शनिवार, 1 नवंबर 2014

                     रवीन्द्र के. दास की तीन कवितायेँ

रवीन्द्र के. दास हमारे समय सजग कवि हैं|उनकी कवितायेँ किसी वाद का अवचेतन संवाद न होकर आम जन जीवन की वास्तविकता का मूर्त साक्षात्कार बनकर उभरी हैं ,यही उनकी मान्यता भी है |समय के साथ यदि किसी कवि की कविता का समुचित मूल्यांकन नहीं होता तो कविता तमाम असहमतियों के बीच खोकर अपना अपने को छिपा लेती है ,यही रवीन्द्र जी के साथ हुआ| उनकी कविताओं को मैं “प्रतिरोध” की प्रतिध्वनि सी जुदा नहीं मानता बल्कि प्रतिरोध पूर्व “बेचैनी” और प्रतिरोध उपरान्त स्थापित “संतुलन” की सुनियोजित खोज के कारण प्रतिरोध की सबसे इमानदार अभिव्यक्ति के रूप में देखता हूँ |रवीन्द्र की कविताओं में मनुष्यता का कहीं भी “नकार” नहीं हैं, विसंगति-जन्य टकरावों के कारण  अमूमन कवि अस्वीकृति की और कदम बढ़ा देतें है लेकिन रवीन्द्र ऐसी जल्दबाजी भूलकर भी नहीं करते वो “मनुष्य” की निर्मम समीक्षा करते हुए भी “मनुष्यता” के प्रति संवेदनशील ही रहते हैं |यही कारण है की उनकी कविताएँ जमीनी सरोकारों के  अतीत और वर्तमान का  “शाश्वत-बोध” बन गयीं हैं| उनकी कविता “किसी को पत्र लिखने की ख्वाहिश” की बेचैनी और “बन जाती हैं पगडंडियाँ” का संतुलन बयां कर देता है की उनकी कवितायेँ यथार्थ को बेहद सधी हुई नज़रों से देखती हैं| यथार्थ की यह दृष्टि भाषा को भी सुगठित एवं मौलिक बना रही है |मौलिक इस अर्थ में की भाषा का कोष वहीँ है जिस जमीन में कविता खडी है, सारे तर्क और मुहावरे उसी जमीन में खड़ें हैं जहाँ कवि खड़ा है |आइये आज “लोकविमर्श” में रवीन्द्र के. दास की तीन कवितायेँ पढ़तें हैं    

                


 किसीको पत्र लिखने की ख्वाहिश

कई लोगों का पता ठिकाना होने के बावजूद

जैसी की तैसी है
लगता है -
कहीं उसे अच्छा न लगा तो ...

अगर आप नहीं खडे हैं कैमरा के सामने
तो दुनिया कितनी सजी हुई दिखती है
यूं कि पुराना बरगद
और उसके पास के ब्रह्मस्थान पर दीप जलाती किशोरियां
एक दूसरे की क्यारी को कनखियों से देख
उससे बचाकर संवारती अपनी कतार
फिर पूछती हुई - केश के जूडे और मेंहदी के फूलों का
सर्जनात्मक इतिहास
जिसकी मां मर भी गई है वह भी खूबसूरत दिखना जानती है

उसी थान से लगे पुरनी पोखर के चार महार
कोनों पर पनछोआ करते बच्चे या बूढे
फ़र्क इतना
कि बच्चे अशौच भी बतियाते हैं
स्नानघाट पर वे ही बूढे
आचमन कर राम भजो मन कहते कहते माथ नवाते
फिर कोई जब मिल जाता तो
अपने युग की कथा सुनाते
क्या दिन थे वे ...

खडे गांव के बाहर भी तब सुन सकते
पशु स्वर कलरव
बंधकर खंटे से कहते वे -धुंआ कर दो अब मच्छर है
कितना भव्य लगता है
आंगन की देहरी पर गाय का खूंटा, मानो शुद्ध पुण्य
शाम घनी तब हो जाती है
इष्टदेव को दीप जलाकर खुश करती हैं शुभ महिलाएं
बिना शिकायत
दीप हाथ में, घिरा अंधेरा
उज्ज्वल मुख कुछ मुदित प्रफुल्लित
पर कुछ कुछ चिन्ता की रेखा
पूरा जीवन - कटु भी मधु भी
कितना जीवन पाता है जो इनकी खातिर जीता है

शिशु चोट लगाकर रोता रोता आता है
मां हसती है, बुढिया दादी तमसाती है
फिर उठकर शिशु से पूछ रही किसने मारा .. उस पत्थर ने
चल पीटूंगी
बालक प्रतिहिंसा में उठकर चल पडता है
फिर दादी उससे पूछ रही खाया तूने ?
अब इसकी मां की खैर नहीं,
क्यों इतनी लापरवाही है .. मेरा मुन्नू क्यों भूखा है
चल मैं खुद तुझे खिलाती हूं
शिशु खाता है .. खाते खाते सो जाता है
आती तब तक रचनी बुआ ..

है कहां छिपी मेरी भौजी
आओ दईया मैं बैठी हूं .. मुन्नू को अभी सुलाया है
तभी बहुरिया पिढिया लेकर आती है
बुआ के पैर दबाती है
बस बस .. तू जा अब चौके में
देबन जी कबतक आता है ..
अच्छा अच्छा आता होगा ..
ए भौजी तुम से फिर बोलूं
तू बडी नसीबों वाली है
इस कलजुग में यह बहू नहीं है, देवी है
घंटी टन टन .. साइकिल आई
देबन आए, सब मंगल है
हां हाईस्कूल में मास्टर है अंग्रेज़ी का

तब शाम हुई, अब रात हुई है गहराती
अब बात नहीं
अब राज नहीं
बस जीवन है .. ज्यों प्रेम प्रवाहित दरिया में
सुध बुध खोया आनन्दमग्न ..

किसको होगा याद
कौन करना चाहेगा याद , मैं पत्र लिखना चाहता हूं
उस जीवन को
जिसे सूंघता रहा .. फिर भी अतृप्त रहा
सूख गया गले का लार निगलते निगलते
कई लोगों का पता ठिकाना होने के बावजूद ..



बन जाती हैं पगडंडियाँ

कहीं भी वहाँ
जहाँ से निकलते लोग, जल्दी के कारण
ऐसे में कई बार
हो जाते हैं बर्बाद फ़सल के बिचडे
हाँकता रहता है गरीब किसान
नहीं कर पाते परवाह, सुविधा के अभ्यासी लोग
और बन ही जाता है रास्ता
किसान गरीब है तो क्या हुआ
दो पैरों का रास्ता
जो छोड ही दिया तो क्या फ़र्क पडता है !

नहीं सोचना चाहते पैरों वाले लोग
कि रास्ते में पडा कुछ भी
हो जाता है बेआसरा
कोई झाड-पोंछ कर, पुचकार कर बना लेता है कोई अपना
नहीं रह जाता है पद दलित

अभ्यासवश बिचडों को रौंदते लोग
बहुधा जानते हैं कानून
जब दिखने लगता है डर कानून का
चलने लगते हैं मुख्य सडक से
असुविधा महसूस किए बिना
मिट जाती हैं पगडंडियाँ
पनप उठते हैं बिचडे
सचमुच सडक सबके लिए है, जैसे कानून ।


जब भी हार कर लौटता हूँ


जी करता है -
कोई सुन्दर सी कविता लिखूँ ..
जैसे, गाभिन अलसायी हिरण या यौवन से बेखबर मुग्धा
कभी भी अच्छा नहीं लगता
हार मानना, मर जाने की बात कोई और है

सच जानने और समझने का साहस
बडी मुश्किल से बटोर पाया था
सपने बाद में बुने
वे भी बेबुनियाद नहीं
आत्म देखता है .. व्यक्ति करता है .. मैं सिर्फ़ हारता हूँ
छोटा सा टुकडा बादल का
कोई नहीं मानता सूरज को , बरसात के दिन
मौसम सुहाना हो जाता है
पुरबैया बयार .. राग मल्हार ..
जरूरी काम से जाता हुआ
चुपचाप अटक जाता हूँ छाँही देख कर ...

और शाम को बिना चबाए निगल जाता हूँ
प्रश्नाकुल रोटियाँ,
नज़र बचाके
फिर डूब जाता हूँ
'असंभव' मेँहदीले हाथ और महावरी पैरों में
गोरा, चिकना, सुडौल, कोमल ....
अच्छा लगता है जीवित , गुदगुद
सिर्फ़ एक ग्लास पानी होता है
पी जाता हूँ .. और करता हूँ लगातार कोशिश
सो जाने की
इसी उम्मीद में .. शायद कल कुछ हो !



 रवीन्द्र के. दास मोबाइल नंबर ------०८४४७५४५३२०    

1 टिप्पणी:

  1. शुक्रिया लोक विमर्श ! शुक्रिया आचार्य. कविताओं की भीतरी परत तक पहुँचकर कविता को खोलने में तुम माहिर हो. [जो शीर्षक वाली पंक्तियाँ हैं, वे उन उन कविताओं की पहली पंक्ति भी है] पुनः आभार.
    लोक को जीवंत बनाए रखने हेतु शब्द की कृत्रिम अर्थ संरचना से टकराना तो पड़ेगा.

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