सोमवार, 24 नवंबर 2014
LOKVIMARSH (लोकविमर्श): मोहन कुमार डहरियाके कविता संग्रह “न लौटे फिर कोई ...
LOKVIMARSH (लोकविमर्श): मोहन कुमार डहरियाके कविता संग्रह “न लौटे फिर कोई ...: मोहन कुमार डहरिया के कविता संग्रह “न लौटे फिर कोई इस तरह” की समीक्षा मोहन कुमार डहरिया जी के कविता संग्रह “न लौटे फिर कोई इस तरह” ...
मोहन कुमार डहरिया
के कविता संग्रह “न लौटे फिर कोई इस तरह” की समीक्षा
मोहन कुमार डहरिया जी के कविता संग्रह “न लौटे फिर कोई इस
तरह” पर जाने माने कवि बुद्धिलाल पाल जी की भावपूर्ण टिप्पणी मेरे पास आई थी |एक
कवि जब भावुक होकर किसी किताब पर अपना अभिमत देता है तो भले ही हम उसे “आलोचना”
मापदंडों में न कस पायें पर वो अभिमत भी एक कविता जैसा आनंद देता है |आइये आज
लोकविमर्श में कवि साथी बुद्धिलाल पाल द्वारा की गयी समीक्षा पढ़ते हैं
दैहिक ताप के बीच प्रेम
‘न लौटे
फिर कोई इस तरह’ काव्य संग्रह की कविताओं में मोहन कुमार डेहरिया का प्रेम उफनता
हुआ प्रेम है। जो किसी नदी या बांध में नहीं है समतल से दिखाई देने वाले समुद्र की
सतह की तरह है। ज्वार भाटा की तरह आकर्षण विकर्षण में है। ना दिखने वाली अंदर ही अंदर
बहती हुई जल धाराओं में है। घने कुहासे के बादलों के बीच से प्रेम को अपनी तरह से देखने
की एक जिद है और प्रेम की परम्परा का खुरदरा परन्तु स्वाभाविक सौन्दर्य की आपूरित प्रेम
है जो पिघलते हुए मोम की तरह भी है। अपने स्वाभाविक धागों से बुना हुआ जीवन के यथार्थ
परक कष्मकष की अनुभूतियों का इसमें एक ब्यौरा भी है। न लौटे फिर कोई इस तरह एक आत्मनाद
भी है। प्रेम को खो देने का प्रेम को पा लेने का प्रेम में भटकने का। प्रेम जो था,
इसमें शुरू में भी आकर्षण
बाद में खो देने पर भी आकर्षण भटकन में भी आकर्षण और
इसी आकर्षण विकर्षण के घेरे में प्रेम की सुख दुख की अनुभूतियों की व्यंजना एक रोमांच
की तरह है। इस तरह की कवितायें चुम्बक और प्रेम का जीवन के बीच एक यथार्थपरक अनुभूतियों
के साथ जीवन के सुख-दुख अपेक्षा में इस तरह लौटना
जैसे कि एक यातनागृह को चुनना जैसे भी है।
दैहिक ताप एवं प्रेम
की स्वाभाविक ताकत के बल पर ही मोहन यह कहने में समर्थ हो पाता है- तुमसे मिलने के
बाद /झक से कौंध उठा मेरे अंदर जैसे कोई प्रकास /और ध्वस्त हो गया चारों तरफ फैला भय
का तिलिस्म। यह भय से मुक्ति प्रेम की ही मुक्ति नहीं है इसे इस तरह भी पढ़ा जा सकता
है कि पूरी दुनिया में भय के बरक्स प्रेम सबसे बड़ा विश्वसनीय औजार हो सकता है। प्रेम दुनिया में अपनी वास्तविक
मानवीयता की गतिशीलता में अपनी भूमिका में पूरे समग्र संसार को परिवर्तित करने की क्षमता
रखता है। और यह प्रेम युद्ध की तरह भी हो सकता है- सचमुच तुमसे मिलने के बाद पहली बार
जाना/कितना भी विकट हो दुःख/कितनी भी दुर्जेय
हो हताशा/रद्दी कागज की तरह /फाड़कर फेका जा सकता है इन्हें/ कभी भी । यह दुर्धष जीजिविषा
की तरह है।
कविता ‘इस जन्म में प्रेम की
पंक्तियां - कभी भरना था कल्पना में /दुश्मनों के चक्रव्यूह को चीरते हुए / किसी राजकुमारी को ले
उड़ने का/ एक पराक्रमी राजा का स्वांग’। इस तरह की पंक्तियाओं दृष्य पारंपरिक सामंती दृष्य
है इसमें न प्रेम करने वाले के लिए कुछ है न ही प्रेम के लिए कुछ जगह है। यहां पर एक
दावानल है और युटोपिया है जो कभी पूर्ण नहीं होता है। प्रेम में तो युटोपिया उसी तरह
होना चाहिए जिस तरह के सामर्थ में आप जहां पर स्थित हैं। उसी तरह संवाद करता हुआ कोई
युटोपिया पैदा होता है । तो वहीं जनजीवन के प्रेम का यथार्थ हो सकता है। जो युटोपिया
यहां पर संम्पृक्त है वह तो आपको बेहद अंधेरी खाई में ले जाकर प्रेम की वास्तविक वैश्विकता
की ताकत को नष्ट करता है । भव्यता का ढांचा प्रेम का आकार नहीं हो सकता ।
इसके उलट कविता आदर्श स्त्री’ में एक आदर्श स्त्री
में एक आदर्श स्त्री का चित्र है जिसमें सामंती
प्रभाव क्षेत्र में सामंती मूल्यों के बीच एक आदर्श स्त्री है उसका जीवन है साथ ही उसका घुटता हुआ प्रेम चित्र है । उसकी नियति है
। कवि के भीतर यहां पर आग उगलता हुआ समाज के प्रति एक विद्रोह भी है जो आदर्श स्त्री की चित्रात्मकता में स्त्रियों के लिए समाज
के लिए मूल्यावन स्थिति में है - वह एक जो लड़की है। कंठ में भभकती एक रूलाई को कुचलकर/धारण
करके होठों पर शालीन मुस्कुराहट/ जा रही है मेरी तरफ पूरी ताकत से अपनी पीठ किये/ आखि
रवह एक आदरश स्त्री है। साबित हुआ इतिहास उसके
लिए एक बेहतर उपदेसक/चल पड़ी अंततः भेड़ों की तरह गर्दन झुकाए/एक दलदली जमीन की तरफ/
किये मेरी तरफ पूरी ताकत से अपनी पीठ/ आखिर वह एक आदर्श स्त्री है ।
प्रेम को लेकर कवि के
भीतर बहुत बेचैनी है - जगह नहीं थी कहीं थोड़ी सी भी/ उस युवा लड़के और लड़की के रूकने
के लिए/ भाग रहे थे निरन्तर/ । ओ क्रूरता के दरशन के टीकाकरों/मारों मार
सको तो मार डालो इन्हें / दौड़ रही देखो जीवन की सबसे सुन्दर प्रागौतिहासिक पगडंडी पर
/संकल्प की दो निहत्थी चट्टान।
आज हमारे सामने समाचार माध्यमों से खाप पंचायतों के दिल दहला
देने वाले बहुत सारे काले कारनामें काले मनोभाव काले न्याय भाव हमारे सामने है अगर
यह अतिवाद है तो भी सामान्य स्थिति में भी समाज में भीह खाप पंचायतों के दिल दहला देने
वाले बहुत है तो भी सामान्य स्थिति में भी समाज में भी प्रेम को लेकर यही स्थिति है।
कविता - न लौटे जीवन
में कोई इस तरह’ इस कविता में बहुत सी कही अनकही बातों का विष्वासों का दैहिक
ताप में, प्रेम
के भीतर बार-बार आवाजाही के रूप में एक प्रवेशद्वार की तरह है । यह कविता एक सूत्र की तरह भी है जहां
से कवि प्रेम में अपने विश्वासों को पाने
का प्रेम में एक जीवन देने का एक जो उपक्रम उसके भीतर है यहीं से अपने अनुक्रम में अपने आपको
पाता हुआ एवं समय तथा समाज को देता हुआ अपनी उपस्थिति को परिपूर्ण बनाता हुआ नहर आता
है। इस तरह कवि अपने उपक्रम में सफल है। एवं संग्रह प्रेम में जीवन की गत्यात्मकता
को पाने केलिए एक संवाद के रूप मतें भी है। इस तरह यह प्रेम कवितायें समकालीन साहित्य
के प्रेम क्षेत्र में एक अलग ही किस्मत की प्रेम कवितायें हैं, एवं अपनी पूरी जिद तथा
तेवर के साथ मौजूद है । फिर भी अपनी तन्मयता अपेक्षा में एक सीढ़ी उपर आगे आने की आवश्याकता
है। सम्पूर्णतः यह कवितायें प्रेम की सीढ़ी
में प्रेम के एक आवष्यक क ख ग के रूप में है। जहां पर उसके मूल को समझकर प्रेम में
वास्तविक संवाद का यथार्थ बनता है।
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मंगलवार, 18 नवंबर 2014
LOKVIMARSH (लोकविमर्श): नितीश मिश्रा की कवितायें
LOKVIMARSH (लोकविमर्श): नितीश मिश्रा की कवितायें: वर्तमान युग विसंगतियों का युग है| आम आदमी के सपनों के टूटन का मद्धिम स्वर जनतांत्रिक मूल्यों के विखंडन का स्वर बन चूका है| चुनौतियाँ बढ...
LOKVIMARSH (लोकविमर्श): नितीश मिश्रा की कवितायें
LOKVIMARSH (लोकविमर्श): नितीश मिश्रा की कवितायें: वर्तमान युग विसंगतियों का युग है| आम आदमी के सपनों के टूटन का मद्धिम स्वर जनतांत्रिक मूल्यों के विखंडन का स्वर बन चूका है| चुनौतियाँ बढ...
नितीश मिश्रा की कवितायें
वर्तमान युग विसंगतियों का युग है| आम आदमी के सपनों के टूटन का मद्धिम स्वर जनतांत्रिक मूल्यों के
विखंडन का स्वर बन चूका है| चुनौतियाँ बढती जा रही हैं और समाधान दिनों दिन
लिजलिजे होते जा रहें है |ऐसे में व्यक्ति की चेतना विभिन्न विकल्पों की तलाश में थक हार कर निराशावाद के गहरे अवसाद में बैठ
चुकी है| जीवन का प्रत्येक कोण कहीं न कहीं कुढ़न का शिकार है| पूँजी का का दबाव
मानवता को लील रहा है| विज्ञापन और मुनाफा की अर्थशास्त्रीय साज़िश आज का मार्किट
मूल्य है| हम चाह कर भी विज्ञापन के द्वारा सृजित आवश्यकताओं को दरकिनार नहीं कर
सकते| हमारे मूल्य बाज़ार तय करता है |हमारी संस्कृति बाज़ार तय करता है |स्वाभाविक
है घोर आधापापी के माहौल में जब जनतंत्र बाज़ार का खेवनहार बन जाता है तो आम जनता
की उम्मीदों में जीवन जीने के सारे तर्क चुक जाते हैं|और इसके बाद आरम्भ होती है
जनतंत्र के विरुद्ध मोहभंग की कहानी और आम आदमी के सपनो को मौत में तब्दील करने की
करुण गाथा |साथी नितीश मिश्रा की कवितायें बाजारू मोहभंग का नतीजा हैं यही कारण है
की उनकी कविता बौद्धिक यथार्थवाद के साथ ही रोमैंटिक भावुकता भी समेटकर चलती है
|भले ही वो भद्रता को नकारते हों लेकिन सच्चाई का खारापन उनकी कविताओं को एक खास
उत्तेजना और आक्रोश से टीप देता है आज हम लोकविमर्श में भावुकता और आक्रोश की मिली
जुली प्रतिक्रियाएं अर्थात नितेश मिश्रा की कवितायेँ प्रस्तुत कर रहें हैं आप भी
पढ़िए
नितीश मिश्रा की कवितायें
मैं आखिरी रात प्रेम पत्र लिखता हूं
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जिंदगी की आखिरी रात में
मैं कुछ भी कर सकता हूं
देवताओं से पूछ सकता हूं
उनका चरित्र!
या जीवन का मूल्यांकन कर सकता हूं
या, लंबी- लंबी कविताएं लिख सकता हूं
चांद को हथेलियों से छूकर बता सकता हूं
चांद का स्वाद वर्फी जैसा होता हैं।
या अपने को सबसे पवित्र घोषित कर सकता हूं
या दुनिया को एक विचार दे सकता हूं
या, अपने सारे सपनों के साथ रात भर खेल सकता हूं
बहुत सा धन कमाकर विरोधियों को परास्त कर सकता हूं
मैं देश को राजनीति का एक विकल्प दे सकता हूं
लेकिन! मैं आखिरी रात ऐसा कुछ भी नहीं करता हूं
मैं अपने मन-पसंद का खाना खाता हूं
अंधेरे में चक्कर लगाता हूं
और मौन हो जाता हूं
और लिखता हूं एक प्रेम पत्र
जिससे उसे भी लगे मैं मरने से पहले बहुत खुश था।।
---------------------------------------
रेगिस्तान में एक लड़की
------------------------------
रेतों के मंजर में बैठी लड़की कुछ लिख रही थी
अनमनी अगुंलियों से
जीने के लिए किसी अनिवार्य सूत्र को होठों में छिपाएं
अपने तसव्वुर पर मुस्करा रही थी
शायद! मालूम नहीं है
मिट जाएगी उसके अन्तर्मन की गीतिका
जिसे वह गाए जा रही हैं
यह सोचकर कि रेत उसके सपनों को सीने में छिपा लेगा
मैं उसे कैसे बताऊं कि रेत के सीने मे दिल नहीं होते
बल्कि टूटे हुए हर युग के टुकड़े होते हैं
वह चल सकते नहीं/ बोल सकते नहीं
इसलिए ! शून्य होकर बिना प्रतिशोध के मनुष्यों के प्रश्नों को देखते भर हैं।।
लड़की रेतों के आईने में खुद को निहारती हैं
इस उम्मीद के साथ की वह सबसे खूबसूरत कोई तरन्नुम हैं
अपने देह को त्रिभुजाकार/ धनुषों की तरह मोड़ती हैं निर्विघ्न होकर रंगती हैं
अपनी वृत्तिकाओं को............
शायद! वह सन्नाटे में तोड़ना चाहती हैं
खजुराहों की दीवारों पर सजी मनुष्यों की इबादतों को
लड़की को मालूम है कि
खजुराहों मनुष्यों की एक सीमा भर हैं
किसी स्त्री की सीमा नहीं
उसके बाल कुछ ऐसे खुले है
जैसे वह रेतों की गुहाओं में वर्षो से समाधिस्थ रही हो
उसे देखकर मैं भूल गया था अपनी छोटी सी प्रार्थना को
मैं उसके चेहरे को थामना चाहता हूं
लीपना चाहता हूं आपनी करूणा
अभी मैं यही सब सोच रहा था
तभी उसने अपने बदन के वैभव को उतारकर
लूनी नदी में रख दिया
इस उम्मीद से कि आकाश उसे छू सक ता नहीं
रंग उससे बोल सक ते नहीं
किसी का स्पर्श उसके मर्म पर हाथ रख सकता नहीं
मैं उसे कैसे बताऊ गंगा की एक धारा मुझमें भी हैं
इसी संभावना को लेकर मैं लौट आता हूं
कुछ देर के बाद वह मिलती हैं
हाथ में लालटेन लिए
और धीरे से कहती हैं
तुम्हीं मेरे शब्द हो
और मुझे अहसास हुआ कि रेतों के सोए हुए ख्वाब फिरसे जाग गए हैं।।
--------------------------------------
मैं अपनी मां का सिंकदर नहीं हूं
------------------------------
यदि कभी मैं
बाबूजी के साए को छूकर गुजरता हू
मेरी वापसी सिंकदर की तरह होगी
लेकिन! मैं घर छोड़ने से पहले मां के साए को छूकर निकलता हूं
मां! खुश है
यह सोचकर कि उसका बेटा लाख कायर है
पर सिंकदर की तरह घर कभी वापस नहीं आएगा
हां! मैं सिंकदर नहीं हूं
जो घर छोड़ने से पहले वादा करू कि
एक दिन सारी दुनियां मेरी मुठ्ठी में होगी
वह दुनिया जो मुझे पालती आ रही हैं
क्या मेरे सिंकदर बन जाने से
यह दुनिया मुझे अपना मान लेगी
हां! मैं सिंकदर नहीं हूं
जो मरने से पहले अपनी स्मृतियों को पहन न सकूं
मैं अपनी मां को पाने के लिए सिंकदर बनने का ख्याल छोड़ देता हूं
और मेरी मां देर तक हंसती है।।
----------------------------
मैंने दिशाओं की हत्या की है
-----------------------------
जब मेरे पास कुछ नहीं था
तब मैं दिशाओं को पहनकर
सृष्टि पर पहरा देता था
अपनी दुनिया में भाषा का सेतु बनाता
जब मेरे पास दीवारें नहीं थी
तब दुनियां बहुत सुंदर थी।
और दिशाएं मेरे साथ सोती थी
आज दीवारे है और दुनियां आलमारियों में सिमटती जा रही हैं
मैंने अपनी दिशाओं की हत्या करके कमरे में दीवारों के बीच बैठा हुआ हूं।।
----------------------------------------
सुबह का सूरज
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सुबह का सूरज मुझे देवता कम
डॉक्टर कु छ ज्यादा लगता हैं
सुबह- सुबह सूरज
मरीजों के बिस्तर पर बैठकर
त्वचा की नोटबुक पर लिखता है दवाईयां।
सुबह का सूरज देवता कम मास्टर कुछ ज्यादा लगता हैं
एक मास्टर की तरह देर तक पढ़ाता है
और शाम को स्कूल बंद करके चला जाता हैं।
सुबह का सूरज देवता कम
मेहतर कुछ ज्यादा लगता हैं
मेरे उठने से पहले साफ कर देता है
मेरे आस- पास का अंधेरा।
सुबह का सूरज मुझे अपने टेबल घड़ी सा लगता हैं
जो दिनभर मेरी दिनचर्या बनाता हैं।।
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प्यार में दो हाथ का होना जरूरी हैं
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जब मेरे पास प्यार और प्रेमिकाएं दोनों थी
और दिमाग में बहुतेरे ख्वाब
अगर सपनों के मामले में तुलना की जाती तो
इतिहास के पन्नों में मेरे नाम की भी कोई सभ्यता होती
लेकिन! अफसोस
हमारे यहां के निकम्मे इतिहासकार
बिस्तर से लेकर सिंघासन तक की खबर लिखे
लेकिन मनुष्यों के सपनों के बारे में कु छ नहीं लिखे।
जब मेरे पास प्रमिकाएं थी
तब मैं घोर नास्तिक था
ऐसे में मुक्तिबोध के बहृाराक्षस से भी डर नहीं लगता था
अज्ञेय का केशकंबली कभी रहस्यमयी नहीं लगता था
जब प्रेमिकाएं पास में थी
तब बुद्ध और भगत भी बौने लगते थे
लेकिन! जैसे ही प्रेमिकाओं का जिंदगी से जाना हुआ
मैं उधार की कमीज की तरह खुद को देखने लगा
एक हादसे में
मैं अपना दोनों हाथ गवां बैठा था
मेरे सामने मेरी प्रमिकाएं समुद्र में लगातार सुराख किए जा रही थी
और मैं उनके कारनामें को कागज पर दर्ज कर नहीं पा रहा था
तब याद आया प्यार में दो हाथ का होना कितना जरूरी होता हैं।।
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कब्रिस्तान में प्रेमपत्र
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कब्रिस्तान की सभी आत्माएं
धरती से
अपने साथ कुछ न कुछ सामान लेकर गई थी
कोई हीरा लेकर
कोई सोना- चांदी
कोई रूपया लेकर गया था
कब्रिस्तान की एक आत्मा
धरती से
अपने साथ अपना प्रेमपत्र लेकर गई थी
यमराज दे आज घाषित कर दिया कि
जिसके पास प्रेमपत्र है
वह कब्रिस्तान की सबसे रईस आत्मा हैं।।
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जब आकाश उतरेगा आंगन में
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एक दिन
आगंन में उतरेगा आकाश
और तुम चुनोगी
हांडी भर चावल का दाना
दीया भर तेल
और थोड़ी सी आग।
एक दिन जब आकाश उतरेगा आंगन में
और तुम बनाओगी पतंग
बच्चों की खातिर कुछ कविताएं
और थोड़ी सा सिंदूर
और रंगोगी अपना यर्थाथ।।
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हामिद
-----------
हामिद मुझसे रह-रह कर
अयोध्या का पता पूछता हैं
मैं बार उसकी बात टालकर
उसके प्रश्नों से हाथ झाड़ लेता हूं
हामिद: कभी महीनें में
अपने प्रश्न के साथ उपस्थित होता था
पर जबसे भारत और तालिबान का अर्थ समझने लगा हैं
अपने प्रश्न की आंच में दिन- रात जलता हैं
वह जानना चाहता है
अयोध्या के हाथ इतने कैसे लंबे हो गए
रेगिस्तान में भी उसके मां -बाप नहीं बच पाए
जबकि उसके यहां कोई नमाजी भी नहीं था
हामिद: अब मेरी बातों में नहीं फंसता
वह इतिहास पर पत्थर फेंकता है
बाबर/ गोरी को गाली देता हैं
इतिहास के कब्रिस्तान से जागकर
दिल्ली से टकराता है
और बेहोश होकर मेरी आंखों में गिर जाता हैं
पथराई सी उसकी आंखे
मुझसे अयोध्या का अर्थ पूछती हैं
हामिद अब बहुत अधिक समझदार हो गया है
न कुरान से लगाव रखता है और न ही मस्जिद से
पर अपने इतिहास और वर्तमान को बदलने की खातिर
लोकतंत्र की दीवार पर मूतता जरूर हैं
और अपनी सूनी सी आंखों से
जब राम को देखता है
तब उसे यकीन नहीं होता कि
इतना पवित्र चेहरा वाला
भारत को रौंदते हुए श्रीलंका में जाकर विश्राम किया होगा
अब उसे अपना चेहरा
श्रीलंकावासियों जैसा लगता हैं
और फिर धीरे से कहता है कि
वह इस दुनिया में कोई अकेला क्षतिग्रस्त इंसान नहीं हैं।।
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जिंदगी की आखिरी रात में
मैं कुछ भी कर सकता हूं
देवताओं से पूछ सकता हूं
उनका चरित्र!
या जीवन का मूल्यांकन कर सकता हूं
या, लंबी- लंबी कविताएं लिख सकता हूं
चांद को हथेलियों से छूकर बता सकता हूं
चांद का स्वाद वर्फी जैसा होता हैं।
या अपने को सबसे पवित्र घोषित कर सकता हूं
या दुनिया को एक विचार दे सकता हूं
या, अपने सारे सपनों के साथ रात भर खेल सकता हूं
बहुत सा धन कमाकर विरोधियों को परास्त कर सकता हूं
मैं देश को राजनीति का एक विकल्प दे सकता हूं
लेकिन! मैं आखिरी रात ऐसा कुछ भी नहीं करता हूं
मैं अपने मन-पसंद का खाना खाता हूं
अंधेरे में चक्कर लगाता हूं
और मौन हो जाता हूं
और लिखता हूं एक प्रेम पत्र
जिससे उसे भी लगे मैं मरने से पहले बहुत खुश था।।
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रेगिस्तान में एक लड़की
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रेतों के मंजर में बैठी लड़की कुछ लिख रही थी
अनमनी अगुंलियों से
जीने के लिए किसी अनिवार्य सूत्र को होठों में छिपाएं
अपने तसव्वुर पर मुस्करा रही थी
शायद! मालूम नहीं है
मिट जाएगी उसके अन्तर्मन की गीतिका
जिसे वह गाए जा रही हैं
यह सोचकर कि रेत उसके सपनों को सीने में छिपा लेगा
मैं उसे कैसे बताऊं कि रेत के सीने मे दिल नहीं होते
बल्कि टूटे हुए हर युग के टुकड़े होते हैं
वह चल सकते नहीं/ बोल सकते नहीं
इसलिए ! शून्य होकर बिना प्रतिशोध के मनुष्यों के प्रश्नों को देखते भर हैं।।
लड़की रेतों के आईने में खुद को निहारती हैं
इस उम्मीद के साथ की वह सबसे खूबसूरत कोई तरन्नुम हैं
अपने देह को त्रिभुजाकार/ धनुषों की तरह मोड़ती हैं निर्विघ्न होकर रंगती हैं
अपनी वृत्तिकाओं को............
शायद! वह सन्नाटे में तोड़ना चाहती हैं
खजुराहों की दीवारों पर सजी मनुष्यों की इबादतों को
लड़की को मालूम है कि
खजुराहों मनुष्यों की एक सीमा भर हैं
किसी स्त्री की सीमा नहीं
उसके बाल कुछ ऐसे खुले है
जैसे वह रेतों की गुहाओं में वर्षो से समाधिस्थ रही हो
उसे देखकर मैं भूल गया था अपनी छोटी सी प्रार्थना को
मैं उसके चेहरे को थामना चाहता हूं
लीपना चाहता हूं आपनी करूणा
अभी मैं यही सब सोच रहा था
तभी उसने अपने बदन के वैभव को उतारकर
लूनी नदी में रख दिया
इस उम्मीद से कि आकाश उसे छू सक ता नहीं
रंग उससे बोल सक ते नहीं
किसी का स्पर्श उसके मर्म पर हाथ रख सकता नहीं
मैं उसे कैसे बताऊ गंगा की एक धारा मुझमें भी हैं
इसी संभावना को लेकर मैं लौट आता हूं
कुछ देर के बाद वह मिलती हैं
हाथ में लालटेन लिए
और धीरे से कहती हैं
तुम्हीं मेरे शब्द हो
और मुझे अहसास हुआ कि रेतों के सोए हुए ख्वाब फिरसे जाग गए हैं।।
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मैं अपनी मां का सिंकदर नहीं हूं
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यदि कभी मैं
बाबूजी के साए को छूकर गुजरता हू
मेरी वापसी सिंकदर की तरह होगी
लेकिन! मैं घर छोड़ने से पहले मां के साए को छूकर निकलता हूं
मां! खुश है
यह सोचकर कि उसका बेटा लाख कायर है
पर सिंकदर की तरह घर कभी वापस नहीं आएगा
हां! मैं सिंकदर नहीं हूं
जो घर छोड़ने से पहले वादा करू कि
एक दिन सारी दुनियां मेरी मुठ्ठी में होगी
वह दुनिया जो मुझे पालती आ रही हैं
क्या मेरे सिंकदर बन जाने से
यह दुनिया मुझे अपना मान लेगी
हां! मैं सिंकदर नहीं हूं
जो मरने से पहले अपनी स्मृतियों को पहन न सकूं
मैं अपनी मां को पाने के लिए सिंकदर बनने का ख्याल छोड़ देता हूं
और मेरी मां देर तक हंसती है।।
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मैंने दिशाओं की हत्या की है
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जब मेरे पास कुछ नहीं था
तब मैं दिशाओं को पहनकर
सृष्टि पर पहरा देता था
अपनी दुनिया में भाषा का सेतु बनाता
जब मेरे पास दीवारें नहीं थी
तब दुनियां बहुत सुंदर थी।
और दिशाएं मेरे साथ सोती थी
आज दीवारे है और दुनियां आलमारियों में सिमटती जा रही हैं
मैंने अपनी दिशाओं की हत्या करके कमरे में दीवारों के बीच बैठा हुआ हूं।।
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सुबह का सूरज
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सुबह का सूरज मुझे देवता कम
डॉक्टर कु छ ज्यादा लगता हैं
सुबह- सुबह सूरज
मरीजों के बिस्तर पर बैठकर
त्वचा की नोटबुक पर लिखता है दवाईयां।
सुबह का सूरज देवता कम मास्टर कुछ ज्यादा लगता हैं
एक मास्टर की तरह देर तक पढ़ाता है
और शाम को स्कूल बंद करके चला जाता हैं।
सुबह का सूरज देवता कम
मेहतर कुछ ज्यादा लगता हैं
मेरे उठने से पहले साफ कर देता है
मेरे आस- पास का अंधेरा।
सुबह का सूरज मुझे अपने टेबल घड़ी सा लगता हैं
जो दिनभर मेरी दिनचर्या बनाता हैं।।
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प्यार में दो हाथ का होना जरूरी हैं
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जब मेरे पास प्यार और प्रेमिकाएं दोनों थी
और दिमाग में बहुतेरे ख्वाब
अगर सपनों के मामले में तुलना की जाती तो
इतिहास के पन्नों में मेरे नाम की भी कोई सभ्यता होती
लेकिन! अफसोस
हमारे यहां के निकम्मे इतिहासकार
बिस्तर से लेकर सिंघासन तक की खबर लिखे
लेकिन मनुष्यों के सपनों के बारे में कु छ नहीं लिखे।
जब मेरे पास प्रमिकाएं थी
तब मैं घोर नास्तिक था
ऐसे में मुक्तिबोध के बहृाराक्षस से भी डर नहीं लगता था
अज्ञेय का केशकंबली कभी रहस्यमयी नहीं लगता था
जब प्रेमिकाएं पास में थी
तब बुद्ध और भगत भी बौने लगते थे
लेकिन! जैसे ही प्रेमिकाओं का जिंदगी से जाना हुआ
मैं उधार की कमीज की तरह खुद को देखने लगा
एक हादसे में
मैं अपना दोनों हाथ गवां बैठा था
मेरे सामने मेरी प्रमिकाएं समुद्र में लगातार सुराख किए जा रही थी
और मैं उनके कारनामें को कागज पर दर्ज कर नहीं पा रहा था
तब याद आया प्यार में दो हाथ का होना कितना जरूरी होता हैं।।
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कब्रिस्तान में प्रेमपत्र
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कब्रिस्तान की सभी आत्माएं
धरती से
अपने साथ कुछ न कुछ सामान लेकर गई थी
कोई हीरा लेकर
कोई सोना- चांदी
कोई रूपया लेकर गया था
कब्रिस्तान की एक आत्मा
धरती से
अपने साथ अपना प्रेमपत्र लेकर गई थी
यमराज दे आज घाषित कर दिया कि
जिसके पास प्रेमपत्र है
वह कब्रिस्तान की सबसे रईस आत्मा हैं।।
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जब आकाश उतरेगा आंगन में
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एक दिन
आगंन में उतरेगा आकाश
और तुम चुनोगी
हांडी भर चावल का दाना
दीया भर तेल
और थोड़ी सी आग।
एक दिन जब आकाश उतरेगा आंगन में
और तुम बनाओगी पतंग
बच्चों की खातिर कुछ कविताएं
और थोड़ी सा सिंदूर
और रंगोगी अपना यर्थाथ।।
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हामिद
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हामिद मुझसे रह-रह कर
अयोध्या का पता पूछता हैं
मैं बार उसकी बात टालकर
उसके प्रश्नों से हाथ झाड़ लेता हूं
हामिद: कभी महीनें में
अपने प्रश्न के साथ उपस्थित होता था
पर जबसे भारत और तालिबान का अर्थ समझने लगा हैं
अपने प्रश्न की आंच में दिन- रात जलता हैं
वह जानना चाहता है
अयोध्या के हाथ इतने कैसे लंबे हो गए
रेगिस्तान में भी उसके मां -बाप नहीं बच पाए
जबकि उसके यहां कोई नमाजी भी नहीं था
हामिद: अब मेरी बातों में नहीं फंसता
वह इतिहास पर पत्थर फेंकता है
बाबर/ गोरी को गाली देता हैं
इतिहास के कब्रिस्तान से जागकर
दिल्ली से टकराता है
और बेहोश होकर मेरी आंखों में गिर जाता हैं
पथराई सी उसकी आंखे
मुझसे अयोध्या का अर्थ पूछती हैं
हामिद अब बहुत अधिक समझदार हो गया है
न कुरान से लगाव रखता है और न ही मस्जिद से
पर अपने इतिहास और वर्तमान को बदलने की खातिर
लोकतंत्र की दीवार पर मूतता जरूर हैं
और अपनी सूनी सी आंखों से
जब राम को देखता है
तब उसे यकीन नहीं होता कि
इतना पवित्र चेहरा वाला
भारत को रौंदते हुए श्रीलंका में जाकर विश्राम किया होगा
अब उसे अपना चेहरा
श्रीलंकावासियों जैसा लगता हैं
और फिर धीरे से कहता है कि
वह इस दुनिया में कोई अकेला क्षतिग्रस्त इंसान नहीं हैं।।
-----------------------------------------
मेरे बारे में दीवारे बताएगीं
---------------------
दीवारे!
हर अच्छे- बुरे वक्त में मेरे साथ रही
दीवारे मुझे भूलने की बीमारी से हमेशा दूर रखती रही
मां के न होने का अहसास नहीं होने देती थी
मुझसे अधिक दीवारे मां की याद को बचा कर रखी हुई हैं
बाबूजी! की बहुत सारी यादे दीवारे ढो रही है वर्षो से
मैंने भी दीवारों पर लिख रखा है कई सारे सूत्र
और कई सारे चित्र बना रखे हैं
दीवारे बताएगीं
मैं कविता लिखने से पहले कैसे रोता था
दीवारे बताएगीं
मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं
दीवारे बताएंगी
कि मैं लोगों के बारे में क्या क्या सोचता था
दीवारे बताएगीं
मैं कितनी रात रात सोया नहीं
और कितने दिन भूखा रहा
दीवारे बताएगीं
मैंने काशी को बचाने के लिए क्या क्या नहीं किया।।
---------------------
दीवारे!
हर अच्छे- बुरे वक्त में मेरे साथ रही
दीवारे मुझे भूलने की बीमारी से हमेशा दूर रखती रही
मां के न होने का अहसास नहीं होने देती थी
मुझसे अधिक दीवारे मां की याद को बचा कर रखी हुई हैं
बाबूजी! की बहुत सारी यादे दीवारे ढो रही है वर्षो से
मैंने भी दीवारों पर लिख रखा है कई सारे सूत्र
और कई सारे चित्र बना रखे हैं
दीवारे बताएगीं
मैं कविता लिखने से पहले कैसे रोता था
दीवारे बताएगीं
मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं
दीवारे बताएंगी
कि मैं लोगों के बारे में क्या क्या सोचता था
दीवारे बताएगीं
मैं कितनी रात रात सोया नहीं
और कितने दिन भूखा रहा
दीवारे बताएगीं
मैंने काशी को बचाने के लिए क्या क्या नहीं किया।।
NITISH
MISHRA
(sub. Editor )
Madhya Pradesh Today Media Pvt. Ltd.
Balarao Engle Parisar,MTH Compound, Indore (MP)
Mobile : +91 8889151029.
(sub. Editor )
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शनिवार, 15 नवंबर 2014
LOKVIMARSH (लोकविमर्श): समकालीन हिन्दी कविता पर कुछ सोच-विचार ...
LOKVIMARSH (लोकविमर्श): समकालीन हिन्दी कविता पर कुछ सोच-विचार ...: समकालीन हिन्दी कविता पर कुछ सोच-विचार - अमीर चन्द वैश्य हम हमेशा ...
समकालीन हिन्दी कविता पर कुछ सोच-विचार
-अमीर चन्द वैश्य
हम
हमेशा वर्तमान में सेाचतें-चिचारते हैं। अपना दैनिक काम-काज करते हैं। लेकिन हमारा
आज हमारे बीते हुए कल से जुड़ा रहता है। यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। कल आज
में बदलता है और आज आने वाले कल में। भाषा और साहित्य में भी ऐसा ही क्रम चलता है।
आज की कविता कल से जुड़ी हुई है लेकिन उसमें कुछ परिवर्तन अवश्य दिखाई पड़ता है। इसी
प्रकार कल जो कविता सामने आएगी वह आज से कुछ भिन्न होगी।
परिवर्तनशील जगत् में प्रति-पल परिवर्तन हो रहा
है। लेकिन हम उसे पहचान नहीं पाते है। कालान्तर में हम देखते हैं कि समाज में बहुत
बड़ा परिवर्तन उपस्थित हो गया है। और हम भी बदल गए हैं। हमारी भाषा बदल गई है और
हमारा साहित्य भी। इसीलिए आज की कविता कल की कविता से भिन्न है। लेकिन भिन्न होते
हुए भी वह उससे बिलग नहीं है।
आजकल हिन्दी कविता के संसार में अनेक पीढ़ियों के
कवि सर्जना-संलग्न हैं। अनेक वरिष्ठ कवि हैं। अनेक कनिष्ठ कवि हैं। लेकिन युवा
कवियों और कवयित्रियों की संख्या अगणित है। सवाल ये है कि कवि कविता क्यों रचता है
और उसकी पहचान कैसे निर्मित होती है। पहले सवाल का जबाब ये है कि अभिव्यक्ति की
उद्दाम आकांक्षा प्रत्येक व्यक्ति में होती है। वह अपनी बात दूसरे तक संप्रेषित
करना चाहता है। काव्य-रचना का एक कारण यह भी है कि कवि अपनी बात दूसरों तक पहुंचाना
चाहता है। लकिन उसकी पहचान अपनी जनपदीय रागात्मकता से बनती है। त्रिलोचन शास्त्री
युवा कवियों से कहा करते थे कि यदि तुम्हें कवि के रूप में अपनी पहचान निर्मित
करानी है तो तुम जहां के रहने वाले हो वहां का जन-जीवन निकट से देखो। अनपढ़ लोगों
को बात करते हुए सुनो। उनसे भाषा सीखो। और अपनी कविता में उनका जीवन अपनी भाषा में
इस प्रकार रचो कि उनका परिवेश उसमें अभिव्यक्त हो। तुम्हारी काव्य-भाषा उनकी
बोली-बानी के शब्दों से सुगन्धित हो। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी लिखा है कि देश
प्रम की शुरूआत स्थानीय प्रेम से होती है। जिसे अपनी जन्म-भूमि से कोई लगाव नहीं
है उसे अपने देश से कैसे लगाव होगा। कविवर रसखान ब्रजभूमि, ब्रजपति और
ब्रजभाषा पर न्योछावर थे।
त्रिलोचन अवध के रहने वाले थे। अतएव उनके काव्य
में अवध के जनपद का जीवन अभिव्यक्त हुआ है। उन्होंने लिखा है मैं उस जनपद का कवि हूं
जो भूखा-दूखा है। अपनी गरीबी का कारण नहीं समझता है। रामायण का पारायण करके स्वयं
को धन्य मानता है। त्रिलोचन ने अपने काव्य में अपने स्थानीय जन-जीवन और उसके परिवेश
को अनेक रूपों में व्यक्त किया है। क्या आपने कभी नीम पर खिले हुए फूल देखे हैं।
उनका रंग कैसा होता है। त्रिलोचन ये बातें जानते थे। वे पेड़-पौधों को निकट से
देखते थे। उन्होंने फूले हुए नीम का वास्तविक वर्णन इस प्रकार किया है-‘‘ नीम में नव फूल
आए/सुरभिमय वातास/ मधुर मंजरियां तरंगित/ कर रही मद मौन इंगित/ भर रहा ऋतुराज में
प्रतिश्वास में विश्वास/सुरभिसमय वातास।‘‘ (धरती, पृष्ठ-114) यह सुरभिमय वातास बाहर निकलकर ही सूंघी जा सकती है। खुले मैदान
में अथवा किस बाग में अथवा जंगल में। विशेष रूप से गांव के परिवेश में। महानगर के
लोग ऐसी वातास से प्रायः वंचित रहते हैं। लेकिन आजकल मानवीय स्वार्थ पेड़ कटवा रहा
है। कवि अलीक ने गांव की पुरानी लीक पर चलते हुए यह अभिलाषा व्यक्त की है कि नीम
का पेड़ न काटा जाए। हरा-भरा पेड़ काटना पाप माना गया है। इसीलिए इस कविता में
चिड़िया दगड़ू प्यारी से कहती है-‘‘ क्युं काटा/ नीम का पेड़ /मेरा जीवन क्यों बांटा/जिस
पर मेरा बसेरा था/दिवस पल फेरा था/क्यों काटा नीम का पेड़ ?‘‘ (कबीर राग, पृष्ठ-103) पेड़ों के कटने
पर नगरों में दूर-दूर तक छाया नहीं दिखाई पड़ेगी। ऐसी हालत में गांव का युवक महानगर
में सोचता है-‘‘ धूप में/ जब भी जलें हैं पांव/ घर की याद आई।‘‘
तो घर की याद उसे ही आती है जिसे अपने घर से
हार्दिक लगाव होता है। वरिष्ठ कवि विजेन्द्र ने अपनी जन्म-भूमि ग्राम धरमपुर
(तहसील सहसवान, जिला-बदायूं, उत्तर प्रदेश) को अपनी कविताओं में बार-बार याद किया है। इसका प्रमाण है उनकी
याद शीर्षक कविता, जो स्मृत रूप-विधान के आधार पर रची गई है। रतलाम की सुवह शीर्षक लम्बी कविता
में वह धरमपुर को याद करते हुए कहते हैं-‘‘ गांव में कहा करते /आम होता है वहां/दुमट धरती जहां/
पानी रहे मीठा/याद आता/अपना गांव धरमपुर मुझको/थोड़े नीचे/जहां पानी था निरा
मीठा/बाग ही बाग थे भरे आमों के।‘‘ लेकिन मरूभूमि में पहुंचकर वह सोचते हैं-‘‘ नहीं देखे आम के
वृक्ष हरियाते/न उनका महकता बौर ।‘‘ अपनी जन्म-भमि के प्रति ऐसा हार्दिक लगाव कम
कवियों में लक्षित होता है। कहावत है प्रीत घटै परदेस बसे। लेकिन विजेन्द्र की
कविता ने ये कहावत झुठला दी है।
वस्तुतः काव्य सर्जना के लिए यह जरूरी है कि कवि
बाहरी जगत को अपनी ज्ञानेन्द्रियों से निरन्तर देखता-परखता रहे।
रूप-रस-गन्ध-स्पर्श-ध्वनि का ज्ञान इन्द्रियों के ही माध्यम से होता है। जिन
कवियों का इन्द्रिय बोध जितना व्यापक होता है उनके काव्य की अन्तर्वस्तु भी उतनी
ही विस्तृत होती है। इस सन्दर्भ में संस्कृत के आदि कवि वाल्मीकि का नाम अग्रगण्य
है। उनके बाद कालिदास का नाम कनिष्ठका पर आता है। कालिदास का मेघदूत उनके व्यापक
इन्द्रिय बोध का रागात्मक रूप है। किस कवि को कौन सा फूल पसन्द है। यह बात उसकी कविताएं
पढ़कर समझी जा सकती है।
हिन्दी के युवा कवि नीलकमल ने प्राकृतिक
परिवेक्षण और निरीक्षण के आधार पर ककून लम्बी कविता की रचना की है। इस कविता में
कवि ने अपने अनुभव के आधार पर यह विचार व्यक्त किया है कि रेशम के कीड़े अपनी
क्रियाशीलता से दूसरों के लिए रेशम के धागे रचते हैं। और अपने जीवन का वलिदान कर
देते हैं। कविता की यह वास्तविकता हमारे व्यापक समाज से जुड़कर निर्मम वास्तविकता
का उद्घाटन करती है। इस सन्दर्भ में कवि आक्रोश भरी भाषा में कहता है-‘‘ मुट्ठी-भर
प्रभुओं के तन पर रेशम का मतलब/कारोंड़ों नागरिक ककूनों की असमय मृत्यु/ स्कूलों
में मारे जाते शिशु ककून/ कालेजों में मारे जाते युवा ककून/घरों में दम तोड़ती
स्त्री ककून/दफ्तरों कारखानों में मृत्यु का वरण करते /मजदूर ककून।‘‘ (यह पेड़ों के
कपड़े बदलने का समय है,पृष्ठ-79) इस प्रकार युवा कवि नीलकमल ने रेशम के कीड़े ककून
को अनेक सामाजिक सन्दर्भों से जोड़कर अभिनव अर्थवत्ता प्रदान की है। साथ ही साथ
क्रूर व्यवस्था की आलोचना भी। इस कविता के मूल में है कवि का जागरूक इन्द्रिय बोध।
वस्तुतः बाहरी दुनिया को देखने-परखने के बाद ही
संवेदनशील कवि और अधिक संवेदशील होता है। आचार्य शुक्ल कहा करते थे कि शब्द काव्य
रचने से पहले वस्तु जगत के काव्य का अनुशीलन अनिवार्य है। उनकी मान्यता है कि
कविता करूणा और प्रेम के भावों की अभिव्यक्ति से समाज में लोकमंगल की स्थापना करती
है। करूणा की प्रवृत्ति रक्षण की ओर होती है और प्रेम की रंजन की ओर। जीवन की
विषमता देखते हुए रक्षण पहले है रंजन बाद में।
वयोवृद्ध कवि छविनाथ मिश्र ने लोक मांगलिक भावना की
अभिव्यक्ति धूप और मां के रागात्मक सम्बन्ध से इस प्रकार की है-‘‘ धूप किसी भी ऋतु
की हो/ नरम-गरम सुषम /जैसी भी होती है/ वह मां जैसीहोती है/दूव के पातों पर
पसरी/सुनहली हरीतिमा जैसी होती है/खेत में हो या सीवान में हो /वह न किसी धर्म
होती है/न किसी मजहब की होती है/वह हम सबकी होती है/नरम-गरम सुषम /जैसी भी होती
है/मां जैसी होती है।‘‘ (वागर्थ, अंक 196, नबबंर 2011, पृष्ठ-17) इस कविता में कवि ने अपने इन्द्रिय-बोध के आधार
पर विचार-बोध और सौन्दर्य-बोध की ऐसी आकर्षक अभिव्यक्ति की है कि पाठक का मन
स्वार्थ संकुचित घेरे से बाहर निकल जाता है। उसका मन धूप के समान ही संवेदनशील हो
जाता है।
आज की युवा कविता के लिए मैं की आवश्यक्ता नहीं
है। हम की आवश्यक्ता है। व्याकरण के अनुसार हम इसलिए उत्तम पुरूष है कि वह अपने
साथ सबको लेकर चलता है। महाकवि निराला का मैं हम में बदलता रहता है। इसी प्रकार
विजेन्द्र का मैं भी हम का समानार्थी हो जाता है। हिमाचल प्रदेश के युवा कवि सुरेश
सेन निशान्त अपनी कविताओं में मैं के साथ-साथ हम का भी प्रयोग करते हैं। इस दृष्टि
से उनकी जामुन और वर्फ कविताएं पठनीय हैं। पहली कविता जामुन में कवि ने इस बात पर
शोक व्यक्त किया है कि बहुत पुराना था वह पेड़ जामुन का। छायादार भी था। लेकिन उसे
कटवाकर वहां मन्दिर वनवा दिया गया। इससे कवि को हार्दिक वेदना महसूस होती है। वह
सोचता है-‘‘ खाली हाथ जब लौटुगा मांॅ को क्या जबाव दुंगा/हाट में कहीं बिक भी नहीं रहे/कोई
दूसरा पेड़ भी नहीं बोया हमने/इस अरसे में।‘‘ कवि की वेदना यह है कि जामुन का पेड़ कट गया है।
अब उसके मीठे फल कभी नहीं प्राप्त होंगे। हमारी धार्मिक अंधता कितनी क्रूर हो गई
है प्रकृति के प्रति। ऐसा ही विचार विजेन्द्र ने भी अपनी कविताओं में व्यक्त किया
है। यदि सुरेश सेन निशान्त को जामुन का पेड़ कटने से दर्द का अहसास होता है तो
विजेन्द्र को आम के बाग कटने और उजड़ने से पीड़ा हाती है।। इस प्रकार युवा पीढ़ी
वरिष्ठ पीढ़ी से भावात्मक नाता जोड़ रही हैं। और यह नाता बता रहा है कि पर्यावरण का
विनाश जीवन के लिए खतरे की घन्टी है। कितने ऐसे युवा कवि हैं जो प्रकृति के प्रति
संवेदनशील हैं। यह शोध का विषय है। सुरेश सेन निशान्त पर्यावरण विनाश के प्रति
इतने चिन्तित हैं कि पहाड़ पर वर्फ न गिरने पर उन्हें आसमान से बरस रही भीषण गर्मी
से परेशान होना पड़ता है। पर्यावरण विनाश ने पहाड़ी जनों को विस्थापित कर दिया है।
वे रोजी-रोटी के लिए पहाड़ से पलायन कर रहे हैं। कवि निशान्त की चिन्ता ऐसे
लड़के-लड़कियों के प्रति गहरी है जो बसों में बैठकर दूर शहरों की ओर चले गए, लौटकर वापस नहीं
आए पहाड़ों पर।
उत्तराखण्ड निवासी हरीशचन्द्र पाण्डेय इलाहवादी
कवि के रूप में विख्यात हैं। उनकी एक कविता है वर्फ गिर रही है। यह दृश्य देखकर वह
कहते हैं-‘‘ कोलाहलो, अपने-अपने पांव समेट लो/शरीसृपों, भूमिगत हो जाओ/वर्फ गिर रही है।‘‘ लेकिन अब ‘‘वर्फ पिघल रही
है/कैमरे स्वर्ग में उतरने के साक्ष्य जुटा रहे हैं/ वर्फ को जी भर जीकर सैलानी आ
रहे हैं/ उनके हाथों में ताजा अखबार हैं/अखबारों में लोग ठंड से मर रहे हैं।‘‘ (वागर्थ, अंक 231, अक्टूबर 2014, पृष्ठ-82) इस कविता में भी
कवि का इन्द्रिय बोध सजग हैं। उसने परस्पर विरोधी भावों का निरूपण करके ठंड से
मरने वाले लोगों के प्रति शोक संवेदना व्यक्त की है। पाण्डेय जी का भाव बोध
संवेदना के तार से निशान्त को अपनी भावना से जोड़ रहा है। ऐसी कविताएं पढ़कर और
समझकर निदा फाजली का शेर याद आ रहा है-‘‘ घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें/किसी
रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।‘‘
दूसरे कवि महेश चन्द्र पुनेठा भी पहाड़ी परिवेश
के कवि है। वह अपने आस-पास की प्रकृति अवधान पूर्वक देखते-परखते हैं। और फिर
स्थानीय पेड़ खिनुवा के बारे में कहते हैं-‘‘ खिनुवा का पेड़ हूं मैं/तुम कहां पहचानागे
मुझे/मैं नहीं दे सकता तुम्हें/सरस स्वादिष्ट फल/नहीं बन सकता हूं तुम्हारी हवेली
की /दरवाजे-खिड़कियों की चैखट/ मेरे पास नहीं हैं/चित्ताकर्षक और सुगन्धित
फूल/जिन्हें सजा सको /तुम अपने फूलदानों में।‘‘ (शुक्रवार , साहित्य
वार्षिकी ,2013,
पृष्ठ-183) महेश चन्द्र पुनेठा का तुच्छ और उपेक्षणीय
खिनुवा का पेड वरिष्ठ कवि विजेन्द्र के महत्वहीन लेकिल महत्वपूर्ण कुकुर भांगरा से
जुड़कर अपनी उपयोगिता की घोषणा कर रहा है। इस प्रकार प्रकृति पर्येवेक्षण का सूत्र
दोनों कवियों को जोड़ रहा है। ़
हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में इतना त्रासद
उलट-फेर हो गया है कि हमारा लोक तो अभावग्रस्त और संत्रस्त है, लेकिन तंत्र
अपनी मौज में मस्त है। इसीलिए अदम गोंडवी कहते हैं-‘‘ तुम्हारी मेज चांदी की, तुम्हारा जाम
सोने का /जहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है।‘‘ (धरती की सतह पर, पृष्ठ-41)। यह घनघोर
विषमता नई नहीं है। बहुत पुरानी है। याद कीजिए सुदामा की पत्नी का कथन -‘‘ या घर तैं कबहुं
न गयौ पिय टूटो तवा औ फूटी कठौती।‘‘ आज के भारत में अमीरों की संख्या तो बहुत कम है, लेकिन गरीब
असंख्य हैं। तभी तो दुष्यन्त कुमार ने कहा था-‘‘कल नुमाइश में मिला था चीथड़े पहने हुए / मैंने
पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है।‘‘ ऐसे भूखे-नंगे हिन्दुस्तान की दुर्दशा का कारण
विदेशी पूंजी है। हमारी सरकार की उदारीकरण और निजीकरण की नीति ने उसके लिए सभी
द्वार खोल दिए हैं। मोदी सरकार भी अमरीकी कम्पनियों को आमंत्रित कर रही है। आइए।
पधारिए। धन कमाइए। हमारे बेरोजगारों को रोजगार दीजिए। ऐसे कुटिल समय में जनपक्षधर
युवा कवि कहता है-‘‘ जन की पीड़ाओं को/जब शब्द दूता है/कवि/हा-हाकार करता है/व्यथाओं का समंदर/उसकी
कविता में/लोकतंत्र के मसीहा/पुरस्कृत करते हैं कवि को/बताते हैं/उसे/मानवता की
पीड़ा का गायक।‘‘(कपिलेश भोज, यह जो वक्त है, पृष्ठ-69) वास्तविकता यह है कि सरकारी तंत्र चाहता ही नहीं हैं कि कवि और लेखक उसके
विरोध में कुछ लिखें, जिसे पढ़कर जनता जागरूक हो। अतएव अनेक सत्तामुखी कवि मधुर भाषा में सत्ता की
नख-दन्त-विहीन आलोचना करते हैं। वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह कुम्भन दास के प्रति
कविता में कहते हैं-‘‘ फिर भी कविवर जाते-जाते पूछ लूं/ये कैसी अनबन है/कविता और सीकरी के बीच/कि सदियां
गुजर गईं /और दोनों में आजतक पटी भी नहीं।‘‘(सृष्टि पर पहरा) वास्तव में केदार जी यह चाहते
हैं कि सत्ता की सीकरी से कविता के सम्बन्ध कटु न होकर मधुर हों। लेकिन ऐसा सम्भव
नहीं है। भक्तिकाल के कवि सत्ता की सीकरी से दूर रहे। और आधुनिक कवियों में निराला
के अलावा केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध, विजेन्द्र जैसे कवि आज की सत्ता के केन्द्र
दिल्ली से हमेशा दूर रहे। वस्तुतः केदारनाथ सिंह नागार्जुन की परम्परा के कवि नहीं
हैं। यदि होते तो नागार्जुन के समान राजनेताओं की तीखी आलोचना करते। उनकी कविता
में त्रिलोचन काव्य जैसी विविधता भी नहीं है। पुरस्कारों से किसी कवि का बड़प्पन
नहीं आंका जा सकता है। ये तल्ख हकीकत है आज का युवा कवि कुछ कविताएं लिखने के बाद
पुरस्कार प्राप्ति के लिए जुगाड़ करने लगता है। ये दूषित प्रवृत्ति कविता को हानि पहुंचा
रही है। वयोवृद्व कवि मलय जानते हैं कि समाज में जो कुछ घटित हो रहा है। अच्छा या
बुरा, उसे संवेदनशील कवि देख सकता है और समझ सकता है। उनका कहना है -‘‘ एक और /उगता दिन
दिखता है/इस सौर मंडल में /मनुष्यत ही है/जो सूर्य की तरह /उगता हुआ थरथराता
है/उसका थरथराना जारी है/कम नहीं हुआ अभी तक/जिसे सब नहीं /देख पाते/कवि देख पाता है/जब
वह अपनी धड़कनों की /लहर दार उंचाई पर आकर/खड़ा होकर भी/खड़ा नहीं रहता।‘‘ (वागर्थ,2013, पृष्ठ-62)
आजकल मानवता और दानवता का द्वंद चल रहा है। छल-छद्म और स्वार्थ हावी हो रहे हैं।
अतः मनुष्य का हृदय निर्मल नहीं है। और न हो सकता है। वर्ग-विभक्त समाज में कोई भी
कवि अजातशत्रु नहीं होता है। उसकी कविता अपने शत्रु को पहचानती है। शम्भू बादल
कहते हैं कि मै सच कहता हूं।‘‘ गीता-कुरान हाथ में ले /काली कामरेड की जमीन पर
/सच कहता हूं/भारत घायल है/घाव बहुत गहरे हैं।‘‘ (वागर्थ, वही अंक, पृष्ठ-67) सवाल ये है कि
भारत घायल क्यों है। जबाव है घनघोर आर्थिक विषमता के कारण। उदारीकरण और निजीकरण की
वजह से। ंघायल भारत का मतलब है भारत के बहुसंख्यक किसान और मजदूर, जो आजकल त्रासद
जीवन विताने के लिए अभिशप्त हैं। सियाराम शर्मा ने ठीक लिखा है-‘‘ बर्बर पूंजी और
हिंस्र साम्रराज्यवाद के दौर में लोक और प्रेम सर्वाधिक संकट ग्रस्त हैं। ‘‘ ऐसी विषम
परिस्थति में केशव तिवारी अपने पुरखे कवि ईसुरी को याद करते हुए कहते हैं-‘‘ आज भी जब युवा
फगुहार गाता है /पटियां कौन सुघरने पारीं /तो नवयौवनाओं के/चेहरे लाल हो उठते हैं/
और रजउ का दर्द तो अब भी फांस की तरह /चुभता है युवा हृदयों में।‘‘ (आसान नहीं है
विदा कहना, पृष्ठ-35)
वर्तमान काल के भयावह संकट के समय अतीत की
प्रेरक स्मृति उत्साह का संचार करती है। निर्मल प्रेम ने असाध्य कार्य साधे हैं।
आतः निजी और सामाजिक जीवन के व्यवहार में निश्छल प्रेम व्यवहार अनिवार्य है, जो कभी-कभी
दिखाई पड़ता है। रेखा चमोली का कहना है-‘‘ प्रेम में/ चट्टानों पर उग आती है घास/किसी टहनी
का/ पेड़ से कटकर /दूर मिट्टी में फिर से फलना फूलना/प्रेम ही तो है/प्रेम में
पलटती हैं ऋतुएं।‘‘ (पेड़ बनी स्त्री, पृष्ठ-66) वरिष्ठ कवि विजेन्द्र भी अपने दामपत्य प्रेम को तीर्थराज प्रयाग के समान
पवित्र मानते हैं। दामपत्य प्रेम से भरे प्रेम को तीर्थराज कहना कवि की उदात्त
कल्पना है।
मकान को घर में बदलने का महान कार्य प्रेम भाव
ही करता है। संतोष चतुर्वेदी कहते हैं-‘‘ कौन कहता है/कि महज दीवारों और छतों से/बनते हैं
घर/ वे तो खिड़कियां और दरवाजे हैं/जो देते हैं घर को/सही तौर पर /उसका मुकम्मिल
स्वर।‘‘ और ये मुकम्मिल स्वर गूंजता है प्रेमालाप से। मकान मे घर-परिवार के लोग बसते
हैं, तब वह घर का रूप धारण करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि नई पीढ़ी के कवियों
की संवेदना का सूत्र विजेन्द्र के भाववोध से जुड़ा हुआ है।
घर-परिवार में अकेलापन नहीं होता है। इसीलिए
गृहस्थ आश्रम को सर्वोपरि माना गया है। संकट आने पर एकजुट गृहस्थी प्रतिकूल
परिस्थतियों का सामना करती है। त्रिलोचन
ठीक कहते हैं-‘‘ आए न बहुत दिन बादल/बरसा न बहुत दिन पानी/मिलकर वे दोनों प्रानी/दे रहे खेत
में पानी।‘‘ ऐसा दामपत्य प्रेम अपना विस्तार करके संपूर्ण जीवन जगत् से अनायास जुड़ जाता
है। ये प्रेम भाव ही है जो हमें बलिदानी क्रान्तिकारियों के प्रति मन में श्रद्वा
जगाता है। लेकिन दुष्टों और आतंकवादियों के प्रति घनघोर घृणा का भाव उत्पन्न करता
है। युवा कवि भरत प्रसाद जुझारू छात्र नेता चन्द्रशेखर की शहादत के प्रति श्रद्वा
व्यक्त करते हुए कहते हैं -‘‘ चन्द्रशेखर, तुम जा ही नहीं सकते/क्योंकि तुम ,तुम नहीं सब बन
गए हो/सपने जो बनाए, क्या मिट गए सभी/नहीं चन्दू नहीं/वो तो आत्मा में बस गए हैं।‘‘ (एक पेड़ की
आत्मकथा, पृष्ठ-41) । इस कवितांश में शहीद चन्द्रशेखर को चन्दू कहकर भरत प्रसाद ने अपनी आत्मीयता
सहज भाव से व्यक्त की है। इस प्रकार प्रेम व्यापक होकर अन्तरराष्ट्रीयता का पक्षधर
हो जाता है। प्रतिरोध की भूमिका का निर्वाह करता है। वरिष्ठ कवि विजेन्द्र अमरीकी
साम्रराज्यवाद का प्रखर विरोध करते हुए कहते हैं-‘‘ दैत्य को पछाड़ो/ जो करता है
दोहन उगते देशों का/जो छीनता है हमारे खनिज स्रोत/हमारे जल-प्रपात/हमारे फल-फूल।‘‘ आजादी के बाद से
ही देश की सामाजिक गतिकी इतनी विषम हो गई है कि वर्तमान पीढ़ी स्वाधीनता के
बलिदानियों का विस्मरण कर रही है। वास्तविकता तो यह है कि ‘‘ वोट हमारा हार
हमारी जीत-जश्न उनके/द्यूत सभा शकुनी के पांॅसे बिछी बिसाते हैं।‘‘ अर्थात हमारी
राजनीति महाभारत कालीन राजनीति हो रही है। छल और कपट से भरी हुई। सत्ता लो को अपने
भ्रम जाल में फांसकर अपना उल्लू सीधा किया करती है। ऐसी विषम परिस्थति में अशोक
तिवारी जैसे जागरूक कवि का कहना है कि कम्यूनिष्ट बनना चहता हूं । क्योंकि ‘‘ मैं मानता हूं/
लोकतांत्रिक प्रणाली का होता है मुख्य आधार जन /होती है जिसके अन्दर कुव्वत/जालिम
के खिलाफ/उठ खड़े होने की, टकराने की/तीसरी दुनिया के सपने को /हकीकत में
बदलने की।‘‘ (दस्तखत, पृष्ठ-116)
दुनिया के विकासशील देश तभी आगे बड़ सकते हैं जब आज की एक
धुबीय दुनिया पर अंकुश लगाया जाए। अर्थात अमरीकी साम्रराज्यवाद का विरोध किया जाए।
विरोध के लिए आवाज बुलन्द की जाए। वरिष्ठ कवि विजेन्द्र का कहना है कि बोलने से
सन्नाटा टूटता है। व्यवस्था दहलती है। उनका ये कहना ठीक है-‘‘ बोलो तुम अपनी
जबान बोलो/ बोलना पथरीली जड़ता को तोड़ता है, बोलो/वह तुम्हारी अजेय ताकत है/मुक्तिकामी जीवन
की सक्रिय लय।‘‘ आज हमें प्योर पोएट्री की आवश्यक्ता नहीं है, क्योंकि ऐसी कविता राजनीति निरपेक्ष होती है। आज
राजनीति सापेक्ष कविता की आवश्यक्ता है। इसलिए कि समाज में जो कुछ भी परिवर्तन
होता है वह जन विरोधी राजनीति के बदलने से होता है। वर्तमान राजनीति का छल-छद्म
देखकर आरजू लखनवी फरमाते हैं-‘‘ राहवर रहजन न बन जाए कहीं , इस सोच में/चुप
खड़ा हूं, भूलकर रास्ते में मंजिल का पता।‘‘ आरजू लखनवी की यह दशा असमंजस भरी मालूम होती है।
इकबाल तो सामाजिक विषमता देखकर स्पस्ट शब्दों में कहते हैं-‘‘ जिस खेत से दहकां
को मयस्सर न हो रोटी /उस खेत के हर गोश-ए-गंदुम को जला दो। अतएव आज का लोकधर्मी
कवि श्रमी जनों को अपनी कविता के केन्द्र में उपस्थापित करके उनकी सामान्यत को
विशेषत्व प्रदान कर रहा है। इसका उदाहरण हमें अशोक तिवारी की कविता नीम गांव वाली
में मिलता है। इस कविता की श्रमशीला महिला अनामिका है। अर्थात लोग उसे उसके नाम से
नहीं पुकारते हैं। उसे कामवाली कहा करते हैं या नीम गांववाली। यानि उसकी पहचान ही
समाप्त कर दी है। यह हमारे समाज की निर्ममता है जो निम्न वर्ग के प्रति ऐसा
संवेदनहीन व्यवहार करती है। अशोक तिवारी ठीक लिखते हैं-‘‘ वो औरत/नहीं
पुकारी गईजो कभी भी /किसी एक खास नाम से /पुकारा गया कभी उसे घर /तो कभी घेर के
नाम से/कभी गांव से/कभी शहर के नाम से।‘‘ (दस्तखत, पृष्ठ-67) वस्तुतः यह सामन्ती मनोवृत्ति है। पहले भी थी और
आज भी है। बड़े लोग छोटे लोगों को अक्सर कमीन कहा करते हैं। उनकी उपेक्षा करते हैं।
रहीम ने इसी बात की ओर संकेत करते हुए कहा है-‘‘ रहिमन देख बड़ेन कौ लघु न
दीजिए डारि /जहां काम आवे सुई कहा करै तलवारि।‘‘ ऐसी सामन्ती मनोवृत्ति का
विरोध समकालीन कविता में किया जा रहा है। कवि और कवयित्रियां दानों ही सामन्ती
जीवन-मूल्यों का विरोध कर रहे हैं। घर-परिवार में नारी को द्वितीय श्रेणी का
व्यक्ति समझा जाता है। अतः पद्मजा शर्मा नारी की विवशता का निरूपण करते हुए यह
संकल्प भी करती हैं-‘‘ मेरी जीत हो न हों /अब हारूंगी तो नहीं/अब तक मारा खुद को/सीधी-भोली-विनम्र
कहलाने को /पर अब मरूंगी तो नहीं /यह भी तय समझें/भले हरा न पाउं /पर हारूंगी
नहीं।‘‘(हारूगी तो नहीं, पृष्ठ-44) स्त्री पुरूष के प्रेम सम्बन्ध कभी इक तरफा नहीं हो सकते। सम्बन्धों में
समतुल्यता अनिवार्य है। लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था ने सम्बन्प्धों की समतुल्यता को
आघात पहुंचाया है। इसीलिए लोगों के जीवन में प्रेम की कमी दिखाई पड़ती है, जिसके
परिणामस्वरूप अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। यही सोचकर मनीषा जैन कहती हैं-‘‘ मन को अकेला
होने से /बचा लेती हैं प्रेम की स्मृतियां/इसलिए प्रेम को/ नजदीक ही रखिए/ प्रेम
यदि बचा रहा /तो बचा रहेगा /चुटकी भर जीवन।‘‘
लेकतांत्रिक व्यवस्था में हम नारी को स्वाधीन
रूप में रात-दिन देखते हैं। लेकिन उसकी तथाकथित स्वाधीनता पराधीनता ही है, क्योंकि वह पूंजी
के इशारे पर विज्ञापनों की दुनिया में अपनी देहयष्टि का प्रदर्शन मांग और पूर्ति
के नियम के अनुसार करती है। इसीलिए जितेन्द्र कुमार कहते हैं-‘‘ सावुन के झाग
में/ पहाड़ से गिरती श्वेत जलधार के सामने /पथरीली नदी के बीच /मेघ में परिणत उछलते
जल की छाया में/उन्मादी अट्ठहास के साथ/गोरी-गारी बाहें /इक्कीसवीं सदी के आगमन
का/स्वागत गान गाती हैं। ‘‘ (समय का चन्द्रमा, पृष्ठ-111) आज की नारी का यह स्वतंत्र रूप क्या उसकी
वास्तविक आजादी है।
घर-परिवार में स्त्री का महत्व सह अस्तित्व में निहित है। प्रेमचन्द का कथन है कि नारी में कुछ
कठोरता होनी चाहिए और पुरूष में कुछ कोमलता। मलय और विजेन्द्र जैसे कुछ वरिष्ठ कवि
पत्नी को विशिष्ठ महत्व प्रदान करते हैं। मलय अपनी दिवंगता पत्नी सावित्री को
संवोधित करते हुए कहते हैं-‘‘ जीवन की निपट जर्जरता में /तुम्हारी कमाई हुई/
धीरज की /सघन साधना के सार से /जब मैं /मनुष्य हो गया/तुम धरती में समा गईं/मैं
अपने बसन्त का अधूरा अनन्त हों गया/लड़खडा गया/भीतर से बाहर तक/तुम्हारी अनुपस्थिति
में/ खुद को सही-सही/ देख नहीं पाता।‘‘ (कवि ने कहा, पृष्ठ-123, 124) वस्तुतः घर-परिवार में स्नेह का सूत्र एक को
दूसरे से बांधे रहता है। इसीलिए रहीम ने कहा है-‘‘ रहिमन धागा प्रेम का मत
तोड़ो चटकाय/टूटै से फिर जुरै नहिं ,जुरै गांठ परि जाय।‘‘
प्रेम की व्यापक भावना से प्रेरित होकर पुष्पिता
अवस्थी नवजात अश्वेत शिशु के जन्म पर मां की ममता का गान करती हैं और रंग-भेद की
आलोचना।‘‘वैज्ञानिक सदी के/सत्ताधारियों की कोशिशों /और अत्तरराष्ट्रीय मानव अधिकारों
के संगठनों के बावजूद/गोरे आज भी बने हुए हैं/सर्वश्रेष्ठ/ जबकि मछेरों और लुटेरे
योद्वाओं से अधिक नहीं रहे कभी कुछ /अपनी मानसिकता से/आज भी वैसे ही भूखे और
भुक्खड़।‘‘ (समकालीन सरोकार , मई,
2012) प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि पुष्पिता अवस्थी प्रवासी भारतीय
कवयित्री हैं। अश्वेतों के महान गायक पाल राब्सन को संवोधित करते हुए विजेन्द्र ने
ओजपूर्ण लम्बी कविता में आह्वान किया है कि आज अश्वेतो को आज तुम्हारी आवश्यक्ता है।
प्रेम की व्यापक भावना अपना सम्बन्ध मानवीय
करूणा से जोड़ती है। रेखा चमोली ने इसका प्रमाणस अपनी कविता गणेशपुर की स्त्रियाँ में प्रस्तुत किया है। इस कविता का सन्दर्भ है
सोलह एवं सत्रह जून 2014 में उत्तराखण्ड में आया हुआ प्रलयकाण्ड जिसने भीषण त्रासदी उपस्थित कर दी थी।
उस संकट की घड़ी में गणेशपुर की स्त्रियों ने मुसीवत में फंसे लोगों की मदद
यथाशक्ति की थी। रेखा चमोली ने ठीक कहा है-‘‘ पर सब काम छोड़/मुसीवत में फंसे लोगों के लिए सड़क
पर चूल्हा जलाने का साहस/हर किसी के बस की बात नहीं /अजब-गजब हैं गणेशपुर की स्त्रियां/
अजब-गजब है उनकी पुष्पादी।‘‘
उदारीकरण के दौर में सरकारी मिलें धीरे-धीरे
बन्द हो रही हैं। अथवा उन्हें बेचा जा रहा है। बन्द मिलों की जमीन का उपयोग किस
प्रयोजन के लिए किया जाएगा। यह बात शम्भू यादव से छिपी हुई नहीं है। उन्होंने इसका
कारण अपनी कविता कपड़े की पुरानी मिल में तलाशा है। कविता की शुरूआत होती है इस पंक्ति
से-‘‘ सब चीजों को समतल किया जा चुका है/केवल अब चिमनी बाकी रह गई है। ‘‘ अब पुरानी सपाट
मैदान बन चुकी है। कवि चाहता है कि वह सपाट मैदान बच्चों के लिए खेल का मैदान बन
जाए। इसलिए वह कहता है-‘‘ लेकिन मैं कह दूं अपनी भी /बच्चे खेलते हैं जिस
मैदान में/रहे खेलने का मैदान ही /नहीं तो जैसा कि बच्चों में बिराजी है सबसे बड़ी
इच्छा /ललचाई लपलप पर /अपनी किल्लियां गाड़ देते हैं बच्चे।‘‘ (शुक्रवार
साहित्य वार्षिकी ,सन् 2014,
पृष्ठ-197 )इस प्रकार शम्भू यादव ने बच्चों की जिद के
माध्यम से प्रतिरोध की भावना सादगी से व्यक्त की है।
कविता मनुष्य भाग की रक्षा करती है। आज का युवा
कवि स्वयं को व्यापक सन्दर्भों से जोड़कर पर्यावरण के प्रति भी अपनी चिन्ता व्यक्त
करता है और साथ ही साथ शोषित मानव के प्रति भी। युवा कवि रजत कृष्ण को जितनी
चिन्ता पेड़, पवन, पानी और आग के प्रति है उतनी ही फिक्र अम्बानी के सपनों में पल रहे इस देश के
प्रति भी है।-‘‘यहां /कुछ चीजें हैं कि /कभी नहीं बदलीं/कभी नहीं सुधरीं/जैसे कि /फगनू राम
गोंड की /हड़ियल काया में लटक रही /यह कमीज/जो फटी है/वो अब तक/सिली-तुनी ही न जा
सकी/$$$फगनू राम की /कमीज का फटापन /और राम प्रकाश की चप्पल की घिसटन /हर सरकार को
/दिखती है/इन्हें बदलने और/सुधारने की बाते भी/हर सरकार करती है/पर किसी भी सरकार
के लिए /कहे हुए को /पूरा करना/अब कोई जरूरी तो नहीं रहा/और टाटा-बिड़ला
से/होते-हुआते /अम्बानी के सपनों में /पल रहे इस देश में /फगनू राम गोंड /और राम
प्रकाश सिंह/ सरकार को/एक वोट के सिवा /आखिर देते ही क्या हैं।‘‘ (छत्तीस जनों वाला घर, पृष्ठ-88,89,90) इस कवितांश में
प्रश्नात्मक शैली के द्वारा कवि ने आजादी से आजतक के भारतीय लोकतंत्र की असलियत
उजागर कर दी है कि अभी तक हमारे समाज में एक भी बुनियादी बदलाव नहीं आया है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कथन है कि कविता
मनुष्य कों स्वार्थ संकुचित घेरे से बाहर निकालकर मनुष्यता की उच्च भूमि पर
प्रतिष्ठित करती है। इस सन्दर्भ में रामदरश मिश्र की कविता हाथ पठनीय है। कवि राम
दरशमिश्र अपने सीधे हाथ की प्रशंसा करते हुए अचानक एक अपरिचित जन का जला हाथ देखकर
उससे उसका कारण पूछते हैं। वह मौन रहकर कहता है-‘‘ वह चुप रहा /और शायद मेरी
चिकनी हथेलियांॅ देखता रहा/फिर धीरे-धीरे अपने दोनों हाथ फैला दिए/वे झुलसे थे।‘‘वह बोला -‘‘ मैंने एक जलते
हुए मकान में से /एक बच्चे को बचाया था/फिर अस्पताल में पड़ा रहा।‘‘ (बारिश में भीगते
बच्चे) कविता का ये अंश पढ़कर पाठक महसूसता है कि मानो कवि स्वयं अपने सीधे हाथ पर
व्यंग्य कर रहा है। पूरी कविता के पाठ के बाद पाठक की सारी सहानुभूति उस अनाम
व्यक्ति के जले हुए हाथ के प्रति व्यक्त होने लगती है। वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह
ने भी हाथ पर कविता लिखते हुए कहा है -‘‘ उसका हाथ /अपने हाथ में लेते हुए मैंने
सोचा/दुनिया को/हाथ की तरह गर्व और सुन्दर होना चाहिए।‘‘ (जमीन पक रही है)
। डा0 सिंह की लघु कविता मात्र सामान्य कथन है, जबकि मिश्र जी की कविता क्रियाशीलता से पाठक के
मानस में संवेदना जगाती है। अतः हम कह सकते हैं कि अच्छी कविता की पहचान
क्रियाशीलता है। जिन कविताओं में जीवन की क्रियाओं की सक्रियता होती है वे हमें
आकृष्ट करती हैं। वरिष्ठ युवा कवि अपनी रचना कविता लिखने का वक्त में कहते हैं-‘‘ दूर पूर्वी छोर
पर जहां/चूमता है अम्बर अवनी को /अरूणाभ क्षितिज /दे रहा संकेत /नए दिवस के आरम्भ
का/ सूरज दस्तक दे रहा शहर के किबाड़ पर/ कविता लिखने का वक्त है ये।‘‘ (समय का चन्द्रमा, पृष्ठ-8) तात्पर्य ये है
कि मानव की क्रियाशीलता से कविता में प्राणों का संचार होता है। भावबोध के साथ-साथ
इन्द्रिय बोध की भी अभिव्यक्ति होती है। इसके विपरीत क्रियाशीलता से रहित कविताएं
प्रायः निष्प्राण हुआ करती हैं।
हमारा समकालीन समाज इतना अधिक बेरहम और बेदर्द
है कि उसने हमदर्दी लगभग त्याग दी है। वह शराफत का मुखौटा लगाकर भ्रम से लोगों को
ठगा करता है। यही कारण कि आज के समाज में हर बेरोजगार नौजवान परेशान दिखाई पड़ता
है। वह स्वयं अपने आप से पूछता है -‘‘ सीने में जलन आंॅखों में तूफान सा क्यों है/इस
शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है/क्या कोई नई बात नजर आती है हममें/आईना हमें
देखकर हैरान सा क्यों है।‘‘
वास्तव में ये हैरानी और परेशानी आर्थिक विषमता की देन है।
अब ये क्रूर वास्तविता उजागर हो गई कि हमारे देश के नौजवानों का भविष्य उनके हाथों
में नहीं है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों में है। निजी संस्थानों के हाथों
में हैं। साम्रराज्यवादी पूंजी के हाथों में है। आजकल हर हिन्दुस्तानी रग्घू रेहन
पर रखा हुआ है। इस वास्तविकता की ओर केशव तिवारी ने संकेत करते हुए कहा है-‘‘ यूं तो हर रोज
की तरह /गुजर जाती है शाम / आज कुछ देर मेरे पास से /गुजरते हुए ठहर गई/गांॅव का
आखरी जानवर /खूंटे पर लौट आया है/और पहला दिआ जल चुका है/एक नीम अंधेरे में हम
/खोज रहे हैं अपना चेहरा/हम एक पल को भूल गए थे/हमारे चेहरे तो कहीं और/रेहन पर
रखे हुए हैं/एक थकी शाम के धुंधलके में /दो लापता चेहरे/एक दूसरे का पता दे रहे
थे।‘‘(समकालीन सरोकार, अगस्त-अक्टूबर,
2013)
अब सवाल ये है कि ऐसी भयंकर अंधियारी रात में
विवेकी कवि ज्ञान के प्रकाश से जीवन पथ कैसे आलोकित करे। इस सन्दर्भ में
ज्ञानेन्द्र पति का कहना है-‘‘ दुनिया को धुनिया चाहिए एक /सबकुछ को जो धुन कर
रख दे/कबीर सा जोलाहा, धुन का पक्का/उधेड़े फिर बुनकर रख दे।‘‘ तो वर्तमान समाज
के लिए कबीर जैसे प्रखर कवि की आवश्यक्ता है जो सच को सच कह सके। आजकल जीवन का सच
छिपाया जा रहा है। विशेष रूप से मीडिया उसे जनता के सामने लाता ही नहीं है। अतएव
समाज को जागरूक करने के लिए जनपक्षधर पत्रिकाओं की आवश्यक्ता है जो हमारे लोकतंत्र
की पोल खोल सकें। लेकिन पद, पुरस्कार और प्रतिष्ठा के लालच से कवि तल्ख
बातें लिखने से बचते हैं। गिने चुने कवि ऐसे हैं जो सच को सच कहने का साहस करते
हैं। नरेश सक्सेना ने बड़ती हुई सांप्रदायिकता को दृष्टिगत रखते हुए ईश्वर के बारे
में बड़ी तल्ख टिप्पणी की है। उनका कहना है-‘‘ निराकार नहीं है वो /पर किसी बात पर जबाव नहीं
उसके पास /क्योंकि सबकुछ उसका किया धरा है/ दरअसल मुह दिखने काबिल/ अब वो रहा ही कहां।‘‘ (विपाशा, सन् 2006,पृष्ठ-73)
ये तल्ख वास्तविकता है कि आजकल भगवान और ईश्वर
के नाम पर, अल्हा और खुदा के नाम पर, राम रहीम के नाम पर, गाड के नाम पर
बे-गुनाहों का खून बे-वजह बहाया जाता है। अपने-अपने ईश्वर और अल्हा की रक्षा के
लिए। भारत में बड़ता हुआ सांप्रदायिक तनाव इस बात का प्रमाण है। और आतंकवाद का
प्रकोप भी, जो अमरीकी साम्रराज्यवाद की उपज है। वर्तमान समय में अमरीकी राष्ट्रपति बराक
ओबामा और भारमीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक-दूसरे पर फिदा हैं। इनकी ये मैत्री
क्या गुल खिलाएगी ये तो भविष्य ही बताएगा। फिलहाल इतना तय है कि दोनों की चादर पर
दाग लगे हुए हैं। दोनों में बेदाग कोई नहीं है। ऐसी विषम परिस्थतियों में हिन्दी
के जागरूक कवियों का कर्तव्य है कि वे जनवादी जीवन-दृष्टि से वर्तमान समय की परिघटनाएं
देखें-समझें औा रपखें। घटनाएं क्यों घटित हो रही हैं, उनका कारण
बताएंॅ। इसीलिए आज का कवि अपनी कलम को संवोधित करते हुए कहता है-‘‘ मैं तुम्हें/अजर
अमर नहीं बनाना चाहता /न चाहता /तख्त पे सजाना/मै तो चाहता हूं कि तुम/ वर्ग चेतस
द्वन्द्व सांसों में /बसी होकर /स्पंदित होती रहो।‘‘ (अलीक, कबीर राग)
अन्त में हम यह उचित समझते है। कि समकालीन युवा
कविता की कुछ कमियों की ओर संकेत किया जाए। आज का युवा कवि निराला के मुक्त छन्द
का प्रयोग नहीं कर रहा है। इसलिए उसकी कविता में लयात्मकता का अभाव है। आवेग की
कमी है। गद्यात्मकता की अधिकता है। व्यापक जीवन के विभिन्न अनुभवों का अभाव है।
संघर्षशील और क्रियाशील जनों के चित्र उनकी कविताओं में कम लक्षित हो रहे हैं।
अधिकतर कविताएं निजी अनुभवों तक सीमित हैं। उनमें वस्तुपरकता और आत्परकता के
सामंजस्य का अभाव है। कोई भी समर्थ कवि अपनी परम्परा से जुड़े बिना श्रेष्ठ रचना की
सृष्टि नहीं कर सकता है। यदि आदि कवि वाल्मीकि न होते तो क्या साहित्य मे राम कथा
की परम्परा होती। ये सत्य है कि आज का कवि आज के जीवन की बात कहेगा। लेकिन उसके
कहने का ढंग निजी होना चाहिए। अपनी निजता की पहचान के लिए उसे जनपदीय जीवन से
जुड़ना होगा। वहां के लोगों को अपनी कविता मे उपस्थापित करना होगा। वहां के लोगों
की बोली-बानी के शब्दों का समावेश अपनी भाषा में करके उनके जीवन संघर्ष का निरूपण
करना होगा। कविता में मौलिकता आसमान से नहीं टपकती है। उसका समावेश होता है लोक
जीवन के पर्येवेक्षण से। यही कारण है कि हिन्दी कविता की मुख्य धारा लोकधर्मी है।
अमीर खुसरो से आज के कवि विजेन्द्र तक।
अमीरचन्द वैश्य, द्वारा ,कम्प्यूटर क्लीनिक, चूना मण्डी, बदायूं 243601, मोबा0-09897482597
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