अब किससे झगड़ूँगा ?
सबकी नजर बचाकर अब काट रहा हूँ
प्याज धनिया लहसुन
और आँसू हैं कि थमते नहीं ..
प्याज धनिया लहसुन
और आँसू हैं कि थमते नहीं ..
आज कहूँगा उससे
जो कह देता काश बहुत पहले ..
जो कह देता काश बहुत पहले ..
बहना ...
कम अज कम आज तो
सारा चावल तुम्ही खा लो
कि सुना है
जरा सी देर में वो ही
वो जा खड़ी होगी देहरी पर
पीठ घर की ओर
और मेरी ओली में वो
अपने हिस्से के
सारे चावल उछाल देगी ।
कम अज कम आज तो
सारा चावल तुम्ही खा लो
कि सुना है
जरा सी देर में वो ही
वो जा खड़ी होगी देहरी पर
पीठ घर की ओर
और मेरी ओली में वो
अपने हिस्से के
सारे चावल उछाल देगी ।
९
कल हमने एक भालू देखा
सच्ची में एक भालू देखा
हाथ जोड़ता कमर हिलाता
मोटा एक कचालू देखा ।
सच्ची में एक भालू देखा
हाथ जोड़ता कमर हिलाता
मोटा एक कचालू देखा ।
मछली खाई मुर्गा खाया
दारु संग जो मिला दबाया
फिर भी भूखा ऐसा हमने
मरभुक्खे का खालू देखा ।
दारु संग जो मिला दबाया
फिर भी भूखा ऐसा हमने
मरभुक्खे का खालू देखा ।
लोहा खाया सीमट पचाया
सड़के नाली नाला खाया
हमने अपने हिस्से फिर से
मरा भसकना बालू देखा ।
सड़के नाली नाला खाया
हमने अपने हिस्से फिर से
मरा भसकना बालू देखा ।
हमरी मेहनत खाक मिलाता
शहद हमारा चट कर जाता
तन पे खादी पहरी लेकिन
मन का पूरा कालू देखा ।
शहद हमारा चट कर जाता
तन पे खादी पहरी लेकिन
मन का पूरा कालू देखा ।
सच्ची ऐसा चालू देखा ।
१० " युवा पीढ़ी के लिये "
पेड़ से झरा
मुकम्मल सड़ चला पत्ता
सन्न ताके है इन दिनों
कि उसके बगैर पेड़ भी
अब गिरा तब गिरा !
मुकम्मल सड़ चला पत्ता
सन्न ताके है इन दिनों
कि उसके बगैर पेड़ भी
अब गिरा तब गिरा !
ये देखकर
उसी डाल पर ऊगा
एक हरियल छौना पत्ता
बु्क्का फाड़कर हंसा ।
उसी डाल पर ऊगा
एक हरियल छौना पत्ता
बु्क्का फाड़कर हंसा ।
११
भूख बड़ी है भूख बड़ी है
हुक्कामों की भूख बड़ी है।
हुक्कामों की भूख बड़ी है।
जंगल खाए पहाड़ भी खाए
खेतों पर अब आंख गड़ी है !
खेतों पर अब आंख गड़ी है !
गोरों को फिर पीले चावल
समय की उल्टी चली घड़ी है।
समय की उल्टी चली घड़ी है।
अंधा राजा गूंगी संसद
परजा चादर तान पड़ी है।
परजा चादर तान पड़ी है।
रात चढ़ी पर दिन है कहता
राजा जी को भांग चढ़ी है।
राजा जी को भांग चढ़ी है।
भूख बड़ी है भूख बड़ी है
1२
नये जमूरे
नया मदारी
खेल पुराने
दिखा रहा है !
नया मदारी
खेल पुराने
दिखा रहा है !
जो दौड़ा था
लड़ने आगे
पीछ पुंछरिया
दबा रहा है !
लड़ने आगे
पीछ पुंछरिया
दबा रहा है !
जिसे भिगोने
हम लाए थे
वही हमारी
सुखा रहा है !
हम लाए थे
वही हमारी
सुखा रहा है !
घुरक के जो
खर्राटे मारे
जन को वो ही
जगा रहा है !
खर्राटे मारे
जन को वो ही
जगा रहा है !
एक बार बस
नाच मदारी
अब हम सबको
नचा रहा है !
नाच मदारी
अब हम सबको
नचा रहा है !
१३ " मदारी - श्रंखला फिर जारी "
ओए हरिप्रसाद
देश में बेरोजगारी है
मंहगाई है
पैसे वाले फूल रहे हैं
गरीबों की लुटाई है
बोल क्या करेगा ?
देश में बेरोजगारी है
मंहगाई है
पैसे वाले फूल रहे हैं
गरीबों की लुटाई है
बोल क्या करेगा ?
क्या ?
नेता बनेगा ??
देखो भाइयों ये नेता बनना चाहता है
हा हा हा !
नेता बनेगा ??
देखो भाइयों ये नेता बनना चाहता है
हा हा हा !
अच्छा नेता बनकर क्या करेगा ?
- देश की सेवा करेगा
ये भी ठीक है भई
अब तो तेरा ही सहारा है
ये ले टोपी !
- देश की सेवा करेगा
ये भी ठीक है भई
अब तो तेरा ही सहारा है
ये ले टोपी !
मदारी की डुगडुगी बजती है
बंदर टोपी पहनता है
ठुमक ठुमक कर चलता है
लोट लगाता है
पब्लिक तालियां पीटती है !
बंदर टोपी पहनता है
ठुमक ठुमक कर चलता है
लोट लगाता है
पब्लिक तालियां पीटती है !
संसद का और एक सत्र
गुजर जाता है।
गुजर जाता है।
१४
कितना अजीब समय है
कि हमारा समाज अब
जंगल में तब्दील हो चला
और घर - मांदों में
कि हमारा समाज अब
जंगल में तब्दील हो चला
और घर - मांदों में
कहाँ क्या चल रहा है
हमें कुछ नहीं पता।
हमें कुछ नहीं पता।
हम लोगों से मिलते हैं
गलबहियाँ करते हैं
साथ उठते बैठते हैं
बोलते बतियाते हैं
गलबहियाँ करते हैं
साथ उठते बैठते हैं
बोलते बतियाते हैं
और एक दिन हमें पता चलता है
अरे !
हमारे बगल में रह रहा था जो
वो इंसान नहीं
भेड़िया था।
हमारे बगल में रह रहा था जो
वो इंसान नहीं
भेड़िया था।
1५
बच्चे
ये जंगल
सूखे चिमियाये पत्तों से भरा हुआ है
यहाँ कदम रखते ही वे चीखेंगे
चरमराऐंगे
तुम्हें कदम कदम पर लगेगा
कि इनके नीचे " कुछ " है !
ये जंगल
सूखे चिमियाये पत्तों से भरा हुआ है
यहाँ कदम रखते ही वे चीखेंगे
चरमराऐंगे
तुम्हें कदम कदम पर लगेगा
कि इनके नीचे " कुछ " है !
तुम डरना नहीं
कदम पीछे न खींचना ....
कदम पीछे न खींचना ....
रास्ता - यहीं निकलेगा।
...........
...........
रूह तक को भेदती कवितायेँ...और देशज का इतना ब्यापक और गहन भाव आजकल बिरले कहीं-कहीं देखने को मिलता है..हर कविताओं में समकाल का संदर्भ है ! पहली बार मोहन जी को पढ़ी हूँ.. बहुत-बहुत बधाई !
जवाब देंहटाएंकविताएँ, छूती हुई भीतर-अंदर.
जवाब देंहटाएंहृदय के तार झंकृत कर देनेवाली कविताएँ!
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