संतोष चतुर्वेदी की कविताएं
सन्तोष चतुर्वेदी हमारे समय के बेहद जरूरी कवि हैं जितनी
सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति व संवेदनशीलता उनकी कविताओं में परिलक्षित होती है उतनी
ही संवेदनशीलता उनके व्यक्तित्व में हैं । घटनाओं को सभी देखते है सभी अनुभव करते
हैं पर घटनाओं को देखने की दृष्टि हर किसी के पास नही होती है
|दृष्टि कवि की निजी
वैचारिक संरचनाओं पर निर्भर करती है | सन्तोष जब परिवेश से मुठभेड करते हैं तो
आसन्न असंगतियों के विरुद्ध बडी सजगता से चरित्र गढतें हैं ये चरित्र
अनसुने व अदृष्य भी हो सकते हैं या कहा जा सकता है निहायत उपेक्षित भी हो सकते है़
अपने आस पास रखी व हर समय आंखों से देखी जाने वाली सामान्य सी वस्तु जिसे हम अक्सर
अनदेखा करते हैं सन्तोष वहीं से कविता खोज लेते है़ । यह प्रक्रिया वैचारिक
परिपक्वता की मांग करती है | जो सन्तोष में है उनके दूसरे संग्रह की
कविताएँ 'पेन ड्राईव' भभकना , उलार , इसी टाईप की कविताएं हैं । पिता को लेकर
खूब कविताएं लिखी गयीं लेकिन सन्तोष की कविता देखिए जहां पिता निहायत वर्गीय
भूमिका में दिखाई देते हैं उनकी अकेले तस्वीर न होना यह कोई संकट नहीं है बल्कि
खाशियत है जहां व्यक्ति और समाज की अद्वैतता है अज्ञेय जैसा नहीं कि 'हम नदी नहीं है केवल
द्वीप हैं' । इसी प्रकार उनकी कविता 'धरती के भरोसे के लिए' उनके प्रथम संग्रह
पहलीबार की है धरती की प्रतीकात्मकता व विभिन्न अवस्थितियों में पढी गयी कविताओं
की सार्थकता से आज की कविता के निहितार्थ तय किए जा सकते हैं | सन्तोष की कविताओं की व्यापकता परिवर्तनों
की बुनियाद में निहित है इसलिए वो तमाम सन्दर्भ खोजतें है ।सन्दर्भों की उन्हे कोई
कमी नहीं है भाषा के स्तर पर भी वो पढी लिखी सुनी सुनाई भंगिमाओं से परहेज करते
हैं क्योंकी उन्हे भंगिमा से ज्यादा व्यंजना से लगाव है आवरण से ज्यादा
अन्तर्वस्तु से लगाव है प्रतीकों में सन्दर्भपूर्ण सार्थकता देकर कविता को
विशिष्ट कलात्मकता दे देते है | पर सन्तोष की कविता का
वास्तविक सौन्दर्य 'प्रतिरोध' है और प्रतिरोध ही इनकी कविता में आनुपातिक
मन्तव्यों का सृजन करता है । जैसे सन्तोष द्वारा प्रयुक्त प्रतीक यदि आप उनके
प्रतीकों को उनके वैचारिक सरोकारों व जीवनदृष्टि से जोडकर नहीं व्याख्यायित
करेंगें तो कविता के वास्तविक सौन्दर्य तक नहीं पहुंच सकते हलांकि सन्तोष अनावश्यक
कलाकारी से बचते हैं उन्हे सीधे सीधे कहने की आदत है । यथार्थ सौन्दर्य की कीमत पर
वो कलात्मक सौन्दर्य का जोखिम नहीं उठाते यदि कहीं उठाते भी हैं तो नये अर्थों की
तमाम सम्भावनाएं पैदा कर देते हैं । कला और कविता का सामन्यजस्यपूर्ण सौन्दर्य
उनकी छोटी कविताओं में देखा जा सकता है जहां जटिल जीवन के अनुभवों को चुटीले सूत्र
वाक्यों में जड दिया गया है ये सूत्र वाक्य सडे गले बुर्जुवा मूल्यों को चुनौती
देते हुए प्रतीत होते हैं । आज लोकविमर्श में हम सन्तोष चतुर्वेदी जी की कुछ
कविताएं प्रकाशित कर रहे हैं इन कविताओं पर लगाए गए चित्र हम सब के परिचित
लोकधर्मी कवि/ चित्रकार कुंवर रवीन्द्र जी के हैं
1-आँसू
साथ रहते हैं
किसी के न पूंछने वाले दिनों में भी
हाथ मे हाथ लिए रहते हैं
ढालान चलने वाले क्षणों में भी
बेजोड दोस्त है इसलिए
ढुलक ही आतें हैं पास
पृथ्वी की नदियों
खारे समुद्रों से
निचोड कर आकाशगंगा
वक्त के किसी भी कोने
किसी भी ताखे पर
शिद्दत से
कुछ कह रहे होतें हैं
जिन्दगी के सियाह पन्ने पर
गालों से फुसफुसाकर
हो रही है कुछ
राज की बात
कहीं कोई सुन न ले
2-अकेले कहीं नहीं
पिता की
अकेली कोई तस्वीर नहीं
जिसमे सिर्फ वही हों
एक सुनसान सी जगह में रहते थे पिता
जहां जुगाडने होते थे दिन और रात
मेरे और मेरे भाई बहनों के लिए
हमने कभी नही पूंछा
कहां से आते हैं सवाल
कैसे दिए जाते हैं जवाब
पिता से लम्बे दिनों के बाद मिलने की खुशी में
भूल जाते थे हम
कहीं कुछ होता है अकेला भी
आज चुहानी में नहीं हैं तो सिर्फ पिता
पिछले दो तीन सालों से नहीं आए किसी भी दिन
जिसमे झोला खोलकर निकालें
जो कुछ खरीदा था हमारे लिए
सूरज की तरह जलते अकेले नहीं थे पिता
बहुत करीब बहुत दूर
घर पर होते थे पिता
अजीब सी उलझन है
कि इतने सालों बाद भी
अकेले कहीं नहीं
किसी में हमारे साथ खिलखिलाते
किसी में मां से बतियाते
किसी में दोस्तों से हाथ मिलाते
अकेली ऐसी कोई तस्वीर नहीं
जिस पर चढा सकें
हम फूल मालाएं
- लेखा जोखा
जब मैं अकेला होता हूं
वे कहतें हैं
किसी काम का नहीं
जब किसी काफिले के साथ होता हूं
वे देखते हैं मेरी जगह
आगे से पहला दूसरा तीसरा
या कभी पीछे अन्त में
एक मोड पर
थकान मिटानें
रूकता हूं जब
काफिला बढ जाता है
हाथ झटककर
मुझे चुपचाप छोडकर
अकेले होने पर
लगाता हूं हिसाब
काफिले से कितना आगे
या फिर कितना पीछे
खडा हूं मैं
4- धरती के भरोसे के लिए
जब सब अपने अपने चाम के भीतर
खून मांस और हड्डी हो रहे थे
कवि सुना रहे थे दूसरों को
अपनी कविताएँ
जब सब अपनी छतें बचाने के लिए
कर रहे हैं भाग दौड
कवि लिख रहे हैं
आकाश तले कविताएँ
रास्ते जब हो गए हैं असुरक्षित
किसी सफर से
वापस लौटकर आना
बीज से अंकुर फूटने जैसा है
ऐसे समय में कवि की रचनाएं
आ जा रही हैं
सही ठिकानों पर
तोडकर सीमाएँ
जब भरोसेमन्द नहीं रहे सम्बन्ध
कवि कागज के लिफाफे पर
स्याही से अपना पता लिखकर
ज्यादा विश्वास जतलाता है
एक दूसरे से जूझ रहे हैं
जब सब
प्रतियोगी संसार में
कवि लिख रहे हैं
प्रेम कविताएं
धरती के भरोसे के लिए
5- पता नहीं
रंगों के भूगोल में
डूबे थे कई रंग
कागज पर
दिख रहे थे
वे खूबसूरत
लेकिन ......
अता पता नहीं था
तो केवल
उंगलियों का
ब्रस का
पानी का
6-धरती का लिहाफ
जलकर शान्त हो रही है चिता
बियावान हो रहा है श्मशान
लौट रहें हैं परिजन
फिर
बिछी हुई न देह है
न बिस्तर
कुछ फूल मिल गए हैं गंगा से
विष को आवृत्त किए
फैला है कटोरे सा
शिव का नीला कंठ
झर रहा विलाप
धीरे धीरे
रुदन
शोक
स्मृतियों से
एकान्त पथ पर
दुम दबाए जा रहे हैं
चबाए आहट
कुछ भी नहीं अब
न चिता
न आग
न शव
न परिजन
और न विलाप
शब्दों के सुर बदलते हैं
क्या ऐसे ही
धीरे धीरे
जब हम बोलना सीख जाते हैं
या धरती का लिहाफ ही
बच जाता है
महज़
संतोष चतुर्वेदी अनहद पत्रिका के संपादक और समकालीन कविता के महत्वपूर्ण कवि हैं अब तक उनके दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं प्रथम कविता संग्रह ज्ञानपीठ प्रकाशन से “पहलीबार “ और दूसरा “दक्खिन का भी अपना पूरब होता है” साहित्य भण्डार इलाहाबाद से २०१४ में प्रकाशित हुआ है |
बहुत सुंदर और बेजोड़ कविताएं।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंsabhi kavitaien bhut shandaar...अकेले कहीं नहीं khas tour pr pasend aye...abhar
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएं हैं पर अंतिम कविता ज़्यादा पसंद आयी ।
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन कविताएँ है।
जवाब देंहटाएंअद्भुत अद्भुत। इन दिनों दक्खिन का भी अपना पूरब होता है पढ़ना शुरू ही किया की विस्तृत टीप मिल गई कुछ कविताओं पर । सरल सहज भाषा में भी अद्भुत विषयवस्तु लिख देने वाले अद्भुत लेखक । बेहतरीन प्रस्तुतिकरण के लिए आपको भी बहुत बहुत धन्यवाद
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