मंगलवार, 18 अगस्त 2015

बेटियों को मुखाग्नि का अधिकार क्यूँ नहीं

सम्पूर्ण भारत को यदि एक वाक्य में समेटा जाये तो उसे परम्पराओं का सम्राट कहना अनुचित नहीं होगा । विभिन्न धर्मों, मौसमो ,संस्कृतियों और परम्पराओं से सुसज्जित भारतीय जीवन शैली अपने आप में अनोखी और वंदनीय है । प्रातः काल से शुरू होने वाला स्नान ध्यान रात्रि तक भारत को पुष्पों की महक, दीपको  की जगमगाहट और घण्टियों की गूंज से सुशोभित करता रहता है । भारत की यही संस्कृति, ईश्वर में आस्था और प्रेम की पराकाष्ठा संसार से विभिन्न जातियों के लोगों को भारतीय संस्कृति में रम जाने को प्रेरित करती है ।
                              परन्तु क्या भारतीय परम्पराएँ उतनी ही खूबसूरत और सम्पूर्ण हैं ?, जितना की हम व्याख्यान करते हैं । यदि धर्म , जात - पात की बात छोड़ भी दें तो क्या ये परम्पराएँ स्त्री और पुरुष को समान अधिकार और सम्मान प्रदान करती हैं ? और क्या ये परम्पराएँ अपनी छाती पर रूढ़ियों और एकाधिकार के वृक्षों को हरा भरा नहीं कर रही हैं ? सदियों से नारी को भोग और मनोरंजन की सामाग्री मानने वाले पुरुष आज भी स्त्री को प्रत्येक क्षेत्र में समान अधिकार देने को तैयार नही है । हद तो इस दर्जे तक भी है की धन , जमीन , और जायदाद की बात तो छोड़िए स्त्री के पास जन्म का अधिकार भी नहीं है । भारतीय समाज में आज भी आए दिन कन्या भ्रूण हत्या या नन्ही नन्ही मासूम बच्चियों की हत्या के मामले सामने आ रहे हैं । चाँद और मंगल पर जाने वाला भारतीय समाज आज भी लिंग भेद के गुण गाता नज़र आता है । बेटियों को कच्ची उम्र से ही कमतर होने का पाठ पढ़ाया जाता है । अबोध बालिकाओं के अविकसित देह को दुपट्टे और पर्दे में जकड़ लिया जाता है । स्त्री कहाँ जाएगी , क्या पहनेगी , क्या पढ़ेगी , किसके साथ जीवन यापन करेगी इन सब प्रश्नों का उत्तर केवल पुरुष सत्ता तय करेगी । भारतीय सामज में लड़कियां प्राचीन काल से ही समाज द्वारा थोपी गयी रूढ़ियों में जल रही हैं । केवल नाम और रिश्ते बादल जाते हैं , व्यवहार वही रहता है अभद्र और अमानुष ।
                              आखिर क्यों स्त्री को इस व्यवहार और अपमान के लायक समझा गया है ? यदि आंकलन करें तो भारतीय समाज का बहुत ही वीभत्स रूप नग्न हो जाता है । प्रकृति की बनावट के नाम पर स्त्री को केवल माँस के लोथड़े में आँकने वाला भयानक और क्रूर समाज , जिसने इहलोक तो क्या परलोक तक के लिए केवल पुत्र को ही श्रेष्ठ माना है । अपने गर्भ में नौ महीने सींचने वाली स्त्री जो यदि न हो तो संसार समाप्त हो जाए , अपने ही अस्तित्व के लिए छटपटाती रहती है । आइये दृष्टिपात करते है भारतीय समाज की एक अतिमहत्वपूर्ण मान्यता बेटियों को मुखाग्नि के अधिकार से वंचित रखने पर ।
                              भारतीय समाज ने पुत्रेष्टि यज्ञ के अलावा और भी कई कर्मकांडों में पुत्र की उपस्थिति को अनिवार्य माना है । पुत्र के वर्चस्व को अनेक अनुष्ठानों और धार्मिक कर्मों द्वारा सर्वोपरि माना गया है । पुत्र नहीं होगा तो माता-पिता का जीवन अधूरा कहा जाएगा , वह परिवार का कर्ता-धर्ता और वंश पालक होगा । व्यक्तिगत सम्पत्ति का स्वामी होने से लेकर मुखाग्नि तथा पिंडदान का अधिकारी भी वही होगा अर्थात मरने के बाद माता-पिता के मोक्ष की गारंटी भी केवल पुत्र ही होगा ।
आखिर क्यों ? क्या बेटियों के मुखाग्नि देने पर मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी ? जीवन को ही सम्पूर्ण रूप से ना जान पाने वाले व्यक्ति आखिर मृत्यु के पश्चात प्राप्त होने वाले मोक्ष का परिचय किस आधार पर देते है ? यदि बड़े बड़े विद्वान पंडितों की दी हुई दलीलों पर ध्यान केन्द्रित करें तो निम्न तथ्य सामने आते है जिनके आधार पर वे बेटियों को मुखाग्नि के अधिकार के लिए अयोग्य ठहराते है
पहला कारण भारतीय संस्कृति ने बेटियों को पराया धन मानते हुए न घर का छोड़ा है न घाट का । जिस माँ की कोख से कन्या जन्म लेती है और जिस पिता की मजबूत बाहों को वह अपना सुरक्षा कवच समझती है , वही माँ पिता उसे कुछ वर्षों पश्चात पराया धन की संज्ञा देकर घर आँगन से वंचित कर देते है और सौंप देते है दूसरे परिवार को । जिस कन्या को वह परिवार का अंग ही नहीं मानते उसको मुखाग्नि का अधिकार देना तो दूर की बात है ।
दूसरा कारण जीती जागती बेटियों को भारतीय समाज ना केवल वस्तु बल्कि दान की वस्तु समझता है । बेटियों को भेड़ बकरी समझ कर विवाह अनुष्ठान करके दूसरे परिवार को दान कर दिया जाता है अर्थात स्वामी बदल जाते है परन्तु बेटी वहीं की वहीं रह जाती है "वस्तु " और जिसके पास अपने ही अस्तित्व का अधिकार नहीं वह मुखाग्नि के अधिकार के लिए कैसे योग्य समझी जाएगी ।
तीसरा कारण यदि पुत्र मुखाग्नि न दे तो माता पिता को प्रेत योनि की प्राप्ति होती है । इस बहुत ही बचकाना दलील पर यह प्रश्न उठता है की आखिर किसने देखा है पुत्र द्वारा मुखाग्नि प्राप्त करके माता पिता को देव योनि में जाते हुए । क्या पंडितों के पास स्वर्ग के अस्तित्व का कोई प्रमाण है या पुत्र द्वारा मोक्ष प्राप्त होने का कोई प्रमाण पत्र ?
चौथा कारण पुत्र वंश चलाता है , ये दलील सबसे अधिक हास्य जनक है । गर्भ सींचने वाली , आकार देने वाली , भरण पोषण करने वाली तो नारी है पर वंश चलाने वाला पुरुष । जनन प्रक्रिया द्वारा संसार को जीवन देने वाली स्त्री स्वयम प्रमाण है वंश संचालिका होने का । किस वंश की बात करता है भारतीय समाज ? जबकि विज्ञान यह साबित कर चुका है की प्रत्येक भ्रूण को जीवन देने में स्त्री पुरुष बराबर के सहभागी है , फिर कर्मकांडों में क्यों नहीं ?
पांचवा कारण मान्यता है की पुत्र माता पिता की सेवा करके अपना कर्ज उतारता है । उनके बुढ़ापे की लाठी होता है और वृद्धावस्था में उनका भरण पोषण कर अपना फर्ज निभाता है परन्तु आज तो बेटियाँ प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी है । शिक्षा हो या रोजगार , बेटियाँ अपना सम्पूर्ण दायित्व निभा रही है । जब बेटियाँ अपने माता पिता की देखरेख कर रही है तो उनको मुखाग्नि के अधिकार से क्यों वंचित रखा जाए । इसी प्रकार की कई दक़ियानूसी मान्यताएँ पुत्र एकाधिकार को सुरक्षा कवच प्रदान करती है परन्तु अब समय बदल रहा है । बेटियाँ ना केवल अपने अधिकारों के प्रति सजग हो रही है बल्कि भारतीय रूढ़ियों को धत्ता बताकर अपना स्थान व सम्मान छीन रही है । बेटियों ने सामाजिक दायरों के बाढ़े को तोड़कर स्वावलंबी बगिया में पुष्पों की भांति महकना शुरू कर दिया है । कुछ बेटियों ने समाज और हिन्दू धर्म के ठेकेदारों को अंगूठा दिखाकर अपने माता पिता को मुखाग्नि दी है । इन प्रतिकूल परिस्थितियों में मध्यप्रदेश के देवास शहर की सोनाली , मोनाली और नैनो ने परम्पराओं को चुनौती देते हुए अपने पिता का दाह संस्कार किया । उसी प्रकार देवास की ही अंकिता , ऋचा , आकांक्षा ने अपने पिता को और सुधा , शारदा ,तारा ,प्रेमकुंवर ने अपनी 97 वर्षीय माँ को मुखाग्नि दी । नागपुर की ममता ने अपनी माँ को और लखनऊ उन्नाव की रूबी ने अपने पिता के होते हुए भी अपनी माँ को मुखाग्नि दी । रूबी के पिता उसकी माँ को 18 वर्ष पहले ही छोड़ चुके थे इसलिए उनके होते हुए भी रुबी ने कठोरता से उन्हे माँ का संस्कार करने से रोक दिया और स्वयं मुखाग्नि की प्रत्येक प्रक्रिया को सम्पूर्ण किया । इसी प्रकार की और भी कई  घटनाए प्रकाश में आ रही है ,जिनमे बेटियों ने बेटो से बढ़कर माँ बाप के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाया है और उन्हे मुखाग्नि भी दी है । आज की बेटियों के संघर्ष को देखते हुए वो दिन दूर नहीं जब भारत की नई परम्पराओं और मान्यताओ का इतिहास लिखा जाएगा , जिसमे पुत्र और पुत्री को प्रत्येक क्षेत्र में समान स्थान और सम्मान दिया जाएगा ।


                                          संजना अभिषेक तिवारी
                                          आंध्र प्रदेश
                                   
                 


2 टिप्‍पणियां:

  1. संजना तिवारी का यह आलेख पहली नजर में बहुत अच्छा लगता है । उन्हें बधाई ।लेकिन इसके साथ ही यह उनकी उस सोच का परिचायक भी है जिसमे मुद्दों को समग्रता में नहीं बल्कि खंडित दृष्टि से देखा जाता है । वे शुरू में अपनी बात तो बहुत सधे हुए अंदाज़ में कहती हैं लेकिन फिर जल्दी ही धर्म और जाति को छोड़ कर केवल समाज में स्त्री के दोयम दर्जे की ही बात करने लगती हैं । उनके तर्क अपनी जगह पर सही हैं किन्तु अब देहदान का दौर प्रारम्भ हो गया है । आगे स्थिति और तेजी से बदलने वाली है । बेटियां अब मुखाग्नि भी दे सकती हैं अगर वे चाहैं तो । लेकिन सवाल बस इतना भर नहीं है ।मेरा मानना है कि हमारे समाज में धर्म और जाति की स्थिति अपरिवर्तित रहे , और सामाजिक आर्थिकपरिवर्तन की प्रक्रिया भी पूरी होजाये , यह संभव नहीं है । वर्ग -संघर्ष की प्रक्रिया को तेज कर दिया जाय तो बाकी सारे परिवर्तन भी आकार ग्रहण करने लगेंगे ।

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  2. purush maansiktaa wale log shayd is post se sahmt na ho kintu wastwikta yahi hai .janm lete hi agar ek ladki ko aarthik suraksha mil jaaye jaise ladkon ko praapt hai phir saare log ladkiyon ki mukhaagni dene se hi moksh ki prapti pa lenge .shuru se hi ladkiyon ko hastkshep ki mnaahi hai kintu samay badl raha hai teji se ,sanjnaa ne jo likhaa bahut sanjidgi se likhaa.hamaari parmpraaon ki dhajjiya udaa di .

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