ब्रिजेश नीरज की कवितायें
ब्रिजेश नीरज युवा
पीढी के बेहतरीन कवि हैं उनकी आरम्भिक कविताओं और नई कविताओं के बीच उनकी रचनात्मक
परिपक्वता का अन्तर स्पष्ट देखा जा सकता है । भूमंडलीकरण की औपनिवेशिक
परिस्थितियों से उपजे सामाजिक , राजनैतिक , सांस्कृतिक सवालों को उनकी कविता
में बडी शिद्दत से उठाया गया है। ब्रिजेश की कविताओं का विषय
मनुष्यता है । मानव जीवन की चिन्ताएं और रोजमर्रा की छोटे बडे टकराव जिनसे आदमी
त्रसित होता है उनकी कविताओं की अन्तर्वस्तु है । आदमी और आदमियत के अलगाव पर तमाम
अवस्थितियों की गहरी पडताल करते हुए उनकी कविता सामयिक बेचैनी का रूप अख्तियार कर
लेती है । यह बेचैनी पूंजीद्वारा तेजी से बदली जा रही लोकतान्त्रिक संस्थाओं और
मूल्यों के संरक्षण के प्रति है । वर्तमान विकास के आवरण मे लिपटे व्यापारवाद ,
धार्मिक कट्टरतावाद के प्रति वैचारिक आक्रोश को उनकी भाषा और
बुनावट के सन्दर्भ में भी परखा जा सकता है इस सन्दर्भ में मै यही कहूंगा कि उनकी
भाषा प्रतिरोध की भाषा है । व्यवस्था द्वारा कुचले गये आदमी की युद्धरत भाषा है ।
यहां पर ब्रिजेश नीरज अनावश्यक प्रयोगों से बचते
हुए लोकभाषा को तरजीह देते हैं उनकी गांव और घरेलू सन्दर्भ की कविताओं में इस
भाषाई विशिष्टता को देखा जा सकता है । भाषागत प्रयोगों से बचकर लोकभाषा का
आश्रय लेना यथार्थ को और अधिक पुष्ट कर देता है आज महानगरीय नवयुवा पीढी वगैर समझे
बूझे बौद्धिक समुदाय में प्रचलित कुछ शब्दावलियों के द्वारा कविता का वितान खडा कर
रहे हैं यह प्रवृत्ति घातक है ऐसे में कविता 'उबाऊ'
या 'बासी' प्रतीत
होती है । जब हमारे पास लोकभाषा का अथाह भंडार है तो उन्हे नये सन्दर्भ देकर क्यों
न प्रयोग करें ब्रिजेश नीरज यही कर रहे हैं जैसे उनकी कविता मे आया शब्द 'फदकती दाल की तरह' फदकती शब्द ठेठ देहाती है
तो उबलने या पकने के अर्थ मे प्रयुक्त होता है ब्रिजेश जी ने इसे 'जीवन' चेतना की अर्थवत्ता दी है यदि इस पंक्ति
में उबलती या पकती शब्द रख दिया जाय पूरी कविता का
सौन्दर्य भहराकर बैठ जाएगा समूचे कवितांश में फदकती शब्द की उपस्थिति ही
महत्वपूर्ण है ऐसे बहुत से प्रयोग इनकी कविताओं में हैं जो मानव जीवन की एकांगी
अर्थच्छवियों से आगे बढकर जिन्दगी झेलने की पीडा और
अस्तित्व को समझाने में कारगर हैं । ब्रिजेश नीरज जी ने मुझे पढने के लिए अपनी नयी
कविताएं भेजी थी अत: उनमे से कुछ कविताएं मैं आप सब के लिए लोकविमर्श में प्रकाशित
कर रहा हूं । कविताओं के साथ चित्र वरिष्ठ चित्रकार कुवंर रवीन्द्र जी
के हैं ।तो आईए पढते हैं ब्रिजेश नीरज की कविताएं
1-प्रेम की कुछ
बातें
क्या मित्र तुम भी कैसी बातें लेकर बैठ गए
मैं नहीं रच पाता प्रेम गीत
रूमानी बातों से बासी समोसे की बास आती है मुझे
माशूक की जुल्फों की जगह उभर आती हैं
आस-पास की बजबजाती नालियाँ
प्रेमिका के आलिंगन के एहसास की जगह
जकड़ लेती है पसीने से तर-ब-तर शरीर की गंध
तुम हँस रहे हो
नहीं, नहीं, मेरा भेजा बिलकुल दुरुस्त है
देखो मित्र,
भूखा पेट रूमानियत का बोझ नहीं उठा पाता
किसी पथरीली जमीन पर चलते
नहीं उभरती देवदार के वृक्षों की कल्पना
सूखते एहसासों पर चिनार के वृक्ष नहीं उगते
बारूद की गंध से भरे नथुने
नहीं महसूस कर पाते बेला की महक
जब प्रेम
युवती की नंगी देह में डूब जाना भर हो
तब कविता भी
पायजामे में बंधे नाड़े से अधिक तो नहीं
ऐसे समय
जब बिवाइयों से रिसते खून के कतरों से
बदल रहा है मखमली घास का रंग
लिजलिजे शब्दों का बोझ उठाए
कितनी दूर चला जा सकता है
शक्ति द्वारा कमजोर के अस्तित्व को
नकार दिए जाने के इस दौर में
जब पूँजी आदमी को निगल रही हो
मैं मौन खड़ा
बौद्धिक जुगाली करती
नपुंसक कौम का हिस्सा नहीं बनना चाहता
2-प्रतिरोध
बुझा
दिए जाने के बाद भी
बची
रह जाती है आग
कहीं
न कहीं
जुबान
काट दिए जाने
कलम
तोड़ दिए जाने
किताबें
नष्ट कर देने के बाद भी
शेष
रह जाते हैं शब्द
हवा
में तैरते
हवा
तो बहेगी ही
नहीं
रोक सकते हवा का बहना
बहेगी
हवा
दूर
तक फैलेंगी शब्दों की चिंगारियाँ
3-मरा हुआ आदमी
इस
तंत्र की सारी मक्कारियाँ
समझता
है आदमी
आदमी
देख और समझ रहा है
जिस
तरह होती है सौदेबाज़ी
भूख
और रोटी की
जैसे
रचे जाते हैं
धर्म
और जाति के प्रपंच
गढ़े
जाते हैं
शब्दों
के फरेब
लेकिन
व्यवस्था के सारे छल-प्रपंचों के बीच
रोटी
की जद्दोजहद में
आदमी
को मौका ही नहीं मिलता
कुछ
सोचने और बोलने का
और
इसी रस्साकसी में
एक
दिन मर जाता है आदमी
साहेब!
असल
में आदमी मरता नहीं है
मार
दिया जाता है
वादों
और नारों के बोझ तले
लोकतांत्रिक
शांतिकाल में
यह
एक साजिश है
तंत्र
की अपने लोक के खिलाफ
उसे
खामोश रखने के लिए
कब
कौन आदमी जिन्दा रह पाया है
किसी
युद्धग्रस्त शांत देश में
जहाँ
रोज गढ़े जाते हैं
हथियारों
की तरह नारे
आदमी
के लिए
आदमी
के विरुद्ध
लेकिन
हर मरे हुए आदमी के भीतर
सुलग
रही है एक चिता
जो
धीरे-धीरे आँच पकड़ेगी
धीरे-धीरे
हवा तेज़ हो रही है
4-सफ़दर हाशमी
(सफ़दर
हाशमी की २५वीं पुण्य तिथि पर)
तुम
समझते हो
मैं
मर गया
लेकिन
मैं जिन्दा हूँ
मैं
जिन्दा हूँ
घास
पर ओस की तरह
फूलों
में पैठी खुशबू सा
मैं
जिन्दा हूँ
रसोई
में फदकती दाल की तरह
चूल्हे
पर सिंकती रोटी की तरह
मैं
जिन्दा हूँ
बच्चे
की आँखों में तैरती भूख में
औरत
के जिस्म में पलती साँस में
मैं
जिन्दा हूँ
मंदिर
की घण्टियों में
सुबहो-शाम
की अजानों में
गिरजाघरों
की प्रार्थनाओं में
जिन्दा
हूँ
और
देख रहा हूँ
तुम्हारे
रंग बदलते तेवर
सुन
रहा हूँ तुम्हारी व्याख्याएँ
समझ
रहा हूँ तुम्हारी परिभाषाएँ
मैं
जिन्दा हूँ
सारी
संकीर्णताओं से परे
दिमाग
में उपजते नए विचारों में
जिन्दा
हूँ
संघर्ष
के नारों में
हवा
में लहराती मुठ्ठियों में
जिन्दा
हूँ
शिराओं
में बहते खून के कतरों में
मजदूर
के पसीने की बूँदों में
एक
दिन तुम्हें एहसास होगा
मेरे
जिन्दा होने का
जब
पसीना उठेगा ज्वार-भाटे सा,
इन
अट्टालिकाओं के बीच
नारे
गुजरेंगे अंधड़ से,
फट
पड़ेगी भूख बादल सी
उस
दिन तुम्हारी सारी परिभाषाएँ
ढह
जाएँगी
ताश
के पत्तों सी
और
व्याख्याएँ विलीन हो जाएँगी
समुद्र
की अतल गहराइयों में
5-अँधेरे से लड़ने के
लिए
अँधेरे
से लड़ने के लिए
धूप
जरूरी नहीं होती
जरूरी
नहीं होते चाँद और सूरज
जरूरी
नहीं दीपक
तेल
से भीगी बाती
माचिस
की तीली
जरूरी
है आग
मन
के किसी कोने में सुलगती आग
6-सोचता हूँ द्वार पर दीपक जला लूँ
अब तिमिर की शक्ति को कुछ आज़मा लूँ
सोचता हूँ द्वार पर दीपक जला लूँ
सर्द सी प्रतिकूल बहती ये हवाएँ
अक्षरों से एक चिंगारी बना लूँ
मन में अंकित चित्र धुँधले हो चले हैं
गीत यादों के ज़रा फिर गुनगुना लूँ
हो सके कम रीतने का भाव शायद
यदि कहीं से बस नयन भर स्वप्न पा लूँ
अग्नि में प्रतिरोध की समिधा बनेगी
वेदना को और थोड़ा सा जगा लूँ
ब्रिजेश नीरज युवा कवि है लखनऊ में रहतें है जनवादी लेखक
संघ के सक्रिय सदस्य हैं
इस बार आपने दो अद्भुत काज किये - पहला ... इतने अद्भुत लेखक को चुना ! दूसरा - इतनी अद्भुत कविताएँ चयनित की जो ये जताने में सफल रही कि कवि के पास विषयवस्तु और शब्दों का कितना व्यापक जखीरा है। लिजलिजी कविताओं की भीड़ में ताजे झोंके सी रचनाएँ।
जवाब देंहटाएंआभार भाई जी!
हटाएंमेरी रचनाओं को स्थान देने के लिए आपका आभार भाई जी!
जवाब देंहटाएंआभार मोहन सर ब्रिजेश जी से मुझे बहुत आशाएं हैं
जवाब देंहटाएंभाई कोशिश रहेगी कि आपके आशानुरूप कुछ कर सकूँ।
हटाएंबहुत अच्छी कवितायेँ।
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंऔर हाँ। "मंदिर की घंटियां, और सुबह की अजान"
जवाब देंहटाएंये लाइन मैं बहुत साल पहले अपनी कविता में लिख चूका हूँ। कविता प्रकाशित नहीं करवाई कभी।
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जवाब देंहटाएंअद्भुत।झकझोर ही दिया मन मस्तिष्क को।हर रचना का एक एक शब्द सुव्यवस्थित है-मैं खड़ा बौद्धिक जुगाली करता नपुंसक कौम का हिस्सा नहीं बनना चाहता.......कितना कुछ कह गए आप।बुझा दिए जाने के बाद भी बची रह जाती है आग कहीं न कहीं.....सच है अनुभूतियां मरती नहीं।धर्म और जाति के प्रपंच.......अगर आप की ये उक्ति देश और सरकार मान ले तो हम कहाँ से कहाँ पहुँच जाएँ मान ले इसलिए कहा क्योंकि जानते तो अधिकांश हैं ही।बहुत अच्छी लगीं आपकी कवितायेँ।बधाई आपको ।ये सच है मुझे नवगीत या नयी कविता की समझ कम है और कम ही मन तक पहुँच पाती हैं पर आपकी इन कविताओं ने मन मस्तिष्क को जगाया।आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार भाई जी
हटाएंहर कविता में यथार्थ को बड़े ही करीने से कहा गया है । कल्पनाओं को जोड़ कर लिखी गई कविताओं के बीच ...कठोर सत्य को मानस पटल तक पहुंचाना निश्चित तौर पर एक साहसी कवि का कार्य है । जो आदरणीय बृजेश नीरज सर ने अपनी रचना धर्मिता से साबित कर दिया है । आनेक बधाइयाँ आपको /सादर
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका
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